1857 का विद्रोह (1857 Revolt)
1857 से पूर्व सैनिक विद्रोह
- 1764-बक्सर में हेक्टर मुनरो के अधीन सैनिक दस्ते ने विद्रोह किया था। 1766-दोहरे भत्ते के नियंत्रण के मुद्दे पर क्लाइव के सैनिकों ने विद्रोह किया।
- 1806-वेल्लौर का सैनिक विद्रोह- इस विद्रोह को भड़काने का काम टीपू के पुत्र ने किया, जो उस समय वेल्लौर किले की जेल में बंद था। 1824-47वीं पैदल सैनिकों की टुकड़ी ने भत्ते के मुद्दे पर वर्मा युद्ध में जाने से इंकार कर दिया।
- 1825-असम के तोपखाने के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। 1838-शोलापुर के सैनिकों ने भत्ते के मुद्दे पर विद्रोह कर दिया।
- 1844-64 A.K रेजीमेंट ने सिध अभियान पर जाने से इन्कार कर दिया।
- 1849-50-पंजाब के विजय के पश्चात 1850 सी.ई. में गोविन्दगढ़ नामक स्थान पर सैनिकों का विद्रोह हुआ।
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विद्रोह के समय इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री | पार्मस्टन |
भारत का गवर्नर, जनरल | लार्ड कैनिग |
विद्रोह के समय कम्पनी का मुख्य सेनापति | जार्ज एनिसन |
विद्रोह के समय भारत का सम्राट् | बहादुरशाह जफर |
- 1857 का विद्रोह भारतीय इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इस संदर्भ में लेपेल ग्रिफिन ने कहा था कि 1857 के विद्रोह से अधिक भाग्यशाली घटना और कोई नहीं घटी। इसने भारतीय गगनमंडल को अनेक शँकाओं से मुक्त कर दिया। इस विद्रोह के संदर्भ में सर सैयद अहमद खाँ ने अपनी पुस्तक ‘असबाज बगावत ए हिन्द’ (भारतीय विप्लव के कारण) में पर्याप्त प्रकाश डाला है। इसे सैनिक विद्रोह के रूप में परिभाषित किया।
- ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतिम गवर्नर जनरल लार्ड कैनिग ने फरवरी, 1856 में भारत आते समय कहा था कि मै चाहता हूं कि भारत में कार्यकाल शाँतिपूर्ण हो मैं नहीं भूल सकता कि भारत के गगन में, जो अभी तक शांत है, कभी भी छोटा सा बादल, चाहे वह एक हाथ जितना ही क्यों न हो निरन्तर विस्तृत होकर फट सकता है, जो हम सबको तबाह कर सकता है।
1857 का विद्रोह तथा उसके कारण
राजनीतिक-प्रशासनिक कारण
- ब्रिटिश शासन की विदेशी प्रकृति,
- ब्रिटिश शासन में नए फौजदारी एवं दीवानी कानून,
- न्यायालय में फारसी के बदले अंग्रेजी को प्रोत्साहन,
- रैय्यतवाडी क्षेत्रें में जमींदारों एवं ताल्लुकेदार जैसे मध्यस्थों को हटाया जाना।
- 1854 में डलहौजी ने जमींदारों एवं जागीरदारों की जाँच के लिये बंबई में ईनाम कमीशन बैठाया। इस कमीशन ने 35 हजार जागीरों की जाँच की और लगभग 20 हजार जागीरें जब्त कर ली।
- डलहौजी का व्यपगत सिद्धांत, पेंशनों का अंत, अवध का विलय आदि।
आर्थिक कारण
- ब्रिटिश व्यापार नीति – 1813 के बाद ब्रिटिश ने मुक्त व्यापार की नीति अपनायी फलतः भारतीयों का शोषण बढ़ा।
- भू-राजस्व नीति और औद्योगिक नीतियों ने भारत को ब्रिटिश साम्राज्य का मात्र आर्थिक उपनिवेश बना दिया था। बेंटिक ने राजस्व मुक्त भूमि पुनः जमींदारों से छीनने की कोशिश की और आगे भी इस नीति को जारी रखा गया।
- अवध के राजस्व कमिश्नर जार्ज कावर्ली ने बहुत से तालुकेदारों के पदों को छीना। यही वजह है कि अवध का विद्रोह मात्र सिपाही विद्रोह न होकर नागरिक विद्रोह हो गया।
सामाजिक एवं धार्मिक कारण
- 1813 सी.ई. के बाद भारत में ईसाई धर्म के प्रचारार्थ विभिन्न मिशनरियों को छूट दी गई, सती प्रथा का अंत-1829, विधवा विवाह को प्रोत्साहन, 1837 के अकाल के साथ अनेक व्यक्तियों को ईसाई बनाया गया।
- रेलवे एवं टेलीग्राफ के विकास में भारतीयों को एक प्रकार का सांस्कृतिक खतरा नजर आया, 1850 सी.ई. में लेक्स लोकी कानून (धार्मिक अयोग्यता अधिनियम) पारित किया गया। इसके अनुसार अगर पुत्र अपना धर्म बदल भी लेता है फिर भी पिता की संपत्ति से उसे वंचित नहीं किया जा सकता था।
- ईस्ट इंडिया कंपनी के अध्यक्ष आर.डी. मैगल्स ने 1857 में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में कहा परमात्मा ने हिन्दुस्तान का विशाल साम्राज्य इंग्लैण्ड को इसलिए सौंपा ताकि हिन्दुस्तान में एक सिरे से दूसरे सिरे तक ईसा मसीह का विजयी झंडा फहराने लगे, हममें से हर एक को अपनी पूरी शक्ति इस कार्य में लगा देनी चाहिए ताकि सारे भारत को ईसाई बनाने को महान कार्य में देशभर के अंदर कहीं किसी कारण, जरा भी ढील ना आने पाये।
सैनिक कारण
- नस्लवाद पर आधारित सैनिक कानून-भारतीय सैनिकों को बहुत कम वेतन दिया जाता था एवं पदोन्नति में भी भेदभाव किया जाता था। केनिग ने जनरल सर्विस इनलिसटमेंट एक्ट नामक कानून बनाया। इसके अनुसार सैनिकों का समुद्र पार जाना अनिवार्य हो गया।
- सैनिक भी नागरिक जीवन का ही हिस्सा थे। अतः ब्रिटिश नीति से वे भी उतना ही क्षुब्ध थे जितना कृषक।
तत्कालिक कारणः
- 1857 का विद्रोह प्रारंभ होने का तत्कालिक कारण था चर्बी वाले कारतूस का प्रयोग प्रारंभ करना। दरअसल 1856 सी.ई. में कंपनी सरकार ने पुरानी लोहे वाली बन्दूक ब्राउन वैस के स्थान पर नई एनफिल्ड रायफल के प्रयोग करने का निश्चय किया। इसके शिक्षण का प्रबंध दमदम, अम्बाला तथा स्यालकोट में किया गया। इस नई रायफल के कारतूस में लगे कागज को मुँह से काटना पड़ता था। जनवरी, 1857 सी.ई. में बंगाल की सेना में यह अफवाह फैल गई कि इस कारतूस में गाय तथा सुअर की चर्बी मिली हुई है जो कालांतर में सही साबित हुई।
- अतः सैनिकों ने ऐसे कारतूस को चलाने से मना कर दिया। सैनिकों के इस कदम के विरुद्ध कम्पनी सरकार ने कठोर कदम उठाया। अतः सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। चर्बी वाले कारतूस के प्रयोग की जानकारी दमदम छावनी के कर्मचारी से मिली थी।
1857 का विद्रोह और उसका आरम्भ
- 1857 का विद्रोह का आरंभ चर्बी वाले कारतूस के प्रयोग के विरुद्ध सर्वप्रथम बरहामपुर की 19वीं नेटिव इंफैंट्री के सिपाहियों ने 26 फरवरी, 1857 को निर्णय लिए जाने के बाद जब सिपाहियों द्वारा अधिकारी का आदेश मानने से इन्कार करने के बाद हुआ। कैनिग द्वारा इस इंफैंट्री को बंद कर दिया गया। फिर बैरकपुर की 34वीं नेटिव इंफैंट्री के सिपाही मंगल पांडे ने 29 मार्च, 1857 का विद्रोह कर दिया।
- मंगल पाण्डे ने जनरल हियरसे एवं उसके सहयोगी, लेफ्रिटनेंट बॉग को गोली मार दी और बॉग मारा गया। बाद में मंगल पाण्डे को फाँसी पर लटका दिया गया। 24 अप्रैल 1857 को तीसरी नेटिव घुड़सवार सेना (मेरठ)- यहाँ के 90 सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूस का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। 9 मई को इनमें से 85 सैनिकों को बर्खास्त कर 10 वर्षों की सजा दी गई।
- अतः इससे 10 मई को मेरठ में तैनात भारतीय सिपाहियों में आम विद्रोह भड़क उठा जिसके बाद 1857 का विद्रोह का आरम्भ हुआ। उन्होंने कैदी सिपाहियों को छुड़ा लिया एवं अपने अधिकारियों को मार डाला। मेरठ से जो बंगाल तोपखाने का केन्द्र था, 1857 का विद्रोह का प्रारंभ हुआ था।
- दिल्ली: मेरठ के विद्रोही 11 मई को दिल्ली पहुँचे और 12 मई को दिल्ली पर अधिकार कर बहादुर शाह जफर को बादशाह घोषित किया गया। लेफ्रिटनेंट विलोग्बी ने समर्पण कर दिया। अब विद्रोह अन्य क्षेत्रें में फैल गया।
- दिल्ली में प्रतीक रूप में विद्रोह के नेता सम्राट बहादुर शाह थे परन्तु वास्तविक नियंत्रण बख्त खाँ (खान बहादुर खान) के हाथों में था। इसने दिल्ली में बरेली से सैनिकों को लाया था। बरेली में सैनिकों का नेतृत्व खान बहादुर खाँ कर रहे थे।
- लखनऊ: 4 जून 1857, वाजिद अली शाह की बेगम-हजरत महल, यहाँ इस विद्रोह नेतृत्व कर रही थी। उसने बेटे बिरजिस कादिर को नवाब घोषित किया।
- प्रमुख सहयोगी मौलवी अहमदुल्ला था। विद्रोहियों ने ब्रिटिश रेजीडेंसी पर आक्रमण किया। चीफ कमिश्नर हेनेरी लॉरेंस मारा गया परन्तु जनरल इंगलिश ने ब्रिटिश रेजीडेंसी को बचा लिया। मार्च 1858 में कैम्पबेल ने विद्रोह को समाप्त कर लखनऊ पर पुनः अधिकार किया। हजरत महल नेपाल भाग गई।
- कानपुर: 5 जून, 1857 को कानपुर में विद्रोह हुआ। इस विद्रोह की कमान नाना साहब (धोंदू पंत) ने संभाली। ह्वीलर ने यहाँ आत्मसमर्पण कर दिया।
- अजीमुल्लाह ने प्रचार कार्य स्वयं अपने हाथों में लिया। विद्रोह से पूर्व नाना साहब का पक्ष रखने अजीमुल्लाह एवं सतारा की वकालत करने रंगोबापू लंदन गए।
- सती चौराघाट की घटना: दुर्भाग्य से नाना साहब ने कानपुर में सती चौरा के पास अंग्रेजों को सुरक्षित निकाल देने का वादा करके धोखे से मार कर अपनी बहादुरी पर कलंक का टीका लगाया। नाना साहब ने अपने को मुगल बादशाह का पेशवा घोषित किया था। 16 दिसम्बर 1857 को कैम्पबेल ने कानपुर में पूर्णरूप से अधिकार कर लिया। नाना साहब नेपाल चले गये।
- झाँसी: 5 जून 1857 को झाँसी में विद्रोह प्रारम्भ हुआ। गंगाधर राव की विधवा लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को झाँसी की गद्दी न दिए जाने से नाराज थीं। कानपुर के पतन के बाद तात्या टोपे (रामचंद पांडुरंग) लक्ष्मीबाई से मिलकर अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष किया। दोनों पहले कालपी पहुँचे फिर ग्वालियर।
- ग्वालियर में जनरल ह्यूरोज ने लक्ष्मीबाई को घेर लिया और 17 जून 1858 को लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई।
- तात्याटोपे को सिधिया के सामंत मानसिह ने धोखे से अंग्रेजों से पकड़वा दिया। फलतः अभियोग चलाकर 18 अप्रैल 1859 को ग्वालियर में उन्हें फाँसी दे दी गयी।
- बिहार में जगदीशपुर के जमींदार कुँवर सिह ने आरा में विद्रोह का नेतृत्व किया। वे सैनिक युक्ति में सफलतम व्यक्तित्व थे। वे मध्य भारत में सक्रिय रहे। उनमें भाई अमर सिह ने भी इनकी मृत्यु के पश्चात विद्रोह का नेतृत्व किया। टेलर ने यहाँ के विद्रोह का दमन किया। क्षेत्रीय स्तर पर कुछ जमींदार भी सक्रिय हुए, उदाहरण के लिए मथुरा में देवी सिह तथा मेरठ में कदम सिह।
- 1857 का विद्रोह पूर्वी पंजाब में अवध, गंगा यमुना, दोआब, रोहिलखंड, बुंदेलखंड, पश्चिम बिहार आदि क्षेत्रें में फैल गया। राजस्थान में राजा वफादार बने रहे कितु उनके सैनिक और जनता विद्रोहियों के समर्थन में उठ खड़ी हुई। दक्षिण भारत में कोल्हापुर, पूना आदि क्षेत्र में विद्रोह फैल गया कितु पश्चिमी पंजाब, बम्बई, मद्रास और बंगाल का अधिकाँश हिस्सा शांत रहा।
- ब्रिटिश को कुछ योग्य अधिकारियों की सेवा प्राप्त हुई। हेवलॉक ने 1857 में इलाहाबाद एवं कानपुर को जीता। निकोलसन ने सितम्बर 1857 में दिल्ली को जीता परन्तु उसकी मृत्यु हो गई।
- लेफ्रिटेनेंट हडसन ने बहादुर शाह के दो पुत्रें मिर्जा मुगल तथा मिर्जा ख्वाजा एवं उसके एक पोते अबू बक्र को गोली मार दी। बहादुर शाह जफर को भी हुमायूँ के मकबरे से गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन्हें रंगून निर्वासित कर दिया गया जहाँ उनकी मृत्यु हो गई। कैंपबेल ने मार्च 1858 सी.ई. में लखनऊ को जीता तत्पश्चात कानपुर को दुबारा जीता।
- ह्युरोज बम्बई से मध्य भारत की ओर बढ़ा। मार्च 1858 में झाँसी में उसने लक्ष्मीबाई को परास्त किया। रानी ग्वालियर की तरफ पलायन कर गई। सिधिया की 20 हजार सेना लक्ष्मीबाई से मिल गई। कितु ह्युरोज ने यहाँ भी इसका पीछा किया।
- 17 जून 1858 को लक्ष्मीबाई युद्ध में मारी गईं। आहुआ (राजस्थान) के ठाकुर कौशल सिह ने जोधपुर के अंग्रेज समर्थक राजकीय सेना को विथोरा नामक स्थान पर पराजित किया तथा 1857 के विद्रोह में शामिल हो गया।
1857 का विद्रोह एवं उसके प्रमुख केन्द्र एवं नेतृत्वकर्ता | |
केन्द्र | नेतृत्वकर्ता |
दिल्ली | बहादुर शाह जफर |
बरेली | खान बहादुर खान (बख्त खान) |
अवध (लखनऊ) | हजरत महल |
आरा | कुँवर सिह |
कानपुर | नाना साहब |
झाँसी | रानी लक्ष्मीबाई |
हरियाणा | राव तुलाराम |
संबलपुर | सुरेंद्र साईं |
इलाहाबाद | लियाकत अली |
फैजाबाद | मौलवी अहमद उल्ला |
मंदसौर | शहजादा फिरोज शाह |
असम | मणिनाम दत्ता |
गोरखपुर | गजाधर सिह |
राजस्थान | जयदयाल एवं हरदयाल |
मथुरा | देवी सिह |
मेरठ | कदम सिह |
मेवात | सदरूद्दी |
पानीपत | बुअली कलंदर |
महाराष्ट्र | रंगा बापू जी गुप्ते |
हैदराबाद | सोनूजी पंत |
- कैपंबेल ने अवध को जीतने का प्रयास किया। और यह संघर्ष जनवरी 1859 तक चलता रहा।
- अप्रैल 1858 सी.ई. में कुँवर सिह की मृत्यु हो गई, 18 अप्रैल 1859 तात्या टोपे को ग्वालियर में फाँसी पर लटका दिया गया। 13 मई 1859 को बख्त खाँ मुठभेड़ में मारा गया। नाना साहब नेपाल भाग गए। हजरत महल भी नेपाल भाग गई और वहीं उनकी मृत्यु हो गई।
असफलता के कारण:
- सीमित विस्तार, सभी वर्गों का समर्थन नहीं, जमींदार, साहूकार, एवं बुद्धिजीवी वर्ग इससे पृथक रहे, ब्रिटिश की सैनिक श्रेष्ठता, कुछ भारतीय राज्य के राजाओं द्वारा ब्रिटिश सेना को सहायता, केंद्रीय नेतृत्व की कमी, इसके अभाव में गुटपरस्ती का बोलबाला
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विद्रोह का स्वरूप
- 1857 के विद्रोह के स्वरूप के संबंध में मतभेद रहा है। ब्रिटिश विद्वानों की दृष्टि पक्षपातपूर्ण रही। जॉन के. मैलेसन, लॉरेंस, ट्रेवेलियन आदि ने इसे सिपाही विद्रोह करार दिया। समकालीन विचारकों में एकमात्र ब्रिटिश नेता- बेंजामिन डिजराइली ने इसे स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी है।
- स्वरूप निर्धारण के संबंध में सबसे बड़ी कठिनाई यह भी थी कि विद्रोही नेता गुप्त रूप से काम करते थे। फलतः सरकारी दमन से बचने के लिये महत्त्वपूर्ण कागजात जला देते थे। घटनाक्रम पर थोड़ा सा प्रकाश मुकद्दमों के दौरान पड़ा। इस विद्रोह के स्वरूप पर विचार करने वाले प्रथम महत्त्वपूर्ण
- व्यक्ति सर सैय्यद अहमद खान थे। इन्होंने इस विद्रोह को सिपाही विद्रोह करार दिया। इसके अलावा मुँशी जीवन लाल तथा मुइनुद्दीन (दिल्ली) तथा दुर्गादास बन्दोपाध्याय (बरेली) ने भी इसे सिपाही विद्रोह करार दिया। 20वीं सदी के दूसरे इतिहासकार सावरकर ने इसे स्वतंत्रता संग्राम माना।
- अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक द ग्रेट रेबेलियन में इसे स्वतंत्रता संग्राम करार दिया। 1957 सी.ई. में जब इसकी शताब्दी मनायी गई तो कुछ पुस्तकों का विमोचन हुआ जिनसे इस विद्रोह के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है।
- मजूमदार: ये भी इसे स्वतंत्रता संग्राम नहीं मानते हैं। उनका मानना हैं कि इसकी अभिव्यक्ति विभिन्न क्षेत्रें में भिन्न-2 रूपों में हुई।
- आर. सी. मजूमदार का कहना है कि कुल मिलाकर इस निष्कर्ष से बचना कठिन है कि तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम न तो प्रथम था, न ही राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता संग्राम। किन्तु डॉ. मजूमदार इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि इसका वास्तविक स्वरूप कुछ भी क्यों न हो, शीघ्र ही भारत में यह अंग्रेजी सत्ता के लिए एक चुनौती का प्रतीक बन गया।
- सुरेन्द्र नाथ सेन: सुरेन्द्र नाथ सेन भारत सरकार के अधिकारिक इतिहासकार बनाए गए थे। पहले यह दायित्व आर. सी. मजूमदार को दिया गया था किन्तु उनकी सरकार के साथ थोड़ी अनबन हो गई अतः यह कार्य एस. एन. सेन को सुर्पुद किया गया।
- डॉ. सेन का विश्वास है कि यह स्वतंत्रता संग्राम ही था। उनका तर्क है कि क्राँतियाँ प्रायः एक छोटे से वर्ग का कार्य होती हैं, जिसमें जनता का समर्थन होता भी है और नहीं भी होता है। उनके अनुसार यदि एक विद्रोह जिसमें बहुत से लोग सम्मिलित हो जाएं तो उसका स्वरूप राष्ट्रीय हो जाता है। दुर्भाग्य से भारत में अधिकतर लोग निस्पृह और तटस्थ रहे। अतः 1857 के विद्रोह को राष्ट्रीय कहना उचित नहीं है।
- डॉ. तारा चन्द: 1857 का विद्रोह मुस्लिम नवाबों और हिन्दू राजाओं के विशिष्ट वर्ग, जमींदारों, सैनिकों, विद्वानों और धर्माचार्य का सामान्य आंदोलन था।
- पर्सीवल स्पिअर: सैनिक विद्रोह को आधुनिक स्वतंत्रता के लिए प्रथम प्रयास कहना वस्तुतः अराजकतावाद है। राजनीतिक दृष्टि से यह वस्तुतः पुराने रूढि़वादी भारत का अंतिम प्रयास था।
- मौलाना आजाद ने कहा कि 1857 का विद्रोह जातीय तथा राष्ट्रीय था परंतु धार्मिक नहीं।
- सीले एवं लॉरेंसः केवल सैनिक विद्रोह।
- एल. आर. रीज: धर्मांधों का ईसाईयों के विरूद्ध युद्ध।
- टी.आर. होम्जः बर्बरता एवं सभ्यता के बीच युद्ध।
- आउट्रम और टेलरः हिन्दू-मुस्लिम षडयंत्र का परिणाम।
परिणाम
- 1858 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा भारतीय प्रशासन का नियंत्रण कम्पनी से छीन कर ब्रिटिश क्राउन को सौंप दिया गया। इस परिवर्तन पर कनिघम ने कहा था कि यह परिवर्तन औपचारिक था वास्तविक नहीं।
- कम्पनी के एक तत्कालीन डायरेक्टर हेनरी रॉलिन्सन ने जो कि स्वयं ही कंपनी शासक की समाप्ति का पक्षधर था ने कहा कि इस परिवर्तन का एक बड़ा परिणाम नाम का परिवर्तन होगा।
- इंग्लैण्ड में इस अधिनियम के द्वारा एक भारतीय राज्य सचिव का प्रावधान किया गया और उसकी सहायता के लिये एक 15 सदस्यों की मंत्रणा परिषद बनायी गई जिनमें से 8 सरकार द्वारा मनोनीत होने थे तथा शेष 7 कोर्ट ऑफ डायरेक्टर द्वारा चुने जाने थे।
- महारानी की घोषणा के अनुसार क्षेत्रें का सीमा विस्तार तथा व्यापगत सिद्धान्त की नीति को समाप्त कर दिया गया तथा स्थानीय राजाओं के अधिकार, गौरव तथा सम्मान को संरक्षण का विश्वास दिलाया गया तथा पुराने करारों को बरकरार रखने का वचन दिया गया।
- 1858 सी.ई. की घोषणा में विश्वास दिलाया गया कि सभी भारतीयों के साथ कोई नस्लीय भेदभाव नहीं होगा तथा विद्या, योग्यता तथा ईमानदारी के लिये सरकारी सेवा के द्वार खुले रहेंगे। इस हेतु 1861 सी.ई. में भारतीय जनपद सेवा अधिनियम (ICS) बनाया गया जिसके अनुसार प्रत्येक वर्ष लंदन में एक प्रतियोगिता परीक्षा होगी।
- सेना को पुनर्गठित किया गया। यूरोपीय सेना जो अब तक मात्र 40 हजार थी उसे बढ़ाकर 65 हजार कर दिया गया तथा भारतीय सेना को 2.38 लाख से घटा कर 1.40 लाख कर दिया गया।
- प्रशासन में स्थानीय तत्वों को शामिल करने के लिये 1861 के अधिनियम को मंजूरी दी गई। गवर्नर जनरल को अब वायसराय के नाम से जाना जाने लगा। प्रथम वायसराय के रूप में लार्ड कैनिग को ही बना रहने दिया गया।
- ब्रिटेन के क्राउन द्वारा भारत की सरकार के अधिग्रहण की घोषणा कैनिग ने इलाहाबाद के दरबार में की।
- सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में अहस्तक्षेप की नीति को प्रोत्साहित किया गया। भारत की वित्तीय दशा सुधारने की कोशिश की गई एवं रैय्यतों की सुरक्षा के लिए 1859 सी.ई. का लगान कानून पारित किया गया।
- भारतीय एवं ब्रिटिश के बीच आपसी अविश्वास का माहौल तैयार हो गया। अब ब्रिटिश भावी सुरक्षा के लिए मित्रें को तलाश करने लगे। कैनिग का मानना था कि भारतीय शासक ही भावी तूफान के विरुद्ध तरंगरोध का काम कर सकते हैं।
- लार्ड कैनिग ने1857 का विद्रोह समाप्त होने बाद में स्वीकार किया मुझे संदेह है कि इस बात को लोग अच्छी तरह समझते और जानते हैं या नहीं कि भारत देश की जनता के हृदय में प्रेस ने किस खतरनाक हद तक राजद्रोह का विष फैलाया है स्पष्ट है कि इसमें देशी पत्रें का हाथ है।य् फलतः आगे 1867 के पँजीकरण अधिनियम के अन्तर्गत मेटकाफ द्वारा प्रेस संबंधी स्वतंत्रता नष्ट कर दी गई।
- 19वीं सदी में जबरदस्त बौद्धिक व सांस्कृतिक उथल पुथल भारत की एक विशेषता थी। इस काल में हुए धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन का भारत के इतिहास में विशेष स्थान है। इसके बहुमुखी स्वरूप एवं व्यापकता की दृष्टि से इसे एक महत्त्वपूर्ण घटना माना जा सकता है। इस आंदोलन ने देश के जनजीवन को झकझोर दिया। इसने जहाँ एक ओर धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों को आह्वान किया वहीं दूसरी ओर इसने भारत के अतीत को उजागर कर भारतवासियों के मन में आत्म सम्मान एवं आत्म गौरव की भावना को जगाने की कोशिश की।