आर्थिक संवृद्धि और विकास (Economic Growth and Development)
- अर्थशास्त्र, दुर्लभता से सफलतापूर्वक निपटने हेतु तीव्र चुनाव से संबंधित अध्ययन है। दुर्लभ संसाधनों के आबंटन की सफलता के मूल्यांकन का सबसे अधिक मौलिक माप, आर्थिक संवृद्धि है।
- व्यक्ति, अपनी आय और परिसंपत्तियों के मूल्य में परिवर्तन पर निगरानी रखते हैं। व्यवसाय अपने लाभों तथा बाजार में अंश का ध्यान रखते हैं। राष्ट्र, राष्ट्रीय आय और उत्पादकता आदि जैसे आर्थिक संवृद्धि के मापने के विभिन्न आंकड़ों पर निगरानी रखते हैं।
- संवृद्धि और उत्पादकता से आगे बढ़कर, कुछ अर्थशास्त्री यह तर्क देते हैं कि राष्ट्र की अर्थव्यवस्था का अनुमान लगाने में वितरण का माप, समता, प्रति व्यक्ति आय आदि को भी सम्मिलित करना चाहिए।
- देश को अन्य सामाजिक आवश्यकताओं पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जैसे- पर्यावरण न्याय या आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) की प्रक्रिया की निरंतरता के लिए सांस्कृतिक विकास और शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, रोजगार और पर्यावरण की धारणीयता के अधिक अवसरों के माध्यम से अर्थव्यवस्था के सर्वांगीण विकास की अनुमति देता है।

आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth)
- आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) पद को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें देश की वास्तविक राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय में दीर्घ अवधि तक वृद्धि होती है।
- विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक विकास और आर्थिक वृद्धि शब्दों के अर्थ को अलग ढंग से प्रयुक्त किया है। प्रायः अर्थशास्त्री आर्थिक विकास शब्द का प्रयोग अल्पविकसित देशों के लिए और आर्थिक वृद्धि शब्द का प्रयोग विकसित देशों के लिए करते हैं।
- हिक्स की परिभाषा- हिक्स की परिभाषा से दोनों शब्दों का अन्तर स्पष्ट किया जा सकता है। उसके अनुसार, ‘‘अल्पविकसित देशों की समस्याएँ उपयोग में न लाए गए साधनों के विकास से संबंध रखती हैं, भले ही उनके उपयोग भली-भांति ज्ञात हों, जबकि उन्नत देशों की समस्याएँ वृद्धि से संबंधित रहती हैं जिनके बहुत सारे साधन पहले से ज्ञात और किसी सीमा तक विकसित होते हैं।’’
- परिभाषा से स्पष्ट है कि ‘विकास’ शब्द का संबंध पिछड़े हुए देशों से है जहाँ पर साधनों का पूर्ण उपयोग नहीं हुआ और उनके विकास की संभावना है। जबकि ‘वृद्धि’ शब्द का प्रयोग आर्थिक दृष्टिकोण से विकसित देशों से है।
- शूम्पीटर की परिभाषा- वास्तव में, ‘विकास’ और ‘वृद्धि’ शब्दों को अर्थव्यवस्था के प्रकार से कोई संबंध नहीं है। दोनों में भेद परिवर्तन की प्रकृति और कारणों से हैं शूम्पीटर दोनों शब्दों में भेद को स्पष्ट करते हुए कहता है कि विकास स्थिर अवस्था में एक निरंतर और स्वतःप्रेरित परिवर्तन है जो पहले से वर्तमान संतुलन अवस्था को हमेशा के लिए परिवर्तित और विस्थापित करता है, जबकि वृद्धि दीर्घकाल में होने वाला क्रमिक तथा सतत् परिवर्तन है जो बचतों और जनसंख्या की दर में धीरे-धीरे वृद्धि द्वारा आता है। शूम्पीटर की इस परिभाषा को अधिकतर अर्थशास्त्रियों ने स्वीकृत किया और सुधारा है।
- किंडलबर्गर और हैरिक की परिभाषा- किंडलबर्गर और हैरिक के अनुसार आर्थिक विश्लेषण में कभी-कभी ‘वृद्धि’ और ‘विकास’ को पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। स्पष्ट और अस्पष्ट रूप से सामान्यतौर से इनका प्रयोग इस प्रकार से है।
- ‘‘आर्थिक वृद्धि का मतलब अधिक उत्पादन है जबकि आर्थिक विकास का अर्थ है अधिक उत्पादन तथा तकनीकी और संस्थानिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन जिनके द्वारा यह उत्पादित और वितरित होता है।’’
- अतः आर्थिक वृद्धि का संबंध देश की प्रति व्यक्ति आय या उत्पादन में एक मात्रात्मक निरंतर वृद्धि से है जो कि उसकी श्रम शक्ति, उपभोग, पूंजी और व्यापार की मात्र में प्रसार के साथ होती है। दूसरी ओर, आर्थिक विकास एक विस्तृत धारणा है।
- यह आर्थिक आवश्यकताओं, वस्तुओं, प्रेरणाओं और संस्थाओं में गुणात्मक परिवर्तनों से संबंधित है। यह प्रौद्योगिकी और संरचनात्मक परिवर्तनों जैसे वृद्धि के अंतर्निहित निर्धारकों का वर्णन करता है।
- विकास में वृद्धि और ह्रास दोनों सम्मिलित होते हैं। एक अर्थव्यवस्था वृद्धि कर सकती है परन्तु यह विकास नहीं कर सकती क्योंकि प्रौद्योगिकी और संरचनात्मक परिवर्तनों के अभाव के कारण गरीबी, बेरोजगारी और असमानताएं निरंतर विद्यमान रहती हैं परन्तु प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि में अभाव के कारण, विशेषकर जब जनसंख्या तीव्रता से बढ़ रही है, तो आर्थिक वृद्धि के बिना विकास के बारे में सोचना कठिन होता है।
आर्थिक वृद्धि एवं विकास की विशेषताएँ
- आर्थिक विकास की उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर इसकी निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ स्पष्ट होती हैंः-
आर्थिक विकास एक प्रक्रिया
- आर्थिक विकास एक प्रक्रिया है। प्रक्रिया से आशय अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक तथा संस्थागत परिवर्तनों से होता है। इन परिवर्तनों के कारण ही अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों की पूर्ति तथा वस्तुओं की माँग-संरचना में परिवर्तन होता है। साधनों की पूर्ति में परिवर्तन से अर्थ जनसंख्या, उत्पादन-साधन, पूँजी, उत्पादन तकनीक व अन्य संस्थागत परिवर्तनों से है।
- इसी प्रकार वस्तु सम्बन्धी माँग में परिवर्तन से अर्थ जनता की आय की अभिरुचियों में परिवर्तन से है। जैसे-जैसे किसी देश के आर्थिक विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे माँग एवं आपूर्ति के स्वरूप में अनेक परिवर्तन होते जाते हैं। इसमें एक परिवर्तन दूसरे परिवर्तन को जन्म देता है साथ ही एक आर्थिक प्रक्रिया दूसरी प्रक्रिया को गतिशील बनाती है।
प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि–
- आर्थिक विकास का उद्देश्य प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि है। प्रति व्यक्ति आय का अनुमान राष्ट्रीय आय को जनसंख्या से भाग देने पर लगाया जा सकता हैः
प्रति व्यक्ति आय (Per Capita Income) = राष्ट्रीय आय (National Income) / जनसख्ंया (Population)
- वस्तुतः केवल राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि आर्थिक विकास का प्रतीक नहीं है। इसका कारण यह है कि यदि जनसंख्या में होने वाली वृद्धि दर राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि दर की तुलना में अधिक होगी तो प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के स्थान पर कम हो जायेगी।
- अतः आर्थिक विकास का अनुमान प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि के आधार पर लगाया जा सकता है।
- वास्तविक आय से अभिप्राय किसी देश की मौद्रिक आय का स्थिर कीमतों पर लगाये जाने वाले अनुमान से है। इसकी गणना निम्न सूत्र से की जाती हैः
वास्तविक आय (R) = मौद्रिक आय (Y) / कीमत स्तर (P)
- अर्थात् मौद्रिक आय में होने वाली वृद्धि आर्थिक विकास का वास्तविक सूचक नहीं है।
दीर्घकालीन सतत् वृद्धि-
- आर्थिक विकास में शुद्ध आय में निरन्तर वृद्धि होनी चाहिए। अल्पकाल में आर्थिक क्रिया के एकाएक बढ़ जाने से जैसा कि अच्छी फसल या ऐसी ही अन्य लघुकालीन परिस्थिति के कारण प्रति व्यक्ति आय में होने वाली अस्थायी वृद्धि को आर्थिक विकास नहीं समझा जाना चाहिए।
निर्धनता तथा असमानता में वृद्धि नहीं-
- आर्थिक विकास की स्थिति में प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में इस प्रकार वृद्धि होनी चाहिए कि निर्धनता रेखा से नीचे लोगों की संख्या में वृद्धि नहीं होनी चाहिए। इसके साथ-साथ आय के वितरण की असमानता में भी वृद्धि नहीं होनी चाहिए। अतः वास्तविक आय में वृद्धि के साथ-साथ उसका नया पुनर्वितरण भी आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है।
सामाजिक, सांस्कृतिक, संस्थात्मक एवं आर्थिक परिवर्तन-
- आर्थिक विकास में न केवल आर्थिक परिवर्तनों का समावेश होता है बल्कि इसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, संस्थापक परिवर्तन भी सम्मिलित किये जाते हैं।
आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) को प्रभावित करने वाले कारक
- आर्थिक विकास की प्रक्रिया एक बहुत ही जटिल परिघटना है जो विभिन्न कारकों, जैसे-राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक इत्यादि कारकों द्वारा प्रभावित होती है। इसको प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-
आर्थिक कारक
प्राकृतिक संसाधनः
- किसी अर्थव्यवस्था के विकास को प्रभावित करने वाला मुख्य कारक प्राकृतिक संसाधन है। प्राकृतिक संसाधनों में भूमि, क्षेत्र और मिट्टी की गुणवत्ता, वन संपत्ति, जल तन्त्र, खनिज व तेल संसाधन और अच्छी जलवायु आदि सम्मिलित हैं। आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) के लिए प्राकृतिक संसाधनों का पर्याप्त मात्र में होना अनिवार्य है।
- प्राकृतिक संसाधनों में कमी वाला देश, तीव्र गति से दीर्घकालिक विकास करने की स्थिति में नहीं हो सकता। हालांकि, लेकिन अच्छे प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) के लिए आवश्यक शर्तें हैं, किंतु यह पर्याप्त नहीं है।
- कम विकसित देशों में प्राकृतिक संसाधन अप्रयुक्त, अल्पप्रयुक्त अथवा अनियंत्रिक प्रयुक्त होते हैं। यह उनके पिछड़ेपन के कारणों में से एक है।
- दूसरी ओर विकसित देशों जैसे- जापान, सिंगापुर आदि में पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन नहीं हैं, किंतु इन देशों ने उपलब्ध संसाधनों को सुरक्षित रखने में, संसाधनों के प्रबंध का सर्वोत्तम प्रयास तथा संसाधनों की बरबादी को न्यूनतम करने में वचनबद्धता दिखाई है।
पूंजी निर्माणः
- किसी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए पूंजी निर्माण एक दूसरा महत्वपूर्ण कारक है। पूंजी निर्माण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा किसी समुदाय की बचतों को पूंजीगत वस्तुओं, जैसे-प्लांट, उपस्कर और मशीनों के निवेश के लिए प्रयोग किया जाता है। इससे देश की उत्पादन क्षमता तथा श्रमिकों की कुशलता में वृद्धि होती है। साथ ही देश में वस्तुओं और सेवाओं के अधिक प्रवाह को सुनिश्चित किया जाता है।
- पूंजी निर्माण की प्रक्रिया यह संकेत देती है कि समुदाय अपनी समस्त आय वर्तमान उपभोग की वस्तुओं पर नहीं खर्च करता, किंतु इसका एक भाग बचा लेता है और इसका प्रयोग पूंजीगत वस्तुओं का उत्पादन करने अथवा उन्हें प्राप्त करने में करता है, जो राष्ट्र की उत्पादन क्षमता में बहुत अधिक वृद्धि लाता है।
तकनीकी प्रगतिः
- आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) को प्रभावित करने के लिए तकनीकी प्रगति बहुत महत्वपूर्ण कारक है। तकनीकी प्रगति, पुरानी विधियों में सुधार तथा उत्पादन की नई और बेहतर विधियों के अनुसंधान का संकेत देती है।
- कभी-कभी इसका परिणाम उत्पादकता में वृद्धि होता है। दूसरे शब्दों में, यह प्राकृतिक संसाधनों तथा अन्य संसाधनों का उत्पादन में वृद्धि करने के लिए अधिक प्रभावशाली तथा लाभप्रद प्रयोग करने की क्षमता को बढ़ाती है। अच्छी तकनीक के प्रयोग से दिए गए संसाधनों की सहायता से अधिक उत्पादन करना अथवा संसाधनों की कम मात्र से उतना ही उत्पादन करना संभव हो जाता है।
- तकनीकी प्रगति प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण उपयोग करने की योग्यता में सुधार लाती है। उदाहरण के लिए, शक्ति के साधनों द्वारा चलाए जाने वाले कृषि के उपस्करों के प्रयोग से कृषि के उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि हुई है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जापान जैसे औद्योगिक राष्ट्रों ने उन्नतिशील तकनीकी के प्रयोग से औद्योगिक शक्ति प्राप्त कर ली है। वास्तव में, उत्पादन की नई तकनीकी अपनाने से आर्थिक प्रगति में सुविधा हो जाती है।
उद्यमशीलताः
- उद्यमशीलता निवेश के नए अवसरों के अन्वेषण की योग्यता है। इससे जोखिम उठाने तथा नई और बढ़ती हुई व्यावसायिक इकाइयों में निवेश करने की इच्छा में वृद्धि होती है।
- विश्व में बहुत से अल्प विकसित राष्ट्र, पूंजी की कमी, निम्न आधारिक संरचना, अकुशल श्रमिक, प्राकृतिक संसाधनों की कमी के कारण नहीं, अपितु उद्यमशीलता की कमी के कारण निर्धन हैं, इसलिए इन अल्पविकसित राष्ट्रों में शिक्षा, नवाचार तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास को प्रोत्साहन देकर उद्यमशीलता को बढ़ावा देने का वातावरण सृजित करना एक अनिवार्य शर्त है।
- आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) के स्तर के निर्धारण के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली जनसंख्या का होना बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसलिए, मानव पूंजी में, शैक्षिक, चिकित्सा संबंधी और ऐसी अन्य सामाजिक योजनाओं के रूप में निवेश बहुत अधिक वांछनीय है।
- मानव संसाधन विकास लोगों के ज्ञान, कौशल तथा उनकी उत्पादकता बढ़ाने की क्षमता में वृद्धि लाता है।
जनसंख्या वृद्धिः
- श्रम की पूर्ति जनसंख्या वृद्धि से होती है और इससे वस्तुओं और सेवाओं के विस्तृत बाजार उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार, अधिक श्रम अधिक उत्पादन करता है, जिसे विस्तृत बाजार आत्मसात करता है। इस प्रक्रिया में, उत्पादन, आय तथा रोजगार में वृद्धि होती है जिससे आर्थिक संवृद्धि में सुधार होता है। किंतु इसके लिए जनसंख्या में वृद्धि सामान्य होनी चाहिए।
- एक बढ़ती हुई जनसंख्या आर्थिक उन्नति में रुकावट उत्पन्न है। जनसंख्या में वृद्धि केवल एक अल्प जनसंख्या वाले देश में वांछनीय है, किंतु भारत जैसे अधिक जनसंख्या वाले देश में यह वांछनीय नहीं है।
सामाजिक लागतेंः
- आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) का एक अन्य निर्धारक सामाजिक लागतों का प्रावधान है। जैसे- स्कूल, कॉलेज, तकनीकी संस्थाएं, चिकित्सा महाविद्यालय, अस्पताल तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं हैं। ऐसी सुविधाएं कार्यशील जनसंख्या को स्वस्थ, कुशल तथा उत्तरदायी बनाती हैं। ऐसे लोग अपने देश को आर्थिक रूप से आगे बढ़ा सकते हैं।
गैर-आर्थिक कारक
- आर्थिक कारक से इतर गैर-आर्थिक कारक, जिनमें सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक तथा राजनीतिक कारक सम्मिलित हैं, भी आर्थिक विकास में समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। कुछ अनिवार्य गैर-आर्थिक कारक जिन पर किसी देश की आर्थिक संवृद्धि निर्भर करती निम्न है-
राजनीतिक कारकः
- आधुनिक आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) में राजनीतिक स्थिरता तथा मजबूत प्रशासन अनिवार्य तथा सहायक हैं। एक स्थिर, शक्तिशाली तथा कुशल सरकार, ईमानदार प्रशासन, पारदर्शक नीतियां और उनको कुशलतापूर्वक लागू करने से निवेशकों के विश्वास में विकास होता है तथा इससे घरेलू तथा विदेशी पूंजी आकर्षित होती है, जिससे आर्थिक विकास तीव्र गति से होता है।
सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारकः
- सामाजिक कारकों में सामाजिक दृष्टिकोण, सामाजिक मूल्य तथा सामाजिक संस्थाएं सम्मिलित हैं, जो शिक्षा के विस्तार और एक समाज से दूसरे समाज में रूपांतरण से परिवर्तित होते हैं।
- आधुनिक विचारधारा, मूल्य तथा दृष्टिकोण से नई खोज एवं नवाचार के परिणामस्वरूप नए उद्यमियों की संख्या में वृद्धि होती है। पुराने सामाजिक रीति-रिवाज, व्यावसायिक और भौगोलिक गतिशीलता को सीमित करते हैं और इस प्रकार आर्थिक विकास में बाधा लाते हें।
शिक्षाः
- यह अब भली प्रकार स्वीकार कर लिया गया है कि शिक्षा विकास का एक मुख्य साधन है। उन देशों में अधिक उन्नति हुई है जहां शिक्षा का अधिक विस्तार है। शिक्षा का मानव संसाधन विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान है। इससे श्रम की कुशलता में सुधार के साथ नए विचारों और ज्ञान में सुधार आता है, जिनसे आर्थिक विकास में सहायता मिलती है।
आर्थिक विकास
- आर्थिक विकास को समाज के भौतिक कल्याण में निरंतर वृद्धि के रूप में परिभाषित किया जाता है। इस अर्थ में आर्थिक विकास, आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) से अधिक व्यापक अवधारणा है।
- राष्ट्रीय आय में वृद्धि के अलावा इसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिवर्तन, सम्मिलित होते हैं, जो कि भौतिक उन्नति में योगदान देते हैं। इसमें, संसाधनों की आपूर्ति, पूंजी निर्माण की दर, जनसंख्या का आकार और स्वस्थ, प्रौद्योगिकी, कौशल और कार्य-कुशलता, संस्थागत तथा प्रबंध व्यवस्था में परिवर्तन शामिल होते हैं। ये परिवर्तन अधिक विस्तृत उद्देश्यों, जैसे- आय के अधिक समान वितरण की सुनिश्चितता, अधिक रोजगार, निर्धनता उन्मूलन को पूरा करते हैं।
- संक्षेप में, आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें पूर्ति के मौलिक कारकों तथा मांग की बनावट जैसे अंतर्संबंधित परिवर्तनों की एक लंबी श्रेणी सम्मिलित होती है, जिनसे देश के शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन में दीर्घकाल तक वृद्धि होती है।
- आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) एक संकुचित पद है। उसमें उत्पादन में मात्रात्मक वृद्धि शामिल होती है, किंतु आर्थिक विकास में उत्पादन या राष्ट्रीय आय में मात्रात्मक वृद्धि के साथ गुणात्मक परिवर्तन जैसे सामाजिक दृष्टिकोण, रीति-रिवाज आदि भी सम्मिलित हैं।
आर्थिक वृद्धि (Economic Growth) एव विकास की माप
- आर्थिक विकास एक सापेक्षिक शब्द है तथा इसका सम्बन्ध एक समय विशेष से न होकर दीर्घकालीन परिवर्तनों से है जिसके कारण आर्थिक विकास का एक निश्चित मापदण्ड देना अत्यन्त कठिन है। यही कारण है कि आर्थिक विकास के मापदण्ड के विषय में अर्थशास्त्रियों में मतैक्य का अभाव है।
आधुनिक अर्थशास्त्रियों के विचार
- आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक विकास के लिए उत्पादन के साथ-साथ वितरण को भी महत्व दिया है। इन्होंने आर्थिक विकास के लिए किसी एक तत्व को मापदण्ड नहीं माना। उनकी दृष्टि से आर्थिक विकास के लिए सभी आवश्यक तत्वों का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इन सब तत्वों के परिणामस्वरूप ही किसी देश में आर्थिक विकास होता है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार आर्थिक विकास के कुछ प्रमुख मापदण्ड निम्नलिखित हैं:
राष्ट्रीय आय-
- किसी देश में एक वर्ष के अन्दर उत्पादित समस्त वस्तुओं एवं सेवाओं के मौद्रिक मूल्य को कुल राष्ट्रीय उत्पादन कहते है। परन्तु वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन के लिए जिन उपकरणों का प्रयोग किया जाता है, उनमें घिसावट या मूल्य- ह्रास होता है। अतः यदि कुल राष्ट्रीय उत्पादन में से सम्पत्ति की घिसावट का मूल्य घटा दिया जाय तो शेष शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन होगा।
- यह कुल राष्ट्रीय उत्पादन आर्थिक विकास की उचित कसौटी नहीं है क्योंकि कुल राष्ट्रीय उत्पादन में सम्पत्ति की प्रतिस्थापना पर ध्यान नहीं दिया जाता है। शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन या आय ही आर्थिक विकास का मापदण्ड है।
- यदि किसी राष्ट्र में शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ रहा है तो वह उसकी बढ़ती हुई राष्ट्रीय आय व आर्थिक विकास का संकेतक है परन्तु यह वृद्धि निरन्तर व स्थाई होनी चाहिए।
- राष्ट्रीय आय सदैव मुद्रा में ही मापी जाती है परन्तु बहुत-सी वस्तुएँ एवं सेवाएँ ऐसी होती हैं जिनका मुद्रा में मूल्यांकन करना कठिन होता है।
- राष्ट्रीय आय की गणना करने में किसी वस्तु या सेवा में कई बार उतार-चढ़ाव की आशंका बनी रहती है।
- राष्ट्रीय आय के माप में हस्तान्तरण भुगतान, जैसे- पेंशन, बेरोजगारी भत्ता आदि को सम्मिलित करने में कठिनाई उत्पन्न होती है।
- राष्ट्रीय आय की परिगणना में बहुत-सी सार्वजनिक सेवाएँ, जैसे- पुलिस व सैनिक सेवाएँ भी ली जाती हैं जिनका सटीक मूल्यांकन कठिन होता है।
- पूँजीगत लाभ व हानियों को भी राष्ट्रीय आय में गणित करने में कठिनाई आती है।
प्रति व्यक्ति आय-
- वास्तविक राष्ट्रीय आय को विकास का एकमात्र द्योतक नहीं माना जा सकता। राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने से यह सम्भव है कि जन-समूह की निर्धनता बढ़ जाये। ऐसा उस समय होता है जब जनसंख्या में वृद्धि की गति राष्ट्रीय आय में वृद्धि की गति से अधिक तेजी से होती है क्योंकि वास्तविक राष्ट्रीय आय की वृद्धि का अर्थ यह नहीं है कि प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है। हो सकता है कि लोग बचत की दर बढ़ा रहे हों या फिर सरकार स्वयं इस बढ़ी हुई आय को सैनिक अथवा अन्य उद्देश्यों हेतु प्रयोग कर रही हो।
- वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि के बावजूद जनसाधारण की गरीबी का दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि बढ़ी हुई आय बहुसंख्यक गरीबों के पास जाने की बजाय मुट्ठी भर अमीरों के हाथ में जा रही हो।
- आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार अर्द्ध-विकसित देशों की प्रमुख समस्या वहाँ के निवासियों के जीवन-स्तर में सुधार की होती है और जीवन-स्तर में सुधार तभी सम्भव है, जबकि प्रति व्यक्ति आय बढ़े। अतः उनके मत में आर्थिक विकास का सही मापदण्ड प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि है, न कि राष्ट्रीय आय में वृद्धि।
आर्थिक कल्याण-
- कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक कल्याण को आर्थिक विकास का उचित मापदण्ड माना है। उनके अनुसार ऐसी प्रक्रिया को आर्थिक विकास माना जाता है, जिससे प्रति व्यक्ति वास्तविक आय व उपभोग में वृद्धि होती है और उसके साथ-साथ आय की असमानताओं का अन्तर कम होता है। यह देश के निवासियों में अनवरत् दीर्घकालीन सुधार है जोकि वस्तुओं और सेवाओं के बढ़ते हुए प्रवाह में प्रतिबिम्बित होता है।
- संक्षेप में, जीवन स्तर मुख्यतः उपभोग के स्तर पर निर्भर करता है। इसलिए देश में बढ़ता हुआ उपभोग व जीवन स्तर ही आर्थिक विकास का उत्तम सूचक है।
आर्थिक विकास के मापक निर्देशांक-
- विभिन्न अर्थशास्त्रियों, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं, जैसे- विश्व आर्थिक मंच, विश्व बैंक आदि ने विभिन्न सामाजिक व आर्थिक निर्देशांकों के द्वारा विभिन्न देशों के आर्थिक विकास के स्तर को मापने का प्रयास किया है। जैसेः
- सामाजिक अथवा मूलभूत आवश्यकता सूचक।
- क्रय शक्ति समता सूचक।
- मानव विकास सूचक आदि।
सन्तुलित विकास
- सन्तुलित विकास का अर्थ यह है कि एक विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगों को एक साथ विकसित करना चाहिए, ताकि विकास प्रक्रिया में कठिनाईयाँ उत्पन्न न हों। सन्तुलित विकास में कृषि एवं उद्योगों में सन्तुलन स्थापित करने हेतु दोनों का विकास एक समन्वित योजना के अन्तर्गत किया जाता है।
- तीव्र आर्थिक विकास के लिए जरूरी है कि परस्पर पूरक उद्योगों में एक आवश्यक न्यूनतम मात्र में निवेश किया जाये। सन्तुलित विकास के फलस्वरूप उत्पादन की माँग की लोच के अनुसार सम्भव हो जाता है जिसके फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में अवरोध उत्पन्न नहीं होते।
आर्थिक वृद्धि (Economic Growth) एवं आर्थिक विकास में अन्तर |
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अन्तर का आधार |
आर्थिक वृद्धि |
आर्थिक विकास |
प्रकृति | आर्थिक वृद्धि स्वाभाविक क्रमिक व स्थिर गति वाला परिवर्तन होता है। | आर्थिक विकास प्रेरित एवं औसतन गति वाला परिवर्तन होता है। |
इसमें केवल उत्पादन में वृद्धि आवश्यक है। | इसमें उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ तकनीकी एवं संस्थागत परिवर्तन का होना आवश्यक है। | |
सामाजिक न्याय | आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ सामाजिक न्याय आवश्यक नहीं है। | आर्थिक विकास में उत्पादन एवं आय में वृद्धि के साथ-साथ सामाजिक न्याय भी आवश्यक होता है। |
पूर्व- निर्धारित लक्ष्य | आर्थिक वृद्धि में विशिष्ट उद्देश्य एवं लक्ष्य पूर्व-निर्धारित नहीं होते हैं। | आर्थिक विकास में उद्देश्य व लक्ष्य पूर्व-निर्धारित होते हैं जिनके अनुसार अर्थव्यवस्था को निर्देश मिलते हैं। |
धनात्मक एवं ट्टणात्मक | आर्थिक वृद्धि की दर धनात्मक के साथ-साथ कभी-कभी ट्टणात्मक भी हो सकती है। | आर्थिक विकास की कल्पना सामान्यतः धनात्मक वृद्धि के रूप में होती है। |
देश | आथिर्क वृद्धि को प्रायः विकसित देशों के सन्दर्भ में प्रयुक्त किया जाता है। | आर्थिक विकास को प्रायः अर्द्ध-विकसित देशों के सन्दर्भ में प्रयुक्त किया जाता है। |
अन्य अन्तर | इसमें किसी नवीनता का सृजन नहीं होता है। | इसमें विकास की नई शक्तियां उत्पन्न की जाती हैं। |
इसमें साम्य की दिशा में कोई आधारभूत परिवर्तन नहीं होता है। | इसमें प्रचलित साम्य में निरन्तर सुधार लाने के प्रयास किये जाते हैं। | |
यह संख्यात्मक है। | यह गुणात्मक है। | |
यह नियमित घटनाओं का परिणाम है। | यह उन्नत करने की प्रबल इच्छा, सृजनात्मक शक्तियाँ एवं क्रियाशीलता का परिणाम है। | |
यह स्थैतिक साम्य की दशा है। | यह गत्यात्मक साम्य की दशा है। |
आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) तथा आर्थिक विकास की तुलना |
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आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) |
आर्थिक विकास |
अर्थ | आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) से अभिप्राय देश में वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में वास्तविक वृद्धि से है। | आर्थिक विकास में, आय बचत निवेश में परिवर्तनों के साथ-साथ एक देश के सामाजिक और आर्थिक ढांचे में प्रगतिशील परिवर्तन भी शामिल है। (संस्थागत और प्रौद्योगिकी परिवर्तन) |
कारक | आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) का संबंध सकल घरेलू उत्पाद के किसी घटक, जैसे-उपभोग, सरकारी व्यय, निवेश, शुद्ध निर्यात में उत्तरोत्तर वृद्धि से है। | विकास का संबंध, मानव पूंजी में वृद्धि, असमानता के अंकों में कमी, और संरचनात्मक परिवर्तनों से है जिनसे जनसंख्या के जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है। |
माप | आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) की मात्रात्मक कारकों, जैसे-वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद अथवा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि द्वारा मापा जाता है। | आर्थिक विकास को मापने के लिए गुणात्मक माप जैसे मानव सूचकांक, साक्षरता दर आदि का प्रयोग किया जाता है। |
प्रभाव | आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) अर्थव्यवस्था में मात्रात्मक परिवर्तन लाती है। | आर्थिक विकास अर्थव्यवस्था में मात्रात्मक परिवर्तनों के साथ-साथ गुणात्मक परिवर्तन भी लाता है। |
प्रसंग | आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth), राष्ट्रीय आय अथवा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि पर प्रतिबिंबित होती है। | आर्थिक विकास किसी अर्थव्यवस्था में जीवन की गुणवत्ता की उन्नति को प्रतिबिंबित करता है। |
- नर्क्स के अनुसार अल्पविकसित देशों में दरिद्रता-दुश्चक्र कार्यशील रहते हैं जो आर्थिक विकास में बाधा डालते हैं। पूर्ति तथा माँग दोनों पक्षों में दरिद्रता के दुश्चक्र चलते हैं। माँग का विस्तार सन्तुलित विकास के द्वारा ही किया जा सकता है।
- जिस प्रकार शरीर को सन्तुलित आहार की आवश्यकता है, उसी प्रकार देश के लिए सन्तुलित विकास आवश्यक है।
- सन्तुलित विकास की नीति के द्वारा जब विभिन्न क्षेत्रों में विनियोग किया जाता है तो इससे एक ओर तो उत्पादन और रोजगार बढ़ने से आयातों को बढ़ावा मिलता है और दूसरी तरफ उद्योगों की पूरकता और विविधता के फलस्वरूप निर्यात व्यापार बढ़ने लगते हैं।
- सन्तुलित विकास के सिद्धान्त के अनुसार केवल उद्योगों में ही विशाल पैमाने पर विनियोग नहीं करना चाहिए बल्कि उद्योग तथा कृषि दोनों क्षेत्रों में इस प्रकार विनियोग किया जाना चाहिए कि दोनों का ही सन्तुलित विकास हो सके।
- सन्तुलित विकास नीति के परिणामस्वरूप बाजार का विस्तार होता है तथा उद्योगों में बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता है जिससे उत्पादन के साधनों का अनुकूलतम प्रयोग सम्भव हो जाता है तथा बाह्य मितव्ययिताओं की प्राप्ति होती है।
- सन्तुलित विकास नीति को अपनाने पर बाजार संबन्धी अपूर्णताएँ समाप्त हो जाती हैं। माँग की कमी की कोई समस्या नहीं रहती है इसलिए पूँजीपति विनियोग करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं।
- सन्तुलित विकास की तकनीक को लागू करने के लिए पर्याप्त पूँजी, तकनीकी ज्ञान, प्रबन्धकीय क्षमता व कुशल श्रम-शक्ति की आवश्यकता होती है, जबकि इन सभी साधनों का अर्द्ध-विकसित देशों में अभाव होता है।
सन्तुलित विकास की विशेषताएँ
- सन्तुलित विकास की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- सन्तुलित विकास का अर्थ एक-साथ सभी उद्योगों में विनियोग करना है।
- यह सिद्धान्त बहुमुखी विकास के सिद्धान्त की अवधारणा पर आधारित है।
- सन्तुलित विकास में कृषि एवं उद्योगों में सन्तुलन स्थापित करने हेतु दोनों का विकास एक समन्वित योजना के अन्तर्गत किया जाता है।
- सन्तुलित विकास पूरक उद्योगों का विकास करके बाजार को विस्तृत करता है।
- इसके अन्तर्गत निजी उपक्रम प्रणाली पर जोर दिया जाता है।
- सन्तुलित विकास में पूँजी का सुव्यवस्थित उपयोग आवश्यक है।
असन्तुलित विकास
- असन्तुलित विकास की धारणा इस बात पर आधारित है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों का विकास एक ही साथ नहीं किया जाता है अपितु प्रारम्भिक अवस्था में विनियोग को किन्हीं चुने हुए क्षेत्रों तक ही सीमित रखा जाता है।
- इन क्षेत्रों के विकास के उपरान्त अन्य क्षेत्रों का भी विकास किया जाता है। धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था असन्तुलित विकास की ओर से सन्तुलित विकास की ओर अग्रसर होती है।
- उत्पादन की आगामी अवस्थाओं में विनियोग को प्रोत्साहित करते हैं, जबकि अधोगामी सम्बन्ध प्रभाव उत्पादन की पिछली या प्रारम्भिक अवस्थाओं में विनियोग को प्रोत्साहित करते हैं।
- यह सिद्धान्त ‘असन्तुलनों की श्रृंखला’ पर आधारित है। असन्तुलन की एक कड़ी विकास का पथ प्रशस्त करती है। इससे नवीन असन्तुलन की कडि़याँ जन्म लेती हैं। फिर आर्थिक विकास होता है और यह प्रक्रिया निरन्तर विकास को प्रयोजित करती है।
- असन्तुलित विकास पद्धति के अन्तर्गत आधारभूत उद्योगों की स्थापना की जाती है। इन आधारभूत उद्योगों की स्थापना द्वारा देश का आर्थिक विकास तीव्र गति से होता है।
- असन्तुलित विकास में कुछ ही क्षेत्रों का अत्यधिक विकास किया जाता है। इससे प्रारम्भिक अवस्था में जब तक परिपूरक उद्योगों का विकास न हो, साधन अप्रयुक्त और निष्क्रिय रहते हैं।
असन्तुलित विकास के लाभ
- असन्तुलित विकास नीति के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था को निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं-
तीव्र आर्थिक विकास
- असन्तुलित विकास के कारण उत्पन्न अभाव विनियोग, आविष्कार, नवप्रवर्तन आदि को प्रोत्साहित करते हैं। देश में औद्योगिक विकास दर ऊँची हो जाती है जिससे देश का तीव्र आर्थिक विकास सम्भव होता है।
आधारभूत उद्योगों की स्थापना
- असन्तुलित विकास पद्धति के अन्तर्गत आधारभूत उद्योगों की स्थापना की जाती है। इस आधारभूत उद्योगों की स्थापना से ही देश का आर्थिक विकास तीव्र गति से होता है।
सहायक उद्योगों का विकास
- इस पद्धति में भारी एवं आधारभूत उद्योगों की स्थापना पर अधिक ध्यान दिया जाता है। इसके फलस्वरूप देश में सहायक उद्योगों एवं उपभोक्ता-वस्तु उद्योगों का विकास तेजी से होने लगता है।
आधारिक संरचना का विकास
- असन्तुलित विकास नीति के अन्तर्गत परिवहन, संचार, विद्युत, बैंक आदि सुविधाओं का तेजी से विकास होता है क्योंकि इन्हीं पर अन्य क्षेत्रों का विकास निर्भर होता है।
व्यावहारिक सिद्धान्त
- हर्शमैन द्वारा प्रतिपादित असन्तुलित विकास का सिद्धान्त एक यथार्थ सिद्धान्त है और विकासवादी नियोजन से सब पहलुओं पर विचार करता है। विकास के लिए प्रेरणाओं और उसके बाद में आने वाली कठिनाइयों और बाधाओं का भी उचित रूप से विवेचन इस सिद्धान्त में किया गया है।
साधनों का अनुकूलतम उपयोग
- सन्तुलित विकास नीति के अन्तर्गत सीमित संसाधनों का प्रयोग सर्वप्रथम इन क्षेत्रों में किया जाता है जो सर्वाधिक आवश्यक, अधिक प्रतिफल देने वाले तथा अन्य क्षेत्रों के विकास को प्रेरित करने वाले होते हैं। अतः ऐसे साधनों का अनुकूलतम उपयोग सम्भव हो जाता है।
धारणीय विकास
- धारणीय विकास एक ऐसा विकास है, जो भावी पीढि़यों की आवश्यकताओं की पूर्ति की क्षमता से समझौता किए बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
- धारणीय विकास में भावी आर्थिक संवृद्धि तथा भावी विकास का संरक्षण सम्मिलित होता हैं। अन्य शब्दों में, इसका अभिप्राय प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन की बेहतर गुणवत्ता से है।
- संवृद्धि अनिवार्य है, किंतु धारणीय विकास इसे विभिन्न प्रकार से देखता है। इसका संबंध भौतिक पर्यावरण से अधिक होना चाहिए, न केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए, किंतु भावी पीढ़ी के लिए भी।
- वर्तमान उपयोग की व्यवस्था आर्थिक ऋण को बढ़ाकर तथा परिस्थितिकीय असंतुलन लाकर, जिनका भुगतान भावी पीढ़ी करेगी, दीर्घकाल तक नहीं की जा सकती। धारणीय विकास, सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिए ऐसी विधियों की लगातार खोज करता है, जिनसे पृथ्वी के सीमित प्राकृतिक संसाधन समाप्त नहीं होंगे।
- धारणीय विकास, विकास की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें विकास लाने के लिए आर्थिक तथा अन्य नीतियां बनाई जाती है, जो आर्थिक, सामाजिक और परिस्थितिकीय दृष्टिकोण से धारणीय होती हैं। इस प्रकार, यह अवधारणा व्यक्तियों, रोजगार और प्रकृति के पक्ष में होती है। यह, निर्धनता कम करने, उत्पादक रोजगार, सामाजिक गठबंधन तथा पर्यावरण पुनरुत्थान को उच्चतम प्राथमिकता देती है। इस प्रकार धारणीय विकास के लिए आवश्यकता है-
- परिस्थितिकीय संसाधनों को सुरक्षित रखना और नवीकरणीय संसाधनों का अधिक प्रयोग करना विकास के लिए, पर्यावरण के लिए सुरक्षित प्रौद्योगिकी के प्रयोग को प्रोत्साहन देना अर्थात् आर्थिक क्रियाओं से होने वाले सभी प्रकार के प्रदूषणों को कम करने पर ध्यान केंद्रित करना।
- पारिस्थितिकीय और आर्थिक सुरक्षा को सम्मिलित करके लोगों की सुरक्षा और मानव न्याय की नीतियों का खाका तैयार करने और लागू करना।
आर्थिक विकास के आधुनिक संकेतक
- संयुक्त राष्ट्र की विकास योजना के अनुसार, मानव विकास को लोगों के चयन में वृद्धि की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
- विकास के सभी स्तरों पर लोगों के तीन अनिवार्य चुनाव में एक दीर्घकालीन स्वस्थ जीवन व्यतीत करना, अच्छा ज्ञान प्राप्त करना तथा बेहतर जीवन स्तर के लिए आवश्यक संसाधनों की पहुंच सम्मिलित हैं। यदि वह आवश्यक चुनाव उपलब्ध नहीं हैं तो जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए बहुत से अन्य अवसर पहुंच के बाहर होंगे।
- मानव विकास के दो आयाम हैं- मानव योग्यता प्राप्त करना और इन प्राप्त योग्यताओं का प्रयोग, उत्पादकता, आराम और अन्य उद्देश्यों के लिए करने से है।
- मानव विकास के लाभ, आय विस्तार और धन संचय से कहीं अधिक आगे तक जाते हैं, क्योंकि लोग मानव विकास की आवश्यकता का निर्माण करते हैं।
- मानव विकास, आर्थिक संवृद्धि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। आर्थिक संवृद्धि केवल एक विकल्प में सुधार पर ध्यान केंद्रित करती है अर्थात् आय या उत्पाद, जबकि मानव विकास सभी मानवीय विकल्पों में वृद्धि, जिनमें- शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पर्यावरण और भौतिक कल्याण शामिल हैं, पर ध्यान केंद्रित करता है।
- इस प्रकार लोगों के जीवन को सुधारने के विकल्प विस्तृत रूप से आर्थिक संवृद्धि की गुणवत्ता से प्रभावित होते हैं, किंतु इस प्रकार की संवृद्धि का प्रभाव केवल इसके परिमाणात्मक पहलू तक ही सीमित रहता है।
- दूसरे शब्दों में, आर्थिक संवृद्धि को एक साधन के रूप में देखने की आवश्यकता है। यद्यपि एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में, किंतु विकास के एक अंतिम उद्देश्य के रूप में नहीं। आय, मुख्यतया मानव कल्याण में एक महत्वपूर्ण योगदान देती है, यदि इसके लाभ लोगों के जीवन में सुधार लाने के लिए हों। किंतु आय में वृद्धि अपने में एक उद्देश्य नहीं है। संवृद्धि की गुणवत्ता है, न कि इसका परिमाण, जो कि मानव के कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है।
- इस प्रकार, मानव विकास की अवधारणा का संबंध मुख्य रूप से, मानव प्रयास के अंतिम उद्देश्य, लोगों को अच्छा जीवन जीने के योग्य बनाने से है। इस प्रकार, मानव निर्धनता, आय की निर्धनता से अधिक बड़ी है।
- मानव विकास की समस्या को देखने के अनेक ढंग हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण उपागम हैंः
- आय उपागम
- कल्याण उपागम
- न्यूनतम आवश्यकता उपागम
- क्षमता उपागम
- सन् 1990 ई. में दो अर्थशास्त्रियों प्रोफेसर महबूब अल हक एवं अमर्त्य सेन ने मानव विकास की अवधारणा को प्रस्तुत किया। 1990 से संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यू.एन.डी.पी. प्रति वर्ष मानव विकास सूचकांक एच.डी.आई. का परिकलन गणना करके एक रिपोर्ट प्रकाशित करता आ रहा है। इस रिपोर्ट को मानव-विकास रिपोर्ट एच.डी.आर. कहते हैं।
- यह रिपोर्ट प्रति वर्ष प्रकाशित होती है जिसके अन्तर्गत विश्व के प्रायः सभी देशों में हो रहे मानव विकास को सुनिश्चित किये गए पैमानो के आधार पर प्रत्येक देश के विकास की प्रगति को तीन श्रेणियों, अधिक या उच्च, मध्यम तथा कम या निम्न में वर्गीकृत किया जाता है।
- यह एक संयुक्त सूचकांक है जिसके द्वारा किसी देश के मानव विकास की औसत उपलब्धियों को मानव विकास के तीन आधारभूत आयामों के आधार पर माप सकते हैं। ये तीन आधारभूत आयाम हैंः
- दीर्घ एवं स्वस्थ जीवन,
- ज्ञान प्राप्त करना तथा
- एक शिष्ट और शालीन जीवन जीना।
- इन तीनों आयामों को निम्नाँकित तरीकों से मापा जाता है-
- स्वस्थ एवं दीर्घायु का मापन जन्म के समय जीवन प्रत्याशा से किया जाता है।
- ज्ञान का मापन प्रौढ़ साक्षरता दर 2/3 की धारिता और संयुक्त प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक स्तर पर सकल नामांकिन दर के अनुपात 1/3 धारिता से होता है।
- शिष्ट और शालीन जीवन जीने का मापन उस देश के सकल घरेलू उत्पादन तथा प्रति व्यक्ति क्रय शक्ति अमेरिकी डालरो में के सन्दर्भ में की जाती है। इसे क्रय शक्ति समरूपता पी.पी.पी. कहते हैं।
- मानव विकास सूचकांक सभी आयामों का संम्पूर्ण योग मात्र होता है। यह मानव विकास के सर्वांगीण विकास को चित्रित नहीं करता अपितु परम्परागत विकास मापक ‘आय’ से हटकर विकास की दशाओं में हुए सकारात्मक वृद्धि को दर्शाने का एक प्रयत्न है।
- यह प्रदर्शित करता है कि मानव विकास के प्रमुख क्षेत्रों में क्या उपलब्धियाँ हुई हैं। यह सूचकांक एक प्रकार का बैरोमीटर है जो मानव कल्याण के उपागमो में हो रहे परिवर्तनों को मापता है तथा देश के भिन्न-भिन्न राज्यों में हो रहे परिवर्तनो की प्रगति की तुलनात्मक स्थितियों को प्रदर्शित करने में सहायक है।
- इस प्रकार मानव विकास की अवधारणा का आधार स्वतंत्रता तथा मुक्त विकास है। यहां विकास का अर्थ स्वतंत्रता के साथ पर्यायवाची रूप में हैं।
- प्रायः लोगों में अपने आधारभूत विकल्पों को तय करने की न तो क्षमता होती है और न ही स्वतंत्रता। इसके पीछे उनके ज्ञान प्राप्त करने की अक्षमता, उनकी आर्थिक गरीबी, सामाजिक भेद-भाव जैसे अनेक कारण हो सकते हैं।
- अतः मानव विकास का उद्देश्य मानवों में उनकी क्षमता, सामर्थ्य एवं मानवीय योग्यताओं को बनाना तथा बढ़ाना होता है।
- मानवीय सामर्थ्य का मतलब उन तमाम चीजों को कर सकने की क्षमता को विकसित करना है, जिनके द्वारा वह सार्थक जीवन जी सके तथा समाज में प्रतिभागिता करते हुए अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सकने में स्वतंत्रता का आनंद ले सके।
- व्यक्तिगत अधिकार तथा स्वतंत्रता मानव विकास में बहुत महत्व रखते हैं, परन्तु ऐसे अधिकार एवं स्वतंत्रता का उपभोग कर सकने की पाबन्दी कुछ लोगों पर लग जाती हैं क्योंकि वे गरीब हैं, बीमार हैं, निरक्षर है, सामाजिक भेदभाव के कारण उपेक्षित हैं, आक्रामक संघर्ष में आतंकित हैं या फिर राजनैतिक पहचान से वंचित है।
- आर्थिक विकास और मानव विकास में मूलभूत अंतर यह होता है कि जहाँ आर्थिक विकास के सारे प्रयास ‘आय’ बढ़ाने में संकेन्द्रित होते हैं वहीं मानव विकास का ध्यान मानव जीवन के सभी पहुलुओं में विकास करने से होता है। ये पहलू आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक हो सकते हैं।
- आर्थिक विकास में मानवीय विकास एक आवश्यक घटक जरूर है। इसके पीछे मूलभूत भावना यह है कि आय का सदुपयोग न केवल आय वृद्धि मात्र है बल्कि इसके प्रयोग से मानव विकास के विकल्पों को निर्धारित करने से है। चूँकि किसी भी देश की वास्तविक परिसम्पति उसके मानव संसाधन हैं, अतः विकास का लक्ष्य मानव जीवन को साधन एवं सुविधा सम्पन्न करना ही होना चाहिए।
- मानव विकास रिपोर्ट में मानव विकास के सूचकाँको के अलावा अन्य चार सूचक या संकेतों को चुना गया है, जो निम्नाँकित हैं-
- मानव-गरीबी सूचकाँक एच.पी.आई.- 1 विकासशील देशों के लिए,
- मानव-गरीबी सूचकाँक एच.पी.आई.- 2 कुछ चुने हुए डी.ई.सी.डी. देशों के लिए,
- लिंग-आधाारित विकास सूचकांक जी.डी.आई,
- लिंग-सशक्तिकरण उपाय जी.ई.एम.,
- मौरिस डी. मौरिस ने 1979 में 23 विकसित तथा विकासशील देशों के जीवन की सम्मिश्र भौतिक गुणवत्ता का तुलनात्मक अध्ययन किया। उसने
- शिशु मृत्युदर,
- एक वर्ष की आयु में जीवन सम्भाव्यता तथा
- 15 वर्ष की आयु में मूल शिक्षा।
- जैसे तीन सूचक घटकों को, लोगों की मूल आवश्यकताओं को पूरा करने के कार्य के मूल्यांकन के लिए जोड़ा। इस सूचक से बहुत से सूचकों, जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल, पोषण तथा स्वच्छता आदि का पता चलता है।
- प्रत्येक सूचक के तीनों घटकों को शून्य से 100 तक के पैमाने पर रखा गया है जिसमें शून्य को न्यूनतम तथा 100 को सर्वोत्तम प्रदर्शन के रूप में परिभाषित किया गया है।
- PQLI सूचक की गणना तीनों घटकों को समान भार देते हुए औसत निकाल कर की जाती है तथा सूचक को भी शून्य से 100 के पैमाने पर रखा गया है। मौरिस के अनुसार, तीनों सूचकों में से प्रत्येक सूचक परिणाम को मापता है न कि आगतों को, जैसे आय।
- प्रत्येक सूचक आवंटन प्रभावों के प्रति संवेदनशील है अर्थात् इन सूचकों में वृद्धि अथवा सुधार से लोगों को उसी अनुपात में मिलने वाले लाभ का पता चलता है। परन्तु कोई भी सूचक विकास के किसी स्तर विशेष पर निर्भर नहीं है। प्रत्येक सूचक की अन्तर्राष्ट्रीय तुलना की जा सकती है।
- एक वर्ष की आयु में जीवन संभाव्यता तथा शिशु मृत्युदर के बीच सहसंबंध का गुणांक उच्च डिग्री तथा ऋणात्मक है। इस प्रकार का सहसंबंध शिक्षा तथा शिशु मृत्युदर के बीच है अर्थात् शिक्षा के साथ शिशु मृत्युदर में गिरावट आती है।
- शिक्षा तथा जीवन संभाव्यता के बीच गुणांक ऊंची डिग्री का धनात्मक सह-संबंध दर्शाता है अर्थात शिक्षा के साथ-साथ जीवन संभाव्यता में भी वृद्धि होती है।
- मौरिस के अनुसार एक वर्ष की आयु में जीवन संभाव्यता तथा शिशु मृत्युता जीवन की भौतिक गुणवत्ता के बहुत अच्छे सूचक हैं और यही बात शिक्षा तथा जीवन संभाव्यता के बारे में कही गई है। वास्तव में शिक्षा सूचक विकास की संभावना को व्यक्त करता है।
वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट
- विश्व खुशहाली रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र सतत विकास समाधान नेटवर्क द्वारा जारी किया जाता है। इसमें 6 पैमानों के आधार पर दुनिया के 156 देशों में खुशहाली का आकलन किया जाता हैं। ये 6 पैमाने निम्न हैं-
- प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (क्रय शक्ति समानता)।
- सामाजिक समर्थन।
- जन्म के समय स्वस्थ जीवन प्रत्याशा।
- जीवन के निर्णय लेने की स्वतंत्रता।
- उदारता।
- भ्रष्टाचार की धारणा।
- विश्व खुशहाली रिपोर्ट पहली बार 2012 में प्रकाशित हुई थी।
- यद्यपि विश्व खुशहाली रिपोर्ट विभिन्न प्रकार के डेटा पर आधारित हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण स्रोत हमेशा गैलप वर्ल्ड पोल रहा है, जो कि वार्षिक सर्वेक्षणों की वैश्विक श्रृंखला की रेंज और तुलनात्मकता में अद्वितीय है।
- वार्षिक रिपोर्ट प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद, स्वस्थ जीवन प्रत्याशा और निवासियों की राय के आधार पर राष्ट्रों को स्थान प्रदान करती है।
- सर्वेक्षणों ने उत्तरदाताओं को विभिन्न पहलुओं को 1-10 पैमाने पर इंगित करने के लिए कहा जैसे कि- अगर कुछ गलत हो जाता है तो वे कितना सामाजिक समर्थन महसूस करते हैं, अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने के लिए स्वयं को कितना स्वतंत्र महसूस करते हैं, या उनका समाज कितना भ्रष्ट है और वे कितने उदार हैं।
अंतर्राष्ट्रीय खुशहाली दिवसः
- प्रत्येक वर्ष 20 मार्च को मनुष्य के जीवन में खुशहाली के महत्त्व को इंगित करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय खुशहाली दिवस का आयोजन किया जाता है।
- संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2013 में अंतर्राष्ट्रीय खुशहाली दिवस मनाने की शुरुआत की गई थी लेकिन जुलाई, 2012 में इसके लिये एक प्रस्ताव पारित किया गया।
- पहली बार खुशहाली दिवस का संकल्प भूटान द्वारा लाया गया था, जिसमें 1970 के दशक की शुरुआत से राष्ट्रीय आय के बजाय राष्ट्रीय खुशी के महत्त्व पर जोर दिया गया तथा सकल राष्ट्रीय उत्पाद पर सकल राष्ट्रीय खुशहाली को अपनाया गया।
- सकल राष्ट्रीय खुशहाली सूचकांकः इसकी अवधारणा को भूटान के चौथे राजा जिग्मे सिंग्ये वांगचुक द्वारा वर्ष 1972 में प्रस्तुत किया गया था। इस अवधारणा का अर्थ है कि प्रगति के लिये सतत् विकास का एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करना और भलाई को बढ़ावा देने हेतु गैर-आर्थिक पहलुओं को समान महत्त्व देना।
- जीएनपी किसी भी वित्तीय वर्ष में किसी देश के नागरिकों द्वारा उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं का कुल मूल्य है, चाहे वे किसी भी स्थान पर मौजूद हों।
खुशहाली और सतत विकास लक्ष्यः
- सतत विकास लक्ष्यों में चार स्तंभ होने चाहिए।
- पहला- 2030 तक अत्यधिक गरीबी को समाप्त करने के लिए MDG के महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करना। विकासशील देशों ने 1990 और 2010 की तुलना में लगभग 44% से 22% तक समग्र गरीबी दर में सफलतापूर्वक कटौती की है।
- SDG का दूसरा स्तंभ पर्यावरणीय स्थिरता होना चाहिए।
- तीसरा स्तंभ सामाजिक समावेश होना चाहिए, यानी प्रत्येक समाज की प्रतिबद्धता होनी चाहिए कि प्रौद्योगिकी, आर्थिक प्रगति और सुशासन का लाभ प्रत्येक महिला और पुरुष, अल्पसंख्यक समूहों और बहुसंख्यक समूहों सभी को प्राप्त होने चाहिए।
- चौथा स्तंभ सुशासन होना चाहिए, यानी समाज की भागीदारी वास्तव में भागीदारीपूर्ण राजनीतिक संस्थानों के माध्यम से सामूहिक रूप से कार्य करने की क्षमता में परिलक्षित है।
बौद्धिक सम्पदा सूचकांक
- अमरीकी वाणिज्यिक संगठन ‘यूएस चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स’ द्वारा बौद्धिक सम्पदा सूचकांक जारी किया गया जाता है जिसका मुख्य उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बौद्धिक सम्पदा अधिकारों का संरक्षण, संवर्द्धन तथा मानदण्डों का बचाव सुनिश्चित करना है, इसके द्वारा वर्ष 2013 से प्रतिवर्ष विभिन्न मानकों के आधार पर विश्व बौद्धिक सम्पदा सूचकांक जारी किया जाता है।
- इस सूचकांक के प्रथम संकेतक हैं- नए शोध व आविष्कार, पेटेंट, कॉपीराइट एवं ट्रेडमार्क की सुरक्षा, औद्योगिक व वाणिज्यिक सम्पत्ति इत्यादि।
बौद्धिक संपदा
- बौद्धिक संपदा (Intellectual Property: IP), ऐसी संपदा है, जो बौद्धिक गुणों के व्यवहार द्वारा सृजित की जाती है। अर्थात् यह किसी व्यक्ति के बौद्धिक क्रियाकलापों का परिणाम होती है। बौद्धिक संपदा, बुद्धिमत्ता द्वारा किए गए ऐसे सृजन (जैसे- आविष्कार, औद्योगिक डिजाइन, साहित्यिक, कलात्मक कार्य, पहचान चिह्न आदि) को इंगित करती है, जो अंततः वाणिज्यिक प्रयोग में आते हैं।
- विश्व के सबसे बड़े व्यापारिक संघ यू.एस. चैबर ऑफ कॉमर्स का ‘वैश्विक नवाचार नीति केंद्र’ विश्वभर में बौद्धिक संपदा अधिकारों के समर्थन हेतु कार्यरत है, क्योंकि ये अधिकार नौकरियों के सृजन, जीवन रक्षा, वैश्विक आर्थिक विकास को आगे ले जाने तथा वैश्विक चुनौतियों हेतु महत्वपूर्ण समाधान विकसित करने की दृष्टि से आवश्यक हैं। इस संस्थान द्वारा अंतरराष्ट्रीय बौद्धिक संपदा सूचकांक वर्ष 2012 से जारी किया जा रहा है।
सूचकांक जारी करने का उद्देश्य
- विभिन्न देशों के नीति-निर्माताओं को एक स्पष्ट रोडमैप उपलब्ध कराना, जिससे वे प्रभावी बौद्धिक संपदा प्रणाली का उपयोग कर बेहतर और मजबूत अर्थव्यवस्था का निर्माण कर सकें।
- सूचकांक 50 से अधिक अद्वितीय संकेतकों के साथ प्रत्येक उस अर्थव्यवस्था के लिये बौद्धिक संपदा ढाँचे का मूल्यांकन करता है जो सबसे प्रभावी बौद्धिक संपदा प्रणालियों के माध्यम से अर्थव्यवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- ये संकेतक किसी अर्थव्यवस्था के समग्र आईपी पारिस्थितिकी तंत्र का एक ढाँचा तैयार करते हुए सुरक्षा की 9 श्रेणियाँ प्रदान करते हैं-
- पेटेंट
- कॉपीराइट
- ट्रेडमार्क
- डिजाइन का अधिकार
- व्यापार में गोपनीयता
- आईपी संपत्तियों का व्यावसायीकरण
- प्रवर्तन
- सर्वांगी दक्षता
- सदस्यता और अंतराष्ट्रीय संधियों का अनुसमर्थन
नए संकेतक
- यह सूचकांक बौद्धिक संपदा के संबंध में आने वाली नई चुनौतियों का सामना करने हेतु मानक निर्धारित करने का प्रयास करता है। अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा सूचकांक के इस संस्करण में पाँच नए संकेतकों और पहले से मौजूद संकेतकों में दो अतिरिक्त संकेतकों को भी शामिल किया गया है जो निम्नलिखित हैं-
- पादप विविधता सुरक्षा तथा सुरक्षा की अवधि
- आईपी-गहन उद्योग, राष्ट्रीय आर्थिक प्रभाव विश्लेषण
- पादपों की नई किस्मों की सुरक्षा हेतु अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन अधिनियम, 1991 की सदस्यता
- साइबर अपराध पर सम्मेलन, 2001 की सदस्यता
- औद्योगिक डिजाइनों के अंतर्राष्ट्रीय पंजीकरण के संबंध में हेग समझौता
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चिह्नों को पंजीकृत करने से संबंधित मैड्रिड समझौता प्रोटोकॉल
- पेटेंट सहयोग संधि
ग्रीन जीएनपी
- ग्रीन GNP की अवधारणा को सर्वप्रथम 1995 में विश्व बैंक द्वारा प्रतिपादित किया गया। ग्रीन जी.एन.पी. एक दी हुई समयावधि में प्रति व्यक्ति उत्पादन की वह अधिकतम संभावित मात्र है जो देश की प्राकृतिक सम्पत्ति को स्थिर रखते हुए प्राप्त की जा सकती है।
- ग्रीन GNP को Wealth of Nation भी कहा जाता है। 1995 में विश्व बैंक ने 192 देशों के ग्रीन GNP का आकलन किया था, जिसमें ऑस्ट्रेलिया शीर्ष पर था जबकि इथियोपिया सबसे नीचे था। भारत उस समय नीचे से 20वें स्थान पर था।
- संयुक्त राष्ट्र संघ तथा विश्व बैंक ने मिलकर एक राष्ट्र के सम्पदा के बेहतर आकलन के लिये पर्यावरणीय लेखांकन प्रणाली विकसित की है।
अर्थव्यवस्था की प्रमुख प्रक्रियाएं
पूँजी-उत्पाद अनुपात
- किसी देश को आर्थिक संवृद्धि प्राप्त करने के लिए कितनी पूँजी की आवश्यकता है, इसे जानने के लिए महत्त्वपूर्ण कारक है पूँजी उत्पादन अनुपात (Capital- Output Ratio)। किसी निश्चित उत्पादन के लिए वांछित कुल पूँजी के आनुपातिक मूल्य को ही पूँजी-उत्पादन अनुपात कहते हैं। गणितीय रूप से,
COR = C/R
- भारत में पहली पंचवर्षीय योजना में पूँजी-उत्पादन अनुपात मात्र 2.95 था, लेकिन दूसरी योजना में पूंजीगत वस्तुओं और भारी मशीनरी पर आधारित औद्योगीकरण की युक्ति के परिणामस्वरूप इसमें काफी वृद्धि हुई।
- दूसरी योजना में यह अनुपात 3.4 हो गया और इसमें बाद में काफी वृद्धि हुई। 10वीं पंचवर्षीय योजना में पूंजी की आवश्यकताओं का अनुमान लगाने के लिए योजना आयोग ने पूंजी-उत्पादन अनुपात 3.58 कर लिया था, परन्तु वास्तव में यह अनुपात 4.3 बना रहा।
उपभोग
- उत्पादन का उद्देश्य उपभोग के लिये वस्तु और सेवाओं का उत्पादन करना है। सेवाओं के उपयोग को सम्मिलित किया जाता है। अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि करने के लिये परिवार अनेक प्रकार की वस्तुओं जैसे साइकिल,फर्नीचर, टेलीविजन, कार, फ्रिज, खाद्यान्न, दूध, तेल, साबुन आदि तथा सेवाएं जैसे नाई, अध्यापक, डाक्टर, बैंक, बीमा कम्पनियों आदि की सेवाओं का क्रय करते हैं। सेवाओं के उत्पादन तथा उपभोग में समय का कोई अन्तराल नहीं होता है।
- सेवाओं का उत्पादन तथा उपभोग साथ-साथ होता है। जैसे ही उनका उत्पादन होता है, उनका उपभोग भी हो जाता है। जैसे, डॉक्टर, वकील, अध्यापक आदि की सेवाएं। जैसे ही आप किसी डॉक्टर के पास चिकित्सा के विषय में सलाह लेने जाते हैं, आप उसकी सेवाओं का उपभोग कर लेते हैं।
- वस्तुओं के बारे में ऐसा नहीं है। वस्तुओं के उत्पादन तथा उपभोग में समय का अन्तराल होता है। वस्तुओं का उपभोग तब मान लिया जाता है जब उनका क्रय किया जाता है। परन्तु कुछ दीर्घोपयोगी वस्तुएं जैसे फर्नीचर, साइकिल आदि अनेक वर्षों तक सेवाएं प्रदान करती रहती हैं, फिर भी जब उनका क्रय किया जाता है तो उनका उपभोग हो गया है, ऐसा मान लिया जाता है।
पूंजी निर्माण
- किसी अर्थव्यवस्था की तीसरी महत्त्वपूर्ण गतिविधि पूंजी निर्माण है। साधनों के स्वामी अपनी उत्पादक सेवाओं के बदले में साधन आय प्राप्त करते हैं।
- वे अपनी आय के एक बड़े भाग को वस्तुओं और सेवाओं जैसे- भोजन सामग्री, कपड़े, फर्नीचर, आवास, साइकिल, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर व्यय कर देते हैं।
- वे अपनी सारी आय को इन वस्तुओं और सेवाओं पर व्यय नहीं करते हैं। वे अपनी कुछ आय को बचाकर उसे भविष्य के लिये बैंक में जमा कर देते हैं। उदाहरण के लिये, यदि किसी व्यक्ति की आय 500 रु- है और वह इस सारी आय को व्यय कर लेता है तो कुछ भी बचत नहीं होता है।
- इसके विपरीत, यदि वह अपने उपभोग पर कुछ प्रतिबंध लगाकर उसे 300 रु- तक कर ले तो उसने 200 रु- की बचत की है और इसे वह भविष्य के लिये बैंक में जमा करने के लिये प्रयोग कर सकता है।
- बैंक इस मुद्रा का उपयोग किसी व्यवसायी को अपने व्यवसाय के विस्तार के लिये निवेश करने के लिये ऋण देने में कर सकता है। वर्तमान उपभोग पर रोक लगाकर ही पूंजी निर्माण किया जाता है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि बचत यदि व्यर्थ पड़ी रहे तो पूंजी निर्माण का हिस्सा नहीं बन सकती। यदि कोई व्यक्ति बचत करके अपने घर में उसे ताले में बंद कर देता है तो कोई पूंजी निर्माण नहीं होता है।
- यदि बची हुई मुद्रा को पूंजीगत वस्तुओं में लगा दिया जाए, केवल तब ही पूंजी निर्माण होता है जिससे भविष्य में उत्पादन तथा उपभोग सुगम हो जाता है।
- अतः वर्तमान उपभोग का त्याग किया जाता है तथा भविष्य में उत्पादन क्षमता में विस्तार करने के लिये प्रत्येक वर्ष विद्यमान पूंजीगत वस्तुओं जैसे मशीन, भवन आदि के स्टॉक में वृद्धि करने में प्रयोग किया जाता है।
- इसी प्रकार, देश के उत्पादन के एक भाग को उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं की तुष्टि करने में प्रयोग न करके उसे मशीन तथा उपस्कर के प्रावधान करने में लगाया जाता है जिससे उत्पादन होता रहे और उसमें विस्तार किया जा सके।
- इस प्रकार, जितना भी उत्पादन होता है वह या तो उपभोग के लिये अथवा पूंजी निर्माण के लिये अथवा दोनों के लिये प्रयोग कर लिया जाता है।
- इस प्रकार ये तीनों गतिविधियां, उत्पादन, उपभोग तथा पूंजी निर्माण अंतर्संबंधित हैं। यह भी स्पष्ट है कि वस्तु और सेवाओं के उत्पादन में वृद्धि से उपभोग तथा पूंजी निर्माण के स्तर में वृद्धि होती है।
- उपभोग में वृद्धि लोगों के जीवन स्तर में सुधार का सूचक है तथा पूंजी निर्माण में वृद्धि अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि देश की आर्थिक संवृद्धि इस पर निर्भर होती है। अधिक उपभोग संभव है यदि अधिक उत्पादन हो तथा अधिक उत्पादन संभव है यदि अधिक पूंजी निर्माण हो। अतः किसी देश के विकास में इन तीनों आर्थिक गतिविधियों का एक दूसरे से अन्योन्याश्रित संबंध है।
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