भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति (British Ruler’s Economic Policy)
- एक कमजोर या असशक्त राष्ट्र को शक्तिशाली देश द्वारा अपना उपनिवेश बनाए जाने के सिद्धांत का प्रतिपादन इंग्लैण्ड के विद्वान हॉब्सन ने अपनी पुस्तक Imperialism A study’ (साम्राज्यवाद का अध्ययन), 1902 में किया।

वाणिज्यिक पूँजीवाद (1757-1813 सी.ई.)
- भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की शुरूआत प्लासी के युद्ध में 1757 में विजय के पश्चात् हुई। इस चरण में कम्पनी का मुख्य उद्देश्य था- भारत के साथ व्यापार पर एकाधिकार कायम करना और भारत की सत्ता पर नियंत्रण स्थापित कर राजस्व पर एकाधिकार करना।
- भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति (British Ruler’s Economic Policy) के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु तीन तरीके अपनाए गए- सभी संभव प्रतिद्वंद्वियों को बाहर किया जाये, वस्तुएँ कम से कम मूल्य पर खरीदी जाये और अधिकाधिक मूल्य पर बेची जाये तथा इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संबंधित क्षेत्रें पर राजनीतिक नियंत्रण स्थापित किया जाये।
- भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति (British Ruler’s Economic Policy) के तहत कंपनी बंगाल से प्राप्त भू-राजस्व से वस्तुओं की खरीद करती थी और उसका निर्यात इंग्लैण्ड को कर दिया जाता था। यह प्रक्रिया निवेश कहलायी।
औद्योगिक पूँजीवाद (1813-60 सी.ई.)
- भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति (British Ruler’s Economic Policy) को लागू करने के लिए 1813 के चार्टर एक्ट से भारत में कम्पनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया और भारतीय बाजार को ब्रिटिश वस्तुओं के लिए खोल दिया गया। इस तरह मुक्त व्यापार नीति की शुरूआत हुई।
- 19वीं सदी में ब्रिटिश व्यापार नीति मुक्त व्यापार नीति पर आधारित थी। एडम स्मिथ ने 1776 में अपनी पुस्तक ‘Wealth of Nations’ में वाणिज्यवादी विचारधारा पर करारी चोट की और मुक्त व्यापार की नीति पर बल दिया।
- वस्तुतः इस काल में ब्रिटेन में औद्योगिक क्राँति हो रही थी। बड़े पैमाने पर उत्पादन हो रहा था। इन उत्पादों के लिए एक विशाल बाजार की आवश्यकता थी इसलिए ब्रिटेन के पूँजीपतियों ने दबाव डालकर भारत से EIC के एकाधिकार को समाप्त करवा दिया।
- इस चरण में भारत को कच्चे माल का निर्यातक तथा तैयार माल का आयातक देश बना दिया गया। इस चरण में भारत को उपनिवेश बनाने के लिए उसके सामाजिक-आर्थिक और प्रशासनिक ढाँचे में परिवर्तन किया गया।
वित्तीय पूँजीवाद (1860 के बाद)
- ब्रिटेन में औद्योगिक विकास एवं औपनिवेशिक बाजारों के शोषण के फलस्वरूप विशाल पूँजी जमा हो गई थी। अतः इस पूँजी के निवेश हेतु उपनिवेशों की ओर रूख किया गया क्योंकि वहाँ श्रम और कच्चे माल सस्ते होने से मुनाफा ज्यादा होता। इन चरण में विदेशी पूँजीनिवेश अत्यधिक मात्र में हुआ।
- रेलवे बागान, जूट, जहाजरानी, बैंकिग में अंग्रेजों ने निवेश किया। अंग्रेजों ने सर्वाधिक पूँजी रेल निर्माण में लगाई।
- 1875 सी.ई. से पूर्व ब्रिटिश पूँजी का निवेश सर्वाधिक वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में, बागवानी कृषि के अंतर्गत नील, चाय, कॉफी, पटसन फिर जहाजरानी उद्योग में और तब सरकार को दिए जाने वाले कर्ज में हुआ था। इस तरह 1857 तक ब्रिटिश पूँजी भारत में कम आई।
- 1857 के बाद ब्रिटिश की सर्वाधिक पूँजी रेलवे में, फिर सरकार को दिए जाने वाले कर्ज में फिर बागवानी, कृषि जूट मिल, तथा जहाजरानी उद्योग में लगी हुई थी।
- 1857 से 65 के बीच लगभग 150 पाउण्ड स्टर्लिंग पूँजी भारत में आई। इसका विभाजन इस प्रकार था- 75 मिलियन पाउण्ड रेलवे में, 55 मिलियन सरकारी कर्ज में और 20 मिलियन बागवानी कृषि, जूट मिल और जहाजरानी उद्योग में लगी हुई थी।
ब्रिटिश भू–राजस्व नीति
- भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति (British Ruler’s Economic Policy) के अंतर्गत 1765 सी.ई. में ब्रिटिश को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त हो गई। उस समय भू-राजस्व में नमक कर भी शामिल था।
- 1771 सी.ई. में वारेन हेस्टिग्स ने द्वैध शासन समाप्त की। दीवानी का कार्य अपने हाथ में ले लिया। 1772 सी.ई. से भू-राजस्व की पाँचसाला व्यवस्था शुरू हुई।
- इसमें उच्चतम बोली लगाने वाले को लगान वसूली का अधिकार दिया गया। किन्तु यह इजारेदारी पद्धति संतोषजनक नहीं थी अतः पाँच साल के लिए ठेके पर दिए जाने की प्रथा 1777 में समाप्त कर दी गई और भू-राजस्व वसूली का कार्य वार्षिक कर दिया गया।
- गवर्नर जनरल कार्नवालिस के समय भू-राजस्व में सुधार लाया गया और उसने भू-राजस्व की स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था लागू की।
स्थायी बन्दोबस्त (1793)
- स्थायी बन्दोबस्त को जमींदारी व्यवस्था तथा इस्तमरारी बन्दोबस्त के नाम से भी जाना जाता है। स्थायी बन्दोबस्त के संदर्भ में वारेन हेस्टिंग्स की काउंसिल के सदस्य फ्रांसिस ने सर्वप्रथम सुझाव दिया था कि जमींदारों के साथ स्थायी समझौता किया जाए। आगे हेनरी पैटलू जैसे विचारक यह मानने लगे कि स्थायी बन्दोबस्त से भू-राजस्व निश्चित होगा और ब्रिटिश को लाभ होगा।
- 1784 सी.ई. के Pitts India Acts में कम्पनी को बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त करने के लिए निर्देशित किया गया। स्थायी बन्दोबस्त लागू करने के पहले बहुत वाद-विवाद हुआ जिसमें राजस्व बोर्ड के प्रधान जॉन शोर, रिकॉर्ड कीपर, जेम्स ग्राँट तथा कार्नवालिस ने भाग लिया।
- विवाद का मुद्दा यह था कि जमींदारों को कर संग्रहकर्ता माना जाय या भूमि का स्वामी, राज्य को पैदावार का कितना हिस्सा मिलाना चाहिए और यह व्यवस्था कुछ वर्षों के लिए हो या स्थायी हो।
- जमींदारों को कर संग्रहकर्त्ता तथा भूमि का स्वामी मानने के संदर्भ में जॉन शोर तथा जेम्स ग्राँट के विचार एक दूसरे के विरोधी थे।
- जॉन शोर जमींदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार करता था जबकि जेम्स ग्राँट भूमि का स्वामी सरकार को मानता था तथा जमींदार उसके कर संग्रहकर्ता से अधिक नहीं हैं।
- अतः 1790-91 सी.ई. में जो कर वसूला गया था अर्थात् 2 करोड़ 68 लाख रुपये उसे आधार स्वीकारा जाये। इस संदर्भ में कार्नवालिस जॉन शोर के विचार से सहमत हुआ और स्थायी बन्दोबस्त 1790-91 सी.ई. में वसूल किए गए लगान के आधार पर किया गया।
- बन्दोबस्त की अवधि के संदर्भ में शोर तथा कार्नवालिस के विचार भिन्न थे। शोर के अनुसार यह व्यवस्था 10 वर्षों के लिए होनी चाहिए जबकि कार्नवालिस इसे स्थायी रूप से लागू करना चाहता था।
- अतः कार्नवालिस ने 1790 सी.ई. में दसवर्षीय लगान व्यवस्था लागू की और घोषणा भी की कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स से स्वीकृति प्राप्त होने पर इसे स्थायी कर दिया जायेगा।
- स्वीकृति मिलने पर 22 मार्च, 1793 सी.ई. को यह व्यवस्था स्थायी कर दी गई। भू-राजस्व की इसी व्यवस्था को स्थायी बन्दोबस्त कहा गया। जमींदारों एवं मध्यस्थों को भूमि का स्वामी बना दिया गया। भू-राजस्व का 10/11 भाग सरकार को तथा 1/11 भाग जमींदारों को निश्चित किया गया।
- जमींदार भूमि के मालिक होने के कारण भूमि को खरीद या बेच सकते थे। भूमि पर रैय्यतों के परम्परागत अधिकार खत्म हो गए। अब चारागाह, नदी, जंगल आदि सार्वजनिक भूमि भी जमींदारों के अधिकार में चली गई।
- 1793 सी.ई. के Regulation XIV के द्वारा लगान वसूल करने के लिए सरकार को जमींदारों की संपत्ति जब्त करने का अधिकार था। इस संशोधित कर 1794 सी.ई. में एक नया कानून बना जिसे सूर्यास्त कानून (Sunset lwa) कहा गया।
- इस कानून के अनुसार यदि निश्चित तिथि को शाम तक सरकार को कुल लगान या उसका कुछ भी भाग नहीं दिया गया तो जमींदारों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही कर उनकी जमींदारी नीलाम कर दी जाएगी।
- यह व्यवस्था कुल ब्रिटिश भारत के 19 भाग में लागू थी और इसे बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश का बनारस डिवीजन, गाजीपुर क्षेत्र एवं उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्रें में लागू किया गया। स्थायी बन्दोबस्त से किसानों को शोषण हुआ और अनुपस्थित जमींदारी प्रथा (absentee landlordism) का जन्म हुआ।
रैय्यतवाडी बन्दोबस्त व्यवस्था (1792)
- उद्देश्यः स्थायी बन्दोबस्त से सरकार को हानि हो रही थी। सरकार समय-समय पर लगान का पुनर्निधारण करने वाली व्यवस्था लागू करना चाह रही थी।
- सरकार कृषि विस्तार और बाजार वृद्धि के साथ-साथ बढ़ी हुई राशि का हिस्सा पा सके। इंग्लैण्ड में प्रचलित विचारधाराओं जैसे- बेंथम, मिल, रिकार्डो, को अमल में लाना। दक्षिण एवं पश्चिम भारत में बंगाल के समान कोई स्पष्ट जमींदारी वर्ग नहीं था।
- 1792 सी.ई. में मद्रास प्राँत के बारामहल जिले में सर्वप्रथम कर्नल रीड ने रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया। 1810 सी.ई. में थॉमसमुनरो ने मालाबार, कनारा, कोयम्बटूर, डिडिगुल आदि महत्त्वपूर्ण क्षेत्रें में लागू किया। दूसरी तरफ एलिफिंस्टन ने बम्बई में इसे लागू किया। बम्बई के गवर्नर प्रिगल ने 1821 सी.ई. में भूमि का भली भाँति सर्वेक्षण किया और राज्य के लिए उपज का शुद्ध भाग 55% तय किया।
- 1835 के बाद H.E. Goldsmith तथा जार्ज विन्गेट द्वारा नए सिरे से पर्यवेक्षण आरंभ गिए गए जो मार्टिन बर्ड की सांख्यिकी पद्धति पर आधारित थे। जॉर्ज विन्गेट को भूमि सर्वेक्षण का अधीक्षक नियुक्त किया गया था। रैय्यतवाडी व्यवस्था भारत के सबसे बड़े भाग में लागू की गई। इसमें सम्पूर्ण ब्रिटिश क्षेत्र का 51% भाग शामिल था।
प्रमुख अभिलक्षण
- इसके अंतर्गत प्रत्येक पँजीकृत रैय्यत को भू-स्वामी मान लिया गया। रैय्यत प्रत्यक्ष रूप से सरकार को भू-राजस्व भुगतान करने के लिए उत्तरदायी थे। किसानों (रैय्यत) को जमीन की खरीद बिक्री का अधिकार दिया गया।
- लगान अदायगी की प्रत्येक 30 वर्ष बाद पुर्नसमीक्षा की जायेगी। लगान की राशि उत्पाद का 55% से 60% रैय्यतो को चुकाना था।
- रैय्यतवाड़ी पद्धति में बंजर भूमि के पास नहीं छोड़ी गई। इस पर सरकार का नियंत्रण था। इस व्यवस्था में भी किसानों का शोषण जारी रहा।
- अत्यधिक भू-राजस्व के कारण किसान महाजनों के चंगुल में फँसे। इस तरह महाजनी प्रथा का अत्यधिक विकास इस व्यवस्था में हुआ।
महालवाड़ी बन्दोबस्त व्यवस्था
- भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति (British Ruler’s Economic Policy) के अंतर्गत लॉर्ड हेस्टिंग्स के काल में ब्रिटिश सरकार ने भू-राजस्व की वसूली के लिए एक नई व्यवस्था को लागू किया जिसे महालवाड़ी बन्दोबस्त व्यवस्था के नाम से जाना जाता है।
- वस्तुतः 19वीं शताब्दी के पहले दशक में कम्पनी को उत्तर-पश्चिमी भारतीय क्षेत्रों की प्राप्ति हुई जिसमें लगान बन्दोबस्त का मुद्दा पुनः उठ गया था।
- इस महालवाड़ी पद्धति के जन्मदाता हॉल्ट मैकेंजी को माना जाता है। उन्होंने 1819 सी.ई. के अपने प्रतिवेदन में इस भूमि व्यवस्था का सूत्रपात किया और 1822 के Regulation के तहत महालवाड़ी व्यवस्था को कानूनी रूप देकर लागू किया गया। इस व्यवस्था में भू-राजस्व का निर्धारण महाल या सम्पूर्ण ग्राम के उत्पादन के आधार पर किया जाता था।
- महाल के समस्त कृषक भू-स्वामियों के भू-राजस्व का निर्धारिण संयुक्त रूप से किया जाता था, परंतु भू-राजस्व की अदायगी कृषक भू-स्वामियों द्वारा व्यक्तिगत रूप से की जाती थी। इस व्यवस्था में लगान की राशि अत्यधिक रखी गई थी।
- यह व्यवस्था मुख्यतः उत्तर प्रदेश, मध्य प्राँत और उत्तर-पश्चिम प्राँत तथा पंजाब में लागू की गई। यह कुल ब्रिटिश भू-भाग में 30% भाग पर लागू की गई थी।
- यह व्यवस्था उत्तर प्रदेश के इटावा, मुरादाबाद, फर्रूखाबाद, इलाहाबाद, कानपुर, गोरखपुर, बरेली, आगरा, अलीगढ़, सहारनपुर, हरियाणा के पानीपत आदि क्षेत्रों में लागू की गई।
- 1833 सी.ई. के Regulation IX द्वारा इस व्यवस्था में कुछ संशोधन किया गया (विलियम बेटिग के काल में)। इस व्यवस्था में पहली बार लगान तय करने के लिए मानचित्रों तथा पंजियों (Registers) का प्रयोग किया गया। यह नई भूमि योजना मार्टिन बर्ड के निर्देशन में तैयार की गई थी।
- इसे उत्तर भारत की भूमि कर व्यवस्था का प्रवर्तक माना जाता है। इस प्रकार रौबर्ट बर्डं एवं जेम्स टॉमसन के प्रयासों से (1833-43) के बीच जो बन्दोबस्त किए गए वे महालवाड़ी व्यवस्था के सबसे उन्नत रूप थे।
प्रभाव
- ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था के तहत् किसानों का शोषण बढ़ा, समाज का आर्थिक विभाजन और गहरा हो गया, किसानों की दशा बिगड़ गई और वे ऋण के जाल में फँस गए। ऋणग्रस्तता बंदी तथा महाजनी प्रथा को प्रोत्साहन मिला।
- अत्यधिक भू-राजस्व की राशि के कारण किसानों को नकदी-फसल की खेती के लिए बाध्य किया गया। फलतः अनाजों का उत्पादन कम हुआ और अकालों की बारंबारता बढ़ी। किसानों एवं कृषि की पिछड़ी दशा में उद्योगों को एक बड़ा मंजूरी प्रदान नही की गई फलतः औद्योगीकरण प्रभावित हुआ। एक शोषक जमींदार वर्ग का उद्भव हुआ।
कृषि का वाणिज्यिीकरण
- भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति (British Ruler’s Economic Policy) के अंतर्गत कृषि का वाणिज्यिीकरण अंग्रेजों की कृषि नीति का अंग था। परम्परागत फसलों के स्थान पर नकदी फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहन देना तथा बाजार के लिए फसलों का उत्पादन करना, कृषि का व्यवसायीकरण कहलाता है। वस्तुतः अत्यधिक भू-राजस्व का भुगतान तथा सहकारी ऋणों की अदायगी अधिक पैदावार एवं लाभ देने वाली फसलों से संभव थी।
- व्यावसायिक कृषि की शुरूआत बंगाल में की गई। प्रारम्भ में पोस्त, नील, जूट सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण फसलें थी। बाद में इस शृँखला में चाय का नाम भी जुड़ गया।
- हेस्टिंग्स ने 1773 में पहली बार अफीम की खेती को कम्पनी के एकाधिकार में लिया। अफीम का निर्यात् चीन के लिए किया जाता था। चाय की खेती पर बल देकर ब्रिटिश चीन पर अपनी निर्भरता कम करना चाहते थे।
- अतः 1833 सी.ई. में अंग्रेजों को यह अनुमति मिली कि वे भारत में अपनी भूमि खरीद सकते हैं और बागान लगा सकते हैं।
- भारत में पहला चाय बागान असम में 1835 सी.ई. में लगाया गया। भारत में उत्पादित चाय 1838 सी.ई. में लंदन में बेची गई। असम चाय कम्पनी की स्थापना 1838 सी.ई. में की गई। चाय बागानों में मुख्यतः ब्रिटिश पूँजी लगी थी और इसमें बंधुआ मजदूरों को लगाया गया था। 1830 के बाद गन्ना उत्पादन को प्रोत्साहन दिया गया।
- पश्चिम भारत में कपास की खेती पर बल दिया गया। किसानों की जबरन व्यावसायिक फसलों का उत्पादन करना पड़ा। क्योंकि भू-राजस्व की प्रचलित दर को वे परम्परागत फसलों के उत्पादन द्वारा पूरा नहीं कर सकते थे। किसानों का शोषण बढ़ा क्योंकि नकदी फसलों की खेती हेतु उन्हें अत्यधिक धन की जरूरत थी फलतः वे महाजनों के कर्जदार बन गए।
- नकदी फसल की खेती से खाद्यान विशेषकर मोटे अनाजों के उत्पादन को धक्का लगा, फलतः अकाल पड़े। कृषि के व्यावसायीकरण के बावजूद कृषि का आधुनिकीकरण नहीं हो सका क्योंकि इस व्यवस्था में सर्वाधिक लाभ बिचौलियों को मिला और जिन्हें कृषि के आधुनिकीकरण में कोई रूचि नहीं थी।
- ग्रामीण ऋणग्रस्तता बढ़ी, फलतः किसानों की क्रयशक्ति में कमी आई। कृषि के वाणिज्यिीकरण से स्वनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ी। कृषि का पूँजीवादी रूपांतरण हुआ।
विऔद्योगीकरण
- भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति (British Ruler’s Economic Policy) के अंतर्गत विऔद्योगीकरण का सर्वप्रथम विचार दादा भाई नारौजी ने दिया था। विऔद्योगीकरण का अर्थ है- भारतीय हस्तशिल्प उद्योगों का पतन। भारत में विऔद्योगीकरण की प्रक्रिया का आरंभ 1813 सी.ई. से माना जा सकता है।
- जब भारत के साथ व्यापार पर EIC का एकाधिकार खत्म हुआ और भारतीय बाजार को ब्रिटिश वस्तुओं के लिए खोल दिया गया अर्थात् मुक्त व्यापार की नीति अपनाई गई।
- हस्तशिल्प उद्योगों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- शहरी हस्तशिल्प एवं ग्रामीण हस्तशिल्प उद्योग।
- देशी राज्यों और उनके अधिकारों में कमी से शहरी दस्तकारी पर सीधा प्रभाव पड़ा क्योंकि ये देशी राज्य शहरी दस्तकारी सामान के सबसे बड़े खरीदार थे। परिणामस्वरूप उन वस्तुओं का उत्पादन कम हो गया।
- आरंभ से ही ब्रिटिश पूँजीपति वर्ग ने भारतीय सामानों को ब्रिटेन में आने से हतोत्साहित किया तथा सरकार पर यह दबाव डालना शुरू किया कि ब्रिटिश उत्पादन के लिए भारतीय बाजार खोल दिए जाएँ।
- इंग्लैण्ड में भारतीय सामान की अधिकता से घबराकर ब्रिटिश सरकार को ऐसे कानून बनाने पड़े जिससे इंग्लैण्ड में भारतीय सामान की बिक्री कठिन हो जाए।
- 1812 सी.ई. में एक संसदीय समिति की नियुक्ति की गई कि किस प्रकार भारतीय बाजार में ब्रिटिश वस्तुओं की बिक्री को प्रोत्साहित किया जाये।
- भारतीय वस्तुओं पर ब्रिटेन में अत्यधिक आयात शुल्क लगाया गया जिससे भारतीय वस्तुओं के लिए ब्रिटिश बाजार लगभग बंद हो गये। 1824 सी.ई. में भारत के मोटे सूती कपड़ों पर आयात शुल्क 67% कर दिया गया। भारतीय चीनी पर शुल्क लागत से तीन गुने से ज्यादा था।
- कम्पनी ने भारत में जुलाहों पर अत्याचार किया। ददनी प्रथा के माध्यम से जुलाहों पर दबाव बनाया। इस प्रथा के अनुसार कम्पनी के कर्मचारी जुलाहों को पेशगी रुपये दे देते थे और बदले में एक शर्तनामा लिखवा लेते थे कि वे एक निश्चित तिथि पर निश्चित मात्र में और निश्चित मूल्य पर कपड़ा दे देंगे।
- ब्रिटिश शासकों ने भारत में इस्तेमाल के लिए केवल ब्रिटेन में बने कागज खरीदने का फैसला किया। फलतः कागज उद्योग को क्षति हुई। ब्रिटिश शैक्षणिक व सांस्कृतिक नीति ने भारत में पश्चिमी वस्तुओं की बिक्री को प्रोत्साहित किया।
- बंगाल विजय के पश्चात् कम्पनी द्वारा अपने एजेंटों के जरिए शिल्पियों पर कठोर नियंत्रण लगाया गया। ब्रिटिश उद्योगों के लिए भारत से सस्ते कच्चे माल की प्राप्ति की आवश्यकता ने ब्रिटिश आर्थिक नीति के तहत् भारत के कृषि प्रधान देश बनाए रखने की कोशिश की।
- ब्रिटेन की मशीनों से बनी सस्ती वस्तुएँ भारत में आने लगीं, फलतः ग्रामीण शिल्प का पतन हुआ।
प्रभाव
- बड़ी संख्या में शिल्पकार बेकार हुए और लोगों को खेतों में काम करने को मजबूर होना पड़ा। फलतः कृषि पर जनसंख्या का भार बढ़ा है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि और उद्योग के स्थानीय समन्वय पर निर्भर व उद्योगों के बीच का संबंध टूट गया। बेरोजगारी और ऋणग्रस्तता बढ़ी।
आधुनिक उद्योगों का सीमित विकास
- सूती वस्त्रः 19वीं शताब्दी के मध्य में आधुनिक उद्योगों का विकास हुआ। 1853 सी.ई. में बम्बई के भड़ौच नामक स्थान पर कावसजी नानाभाई नामक पारसी धर्मानुयायी ने प्रथम सूती मिल की स्थापना की। अमेरिकी गृहयुद्ध से (1861-65 सी.ई.) भारतीय सूती वस्त्र उद्योगों को बहुत लाभ पहुँचा।
- जे. एन. टाटा ने 1887 में नागपुर में इम्प्रेस मिल की स्थापना की।
- जापानी प्रतियोगिता के कारण बम्बई के सूती धागों का व्यापार पूर्वी एशिया से समाप्त हो गया। भारतीय उद्योग में सूती वस्त्र पहला उद्योग था जिसमें भारतीयों द्वारा पूँजी लगाई गई थी।
- यह मूलतः भारतीय उद्योग था तथा अधिकतर भारतीयों द्वारा नियंत्रित, निवेशित एवं प्रचलित था।
जूट उद्योग
- जूट या पटसन उद्योग का विकास अनेक कारणों से हुआ। व्यापार की वृद्धि ने सामानों की पैकिग की समस्या खड़ी कर दी। इसलिए जूट से बोरा, चटाई इत्यादि बनाने की आवश्यकता महसूस की गई।
- अतः 1855 सी.ई. में सेरामपुर (बंगाल) के निकट रिसड़ा में जॉर्ज ऑकलैण्ड द्वारा पहला जूट कारखाना स्थापित किया गया। इण्डियन जूट मिल ऐसोसिएशन का गठन 1884 में किया गया।
- भारतीयों द्वारा नियंत्रित एवं निवेशित प्रथम जूट मिल थी। 1921 में जी.डी. बिड़ला द्वारा स्थापित।
लौह–इस्पात उद्योग
- भारत में लोहा एवं इस्पात उद्योग का आरंभ 1870 सी.ई. में बंगाल आयरन वर्क्स कम्पनी की स्थापना के साथ हुआ। इसकी स्थापना पश्चिम बंगाल में झरिया के निकट कुल्टी नामक स्थान पर की गई थी।
- 1907 सी.ई. में जे. एन. टाटा द्वारा टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी की स्थापना जमशेदपुर (झारखण्ड) में हुई। 1923 सी.ई. में ‘भद्रावती’ में विश्वेश्वरैया आयरन एण्ड स्टील वर्क्स की स्थापना हुई। 1937 सी.ई. में स्टील कार्पोरेशन ऑफ बंगाल की स्थापना हुई।
सीमेंट उद्योग
- सीमेंट उद्योग की स्थापना का प्रयास 1904 में किया गया जो असफल रहा। 1915 सी.ई. में कटनी (म. प्र.) तथा पोरबंदर में सीमेंट उत्पादन शुरू हुआ।
अन्य उद्योग
- 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में बागवानी कृषि में नील के उत्पादन पर बल दिया गया। 1850 के दशक में चाय उद्योग का विकास हुआ। 1854 में रानीगंज कोलफील्ड की स्थापना हुई।
- 20वीं सदी के चौथे दशक में सीमेंट, कागज, दियासलाई एवं सीसा उद्योग विकसित हुए। सबसे अधिक भारतीय पूँजी सूती वस्त्र उद्योग में लगी हुई थी। सर्वाधिक रोजगार सूती कपड़ा मिल एवं जूट मिल से प्राप्त हुआ। लगभग 40ः भारतीय मजदूरों को यहाँ रोजगार मिला।
औद्योगिक वातावरण
- उद्योगों में पूँजी लगाने में भारतीय उद्यमी संकोच कर रहे थे। उस दौर में जस्टिस महादेव गोविन्द, रानाडे, तिलक जैसे राष्ट्रवादियों ने लोगों में उद्योगों के प्रति सम्मोहन पैदा किया। रानाडे को औद्योगिक क्राँति का महान उद्घोषक कहा जा सकता है।
- स्वदेशी आंदोलन के कारण भी देशी उद्योगों की स्थापना को बल मिला। प्रथम विश्वयुद्ध के प्रारंभ होने के बाद विदेशों से तैयार माल के आयात में कमी आई। इसने भारतीय उद्योगों की स्थापना पर जोर दिया।
- 1916 सी.ई. में सर थॉमस हॉलैण्ड के नेतृत्व में प्रथम भारतीय औद्योगिक आयोग की स्थापना की, किन्तु निर्णायक भूमिका अदा करने वाले भारी उद्योग को प्रोत्साहन नहीं दिया गया।
- 1921 सी.ई. में इब्राहिम रहीमतुल्ला की अध्यक्षता में वित्तीय कमीशन का गठन हुआ। इस कमीशन ने सरकार से उद्योगों को एक निश्चित नीति के अंतर्गत सुरक्षा एवं सहायता प्रदान करने की सिफारिश की। इस तरह भारतीय उद्योगों को संरक्षण दिया गया परन्तु भारतीय उद्योगों में सीमेंट, लोहा, इस्पात एवं सीसा उद्योग को या तो संरक्षण नहीं दिया गया यदि दिया भी गया तो बहुत कम।
- साम्राज्यीय वरीयता का अनुच्छेद भारतीय पूँजीपतियों के लिए आपत्तिजनक था। इसके अनुसार ब्रिटेन से आयातित वस्तुओं को विशिष्ट सुविधाएँ दी जाती थी।
- 1925-26 के बाद जापानी कपड़ा बड़ी तादाद में भारत आने लगा और महँगा तथा घटिया किस्म का इंग्लैण्ड से आयतित वस्त्र का मुकाबला नहीं कर पा रहा था।
- 1929-30 की विश्व-व्यापी मण्डी ने इंग्लैण्ड के उद्योगों की स्थिति को अधिक जटिल बना दिया यही वह समय था जब भारत का सुरक्षित बाजार जापानी कपड़े से पटने को तैयार था, सरकार संरक्षण देने को विवश थी।
- इंग्लैण्ड से आयातित वस्तुओं पर 15ः संरक्षणात्मक कर लगाया, 1931 में इसे बढ़ाकर इंग्लैण्ड के लिए 25% तथा अन्य देशों के लिए 34.25ः कर दिया गया।
धीमे औद्योगिक विकास का कारण
- पूँजी का अभाव था क्योंकि भारत से बड़ी मात्र में पूँजी धन-निष्कासन के रूप में बाहर जा रही थी। औद्योगिक विकास में बैंकिग प्रणाली के अपेक्षित सहयोग का अभाव रहा। बैंकिग व्यवस्था प्रायः ब्रिटिश पूँजीपतियों के नियंत्रण में था।
- भारत में शिक्षा एवं तकनीकी का विकास नहीं हुआ। 1939 सी.ई. में भारत में केवल 7 इंजीनियरिग कॉलेज थे एवं 6 कृषि कॉलेज थे। सरकार की रेलवे नीति भी भारतीय पूँजीपतियों के हितों के विरूद्ध थी। अधिकतर मैनेजिग एजेंसी ब्रिटिश पूँजीपतियों के हाथ में थी।
औद्योगीकरण की सीमाएँ
- पूँजी कुछ विशेष परिवारों के हाथों में सिमटकर रह गई थी। लगभग 22 कारोबार टाटा के हाथ में थे।
- पूर्वी भारत की एण्ड्रयू यूल एण्ड कम्पनी का 42 औद्योगिक संस्थानों पर कब्जा था। उद्योगों का सकेंद्रण कुछ खास क्षेत्रें में हुआ फलतः औद्योगिक दृष्टि से क्षेत्रीय असमानता उत्पन्न हुई।
रेलवे का विकास
- ब्रिटिश कालीन भौतिक साधनों की वृद्धि में रेलवे प्रणाली के विकास को सर्वाधिक माना गया। भारत में सबसे पहले रेल निर्माण का सुझाव 1831-32 सी.ई. में विलियम बैंटिक के काल में रखा गया जब कावेरीपट्टनम से करूर तक तथा मद्रास से बेंगलुरु तक रेलवे लाईन बिछाने का सुझाव दिया गया।
- 1836 सी.ई. में सर ए. पी. कॉटन ने मद्रास से बम्बई तक रेलवे लाईन बिछाने का सुझाव रखा। 1843 सी.ई. में लॉर्ड हॉडिग ने अपनी विज्ञप्ति में पंजाब, अफगानिस्तान उत्तर-पश्चिम की सुरक्षा के लिए रेलवे के विकास की अत्यधिक महत्ता बताई।
- 1844 सी.ई. में पहली बार भाप गाड़ी बनाने का प्रस्ताव रखा गया जिसमें कहा गया कि इंग्लैण्ड में स्थापित म्प्ब् से निश्चित आय के आश्वासन पर भारत में रेलों का निर्माण करें।
- भारत सरकार ने अंग्रेज कंपनियों को रेलवे निर्माण के लिए 5% लाभ की गारण्टी प्रदान की। सरकार ने कंपनियों को इस बात की गारंटी प्रदान की कि उनके द्वारा विनियोजित पूँजी पर लाभ 5% से कम होगा शेष राशि (5% से जितनी कम हो) सरकार देगी।
- लाभ में सरकार की भागीदारी थी अर्थात् कम्पनी का लाभ यदि 5% से अधिक रहा हो जो भी लाभ अर्जित होगा उसकी आधी राशि सरकार की होगी।
- 1849-67 सी.ई. के बीच भारत में रेलवे लाइन निर्माण का कार्य निजी कम्पनियों द्वारा किया गया। इस काल में लगभग 8 कम्पनियों को ठेके दिए गए। इन बीस वर्ष के काल में 4287 किमी. लंबी लाईन बनाई गई।
- सरकार को इस काल में 17 करोड़ रुपये का घाटा हुआ। 1869 सी.ई. में रेलवे लाईन बिछाने का कार्य सरकार ने अपने हाथों में लिया। इस तरह 1869-80 तक भारत सरकार के द्वारा रेलवे मार्ग का निर्माण किया गया।
- 1880 सी.ई. के पश्चात् रेलवे लाईन के निर्माण में सरकार एवं निजी कंपनियों दोनों की भागीदारी रही। रेलवे प्रशासन को गतिशील बनाए रखने के लिए 1905 में रेलवे बोर्ड का गठन किया गया।
- 1919 में रेलवे पर एक्वर्थ कमीशन का गठन किया गया जिसने 5 वर्षों में 150 करोड़ रुपये खर्च करने की बात की।
- 1925 सी.ई. में EIRC तथा GIP के हाथों से रेल व्यवस्था छीनकर सरकार के अंतर्गत कर दी गई।
- 1925 सी.ई. में रेल बजट को आम बजट से अलग कर दिया गया। लॉर्ड कर्जन के समय भारत में सर्वाधिक रेलवे लाइन का निर्माण हुआ।
- रेलवे का निर्माण ब्रिटिश आरंभिक प्रशासनिक एवं सैनिक लाभों को ध्यान में रखकर किया गया था। इसका प्रमुख उद्देश्य था- ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चा माल प्राप्त करना तथा उनके उत्पाद के लिए बाजार तैयार करना। भारतीय साम्राज्य के हर क्षेत्र में सेना का विस्तार करना तथा देश के प्रमुख नगरों व बंदरगाहरों को उत्पादन के क्षेत्र से जोड़ना।
प्रभाव
- भारत के आंतरिक बाजारों में अंतःसम्पर्क बढ़ा और वे विदेशी बाजार से जुड़ गए। इस तरह अनेक बाजार वाला देश भारत एक राष्ट्र के रूप में परिणत हो गया।
- आंतरिक और विदेशी व्यापार दोनों की मात्र में आशातीत वृद्धि हुई। धन का निष्कासन बढ़ा। इस प्रकार रेलवे निर्माण का आर्थिक दृष्टि से मिश्रित प्रभाव रहा। भारत में राष्ट्रवाद के विकास की गति तेज हुई। जात-पात तथा छुआछूत को हतोत्साहित किया।
धन का निष्कासन
- भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति (British Ruler’s Economic Policy) के अंतर्गत वस्तुतः वह धन जो भारत से इंग्लैण्ड को भेजा जाता था और जिसके बदले भारत को कुछ प्राप्त नहीं होता था वहीं धन का निष्कासन ‘अप्रतिदत्त निर्यात’ कहलाया।
- धन निकासी के सिद्धांत के प्रतिपादक दादा भाई नौरोजी थे। उन्होंने पहली बार 2 मई, 1867 सी.ई. को अपने लेख England Debts to India में धन निकासी की तरफ ध्यान आकृष्ट किया।
दादा भाई नौरोजी के अन्य ग्रन्थ हैः
- The wants and mean of India (1870)
- On the commerce of India
- Poverty and Unbritish rule in India
- दादा भाई नौरोजी ने धन के निष्कासन को अनिष्टों का अनिष्ट (Evil fo all evils) की संज्ञा दी।
धन निकासी का स्वरूप
- प्लासी के युद्ध के पश्चात् बंगाल की लूट प्रारंभ हुई और यहीं से धन के निकासी की पुख्ता शुरूआत हुई।
- बंगाल की लूट से प्राप्त धन, व्यापारिक एकाधिकार से प्राप्त धन, नजराना आदि के माध्यम से प्राप्त धन से माल खरीदकर अंग्रेज व्यापारी उन्हें इंग्लैण्ड और दूसरी जगहों पर भेजते थे। इस व्यापार से भारत को किसी प्रकार का धन प्राप्त नहीं होता था।
- कम्पनी के कर्मचारी वेतन-भत्ते, पेंशन आदि के रूप में पर्याप्त धन इंग्लैण्ड ले जाते थे। यह धन न सिर्फ सामान के रूप में बल्कि सोना-चाँदी के रूप में भी इंग्लैण्ड भेजा गया।
- 1765 सी.ई. में बंगाल की दीवानी प्राप्त करने के पश्चात् कम्पनी ने उस राजस्व से भारतीय सामानों को खरीदकर निवेश पद्धति द्वारा इंग्लैण्ड भेजना प्रारंभ कर दिया और व्यापार से जो मुनाफा होता था उसे कम्पनी के शेयरधारकों में बाँट दिया जाता।
- डिग्बी के अनुसार- 1757-1815 के बीच लगभग 10 करोड़ पाउण्ड का धन इंग्लैण्ड ले जाया गया। आर. सी. दत्त के अनुसार 1853-92 सी.ई. के बीच यह राशि 359 करोड़ रुपये आँकी गई है।
- 1858 सी.ई. के पश्चात् EIC के लंदन प्रतिष्ठान एवं हिस्सेदारों के लाभांश की जगह इंग्लैण्ड स्थित भारत सचिव के इंडिया ऑफिस ने ले ली। इंडिया ऑफिस का व्यय भी धन निकासी का माध्यम बना।