आंग्ल- सिख (Anglo- Sikh)
आंग्ल- सिख (Anglo- Sikh) की पृष्ठभूमि
- गुरू गोविन्द सिंह का एक शिष्य बंदा बहादुर था। गुरू से इसकी मुलाकात आंध्र प्रदेश में नांदेड़ नामक स्थान पर हुई। गुरू से प्रभावित होकर इसने अपने आपको गुरू का बंदा कहा, तब से इसका नाम बंदा बहादुर पड़ा।
- बंदा का जन्म जम्मू में हुआ था इसके बचपन का नाम लक्ष्मणदेव था। बाद में इसका नाम माधवदास रखा गया और वैराग ग्रहण करने के कारण इसे माधव दास वैरागी कहा गया।

- बंदा ने गुरु नानक और गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के चलवाए और सिक्ख (Sikh) राज्य की मुहर बनवाई।
- मुगल बादशाह फर्रुखशियर के शासनकाल में (1716 सी.ई.) दिल्ली में बंदा बहादुर को मृत्यु दण्ड दिया गया।
- धीरे-धीरे सिक्खों ने छोटे-छोटे संगठन बना लिए। कर्पूर सिंह के नेतृत्व में 1748 सी.ई. में ये सभी दल मिलकर ‘दल खालसा’ के रूप में संगठित हुए। ‘खालसा’ एक अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ शुद्ध या खास है।
- 1753 सी.ई. में दल खालसा ने ‘राखी प्रथा’ का प्रचलन किया जिससे इनकी वित्तीय स्थिति मजबूत हुई। राखी प्रथा में प्रत्येक गांव में उपज का 1/5 भाग लिया जाता था। बदले में उस गांव की सुरक्षा की जिम्मेदारी दल खालसा की होती थी।
- कर्पूर सिंह की मृत्यु के बाद 1748 सी.ई. में दल खालसा का नेतृत्व जस्सा सिंह अहलूवालिया ने किया।
- 1764 सी.ई. में सिक्ख (Sikh) समुदाय के कुछ महत्त्वपूर्ण सरदार अमृतसर में इकट्ठा हुए और देग तेग एवं फतेल लेखयुक्त युद्ध चांदी के सिक्के चलाएं। इसी के साथ पंजाब में सिक्ख (Sikh) सम्प्रभुता की स्थापना हुई।
- सिक्ख कुल 12 मिस्लों (राज्य) में विभाजित थे। ये 12 मिस्ल निम्नलिखित हैं-
क्र. | मिसल | संस्थापक |
1 | सुकरचकिया | चढ़त सिंह |
2 | अहलूवालिया | जस्सा सिंह |
3 | भंगी | छज्जा सिंह |
4 | कन्हैया | जय सिंह |
5 | शहीद मिसल | बाबा दीप सिंह |
6 | निशलावाल | सरदार संगत सिंह |
7 | रामगढि़या | जस्सा सिंह |
8 | फुलकिया | संधू जाट चौधरी |
9 | करोड़ सिंहिया | भगेल सिंह |
10 | दलेवलिया | गुलाब सिंह |
11 | सिंहपुरिया | नवाब कपूर सिंह |
12 | नकाई | हीरा सिंह |
- इनमें मुख्यतः पांच मिसल शक्तिशाली थी- सुकरचकिया, भंगी, अहलूवालिया, कन्हैया और नकाई। इनमें भंगी मिसल सबसे शक्तिशाली थी। रावी एवं चिनाब के बीच सुकरचकिया मिसल स्थित था। रणजीत सिंह इसी मिसल से संबंधित थे।
रणजीत सिंह एवं सिक्ख राज्य
- सुकरचकिया मिसल के नेता महासिंह के यहाँ 1780 सी.ई. में रणजीत सिंह का जन्म हुआ। बचपन में ही इनका विवाह कन्हैया मिसल की कन्या से कर दिया गया।
- अतः पत्नी के मां के माध्यम से रणजीत सिंह को कन्हैया मिसल के सभी प्रदेश मिल गए। 12 वर्ष की आयु में पिता के निधन से रणजीत सिंह सुकरचकिया मिसल का प्रमुख बना।
- अफगानिस्तान के शासक जमानशाह ने 1779 सी.ई. में सिक्खों पर आक्रमण किया। रणजीत सिंह ने अफगान सेना को पीछे खदेड़ दिया। वापस जाते समय जमानशाह की 12 तोपें चेनाब नदी में गिर गई।
- रणजीत सिंह ने इन्हें निकलवाकर उसके पास वापस भेज दिया। इस सेवा के बदले जमानशाह ने उसे ‘राजा’ की उपाधि दी और लाहौर का अपना सूबेदार मान लिया।
- रणजीत सिंह ने 1799 सी.ई. में लाहौर पर कब्जा कर लिया। इसी प्रकार 1802 सी.ई. में अमृतसर को भंगी मिसल से छीन लिया। इस तरह पंजाब की राजनीतिक और धार्मिक दोनों राजधानी रणजीत सिंह के अधीन हो गई। रणजीत सिंह ने लाहौर को अपनी राजधानी बनायी।
- रणजीत सिंह ने सतलज के पूर्व में स्थित राज्यों को जीतने का प्रयास किया। 1806 सी.ई. में उन्होंने ने प्रथम बार सतलज को पार कर लुधियाना पर अधिकार कर लिया।
- अंग्रेजों को रणजीत सिंह का यह कदम पसंद नहीं आया। अंग्रेजों ने इन राज्यों के सरदारों को उनसे सहायता मांगने के लिए प्रोत्साहित किया।
- फलतः इन राज्यों निभाने जिनमें पटियाला, जीन्द शामिल हैं ने रणजीत सिंह के विरुद्ध अंग्रेजों से सहायता मांगी।
- 1809 सी.ई. में ब्रिटिश अधिकारी डेविड ऑक्टरलोनी ने स्पष्ट रूप से घोषणा की कि मिस-सतलज के राज्य हमारे संरक्षण में हैं और इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी हमारी है। परंतु इस समय अंग्रेजों को फ्रांस के आक्रमण का भय था।
- अतः रणजीत सिंह से वे युद्ध करने की स्थिति में न थे। अतः गवर्नर जनरल लॉर्ड मिण्टो ने मेटकॉफ को रणजीत सिंह से समझौता करने के लिए भेजा।
अमृतसर की संधि (25 अप्रैल 1809)
- मेटकॉफ व रणजीत सिंह ने अप्रैल 1809 को अमृतसर में संधि पर हस्ताक्षर किए। इसके अनुसार सतलज नदी के उत्तर के 45 परगनों पर अंग्रेजों ने रणजीत सिंह का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
- रणजीत सिंह ने सतलज नदी के पूर्व के राज्यों पर (मिस-सतलज) अंग्रेजों के संरक्षण को स्वीकार किया और उन पर आक्रमण न करने का वचन दिया। दोनों ने एक दूसरे के मित्र बने रहने का वायदा किया।
- रणजीत सिंह ने 1809 सी.ई. में डोगरा सरदार संसारचंद्र से कांगड़ा जीत लिया। रणजीत सिंह ने अफगान शासक शाहशुजा को कश्मीर के विरुद्ध सहायता दी और उससे कोहिनूर हीरा प्राप्त किया।
- रणजीत सिंह ने 1818 सी.ई. में मुल्तान को जीता, 1819 सी.ई. में कश्मीर को जीता, 1821 सी.ई. में डेरागाजी खां एवं डेराइस्माइल खां ने लेह को जीता।
- 1834 सी.ई. में रणजीत सिंह ने पेशावर के विरुद्ध कमांडर हरि सिंह नवला को भेजा और पेशावर पर अधिकार कर लिया।
- 1838 सी.ई. में गवर्नर जनरल ऑकलैंड, रणजीत सिंह और शाहशुजा के बीच त्रिपक्षीय संधि हुई। 1839 सी.ई. में रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई।
- फ्रांसीसी पर्यटक विक्टर जैकनॉट ने लिखा कि रणजीत सिंह एक असाधारण व्यक्ति है-‘एक छोटा बोनापार्ट अर्थात उसने रणजीत सिंह की तुलना नेपोलियन से की है।
- लेपेल ग्रिफिन ने रणजीत सिंह की जीवनी लिखी है और उसके ग्रंथ का नाम ‘रणजीत सिंह’ है।
सिक्ख (Sikh) का शासन प्रबंध
- रणजीत सिंह खालसा के नाम से प्रशासन करता था तथा उनकी सरकार खालसा सरकार कहलाती थी।
- रणजीत सिंह निरंकुश शासन में विश्वास करता था। अतः उसने सदैव गुरूमत (प्रजातांत्रिक सिख व्यवस्था) को हतोत्साहित किया।
- रणजीत सिंह ने डोगरा तथा मुसलमानों को उच्च पदों पर नियुक्त किया ताकि सिख सामंतों पर नियंत्रण लगाना जा सके। उसके प्रशासन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पद ‘मुख्यमंत्री’ का था, जिस पर ध्यान सिंह की नियुक्ति को गई थी। इसका विदेश मंत्री फकीर अजीजुद्दीन था।
- रक्षा मंत्री या सेनापति पद पर दीवान मोहकम चंद्र, दीवान चंद्र मिश्र तथा हरि सिंह नलवा ने कार्य किया था।
- दीवान दीनानाथ अर्थमंत्री का कार्य देखता था।
- सदर-ए-ड्योढ़ी जैसा पद व्यक्तिगत सचिव जैसा था जिस पर निकट सम्पर्क वाला व्यक्ति रहता था।
केन्द्र में 12 प्रशासकीय विभाग थे, जिनमें महत्त्वपूर्ण थे-
- दफ्तर-ए-आबवान-उल मालः भू-राजस्व एवं अन्य आय से संबंधित।
- दफ्तर-ए-तोजिहातः राज परिवार के व्यय
- दफ्तर-ए-मवाजाबः सैनिक-असैनिक कर्मियों के वेतन संबंधित
- दफ्तर-ए-रोजनामचा खर्चः प्रतिदिन के व्यय।
- रणजीत सिंह का राज्य चार प्रांतों में विभक्त था। लाहौर, मुल्तान (दारूल-अमन) कश्मीर (जन्नत-ए-नाजिर) एवं पेशावर।
- प्रत्येक सूबे का प्रमुख ‘नाजिम’ कहलाता था। प्रांत का विभाजन परगना में था, परगना तालुकों में और तालुका मौजों में विभक्त था।
- परगने का अधिकारी करदार कहलाता था।
सिक्ख (Sikh) का न्याय प्रशासन
- रणजीत सिंह के राज्य में कोई लिखित कानून नहीं था। राज्य में पांच प्रकार के अदालतों की जानकारी मिलती है। पंचायत-करदार, अदालत-नाजिम, अदालत-अदालत, उल आला-महाराजा की अंतिम अदालत।
- अदालत-उल-आला केन्द्रीय अदालत थी और उसका कार्यालय लाहौर में था। सूबे में उच्च न्यायालय नाजिम का होता था।
- प्रायः आर्थिक जुर्माने किए जाते थे किंतु मृत्यु दण्ड की भी प्रथा थी। जुर्माने की राशि से राज्य को आय प्राप्त होती थी।
सिक्ख (Sikh) का भू-राजस्व प्रशासन
- राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भू-राजस्व था। राज्य की वार्षिक आय 3 करोड़ रुपए थी जिसमें 2 करोड रुपए भू-राजस्व से प्राप्त होते थे।
- भू राजस्व उपज का 33-40 प्रतिशत निर्धारित किया गया था। राज्य में मुगलकालीन भू-राजस्व की बटाई प्रथा वस्तु के रूप में कर) 1823 ई. तक चलती रही।
- 1824 सी.ई. से 1834 सी.ई. तक भू-राजस्व की कनकूत व्यवस्था (कर वसूली उपज को आधार मानकर नकद ली जाती थी) प्रचलित रही।
सिक्ख (Sikh) का सैन्य प्रशासन
- रणजीत सिंह ने सर्वाधिक ध्यान सेना की ओर दिया। उसने अपनी सेना पश्चिमी पद्धति के आधार पर संगठित की।
- सेना को सामान्यतः दो भागों में बांटा गया था-
- फौज-ए-खास (फौज-ए-आइन)-नियमित सेना
- फौज-ए-बेकवायद-अनियमित सेना
फौज-ए-खास (नियमित सेना)
- इसको तीन भागों में बांटा गया था घुड़सवार, पैदल एवं तोप खाना।
- घुड़सवार सेनाः घुडसवार सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षण हेतु 1822 सी.ई. में फ्रांसीसी सेनापति आलार्ड को नियुक्त किया गया। प्रशिक्षण को रक्त-ए-लुलआ (नर्तकी की चाल) कहते थे।
- लॉर्ड ऑकलैंड ने 1838 सी.ई. में पंजाब का दौरा करते समय रणजीत सिंह के घुड़सवारों को देखकर कहा था- ‘यह संसार की सबसे सुंदर फौज है।’
- पैदल सेनाः पैदल सेना के प्रशिक्षण हेतु 1822 सी.ई. में इटालियन सेनापति ‘वेन्टूरा’ को नियुक्त किया गया।
- तोपखानाः 1810 सी.ई. में तोपखाने के समुचित विकास हेतु दारोगा-ए-तोपखाने की नियुक्ति की गई। तोपखाने के निर्माण में फ्रांसीसी जनरल कोर्ट तथा गार्डनर का सहयोग लिया गया। इलाही बख्श रणजीत सिंह के तोपखाने का प्रधान था।
- रणजीत सिंह का तोपखाना 4 भागों में विभक्त था-
- तोपखाना-ए-फीली (हाथियों का तोपखाना): मध्य एवं भारी तोपें शामिल
- तोपखाना-ए-अस्पी (घोड़े की तोपे): हल्की तोपे
- तोपखाना-सूत्री या जंबूरक (ऊंटों का तोपखाना): रेगिस्तानी इलाके
- गवी-तोपखाना (बैलों का तोपखाना): हल्की
- फौज-ए-बेकवायद (अनियमित सेना): दो भागों में थी-
- घुड़चढ़ा खासः इन्हें अपने घोड़े, अस्त्र लाने होते थे, राज्य की ओर से वेतन मिलता था।
- मिसलदारः ये वे सरदार थे जिनका राज्य क्षेत्र रणजीत सिंह ने जीत लिया था जो अपने अनुयायियों के साथ उसकी सेना में भर्ती हो गए।
- रणजीत सिंह की सेवा में भिन्न-भिन्न विदेशी जातियों के 39 अफसर कार्यरत थे। इनमें फ्रांसीसी, यूनानी, रूसी, स्पेनिश, अंग्रेजी, जर्मन आदि प्रमुख ने।
- रणजीत सिंह की सेना एशिया की दूसरी ताकतवार सेना मानी जाती थी। सैनिकों का वेतन महाना पद्धति से दिया जाता था।
- 1832 सी.ई. के बाद रणजीत सिंह ने विदेशियों की सेना में नियुक्ति बंद कर दी।
रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद
- रणजीत सिंह की मृत्यु (1839 सी.ई.) के पश्चात् सिखों में अशांति फैल गई तथा आंतरिक झगड़े होने लगे। दरबार में तीन गुट बन गए।
- पहला गुट सिंघनवालिया मिसल का था जिसमें चेत सिंह, अजीत सिंह, लहना सिंह प्रमुख थे।
- दूसरा गुट डोगरा राजपूत सरदारों का था जिसका प्रधान गुलाब सिंह बना हुआ था। इसके अन्य सरदार थे ध्यान सिंह एवं सुचेत सिंह। तीसरे गुट का नेतृत्व लाल सिंह के हाथों में था।
- रणजीत सिंह ने सिक्ख (Sikh) सरदारों पर नियंत्रण रखने के लिए डोगरा राजपूतों तथा बाहर से आए सेनापतियों के दल को प्रोत्साहन दिया था। उसकी मृत्यु के पश्चात् समन्वय के अभाव में: तीनों दलों ने स्थिति को सोचनीय बना दिया।
- रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र खड़ग सिंह गद्दी पर बैठा। उसका वजीर ध्यान सिंह था। इस तरह प्रशासन में डोगरा सरदार हावी हो गए।
- कुछ समय पश्चात् खड़ग सिंह को सिंघनवालिया गुट ने बंदी बना लिया और उसके पुत्र नौनिहाल सिंह को सिंहासन पर बैठा दिया। जेल में ही खड़ग सिंह की मृत्यु हो गई।
- नौनिहाल सिंह की भी दुर्घटना में मृत्यु हो गई। नौनिहाल सिंह का वजीर भी ध्यान सिंह था। अपने पिता खड़ग सिंह का दाह संस्कार कर लौटते हुए हजूरी बाग में नौनिहाल सिंह की दुर्घटनावश मृत्यु (1840) हो गई।
- सिंघनवालिया गुट ने नौनिहाल सिंह की माता चांदकौर का समर्थन किया और नैनिहाल सिंह के भावी पुत्र की ओर से उसे गद्दी सौंपनी चाही।
- दूसरी तरफ रणजीत सिंह के एक अन्य पुत्र ने डोगरा सरदारों के समर्थन से गद्दी पर अपना दावा किया।
- अंततः डोगरा सरदारों के समर्थन से शेर सिंह गद्दी पर बैठा। ध्यान सिंह शेर सिंह का भी वजीर बना।
- 1843 सी.ई. में सिंघनवालिया गुट के सरदार अजीत सिंह ने महाराजा शेर सिंह उसके पुत्र प्रताप सिंह और वजीर ध्यान सिंह तीनों को गोली मार दी।
- अंततः ध्यान सिंह के पुत्र हीरा सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह के अल्पवयस्क पुत्र दिलीप सिंह को राजा बनाया और उसकी माता जिंदन को उसकी संरक्षिका नियुक्त किया गया।
- हीरा सिंह डोगरा स्वयं वजीर नियुक्त हुआ। इस वजीर का भी वध कर दिया गया और आगे रानी जिंदन का प्रेमी लाल सिंह वजीर बना और तेजा सिंह सेना का नया कमांडर बनाया गया।
शासक समर्थन | गुट | वजीर |
खड़ग सिंह | डोगरा | ध्यान सिंह |
नौनिहाल सिंह | सिंघनवालिया | ध्यान सिंह |
शेर सिंह | डोगरा | ध्यान सिंह |
दिलीप सिंह | डोगरा | हीरा सिंह, जवाहर सिंह, लाल सिंह |
- सिंघनवालिया गुटः चेतसिंह, अजीत सिंह, लहना सिंह
- डोगरा गुटः गुलाब सिंह, ध्यान सिंह, सुचेत सिंह
प्रथम आंग्ल- सिख (Anglo- Sikh) युद्ध (1845-46)
- प्रथम आंग्ल- सिख (Anglo- Sikh) युद्ध के समय ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड हॉडिंग था। इसके दूत मेज ब्रॉडफूट ने सिखों के विरुद्ध उत्तेजक बयान दिए। फलतः सिक्ख (Sikh) सेना क्रुद्ध हो गई। ब्रॉडफुट ने सिखों में फूट डलवा दी।
- तेजसिंह और गुलाब सिंह उसके मित्र थे। सिक्ख (Sikh) सेना अंग्रेजों से युद्ध को तैयार हो गई इस तरह 1845 सी.ई. में प्रथम आंग्ल-सिक्ख (Sikh) युद्ध शुरु हुआ।
- प्रथम आंग्ल- सिख (Anglo- Sikh) युद्ध के दौरान 4 स्थानों पर लड़ाईयाँ हुई-मृदुकी, फिरोजशाह, बुद्धोवाल, अलीवाल, जो अनिर्णायक रही। पांचवी लड़ाई सबराओं (1846) में हुई जो निर्णायक सिद्ध हुई और इसमें सिखों की पूर्णतया हार हुई।
- इन युद्धों में सिखों की पराजय का प्रमुख कारण लाल सिंह एवं तेजा सिंह का विश्वासघात था। वैसे वृद्धोवाल के युद्ध में रंनजोर सिंह मजीठिया के नेतृत्व में सिखों ने अंग्रेजों को परास्त किया था। किन्तु सबराओं के युद्ध में अंग्रेजों ने अपने सम्मान की रक्षा कर ली और अंग्रेजी सेना ने लाहौर पर अधिकार कर लिया।
- 9 मार्च 1846 सी.ई. को अंग्रेज और सिखों के बीच लाहौर को संधि हुई।
लाहौर की संधि (9 मार्च, 1846)
- प्रथम आंग्ल- सिख (Anglo- Sikh) युद्ध के बाद महाराजा दिलीप सिंह ने सतलज नदी के दक्षिण के क्षेत्र से अपना अधिकार हटा लिया।
- महाराजा ने व्यास और सतलज नदी के बीच की भूमि के सभी किलों, पहाड़ों और भू-भाग से अपना अधिकार हटा लिया।
- युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में अंग्रेजों ने 1.5 करोड़ रुपए की मांग की। जिसमें से 50 लाख रुपया दिया गया और शेष के बदले काश्मीर और हजारा के सूबे महाराजा से छीन लिए गए। 1.5 करोड़ रुपए में अंग्रेजों ने काश्मीर गुलाब सिंह को बेच दिया।
- सिक्ख (Sikh) सैनिकों की संख्या सीमित कर दी गई। दिलीप सिंह को सिक्खों का राजा, रानी जिंदन को उसका संरक्षक और लाल सिंह को उसका वजीर स्वीकार किया गया।
- लाहौर में हेनरी लारेंस को रेजिडेंट नियुक्त किया गया जिसने पंजाब के आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया।
- दो दिन पश्चात् 11 मार्च, 1846 को एक पूरक संधि की गई जिसके अनुसार वजीर लाल सिंह के अनुरोध पर अंग्रेजी सेना को 1846 सी.ई. के अंत तक लाहौर में रखना स्वीकार किया गया।
- लाल सिंह ने गुलाब सिंह के विरुद्ध कश्मीर में विद्रोह कर दिया। विद्रोह का दमन कर लाल सिंह को मंत्री पद से हटा दिया गया।
- उसी अवसर पर 16 दिसम्बर, 1846 सी.ई. को अंग्रेजों ने दिलीप सिंह से पुनः भैरोवाल की संधि की।
भैरोवाल की संधि (16 दिसम्बर, 1846)
- महाराजा की संरक्षिका रानी जिंदन को पदच्युत कर उसे 1-5 लाख रुपए वार्षिक पेंशन दे दी गई।
- अंग्रेज रेजीडेंट की अध्यक्षता में 8 सरदारों की एक संरक्षक परिषद स्थापित कर दी गई।
- लाहौर दरबार में एक स्थायी अंग्रेजी सेना रखना स्वीकृत हुआ जिसका खर्च 22 लाख रुपए प्रतिवर्ष दिलीप सिंह द्वारा दिया जाना था।
द्वितीय आंग्ल- सिख (Anglo- Sikh) युद्ध (1848-49)
- द्वितीय आंग्ल- सिख (Anglo- Sikh) युद्ध के समय ब्रिटिश गवर्नर जनरल डलहौजी भारत आया और लॉरेंस की जगह फ्रेडरिक क्यूरी की नियुक्ति हुई।
- रानी जिंदन के साथ अंग्रेजों ने बुरा व्यवहार किया। उसकी पेंशन घटा दी गई और शेखपुरा महल में नजरबन्द करवा दिया गया।
- द्वितीय आंग्ल सिख (Anglo Sikh) युद्ध के समय मुल्तान में विद्रोह हुआ। वस्तुतः मुल्तान का गवर्नर मूलराज था। उससे उत्तराधिकार के रूप में 30 लाख रुपए मांगे गए जिसे चुकाने के लिए वह तैयार न था।
- फलतः उसे अपदस्थ कर फ्रेडरिक क्यूरी ने कहान सिंह मान को मुल्तान का नया गवर्नर नियुक्त किया और उसके साथ दो अंग्रेज अक्सर वांस एग्नू तथा एंडरसन को भी भेजा गया।
- मुल्तान की जनता ने इस व्यवस्था को मंजूर नहीं किया और उसी दिन अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी गई और विद्रोह हुआ।
- मुल्तान के विद्रोह का दमन करने के लिए सैन्य कमांडर शेर सिंह को भेजा गया। उसी समय हजारा के गवर्नर और शेर सिंह के पिता छत्र सिंह ने भी विद्रोह कर दिया।
- शेर सिंह मुल्तान जाने के बजाय अपने पिता छत्र सिंह से मिल गया और चारों तरफ विद्रोह होने लगे।
- द्वितीय आंग्ल- सिख (Anglo- Sikh) युद्ध के समय डलहौजी ने कहा कि ‘‘बिना किसी पूर्व सूचना के और कारण के सिक्ख (Sikh) राज्य ने युद्ध को आमंत्रित किया है और मैं विश्वास दिलाता हूं कि उसने यह युद्ध प्रतिशोध सहित ही किया है।
सिंध (Sindh)
- 18वीं सदी के अंत में सिंध (Sindh) जो नाम के लिए अफगानिस्तान राज्य का भाग था। बलूच जाति के तालपूरी अमीरों के हाथों में था।
- ये अमीर तीन थे- एक सिंध (Sindh) के ऊपरी भाग में जिसकी राजधानी हैदराबाद थी और तीसरा जिसका राज्य उपर्युक्त दोनों अमीरों के राज्यों के मध्य में था जिसकी राजधानी मीरपुर थी।
- इन अमीरों के राज्य की सीमाएं कच्छ तक फैली हुई थी और अंग्रेजी राज्य की सीमाओं से मिली हुई थी।
- व्यापारिक दृष्टि से सिंध (Sindh) का महत्व अंग्रेज बहुत पहले से जानते थे। 1758 सी.ई. में अमीर गुलाम शाह कल्होर ने कंपनी को थट्टा, औरंगाबाद में कोठियां स्थापित करने की अनुमति प्रदान की थी।
- नेपोलियन द्वारा रूस के साथ टिलसित की संधि कर लेने से अंग्रेजों को उनके पूर्वी साम्राज्य पर फ्रांसीसी आक्रमण की आशंका होने लगी।
- अतः ब्रिटिश व सिंध (Sindh) के अमीरों के बीच 1809 सी.ई. में एक सद्भावना संधि हुई, जिसके अनुसार फ्रांसीसियों को सिंध में न बसने देने की बात कही गई।
- सिंध (Sindh) से राजनैतिक सम्पर्क बढ़ाने का कार्य सर्वप्रथम 1831 सी.ई. में सिंधु नदी में जलयात्रा की सुविधाओं की खोज करने के अभिप्राय से सर अलेक्जेंडर बर्न्स को भेजने से आरंभ हुआ।
- राजा विलियम चतुर्थ ने कुछ घोड़े उपहार स्वरूप रणजीत सिंह को भेजे।
- अंग्रेजों ने इन्हें जलमार्ग से भेजना चाहा। अमीरों को यह पसंद न था। जब रणजीत सिंह ने अपना आक्रोश व्यक्त किया तो अमीरों को आज्ञा देनी पड़ी।
- 1832 सी.ई. में गवर्नर जनरल बेंटिक ने कर्नल पोंटिगर को सिंध (Sindh) के साथ संधि करने भेजा। इस संधि के अनुसार भविष्य में सिक्खों एवं सिंध के अमीरों के बीच अगर कोई विवाद होता है तो उसका निराकरण ब्रिटिश मध्यस्थता में होगा।
- साथ ही अंग्रेजों को व्यापारिक माल के लिए जल एवं थल मार्ग के प्रयोग की अनुमति प्रदान की गई परन्तु सैनिक सामग्री लाने की अनुमति नहीं दी गई। 1838 सी.ई. में गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड था। उसने सिंध के प्रति आक्रामक नीति अपनाई।
- रणजीत सिंह के आक्रमण का भय दिलाकर अंग्रेजों ने अप्रैल 1838 में अमीरों को एक संधि करने के लिए बाध्य किया। जिसके अनुसार एक अंग्रेज प्रतिनिधि हैदराबाद में रखा गया।
- जून 1838 सी.ई. में अंग्रेज, महाराजा रणजीत सिंह तथा अफगानिस्तान के निर्वासित शाहशुजा के मध्य एक त्रिदलीय संधि हुई। इसके अनुसार अंग्रेजों ने शाहशुजा को काबुल के तख्त पर आसीन करने का वादा किया।
- शाहशुजा ने सिंध (Sindh) पर अपने अधिकार छोड़ने की हामी भर दी बशर्ते उसे मुआवजा दिया जाये।
- 1839 सी.ई. में ब्रिटिश ने सिंध में एक सहायक संधि थोप दी। जिसके अनुसार सिंध (Sindh) एक प्रकार से अंग्रेजों के अधीनता में चला गया।
- 1842 सी.ई. में लॉर्ड एलेनबरो भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त हुआ। इसी वर्ष सिंध (Sindh) के दरबार में आउट्स की जगह नेपियर ब्रिटिश रेजिडेंट बना।
- नेपियर का कहना था कि ‘‘अगर मुझे भारत का शासक बना दिया गया तो 12 वर्षों में किसी भी राज्य का नाम नहीं रहेगा।’’
- सिंध (Sindh) में 1843 सी.ई. में शिकारपुर के अमीर रूस्तम खां एवं हैदराबाद के अमीर नासिर खां के बीच विवाद शुरू हुआ।
- नेपियर ने खैरपुर पर आक्रमण कर दिया। इससे बलूचियों ने विद्रोह किया और ब्रिटिश रेजिडेंसी पर आक्रमण कर दिया।
- फरवरी 1843 सी.ई. में नेपियर ने सर्वप्रथम मियानी के युद्ध में बलूचियों को परास्त किया। हैदराबाद पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। मार्च 1843 सी.ई. में नेपियर ने दाबो के युद्ध में अमीरों को पराजित किया। इस तरह अगस्त 1843 सी.ई. में सिंध (Sindh) को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया।
- नेपियर ने लिखा कि ‘‘हमें सिंध को जीतने का कोई अधिकार नहीं है फिर भी हम ऐसा करेंगे और ऐसा करना लाभप्रद, उपयोगी तथा मानवोचित कर्म होगा।’’
- इन्स ने लिखा है कि अगर हमारे भारतीय इतिहास की घटनाओं में अफगान दुर्घटना सबसे हानिकारक है तो सिंध की विजय सबसे अनैतिक।
- चार्ल्स नेपियर के अनुसार ‘सिंध की विजय एक एकाकी घटना नहीं थी यह तो अफगान तूफान की पूंछ थी।’
- एलफिंस्टन के अनुसार ‘‘अफगानिस्तान से वापस आकर ये लोग (अंग्रेज)’’ एक निर्दयी पुरुष की भांति बन गए हैं जिसको गली में मार पड़ी हो और बदले में घर आकर वह अपनी पत्नी को पीटता है।