भारत में आर्थिक नियोजन | Economic Planning in India
आर्थिक नियोजन
- आर्थिक नियोजन का विचार विश्व में सर्वप्रथम सोवियत संघ द्वारा अपनाया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को अपनाने के साथ ही देश को विकास के पथ पर आगे ले जाने हेतु आर्थिक नियोजन को विकास के औजार के रूप में अपनाया गया।
आर्थिक नियोजन का अर्थ
- आर्थिक नियोजन से तात्पर्य उस विधि से है जिसमें केन्द्रीय योजना आयोग देश के साधनों को ध्यान में रखते हुए निश्चित समय में पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आर्थिक कार्यक्रमों तथा नीतियों को लागू करता है। दूसरे शब्दों में एक निश्चित समयावधि में लक्ष्यों तथा उद्देश्यों से प्रेरित उद्देश्यों से केन्द्रीय प्राधिकरण द्वारा अर्थव्यवस्था का आयोजित नियंत्रण तथा निदेशन ही आर्थिक नियोजन है।
- योजना आयोग के अनुसार ‘आर्थिक नियोजन का अर्थ है स्वीकृत राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुसार देश के साधनों का विभिन्न विकासात्मक क्रियाओं में प्रयोग करना।’
- भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल को अपनाया गया है जिसमें उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व तथा बाजार शक्तियों के स्वतंत्र क्रियाकलाप की विशेषताओं का एकत्रण किया गया हैं इस व्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र को सशक्त बनाने के साथ-साथ निजी स्वामित्व सम्पतियों तथा प्रजातांत्रिक व्यवस्था को भी मजबूती प्रदान की गई है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के अनुसार, आर्थिक नियोजन का अर्थ केवल अनुसरण की जाने वाली क्रियाओं की सूची बनाना नहीं है और न ही कोई राजनैतिक आदर्श खड़ा करना है, बल्कि यह एक अर्थव्यवस्था को विकसित करने का सर्वोत्तम ढंग है। यह एक अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता की तीव्रता को जानने के लिए आवश्यक है।
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आर्थिक नियोजन के उद्देश्य
- आर्थिक नियोजन के अन्तर्गत आर्थिक विकास इस गति से होना चाहिए कि इसका प्रतिफल आम जनता अनुभव कर सके। दूसरे शब्दों में, आयोजन का उद्देश्य आर्थिक विकास की गति को तीव्र करना है। इस हेतु भारतीय आयोजकों ने योजना के उद्देश्यों को दो निम्न प्रमुख भागों में विभाजित किया हैः-
दीर्घर्ककालिक या सामान्य उद्देश्य
- इन उद्देश्यों को प्राप्त करने की अवधि लगभग 20 वर्ष रखी जाती है। इन उद्देश्यों में प्रमुखतः संवृद्धि, पूर्ण- रोजगार, समानता, आत्मनिर्भरता, आधुनिकीकरण आदि शामिल होते हैं।
संवृद्धि-
- संवृद्धि से अभिप्राय देश में वस्तुओं व सेवाओं की उत्पादन क्षमता में वृद्धि से है। अर्थात् उत्पादक वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन भंडार में वृद्धि करना जैसे- मशीनों, औजारों, बैंकिग, परिवहन आदि का विस्तार करना।
- आर्थिक शब्दावली में संवृद्धि से तात्पर्य सकल घरेलू उत्पादन GDP में होने वाली निरन्तर वृद्धि से लिया जाता है।
- सकल घरेलू उत्पाद का अर्थ किसी अर्थव्यवस्था में एक वर्ष की समयावधि में उत्पादित समस्त अंतिम वस्तुओं व सेवाओं के मौद्रिक मूल्य के योग से है।
- सकल घरेलू उत्पादन अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से होने वाले उत्पादन से प्राप्त होता है। इन विभिन्न क्षेत्रों में प्राथमिक क्षेत्र, द्वितीयक क्षेत्र तथा तृतीयक क्षेत्र शामिल है।
- अर्थव्यवस्था में विकास के साथ-साथ सकल घरेलू उत्पाद में प्राथमिक क्षेत्र का हिस्सा कम होता जाता है और द्वितीयक व तृतीयक क्षेत्र का हिस्सा बढ़ता जाता है।
पूर्ण रोजगार-
- भारत के आर्थिक नियोजन में एक महत्वपूर्ण दीर्घकालीन लक्ष्य पूर्ण रोजगार को प्राप्त करना रखा गया।
- पूर्ण रोजगार वह स्थिति है जिसमें रोजगार करने के योग्य सभी लोगों को काम मिलना चाहिए जो काम करने के लिए तैयार है।
- यह पंचवर्षीय योजनाओं का एक सामाजिक उद्देश्य था। जिसका तात्पर्य है कि विकास में धनी तथा गरीब वर्गों की समान भागीदारी हो।
समानता-
- आर्थिक संवृद्धि का लाभ यदि कुछ लोगों को ही प्राप्त होता है तो यह संवृद्धि अर्थहीन होगी। ऐसी स्थिति में धनी वर्ग अधिक धनी तथा निर्धन वर्ग अधिक निर्धन बनकर रह जायेगा जिससे संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
- अतः आर्थिक समानता को नियोजन में एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बनाया गया। इसके द्वारा ही संवृद्धि, आत्मनिर्भरता, आधुनिकीकरण के लक्ष्य फलीभूत हो सकते हैं।
आत्मनिर्भरता-
- आर्थिक आयोजन अपनाने के समय भारत कृषि प्रधान देश होते हुए भी खाद्यान्नों का आयात करता था, आधारभूत उद्योगों का विकास न के बराबर होने की वजह से बड़ी मात्र में परिवहन उपकरण, बिजली संयंत्र, मशीनी औजार, भारी इंजिनियरिंग वस्तुओं और पूंजीगत पदार्थों का विदेशों से आयात करना पड़ता था।
- विकसित देश अपनी मजबूत सौदाकारी शक्ति का प्रयोग कर, अल्पविकसित देशों से अपनी वस्तुओं की ऊँची कीमतें वसूल करते थे। इससे यह स्पष्ट हुआ कि किसी देश को अपनी संवृद्धि व आधुनिकीकरण को आगे बढ़ाने के लिए खाद्यान्न व मशीनरी में आत्मनिर्भर बनना होगा, साथ ही विदेशी सहायता को भी कम करना होगा।
- भारतीय नियोजन में आत्मनिर्भरता को प्रमुख लक्ष्य के रूप में अपनाया गया। आत्मनिर्भरता का तात्पर्य है, जिन वस्तुओं का उत्पादन देश में संभव हो सकता है उनका आयात कम करना और अन्ततः बंद करना।
आधुनिकीकरण-
- भारतीय आर्थिक नियोजन में लक्ष्य रखा गया कि परम्परागत तकनीकी के स्थान पर आधुनिक तकनीकी का प्रयोग किया जाये।
- आधुनिक तकनीकी की तात्कालिक आवश्यकता कृषि क्षेत्र तथा डेयरी उद्योग में महसूस की गई। इस हेतु देश में शोध और विकास पर अधिक जोर दिया गया।
- छठी पंचवर्षीय योजना में सर्वप्रथम आधुनिकीकरण के उद्देश्य को प्रमुखता से इंगित किया गया, और कहा गया कि आधुनिकीकरण शब्द आर्थिक क्रिया के रूप में अनेक ढांचागत और संस्थागत परिवर्तनों की ओर संकेत करता है।
- इससे उत्पादन का ढांचा बदलेगा, उत्पादक क्रियाओं में विविधता आएगी, तकनीकी विकास होगा और संस्थागत परिवर्तन होंगे। इन सबसे भारतीय अर्थव्यवस्था सामन्ती- उपनिवेशवादी से आधुनिक और स्वतंत्र अर्थव्यवस्था में रूपांतरित जायेगी।
आयोजन के प्रकार
परिदृश्यात्मक आयोजनः
- परिदृश्यात्मक आयोजन का आशय दीर्घावधि आयोजन से है परंतु इसका अर्थ दीर्घावधि के लिए एकमात्र आयोजन से नहीं है।
- वास्तव में परिदृश्यात्मक आयोजन के लक्ष्यों को लघु अवधि आयोजन के माध्यम से भी प्राप्त किया जा सकता है।
निर्देशात्मक आयोजनः
- निर्देशात्मक आयोजन मिश्रित अर्थव्यवस्था की विशिष्टता है, जहाँ निजी व सार्वजनिक क्षेत्र सह-अस्तित्वमान होते हैं।
- राज्य आयोजन में निजी क्षेत्र के लिए क्षेत्रों का निर्देशन तो कर देता है परतु निजी क्षेत्र का निर्देशन नहीं करता।
- निजी क्षेत्र बाजार शक्तियों से प्रभावित होकर उत्पादन व कीमत का निर्धारण करता है। निजी क्षेत्र पर सरकार कोटा, ऋण, प्रोत्साहन, लाइसेंस, बाजार दर इत्यादि के माध्यम से नियंत्रण रखती है।
विस्तृतात्मक आयोजनः
- आयोजन की यह विधि समाजवादी देशों में अपनाई जाती है। विस्तृतात्मक आयोजन के अंतर्गत आयोजन प्राधिकारी प्रत्येक क्षेत्र में निवेश की मात्र को निर्धारित करते हैं। इसके अतिरिक्त उत्पादन के साधन, उत्पादन का मूल्य, उत्पाद का प्रकार तथा उसकी मात्र का निर्धारण भी आयोजन प्राधिकारी करते हैं।
- इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता को स्वायत्तता नहीं होती है और आयोजन में एक क्षेत्र की असफलता समस्त अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने में सक्षम होती है।
केंद्रीकृत आयोजन:
- केंद्रीकृत आयोजन के अंतर्गत देश की संपूर्ण आयोजन प्रक्रिया को एक केंद्रीय प्राधिकरण के अधीन कर दिया जाता है।
- यह केंद्रीय प्राधिकरण केंद्रीकृत आयोजन का निर्माण करता है जिसके अंतर्गत अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र के लिए लक्ष्य, प्राथमिकताओं एवं उद्देश्यों को निर्धरित किया जाता है। इस व्यवस्था के अंतर्गत कोई आर्थिक स्वतंत्रता नहीं होती है एवं संपूर्ण आयोजन को नौकरशाही के नियंत्रण व विनियमन में संपन्न किया जाता है।
विकेंद्रीकृत आयोजनः
- विकेंद्रीकृत आयोजन को सबसे निचले स्तर (जिला या ग्राम या ब्लॉक) में आयोजित किया जाता है। इस व्यवस्था के अंतर्गत केंद्रीय आयोजन प्राधिकरण देश की विभिन्न प्रशासनिक इकाइयों से विचार-विमर्श के पश्चात एक योजना का निर्माण करता है।
- केंद्रीय योजना में संघीय व्यवस्था के अधीन राज्यों की योजनाएँ शामिल की जाती हैं, राज्य की योजनाओं में जिला व ग्राम स्तर की योजनाओं को स्थान दिया जाता है। मूलभूत क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में कीमतों का निर्धारण बाजार शक्तियों के माध्यम से किया जाता है। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए भी योजना में कुछ विशिष्ट क्षेत्रों को सुनिश्चित किया जाता है।
अभिप्रेरण आयोजनः
- अभिप्रेरण आयोजन के अंतर्गत बाजार परिचालन के माध्यम से आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार के आयोजन के अंतर्गत उद्यम लगाने तथा उपभोग व उत्पादन की स्वतंत्रता होती है।
- यह स्वतंत्रता सरकारी विनियमन एवं निंयत्रण के अधीन होती है। आर्थिक इकाइयों को सुनिश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एवं उनसे अपेक्षित व्यवहार के लिए विभिन्न मौद्रिक व राजकोषीय नीतियों के माध्यम से अभिप्रेरित किया जाता है।
- निवेश एवं उपभोग पर नियंत्रण के लिए सब्सिडी, कर छूट, कीमत नियंत्रण एवं राशनिंग जैसे उपायों को अपनाया जाता है। अभिप्रेरण आयोजन के माध्यम से आयोजन लक्ष्य प्राप्त करने में व्यक्तिगत स्वतंत्रता में सापेक्षतया थोड़ी ही कमी होती है।
वित्तीय एवं भौतिक आयोजनः
- वित्तीय आयोजन के अंतर्गत राष्ट्रीय आय, उपभोग, आयात इत्यादि विषयों में विभिन्न परिकल्पनाओं के आधार पर अनुमान लगाये जाते हैं एवं परिव्यय को मौद्रिक रूप में सुनिश्चित कर दिया जाता है। इसके साथ ही इस परिव्यय की पूर्ति के लिए कर, बचत एवं मुद्रा धारण में वृद्धि के भी अनुमान, मुद्रा रूप में लगाये जाते हैं।
- भौतिक आयोजन के अंतर्गत आय व रोजगार बढ़ाने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए संसाधन विनियोजन एवं उत्पादित मात्र के संदर्भ में विकास प्रयासों के प्रभावों की गणना का प्रयास किया जाता है।
रॉलिंग आयोजन
- रॉलिंग आयोजन के अंतर्गत प्रतिवर्ष तीन योजनाएं बनाई व लागू की जाती है। पहली योजना के अंतर्गत चालू वर्ष का वार्षिक बजट व विदेशी विनियम बजट होता है।
- दूसरी योजना 3, 4, या 5 वर्ष की एक योजना होती हैं जो प्रतिवर्ष अर्थव्यवस्था की परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती है।
- तीसरी योजना दीर्घावधि अर्थात् 10, 15 या 20 वर्ष की परिदृश्यात्मक योजना होती है, जिसमें वृहद लक्ष्यों का वर्णन होता है।
- रॉलिंग आयोजन के अंतर्गत परिदृश्यात्मक योजना के लक्ष्यों को ध्यान में रख कर अन्य दो योजनाओं को तैयार किया जाता है। भारत में रॉलिंग आयोजन की अवधरणा को वर्ष 1978 में अपनाया गया।
स्थिर आयोजनः
- स्थिर आयोजन 4, 5, 6 या 7 वर्ष की अवधि के लिए तैयार किया जाता है। इसके अंतर्गत योजनावधि में सुनिश्चित लक्ष्य व उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है।
- इस उद्देश्य के लिए परिव्यय के अतिरिक्त भौतिक लक्ष्यों को भी सुनिश्चित किया जाता है। भौतिक लक्ष्यों एवं वित्तीय परिव्यय को आपातकाल के अतिरिक्त कभी परिवर्तित नहीं किया जाता।
भारत में आर्थिक नियोजन
- भारत में आर्थिक नियोजन की प्रक्रिया प्रथम पंचवर्षीय योजना के साथ 1 अप्रैल, 1951 को प्रारम्भ हुई। हालांकि यहां आर्थिक विकास के लिए आयोजन के महत्व को स्वतंत्रता से पूर्व ही स्वीकृति मिल चुकी थी।
- सबसे पहले एम. विश्वेश्वररैया ने सन् 1934 में ‘प्लांड इकोनॉमी फॉर इण्डिया’ नामक पुस्तक में योजना की प्रथम रूपरेखा रखी थी। जिसके अंतर्गत उन्होंने भारत के आर्थिक विकास की 10 वर्षीय योजना का प्रारूप सामने रखा था।
- सन् 1938 में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में नेशनल प्लानिग कमेटी की नियुक्ति की गयी जिसके द्वारा देश के आर्थिक विकास के लिए योजना का एक मसौदा प्रकाशित किया गया। समिति के कार्य में द्वितीय विश्व युद्ध के कारण बाधा पहुँची जिससे यह 1948 में ही अपनी रिपेार्ट जारी कर पाई।
- इसके उपरान्त देश के समक्ष एक-एक करके तीन विकास योजनाएँ रखी गयीं-
i) बम्बई योजना-
- 1943 के अन्त में बम्बई के आठ प्रमुख उद्योगपतियों ने भारत के आर्थिक विकास की योजना प्रस्तुत की। यह योजना बम्बई योजना के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें 15 वर्षों का कुल व्यय 10,000 करोड़ रुपये निश्चित किया गया।
- ‘ए प्लान ऑफ इकोनोमिक डेवलपमेंट ऑफ इंडिया’ नामक इस योजना में 15 वर्षों में 10,000 करोड़ रुपये के व्यय के माध्यम से प्रति व्यक्ति आय को दुगना करने की योजना थी।
- ‘बाम्बे प्लान’ के नाम से विख्यात इस योजना में कृषि में 130 प्रतिशत, उद्योग में 500 प्रतिशत व सेवा क्षेत्र के निर्यात में 200% वृद्धि की आशा की गई थी।
- अगस्त, 1944 में भारत सरकार ने द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए सर ए- दलाल की अध्यक्षता में आयोजना व विकास विभाग का गठन किया।
ii) गाँधीवादी योजना-
- 1944 में आचार्य श्रीमन्नारायण अग्रवाल द्वारा देश के आर्थिक विकास के लिए गाँधीवादी योजना प्रस्तुत की गयी। यह योजना आदर्शवादी थी जिसमें व्यय कार्यक्रमों व लक्ष्यों पर ध्यान केन्द्रित न करके योजनावधि पर अधिक ध्यान दिया था।
iii) जन योजना-
- अप्रैल 1945 से ‘इण्डियन फेडरेशन ऑफ लेबर’ की ओर से एम. एन. राय ने जन योजना प्रकाशित की। यह योजना 10 वर्ष की अवधि के लिए बनायी गयी थी तथा इसके अन्तर्गत कुल व्यय 1,500 करोड़ रुपये अनुमानित था।
- उपर्युक्त किसी भी योजना को व्यावहारिक रूप देना सम्भव नहीं हो पाया क्योंकि विदेशी शासक देश के आर्थिक विकास के किसी भी कार्यक्रम में रुचि नहीं लेते थे।
- स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय देश में गरीबी, खाद्यान्न का अभाव, बेरोजगारी, आवासों की कमी, अशिक्षा, शोषण-प्रवृत्ति, औद्योगिक अशान्ति, कृषि का पिछड़ापन आदि अविकसित अर्थव्यवस्था की सभी समस्याएँ विद्यमान थीं। इन विभिन्न समस्याओं से निपटने के लिए यह आवश्यक था कि आर्थिक नियोजन का सहारा लिया जाये।
- स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद 1950 में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में देश के भौतिक, पूँजीगत एवं मानवीय साधनों को आँकने तथा इनके आधार पर आर्थिक विकास के लिए योजना बनाने के लिए योजना आयोग की स्थापना की गयी।
- आयोग ने अपनी स्थापना के 15 महीनों के पश्चात् जुलाई सन् 1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना की रूपरेखा सरकार के आगे प्रस्तुत की। पण्डित नेहरू ने 8 दिसम्बर, 1952 को लोकसभा के आगे प्रथम पंचवर्षीय योजना का अन्तिम प्रारूप पेश किया था।
- योजना आयोग द्वारा क्रियान्वित विभिन्न योजनाओं की समयावधि व अन्य वितरण विकास मॉडल, प्राथमिकताएँ, विकास दर का लक्ष्य व वास्तविक विकास दर नीचे सारणी में प्रस्तुत किया गया है।
भारत में आयोजन का उद्देश्य
- भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था है इस प्रकार यहाँ नियोजन पूंजीवादी एवं समाजवादी दोनों प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं पर आधारित है। अर्थात् देश के आर्थिक विकास के लिए निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र दोनों आवश्यक हैं और नियोजन में इन दोनों क्षेत्रों पर समान बल दिया जाता है।
- इस प्रकार भारत सरकार का आदर्श प्रजातान्त्रिक समाजवाद पर आधारित है जिसका मूल अर्थ प्रजातान्त्रिक मूल्यों के साथ समाजवाद है। भारतीय नियोजन के मुख्य लक्ष्य निम्नलिखित हैं –
- आर्थिक विकास
- गरीबी उन्मूलन
- रोजगार सृजन
- आर्थिक असमानता को दूर करना।
- आत्मनिर्भरता
- आधुनिकीकरण
- समावेशिक विकास/धारणीय/पोषणीय विकास
- विभिन्न योजनाओं में परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार उद्देश्यों को परिभाषित और निर्धारित किया जाता है जिनका योजनावार विवरण निम्न प्रकार है-
पहली पंचवर्षीय योजना
- अवधि- 1 अप्रैल, 1951 से 31 मार्च, 1956 तक।
- सैद्धान्तिक मॉडल- हैरड-डोमर मॉडल के परिवर्द्धित मॉडल पर आधारित
- प्रमुख उद्देश्य- कृषि क्षेत्र का विकास करना।
अन्य उद्देश्य-
- शरणार्थियों का पुनर्वास करना।
- द्वितीय विश्वयुद्ध और विभाजन से क्षतिग्रस्त अर्थव्यवस्था का पुनरुत्थान करना।
- खाद्य समस्याओं का समाधान करना।
- मुद्रा-स्फीति पर नियन्त्रण करना।
- लघु व कुटीर उद्योगों का पुनरुद्धार और औद्योगीकरण की पृष्ठभूमि तैयार करना।
- प्रथम पंचवर्षीय योजना के प्रारम्भ होने के समय देश की अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त थी। द्वितीय विश्वयुद्ध तथा देश के विभाजन के कारण अर्थव्यवस्था को गहरा आघात लगा था। प्रथम योजना का उद्देश्य अर्थव्यवस्था में उत्पन्न हुए इस असन्तुलन को दूर करना था।
- प्रथम पंचवर्षीय योजना में 1960 करोड़ रुपये व्यय किये गये। इस योजना में कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की गयी। योजना व्यय का 44 प्रतिशत भाग कृषि, सिचाई व शक्ति पर व परिवहन एवं संचार पर 27 प्रतिशत भाग व्यय किया गया।
- यह योजना सन्तुलित विकास की व्यूह-रचना पर आधारित एक योजना थी। यद्यपि भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति की दृष्टि से यह सफल रही परन्तु इस योजना में उद्योगों तथा खनिजों के विकास पर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया गया।
दूसरी पंचवर्षीय योजना
- अवधि- 1 अप्रैल, 1956 से 31 मार्च, 1961 तक।
- सैद्धान्तिक मॉडल- पी. सी. महालनोबिस के असन्तुलित विकास के मॉडल पर आधारित (आगत-निर्गत विकास मॉडल)।
- प्रमुख उद्देश्य- तीव्र औद्योगीकरण करना।
अन्य उद्देश्य-
- राष्ट्रीय आय में पर्याप्त वृद्धि करना।
- तीव्र औद्योगीकरण जिसमें आधारभूत व भारी उद्योगों पर विशेष बल देना।
- आय व सम्पत्ति की असमानता को कम करना।
- आर्थिक विकास का समान वितरण करना।
- रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना।
- द्वितीय पंचवर्षीय योजना की व्यूह-रचना महालनोबिस मॉडल पर आधारित थी। इस योजना में कृषि के स्थान पर उद्योगों को, श्रम-प्रधान परियोजनाओं के आधार पर पूँजी-प्रधान परियोजनाओं को, सन्तुलित विकास के आधार पर असन्तुलित विकास को, उपभोग के स्थान पर उत्पादन व रोजगार को मान्यता दी गयी।
- द्वितीय योजना में सार्वजनिक क्षेत्र में 4,672 करोड़ रुपये व्यय हुए जिसका 27 प्रतिशत परिवहन एवं संचार साधनों, 1 प्रतिशत उद्योग व खनिज तथा 18.9 प्रतिशत सिचाई एवं ऊर्जा पर व्यय किया गया।
तीसरी पंचवर्षीय योजना
- अवधि- 1 अप्रैल, 1961 से 31 मार्च, 1966 तक।
- सैद्धान्तिक मॉडल- जॉन सैण्डी एस- चक्रवर्ती के मॉडल पर आधारित।
- प्रमुख उद्देश्य- अर्थव्यवस्था को स्वावलम्बी स्वस्फूर्त बनाना।
अन्य उद्देश्य-
- कृषि क्षेत्र का विकास करना।
- खाद्यान्नों के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता प्राप्त करना।
- कृषि व उद्योगों का समन्वित विकास करना।
- द्रुत औद्योगीकरण के लिए आधारभूत उद्योगों का तीव्र गति से विकास करना।
- अवसर की समानता सुनिश्चित करना।
- आय व सम्पत्ति की असमानता में कमी करना।
- रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना।
- तीसरी पंचवर्षीय योजना का प्रमुख उद्देश्य आत्म-स्फूर्ति की अवस्था को प्राप्त करना था। इस योजना में कृषि एवं सिचाई के विकास को महत्व प्रदान करते हुए कहा गया कि विस्तारशील अर्थव्यवस्था को खाद्य व कच्चे माल की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कृषि उत्पादन में वृद्धि लाने की अत्यधिक आवश्यकता है।
- तृतीय योजना में सार्वजनिक क्षेत्र के कुल परिव्यय 8,577 करोड़ रुपये में से कृषि एवं सिचाई में 20.4 प्रतिशत, परिवहन एवं संचार पर 24.7 प्रतिशत तथा संगठित उद्योग एवं खनिज पर 20.1 प्रतिशत भाग व्यय किया गया।
- इस योजना में कृषि के साथ-साथ शक्ति, परिवहन और उद्योग को भी महत्व देकर विकास की सन्तुलित रणनीति अपनायी गयी परन्तु योजनाकाल में चीन व पाकिस्तान युद्ध से योजना का समस्त ढाँचा अस्त-व्यय हो गया।
3 वार्षिक योजनाएँ
- अवधि- 1 अप्रैल, 1966 से 31 मार्च, 1969 तक।
उद्देश्य-
- युद्ध से उत्पन्न स्थितियों का निराकरण करना।
- खाद्यान्न संकट का समाधान करना।
- मुद्रा-स्फीति पर नियन्त्रण करना।
- चौथी योजना के लिए आधार तैयार करना।
चौथी पंचवर्षीय योजना
- अवधि- 1 अप्रैल, 1969 से 31 मार्च, 1974 तक।
- सैद्धान्तिक मॉडल- एलन एस- मान्ने और अशोक रुद्र मॉडल।
- प्रमुख उद्देश्य- स्थिरता के साथ आर्थिक विकास और आत्म-निर्भरता की प्राप्ति करना।
अन्य उद्देश्य-
- कृषि और उद्योग के क्षेत्र में उत्तरोत्तर आत्म-निर्भरता प्राप्त करना।
- न्यायपूर्ण विकास करना।
- अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों का सन्तुलित विकास करना।
- द्रुत गति से औद्योगिक विकास जिसमें आधारभूत और भारी उद्योगों पर विशेष बल देना।
- आय व सम्पत्ति की असमानता में कमी करना।
- रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना।
- राष्ट्रीय आय में तीव्र वृद्धि करना।
- चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में ‘स्थिरता के साथ विकास’ का नारा दिया गया। यद्यपि चौथी योजना का आधारभूत ढाँचा महालनोबिस व्यूह-रचना पर ही आधारित था परन्तु उसमें कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन भी किये गये।
- योजना के लक्ष्यों में खण्डीय असन्तुलन का महत्व स्वीकारा गया, पिछड़े क्षेत्रों के विकास पर बल दिया गया तथा भारत के विदेशी व्यापार क्षेत्र को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया।
- इस योजना के वास्तविक परिव्यय 15,779 करोड़ रुपये में से कृषि तथा सिचाई के लिए 23-3 प्रतिशत, शक्ति के लिए 18-6 प्रतिशत, परिवहन एवं संचार के लिए 19-5 प्रतिशत भाग व्यय किया गया।
5वीं पंचवर्षीय योजना
- अवधि- 1 अप्रैल, 1974 से 31 मार्च, 1978 तक।
- पाँचवीं पंचवर्षीय योजना को जनता पार्टी की सरकार द्वारा अपने निर्धारित समय से एक वर्ष पूर्व ही समाप्त घोषित करके छठी योजना (1978-83) लागू की गयी जिसे अनवरत योजना का नाम दिया गया था।
- सैद्धान्तिक मॉडल- योजना आयोग के दृष्टि योजना विभाग द्वारा तैयार प्रारूप पर आधारित जिसमें तीन मॉडलों को शामिल किया गया था-
- समविष्ट भावी मॉडल,
- आगत-निर्गत मॉडल,
- उपयोग के मॉडल।
- प्रमुख उद्देश्य- गरीबी निवारण व आत्म-निर्भरता प्राप्त करना।
अन्य उद्देश्य-
- रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना।
- न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम को क्रियान्वित करना।
- कृषि, आधारभूत एवं मूल उद्योगों पर विशेष बल देना।
- उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन पर बल देना।
- आर्थिक, सामाजिक तथा क्षेत्रीय असमानता को कम करना।
- आयात प्रतिस्थापन और निर्यात प्रोत्साहन की नीति अपनाना।
- खाद्यान्नों का भण्डारण तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार।
- पाँचवीं पंचवर्षीय योजना की व्यूह-रचना अपने दोहरे उद्देश्यों-
- गरीबी को दूर करना,
- आर्थिक निर्भरता को प्राप्त करना पर आधारित थी।
- यद्यपि पाँचवीं योजना में गरीबी निवारण कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी गयी लेकिन गरीबी कम करने के लिए घरेलू उत्पाद में वृद्धि की दर को ऊँचा उठाने पर जोर दिया गया। इस दृष्टि से-
- चालू विकास परियोजना को शीघ्र पूरा करने,
- पूर्व स्थापित क्षमताओं का पूर्ण प्रयोग करने,
- मुख्य क्षेत्र में आवश्यक न्यूनतम लक्ष्यों को प्राप्त करने और
- समाज के कमजोर वर्गों के लिए विकास का न्यूनतम स्तर प्राप्त करने पर बल दिया गया।
- पाँचवीं योजना का कुल परिव्यय 39,246 करोड़ रुपये का था जिसका सर्वाधिक 24.3 प्रतिशत उद्योग एवं खनिज, 8 प्रतिशत शक्ति तथा 17.4 एवं 17-3 प्रतिशत भाग क्रमशः परिवहन एवं सामाजिक सेवाओं में व्यय किया गया।
छठी पंचवर्षीय योजना
- अवधि- 1 अप्रैल, 1980 से 31 मार्च 1985 तक।
- सैद्धान्तिक मॉडल- कई विकास युक्तियों को ध्यान में रखते हुए संरचनात्मक परिवर्तन एवं संवृद्धि पर बल।
- प्रमुख उद्देश्य- रोजगार सृजन।
अन्य उद्देश्य-
- आर्थिक संवृद्धि-दर में पर्याप्त वृद्धि करना।
- आर्थिक व तकनीकी आत्म-निर्भरता के उद्देश्य से आधुनिकीकरण पर बल।
- गरीबी और बेरोजगारी में कमी करना।
- ऊर्जा क्षेत्र में तीव्र विकास के साथ घरेलू संसाधनों के उपयोग पर बल।
- न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के विस्तार द्वारा सामान्य जीवन-स्तर में सुधार करना।
- आय व सम्पत्ति की असमानता में सुधार करना।
- पर्यावरण संरक्षण करना।
- क्षेत्रीय असमानता में क्रमिक सुधार करना।
- संचार व संस्थागत नीतियाँ।
- छठी पंचवर्षीय योजना की व्यूह रचना इस प्रकार से की गयी थी जिससे कृषि और उद्योग दोनों क्षेत्रों की संरचना सुदृढ़ हो, ताकि पूँजी निवेश, उत्पादन और निर्यात बढ़ाने के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार हो सके और इस उद्देश्य से तैयार किये गये विशेष कार्यक्रमों के द्वारा ग्रामीण और असंगठित क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में वृद्धि हो जिससे लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हो सकें।
- इस योजना का वास्तविक परिव्यय 1,09,292 करोड़ रुपये का था जिसमें से सर्वाधिक 28.1 प्रतिशत ऊर्जा, 6 प्रतिशत सामाजिक सेवाओं तथा 13 प्रतिशत परिवहन पर व्यय किया गया, जबकि उद्योग व खनिज में 15.5 प्रतिशत भाग व्यय किया गया।
7वीं पंचवर्षीय योजना
- अवधि- 1 अप्रैल, 1985 से 31 मार्च, 1990 तक।
- सैद्धान्तिक मॉडल- ‘दीर्घकालीन विकास युक्तियों’ पर जोर देते हुए उदारीकरण की ओर अग्रसर।
- प्रमुख उद्देश्य- अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण करना।
अन्य उद्देश्य-
- समानता और सामाजिक न्याय पर आधारित व्यवस्था की स्थापना करना।
- खाद्यान्न के उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि करना।
- मुद्रा-स्फीति की दर में नियन्त्रण रखते हुए रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना।
- आधारभूत उद्योग क्षेत्र में वृद्धि और स्थापित क्षमता का पूर्ण प्रयोग करना।
- कृषि और उद्योग के क्षेत्र में घरेलू तकनीकी का विकास करना।
- मानव संसाधन का विकास करना।
- ऊर्जा संरक्षण और गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोतों का विकास करना।
- पर्यावरण और परिवेश की रक्षा करना।
- जनसंख्या वृद्धि-दर में कमी करना।
- सामाजिक उपभोग (शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, आवास आदि) का ऊँचा स्तर प्राप्त करना।
- गरीबी और बेरोजगारी उन्मूलन के कार्यक्रमों पर विशेष बल देना।
- सातवीं पंचवर्षीय योजना में प्राथमिकता-
- गरीबी कम करने,
- उत्पादकता बढ़ाने व
- रोजगार अवसर बढ़ाने को दी गयी।
- इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जो रीति-नीति अपनायी गयी, उसमें गरीबी की समस्या पर सीधा प्रहार किया गया तथा बेकारी व क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने का प्रयास किया गया।
- सभी क्षेत्रों में कुशलता से योजनाओं को लागू किया गया, विशेष रूप से सिचाई, शक्ति परिवहन व उद्योग क्षेत्र में वृद्धि करना। इस योजना में कुल 2,18,730 करोड़ रुपये सार्वजनिक क्षेत्र में व्यय किये गये थे और प्राथमिकता क्रम में ऊर्जा, कृषि और सिचाई, परिवहन व संचार तथा उद्योग व खनिज पर क्रमशः 28.2, 0, 17.4 व 11.9 व्यय किया गया।
8वीं पंचवर्षीय योजना
- अवधि- 1 अप्रैल, 1992 से 31 मार्च, 1997 तक।
- सैद्धान्तिक मॉडल- उदारीकृत अर्थव्यवस्था के रूप में परिणित ‘जॉन डब्ल्यूमिलर मॉडल’ पर आधारित।
- प्रमुख उद्देश्य- मानव संसाधन विकास।
अन्य उद्देश्य-
- रोजगार के पर्याप्त अवसरों का सृजन करके शताब्दी के अन्त तक पूर्ण रोजगार का लक्ष्य प्राप्त करना।
- समस्त जनसंख्या के लिए सुरक्षित पेय जल, पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएँ तथा सिर पर मैला ढोने की प्रथा का अन्त करना।
- जनता के सक्रिय सहयोग से जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण करना।
- प्राथमिक शिक्षा का सर्वव्यापीकरण तथा 15.35 आयु वर्ग में पूर्ण साक्षरता प्राप्त करना।
- कृषि क्षेत्र में संवृद्धि और विविधीकरण जिससे खाद्यान्न में आत्म-निर्भरता के साथ ही निर्यात के लिए अतिरेक प्राप्त हो सके।
- आठवीं पंचवर्षीय योजना का शुभारम्भ 1 अप्रैल, 1992 से हुआ। इस योजना में मुख्य ध्यान मानव संसाधन विकास पर दिया गया।
- इसी आधारभूत उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए रोजगार सृजन, जनसंख्या नियन्त्रण, अशिक्षा, स्वास्थ्य शिक्षा, पेयजल और पर्याप्त खाद्यान्न एवं बुनियादी ढाँचे के प्रावधानों की योजना की प्राथमिकताओं के रूप में माना गया।
- आठवीं योजना की व्यूह रचना की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार थीं-
- यह योजना एक दिग्दर्शक योजना थी जिसका उद्देश्य एक दीर्घकालीन भावी कार्यनीति का निर्माण करना था।
- इसमें मानव विकास तथा आर्थिक संरचना को सर्वोपरि महत्व दिया गया।
- इस योजना में विकास प्रयासों का एकीकरण किया गया, ताकि विनियोग से अच्छे परिणाम प्राप्त हो सकें।
- इस योजना में नीचे से नियोजन के सिद्धान्त को अपनाया गया।
- ग्रामीण रोजगार पर विशेष बल दिया गया।
- इस योजना में निष्पादन सुधार, गुणवत्ता, चेतना और स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा पर जोर दिया गया।
- आठवीं योजना में सार्वजनिक क्षेत्र में कुल 4,34,100 करोड़ रुपये व्यय किये गये। कुल व्यय का सबसे अधिक भाग 26.6 प्रतिशत ऊर्जा पर व्यय किया गया।
- प्राथमिकता में द्वितीय स्थान कृषि और सिचाई को दिया गया जिस पर कुल परिव्यय का 22.2 प्रतिशत व्यय किया गया।
9वीं पंचवर्षीय योजना
- अवधि- 1 अप्रैल, 1997 से 31 मार्च, 2002 तक।
- सैद्धान्तिक मॉडल- फ्हैरड डोमरय् मॉडल।
- प्रमुख उद्देश्य- न्यायपूर्ण वितरण और असमानता के साथ विकास।
अन्य उद्देश्य-
- कृषि तथा ग्रामीण विकास को प्राथमिकता- रोजगार उत्पन्न करने तथा निर्धनता को दूर करने के लिए कृषि तथा ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देना।
- मूल्यों में स्थिरता के साथ विकास- मूल्यों में स्थिरता बनाये रखने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था की वृद्धि-दर तेज करना।
- भोजन एवं पोषण सुरक्षा- सभी के लिए विशेषकर समाज के कमजोर वर्गों के लिए भोजन तथा पोषण सुरक्षा निश्चित करना।
- आधारभूत न्यूनतम सेवाएँ- आधारभूत न्यूनतम सेवाओं, जैसे-सुरक्षित पीने का पानी, प्राथमिक स्वास्थ्य देखरेख सुविधा, निर्धारित समय में सभी को प्राथमिक शिक्षा, आवास की व्यवस्था करना है।
- जनता के सहयोग को प्रोत्साहन- देश के आर्थिक विकास में योगदान देने के लिए पंचायती राज संस्थाओं, सहकारी तथा स्वयंसेवी संस्थाओं का विकास करना।
- आत्म-निर्भरता- आत्म-निर्भरता के लक्ष्य को प्राप्त करना।
- पर्यावरणीय सुरक्षा- नौवीं योजना का उद्देश्य जनता के सहयोग से विकास प्रक्रिया की पर्यावरण क्षमता को निश्चित करना।
- जनसंख्या वृद्धि-दर को कम करना।
- महिलाओं, कमजोर वर्गों व अल्पसंख्यकों की स्थिति को सुदृढ़ करना।
- नौंवीं पंचवर्षीय योजना की विकास-रणनीति का उद्देश्य, एक तरफ ‘भौतिक अधःसंरचना’ का निर्माण करके उत्पादन सम्बन्धी रुकावटें तोड़ना था तो दूसरी तरफ ‘सामाजिक अधःसंरचना’ के रूप में मानव-संसाधन विकास को प्रोन्नत करके ‘सामाजिक न्याय सहित विकास’ के लक्ष्य को प्राप्त करना भी था।
- अतः इसकी विकास रणनीति में निम्नलिखित क्षेत्रों पर बल दिया गया-
- जनसंख्या को शिक्षा, स्वास्थ्य व पेयजल की सुविधा उपलब्ध कराने पर।
- अधिक आधार संरचना, जैसे- पावर, सड़कें, बन्दरगाहों, रेलवे, टेली, संचार, नगर पालिका सेवाएँ आदि उपलब्ध कराने पर।
- आधार संरचना, सिचाई, ग्रामीण सड़कों, संगठित बाजारों का निर्माण और अनुसन्धान को बढ़ावा।
- कृषि उत्पादों के लिए निर्यात बाजारों को खोलना।
- सरकार का राजकोषीय घाटा (केंद्र एवं राज्य) दोनों स्तरों को एक उचित स्तर पर लाना।
- उपरोक्त रणनीति को साकार रूप देने के लिए, सिचाई सहित कृषि व ग्रामीण विकास पर कुल परिव्यय का 20 प्रतिशत व्यय तथा ऊर्जा (जो आर्थिक विकास का इंजन है) इस क्षेत्र को कुल परिव्यय का लगभग 25 प्रतिशत भाग आवंटित किया गया। इसमें ऐसा माना गया कि सामाजिक विकास के बिना आर्थिक विकास अधूरा है, अतः सामाजिक सेवाओं को 21 प्रतिशत भाग आवंटित किया गया।
- विकास को गति देते हुए परिवहन व संचार को 19.6 प्रतिशत साधन दिये गये। चूँकि औद्योगिक क्षेत्र के द्वार निजी-निवेशकर्ताओं के लिए खोल दिये गये थे। इसलिए उद्योग एवं खनिज पर आवंटन मात्र 8.1 प्रतिशत रखा गया।
10वीं पंचवर्षीय योजना 2002-2007
- अवधि- 1 अप्रैल, 2002 से 31 मार्च, 2007 तक।
- प्रमुख उद्देश्य- मानव विकास पर जोर देने के साथ विकास था।
अन्य उद्देश्य-
- योजना में श्रम बल में तीव्र वृद्धि को प्रमुखता।
- आर्थिक विकास ही एकमात्र उद्देश्य नहीं था, बल्कि योजना में विकास के लाभ का उपयोग लोगों के जीवन-स्तर में सुधार करना था। इसलिए विगत उपलब्धियों की अक्षुण्णता बनाए रखना एवं अर्थव्यवस्था की विकास की बाधाओं को दूर करना।
- दस वर्षों में प्रतिव्यक्ति आय को दुगुना करने और वार्षिक विकास दर जीडीपी के 8% का लक्ष्य रखा गया।
- वर्ष 2003 तक सभी बच्चों का विद्यालय में प्रवेश एवं साक्षरता में वृद्धि, सभी गांवों में पेयजल की उपलब्धता, कृषि क्षेत्र का विकास करना, ग्रामीणों को विशेष लाभ, साथ ही रोजगारोन्मुखी क्षेत्रों का विकास करना।
- गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, जेंडर गैप (लिंग अनुपात), जनसंख्या वृद्धि, आईएमआर (शिशु मृत्यु दर), एमएमआर (मातृ मृत्यु दर) और अन्य सामाजिक-आर्थिक पहलुओं की जाँच के लिए निगरानी लक्ष्य शुरू किए गए थे।
- वर्ष 2007 तक गरीबी के अनुपात को कम कर 26% से 21% पर लाना।
- दशकीय जनसंख्या वृद्धि को 1991-2001 में 21.3% से घटाकर 2001-2011 में 16.2% पर लाना।
- लाभकारी रोजगार में वृद्धि, कम से कम श्रम बल को जोड़कर गति बनाए रखना।
- 2003 तक सभी बच्चों को स्कूल भेजना और 2007 तक सभी बच्चे स्कूल में पाँच वर्ष पूर्ण करें- यह सुनिश्चित करना।
- साक्षरता तथा मजदूरी की दरों में लिंग के अंतर में 50% कमी लाना।
- साक्षरता दर को 1999-2000 में 65% से बढ़ाकर 2007 में 75% करना।
- सभी गांवों को पेयजल उपलब्ध कराना, शिशु मृत्यु दर को 1999-2000 में 72/हजार से घटाकर 2007 में 45/हजार किया जाना।
प्रमुख विशेषताएं
- तत्कालिक विकास दर और उत्पादन में श्रम की उपयोगिता को देखते हुए भारत में बेरोजगारी बढ़ने की संभावना थी, जिसके परिणामस्वरूप समाज में असंतोष को कम करने हेतु 5 करोड़ रोजगार पैदा करने का लक्ष्य रखा गया।
- कृषि, सिंचाई, वानिकी, लघु एवं मझौले उद्यम, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी एवं अन्य सेवाओं जैसे वृहद रोजगारपक क्षेत्रों पर विशेष जोर दिया गया।
- यह योजना 31 मार्च, 2007 को समाप्त घोषित हो गई। इसमें प्राप्त संवृद्धि दर 7.6 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी जो लक्षित 8 प्रतिशत समृद्धि दर के काफी करीब थी।
11वीं पंचवर्षीय योजना
- अवधि- 1 अप्रैल, 2007 से 31 मार्च, 2012 तक।
- प्रमुख उद्देश्य- तीव्रतर और अधिक समावेशी विकास हेतु इस योजना ने समावेशी विकास, अर्थव्यवस्था की बढ़ती ताकत पर निर्माण के साथ उभर कर आई कमजोरियों को दूर करने के लिए एक व्यापक रणनीति प्रदान की।
अन्य उद्देश्य-
- निर्धनता अनुपात में सन् 2007 तक 5 प्रतिशतांक की तथा सन् 2012 तक 15 प्रतिशतांक की कमी लाना,
- कम-से-कम ग्यारहवीं योजना में होने वाली श्रम बल वृद्धि को उच्च गुणवत्ता युक्त रोजगार मुहैया करना,
- 9% वार्षिक विकास दर के लक्ष्य को प्राप्त करना,
- कृषि में 4%, उद्योग एवं सेवाओं में 9-11% की प्रतिवर्ष वृद्धि के लक्ष्य को प्राप्त करना,
- प्राइमरी में ड्रॉप आउट दर 20% से नीचे लाना,
- 2001 से 2011 तक के दशक में जनसंख्या संवृद्धि की दशकीय वृद्धि दर को घटाकर 16.2 प्रतिशत के स्तर पर लाना,
- साक्षरता दर को बढ़ाकर 75% करना,
- सन् 2012 तक देश के सभी गाँवों में स्वच्छ पेयजल की अनवरत पहुँच सुनिश्चित करना,
- योजनावधि में रोजगार के 7 करोड़ नए अवसर सृजित करना,
- पाँच वर्षों के दौरान 9 प्रतिशत की विकास दर हासिल करना और योजना के अंत में इसे तीव्र कर 10 प्रतिशत पर पहुँचाने का लक्ष्य।
- योजना के अतं तक सभी गाँवों में विद्युतीकरण,
- शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी उन्मलून व आधारिक सरंचना के विकास को प्राथमिकता,
- समाजिक आथिर्क विकास में महिला, अल्पसंख्यक, पिछड़े जाति, औद्योगिक अनुसूचित जातियों एव जन जातियों की भागीदारी सुनिश्चित करना,
- देश में 8 नए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (राजस्थान, बिहार, हिमाचंल प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश गुजरात एवं पजांब) सात नए प्रबंधकीय संस्थान (मेघालय, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड, हरियाणा, जम्मू कश्मीर एवं तमिलनाडु) स्थापित करने की योजना।
प्रमुख विशेषताएं
- स्वास्थ्यः प्रत्येक 1,000 जीवित बच्चों के जन्म पर शिशु मृत्युदर (आईएमआर) में कमी लाकर 28 करना। कुल प्रजनन दर में कमी लाकर 2.1 करना।
- आय और गरीबी केंद्रित बिन्दुः तीव्रतर और अधिक समावेशी विकास की ओर बढ़ते हुए जीडीपी की वृद्धि दर को 8 प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक बढ़ाना और प्रति व्यक्ति आय को 2016-17 तक दुगुना करने के लिए 12वीं योजना में इसे 10 प्रतिशत बनाए रखना।
- शिक्षाः प्राथमिक विद्यालय में विद्यालय छोड़ने वाले बच्चों की दर, जो 2003-04 में 52.2 थी, में कमी लाकर 2011-12 तक 20 करना।
- आधारभूत संरचनाः 2009 तक सभी गाँवों और गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों में बिजली का कनेक्शन और योजना के अंत तक रात-दिन बिजली की व्यवस्था 1,000 या उससे अधिक आबादी वाले सभी गाँवों (पहाड़ी और जनजातीय क्षेत्रों में 500) में 2009 तक सभी मौसम में परिवहन लायक सड़क सुनिश्चित करना तथा 2015 तक सभी महत्त्वपूर्ण आवास-स्थलों को इससे जोड़ना।
- यह योजनाकाल की सबसे सफलतम योजना मानी जाती है, क्योंकि इसमें ळक्च् की सर्वोच्च वृद्धि दर (7.8 प्रतिशत) प्राप्त की गई।
12वीं पंचवर्षीय योजना
- अवधि- 1 अप्रैल, 2012 से 31 मार्च, 2017 तक।
- प्रमुख उद्देश्य- त्वरित अधिक समावेशी और धारणीय विकास।
अन्य उद्देश्य-
- योजना में पहली बार अलग-अलग प्रकार की कार्रवाई के प्रभावों से उत्पन्न होने वाले परिदृश्यों को दर्शाया गया।
- स्पष्ट शब्दों में ‘नीतिगत अवरोध’ की चेतावनी दी गई।
- योजना में तेज विकास को आवश्यक शर्त माना गया।
- योजना के दृष्टि-पत्र में इस पंचवर्षीय योजना (2012-17) के दौरान औसत विकास दर जीडीपी के 9% पर लाने का लक्ष्य रखा गया।
- वार्षिक विकास दर का लक्ष्य 8.0%, कृषि क्षेत्र में 4.0% व विनिर्माण क्षेत्र में 10 % की औसत वार्षिक वृद्धि के लक्ष्य।
- विनिर्माण क्षेत्र में, मध्यम लघु व सूक्ष्म उद्यमों पर जोर देते हुए तेज विकास हासिल करने का लक्ष्य रखा गया।
- शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, पेयजल जैसी अनिवार्य सेवाओं में सरकार की भूमिका की पुनर्संरचना की की गई।
- योजनावधि में गैर कृषि क्षेत्र में रोजगार के 5 करोड़ नए अवसरों के सृजन का लक्ष्य।
- योजना के अन्त तक निर्धनता अनुपात से नीचे की जनसंख्या के प्रतिशत में पूर्व आकलन की तुलना में 10% की कमी लाने का लक्ष्य।
- योजना के अन्त तक कुल प्रजनन दर को घटाकर 2.1 तक लाने का लक्ष्य।
- योजना के अन्त तक सभी गाँवों को बारहमासी सड़कों से जोड़ना।
- योजना में इस बात का ध्यान रखा गया है कि जीडीपी में वर्तमान गिरावट को विशेष तौर मुद्रास्फीति के दबाव के नियंत्रण में रखने के लिए बचत में वृद्धि के साथ ही निवेश में वृद्धि जैसे ठोस सुधारात्मक उपाय कर दूर किया जा सकता है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में टेलीडेंसिटी को बढ़ाकर 70% करने का लक्ष्य।
- योजना के अन्त तक देश में शिशु मृत्यु-दर को 25 तथा मातृत्व मृत्यु-दर को 1 प्रति हजार जीवित जन्म तक लाने तथा 0.6 वर्ष के आयु वर्ग में बाल लिंगानुपात को 950 करने का लक्ष्य।
- 90% भारतीय परिवारों को बैंकिंग सुविधाएं पहुंचाने का लक्ष्य, एवं 50% ग्राम पंचायत को निर्मल ग्राम का स्तर प्राप्त करना।
- वार्षिक केंद्रीय राजकोषीय घाटा इस योजना अवधि में जीडीपी के 3.25% के स्तर तक सीमित रखने का लक्ष्य बनाया गया। चालू खाते के घाटे को जीडीपी के 2.5% तक करने का लक्ष्य रखा गया।
प्रमुख विशेषताएं
- केंद्र प्रायोजित योजनाओं के कार्यान्वयन में सुधार हेतु कार्यक्रमों की संख्या युक्तिसंगत बनाकर 142 से घटाकर 66 कर दी गई।
- 12वीं योजना की समाप्ति तक शिशु मृत्यु दर को 28 तक लाने का लक्ष्य, मातृ मृत्यु दर 1/1000 का लक्ष्य।
- 12वीं योजना के अंत में कम से कम 5 विश्वविद्यालय, विश्व के शीर्ष 200 की सूची में हो।
- 12वीं योजना में 50 मिलियन लोगों के कौशल विकास का लक्ष्य।
- 12वीं योजना में अवसंरचना क्षेत्र में कुल निवेश 55.7 लाख करोड़ रुपये अनुमानित था। PPP मॉडल से 2500 मॉडल स्कूल, 300 ITI स्थापना का प्रस्ताव।
- 12वीं योजना में ‘आउटरीच कार्यनीतियों’ के माध्यम से विज्ञान एवं तकनीकों को समाज से जोड़ने में प्रभावी संस्थागत ढांचे की परिकल्पना की गई है।
भारतीय नियोजन के उद्देश्य की कमियाँ
- भारत में नियोजन के जिन उद्देश्यों का उल्लेख किया गया है, वे बहुत व्यापक हैं परन्तु इनमें निम्नलिखित कमियाँ हैः
- ये उद्देश्य अत्यन्त महत्वाकांक्षी थे।
- उद्देश्यों की संख्या बहुत अधिक है। छठी योजना में तो निर्धारित उद्देश्यों की संख्या 10 तक पहुँच चुकी थी। उद्देश्यों की अधिकता से उनके क्रियान्वयन में कठिनाई आती है।
- नियोजन के उद्देश्यों में कुशलता या उत्पादकता की अपेक्षा सामाजिक कल्याण पर अधिक बल दिया गया है।
- नियोजन के उद्दश्यों में रोजगार के अवसर बढ़ाने पर ध्यान नहीं दिया गया है।
- बहुत कम उद्देश्य ऐसे हैं जिनको परिणात्मक रूप में व्यक्त किया जा सकता है और इनके साथ समय की सीमा जुड़ी रहती है। केवल राष्ट्रीय आय एवं हाल ही के वर्षों में रोजगार के उद्देश्य ऐसे हैं जिन पर ये सीमाएँ लागू नहीं होतीं।
- विभिन्न योजनाओं के उद्देश्यों में परस्पर-सामंजस्य के बारे में कोई विचार नहीं किया गया।
- जिन उद्देश्यों का चयन किया गया है, उनकी सार्थकता और संगतता के बारे में कोई विचार नहीं किया जाता।
- ऐसा इसलिए कि अधिकांश उद्देश्यों को परिमाणात्मक रूप में व्यक्त करना सम्भव नहीं होता।
भारतीय नियोजन की असफलताएं
- भारत में आर्थिक नियोजन को 1 अप्रैल, 1951 से प्रारम्भ किया गया। निःसन्देह इन 50 वर्षों में देश ने काफी प्रगति की है जिसका अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते हैं-
निर्धनता को समाप्त करने में विफलता-
- नियोजन के दौरान अपनाई गई समाजवादी विकास की प्रमुख रणनीति लोगों को न्यूनतम जीवन स्तर उपलब्ध कराना था। इसके लिए पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान विभिन्न कार्यक्रम चलाए गए, पांचवी पंचवर्षीय योजना में ‘गरीबी हटाओं कार्यक्रम’ चलाया गया और ‘गरीबी हटाओं’ का नारा दिया गया। परन्तु, आज भी देश की लगभग एक-चौथाई जनसंख्या गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही हैं। निर्धनता आज भी देश के सामने एक विकट समस्या बनी हुई है।
रोजगार में धीमी वृद्धि दर-
- नियोजन काल के दौरान विकास के साथ-साथ बेरोजगारी भी बढ़ी हैं। हालांकि योजनाकाल के दौरान बेरोजगारी दूर करने के अनेक कार्यक्रम चलाए गए, परन्तु सभी कार्यक्रम नाकाफी सिद्ध हुए।
- देश में बेरोजगारी व अल्परोजगार की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। अतः सरकार द्वारा चलाए गये कौशल विकास कार्यक्रम तथा स्वरोजगार से सम्बन्धित कार्यक्रम इस दिशा में सार्थक सिद्ध हो सकते हैं।
आय व धन की असमानताओं में वृद्धि-
- आयोजन के प्रारम्भ में आय की विषमताएं व्यापक रूप से फैली हुई थी, अतः आयोजन के दौरान इसे दूर करने का प्रयास किया गया। इस हेतु अनेक युक्तियां अपनायी गयी। परन्तु, सभी अध्ययनों से यह निष्कर्ष सामने आया कि नियोजनकाल में धनी वर्ग को आर्थिक सुधारों का अधिक मौका मिला है और आर्थिक शक्ति एक विशिष्ट वर्ग के पास केन्द्रित हो गयी हैं।
- देश की 10 प्रतिशत जनसंख्या के पास 90 प्रतिशत संसाधनों का संकेन्द्रण है जबकि 90 प्रतिशत जनसंख्या के पास 10 प्रतिशत संसाधन ही उपलब्ध हैं। यह असमानता की खाई लगातार बढ़ती ही जा रही है।
औद्योगिक विकास की अपर्याप्तता-
- किसी भी देश की आर्थिक प्रगति का आधार औद्योगिक विकास होता है। देश में द्वितीय पंचवर्षीय योजना में आधारभूत उद्योगों के विकास को सर्वाधिक महत्व दिया गया। परन्तु इसके पश्चात् कुल योजना परिव्यय में उद्योगों का अंश लगातार घटता गया जिससे उद्योगों का विकास अवरूद्ध हो गया।
- देश के कुछ हिस्से अधिक निवेश के कारण औद्योगिक दृष्टि से विकसित हो गए। जबकि कुछ क्षेत्रों में आज भी औद्योगिक विकास की स्थिति नगण्य है।
- उद्योगों के विकास के लिए आवश्यक निवेश, कच्चा माल, तकनीकी, मशीनरी और आधारभूत ढांचा आवश्यक है जिसकी देश में कमी है।
- नियोजनकाल के दौरान देश को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा जिससे योजनाओं द्वारा वांछित लक्ष्य की प्राप्ति न की जा सकी। नियोजन काल के दौरान देश की सकल घरेलू उत्पत्ति, प्रतिव्यक्ति आय, जीवन-स्तर, साक्षरता दर आदि क्षेत्रों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई हैं।
आयोजन मॉडल और पंचवर्षीय योजना (FYP) का मुख्य उद्देश्य |
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योजना |
समयावधि | मॉडल |
केंद्रीय बिन्दु |
प्रथम पंचवर्षीय योजना | 1951-1956 | हैराड-डोमर मॉडल | कृषि विकास पर बल |
द्वितीय पंचवर्षीय योजना | 1956-1961 | नेहरू-महालनोविस का मॉडल | आधारभूत एवं भारी उद्योगों का विकास |
तृतीय पंचवर्षीय योजना | 1961-1966 | जे. सैण्डी, सुखमय चक्रवती एवं महालोबिस मॉडल का प्रभाव | आत्म-निर्भर व स्वतः स्फूर्ति अर्थव्यवस्था |
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना | 1969-1974 | अशोक रूद्र. एलन एस. मान्ने मॉडल | स्थिरता के साथ आत्म- निर्भरता’ |
पांचवीं पंचवर्षीय योजना | 1974-1979 | डी. पी. धर मॉडल | निर्धरता उन्मूलन तथा आत्म- निर्भरता’ |
छठी पंचवर्षीय योजना | 1980-1985 | आगत-र्निगत मॉडल का विस्तार | गरीबी निवारण तथा रोजगार सृजन’ |
सातवीं पंचवर्षीय योजना | 1985-1990 | – | कृषि, विकास प्रेरित समृद्धि रणनीति |
आठवीं पंचवर्षीय योजना | 1992-1997 | जॉन डब्ल्यू- मिलर मॉडल | मानव संसाधन का विकास’ |
नौवीं पंचवर्षीय योजना | 1997-2002 | आगत-निर्गत मॉडल | सामाजिक न्याय और समानता के साथ आर्थिक समृद्धि’ |
दसवीं पंचवर्षीय योजना | 2002-2007 | – | सामाजिक न्याय तथा समता के साथ आर्थिक विकास |
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना | 2007-2012 | – | तीव्रतर और अधिक समावेशी विकास |
बारहवीं पंचवर्षीय योजना | 2012-2017 | – | तीव्रतर अधिक समावेशी एवं धारणीय विकास |
नोटः 06 वार्षिक योजनाएं भी चली हैं। 03 वार्षिक योजना तीसरी योजना के दौरान, 01 वार्षिक योजना छठी योजना के दौरान तथा 02 वार्षिक योजना आठवीं योजना के दौरान चली है। |
आर्थिक आयोजन के प्रति मोहभंग
- भारत में सभी पंचवर्षीय योजनाओं में इस बात पर जोर दिया गया कि देश में साधनों का अभाव होने के कारण उनका आबंटन कुशलतापूर्वक होना चाहिए।
- आयोजन के प्रारंभिक तीन दशकों में आर्थिक संवृद्धि में 3.4 प्रतिशत की प्रतिवर्ष वृद्धि हुई जिससे यह लगता हैं कि संवृद्धि दर बहुत संतोषजनक नहीं थी।
- शुरू के तीन दशकों के बाद दो दशकों तक 5.6 प्रतिशत वार्षिक संवृद्धि दर भी पूर्वी एशिया के देशों में संवृद्धि दर से तुलनीय नहीं हैं।
- यह खेद की बात है कि भारत में आर्थिक आयोजन से सामाजिक न्याय भी लोगों को नहीं दिलाया जा सका क्योंकि देश में बेराजगारी बनी हुई है और आर्थिक असमानताओं के साथ गरीबी भी व्यापक रूप से फैली हुई है।
- विभिन्न अनुमानों के अनुसार अभी हाल के वर्षों में भी लगभग 30 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी की रेखा के नीचे थी। अतः आयोजन के प्रति मोहभंग होना स्वभाविक था।
- भारत में आर्थिक आयोजन को इसलिए अपनाया गया था कि वह बाजार तंत्र की असफलताओं को समाप्त कर अर्थव्यवस्था में विकास प्रक्रिया को तेज करेगा। लेकिन साढ़े पाँच दशकों में भारत में विकास आयोजन की असफलता से यह सिद्ध हो गया कि सरकार भी बाजार तंत्र की तरह अनेक उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल हो सकती है।
- इस देश में नियंत्रण प्रणाली से साधनों का आबंटन अकुशल हुआ है और इसलिए निवेश संबंधी निर्णय ठीक नहीं रहे है। 1950 और 1960 के दशकों में समस्या को इस रूप में नहीं रखा गया था। उस समय भारत की मूल रूप से कृषि अर्थव्यवस्था को पश्चिमी विकसित देशों की साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों के लिए पूरी तरह खोलना उचित नहीं था।
- अतः आर्थिक आयोजन में आत्मनिर्भरता पर जोर दिया गया। यही नहीं, उस समय आयात प्रतिस्थापन की रणनीति को अपनाकर संवृद्धि की दिशा में कार्य किया गया।
- आयोजक ऐसी स्थिति में संवृद्धि दर को अधिकतम करना आवश्यक नहीं मानते थे लेकिन हुआ यह कि सरंक्षण की आड़ में देश में ऊंची लागत पर वस्तुएं बेचने वाले उद्योगों का विकास हुआ जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं थे।
- देश के पहले प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरु वितरण में न्याय के पक्षधर थे। उनके नेतृत्व में सार्वजनिक क्षेत्र की कल्पना की गई जिसका उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं था बल्कि सामाजिक विकास के उद्देश्य से कार्य करना था।
- अतः सार्वजनिक क्षेत्र में लाभप्रदत्ता के लिए कोई स्थान नहीं था। बाद के वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र का निष्पादन ठीक नहीं रहा और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का दुरुपयोग किया गया। इन उद्योगों में उत्पादकता का स्तर भी निम्न होने की वजह से इनके लिए पुनर्निवेश के साधनों की व्यवस्था कर पाना संभव नहीं रहा। इससे इन उद्यमों में आधुनिकीकरण कार्यक्रमों पर बुरा असर पड़ा।
- निजी क्षेत्र का निष्पादन भी बहुत उत्साहवर्धक नहीं कहा जा सकता। इन्होंने संरक्षण का दुरुपयोग कर भारी मुनाफाखोरी की और अपने आप को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार नहीं किया। ऐसी स्थिति में केवल सार्वजनिक क्षेत्र में उद्यमों की आलोचना तर्कसंगत नहीं लगती। इन्हीं उपर्युक्त कमियों को देखते हुए 2014-15 में नीति आयोग के गठन का प्रस्ताव किया गया।
Also Read: स्वतंत्रता के बाद का भारत | India After Independence |
राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान: नीति आयोग
- भारत सरकार द्वारा 65 वर्ष पुरानी संस्था योजना आयोग के स्थान पर नीति (राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान, NITI) की स्थापना की गई। इसकी घोषणा 1 जनवरी, 2015 को प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी द्वारा स्वतत्रंता दिवस (15 अगस्त 2014) पर की गई थी।
संरचना
- भारत के प्रधानमंत्री इस आयोग के अध्यक्ष होंगे। इस संस्था में एक उपाध्यक्ष तथा एक मुख्य कार्यपालन अधिकारी (सीईओ) होगा। उपाध्यक्ष की नियुक्ति आयोग का अध्यक्ष करेगा।
- आयोग में एक संचालन परिषद् होगी, जिसमें राज्यों के मुख्यमंत्रियों और केन्द्रशासित प्रदेशों के उपराज्यपालों को शामिल किया जाएगा। यह संचालन परिषद् राज्यों की भागीदारी के साथ राष्ट्रीय विकास की प्राथमिकताएं तय करेगी।
- राज्यों की भागीदारी के साथ राष्ट्रीय विकास की प्राथमिकताएं तैयार करने के लिए आयोग में अधिकतम 5 पूर्णकालिक सदस्य और दो अशंकालिक सदस्य होंगे जबकि चार केन्द्रीय मंत्री इसके पदेन सदस्य होंगे।
- नीति आयोग की संचालन परिषद् में सभी मुख्यमंत्रियों तथा उप-राज्यपालों को शामिल करना पिछले निकाय (योजना आयोग) से इसे अलग बनाता है।
- नीति आयोग में परिषदों का गठन एक से ज्यादा राज्य अथवा क्षेत्र को प्रभावित करने वालों मुद्दों को हल करने के लिए किया गया है।
- विशेषज्ञों को प्रधानमंत्री द्वारा विशेष आमंत्रितों के रूप में मनोनीति किया जाता है, जो उपाध्यक्ष, पूर्णकालिक और अंशकालिक सदस्यों को मिलाकर बने विचारकों की सहायता करेंगे। इस प्रकार नीति आयोग विकास प्रक्रिया मे निर्देश और रणनीतिक परामर्श देगा। इसमें केन्द्र से राज्यों की तरफ चलने वाले एक पक्षीय नीतिगत क्रम को एक महत्त्वपूर्ण विकासवादी परिवर्तन के रूप में राज्यों की वास्तविक और सतत भागीदारी से बदल दिया गया है।
- नीति आयोग राज्यों के साथ सतत आधार पर संरचनात्मक सहयोग की पहल और तंत्र के माध्यम से सहयोगपूर्ण संघवाद को बढ़ावा देगा।
नीति आयोग के उद्देश्य
- यह विकास की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण दिशा के साथ रणनीतिक जानकारी के माध्यम से नीतिगत स्तर पर व्याप्त अकर्मण्यता की कार्यसंस्कृति को समाप्त करेगा।
- इसके माध्यम से मंत्रलयों और केन्द्र-राज्यों के बीच बेहतर तालमेल की व्यवस्था की जाएगी और सहयोगपूर्ण संघवाद को प्रोत्साहन देते हुए मजबूत राष्ट्र का निर्माण किया जाएगा।
- इसके अलावा नीति आयोग कार्यक्रम के क्रियान्वयन की निगरानी और मूल्यांकन के साथ प्रौद्योगिकी के आधुनिकीकरण और क्षमता निर्माण पर भी जोर देगा।
योजना आयोग एवं नीति आयोग में अंतर |
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योजना आयोग |
नीति आयोग |
भारत में आर्थिक नियोजन के उद्देश्य से पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन सुनिश्चित करना। रणनीति और तीन वर्षों के लिए एक्शन एजेंडा का निर्माण करना। | भारत में आर्थिक नियोजन के उद्देश्य से नीति द्वारा पंद्रह वर्षीय योजनाओं का निर्माण, सात वर्षों के लिए और तीन वर्षों के लिए एक्शन एजेंडा का निर्माण करना। |
योजनाओं के निर्माण में केंद्र सरकार की प्रमुख भूमिका। | योजनाओं के निर्माण में केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की सहभागिता। |
राज्यों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों को राज्य योजनाओं के लिए पूँजी का आवंटन करना। | राज्यों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों के साथ सहकारी संघवाद को बढ़ावा देना। |
योजना आयोग की प्रकृति प्रायः केन्द्रीकृत थी। योजना निर्माण सहित केंद्र सरकार नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन में इसकी प्रमुख भूमिका थी। | नीति आयोग की प्रकृति प्रायः विकेन्द्रीकृत हैं। इसमें केन्द्र सरकार एवं सभी राज्यों की सरकारें नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन में भागीदारी करती है। |
इसमें योजनाओं एवं नीतियों के निर्माण में किसी प्रकार के विश्वविद्यालयों एवं शोध संस्थानों के प्रतिविधियों को शामिल नहीं किया जाता था। | इसमें योजनाओं एवं नीतियों के निर्माण में विश्वविद्यालयों एवं शोध संस्थानों के विशेषज्ञों को भी शामिल किया जाता है। |
भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में आर्थिक सुधार
- कृषि क्षेत्र में
- व्यापार, उद्योग और सेवा क्षेत्र।
क्षेत्रीय विकास
- शहरी विकास
- ग्रामीण सुधार
- क्षेत्रीय विकास रणनीति
आर्थिक संवृद्धि हेतु आवश्यकता घटक
- परिवहन
- डिजिटल जुड़ाव
- PPP मॉडल
- विज्ञान प्रौद्योगिकी का सामाजिक-आर्थिक सुधार
- भारत में नवाचार को बढ़ाने हेतु क्या हो सकता है।
सरकार स्तर पर सुधार
- गवर्नेंस
- कर ढ़ांचा प्रणाली
- सहकारी संघवाद विधि का शासन
सामाजिक क्षेत्र
- शिक्षा एवं कौशल शिक्षा विकास।
- स्वास्थ्य
- समावेशी समाज की स्थापना
सतत विकास
- पर्यावरण व वनीकरण का विकास।
- जल संसाधन
3 वर्ष राजस्व व खर्च
- भारत की संवृद्धि
- सरकार के खर्च क्या व कैसे कम करें।
- सरकार की नीति खर्च से संबंधित।
- वित्त मंत्री ने यह कार्य योजना जारी करते समय इसे टेस्ट बुक ऑफ रिफॉर्म्स कहा था जिससे बताया गया है कि आने वाले ढाई वर्षों में सरकार क्या करना चाहती है।
- चीन की तर्ज पर भारत भी अपनी अर्थव्यवस्था को रफ़्तार देने का प्रयास कर रहा है। बेशक चीन हमारा एक अच्छा पड़ोसी नहीं है लेकिन आर्थिक तरक्की के मामले में चीन का प्रभाव अधिक है। इसमें 67 बार चीन का संदर्भ आया है।
- देश के किसी भी हिस्से में चल रही सरकारी तथा निजी परियोजनाओं में देखा जा सकता है। भारत में पहले से प्रस्तावित 12 कोस्टल एम्पलॉयमेंट जोन केवल इस वजह से अस्तित्व में नहीं आ पाए क्योंकि उनके लिए जमीन ही नहीं मिल पाई।
- दरअसल इंडिया विजन के अंतर्गत बनाई गई इस तीन वर्षीय कार्य योजना में उपर्युक्त प्रमुख बिंदुओं को नीति आयोग एवं केन्द्र सरकार द्वारा चिह्नित किया गया है। इस कार्य योजना में लगभग सभी पक्षों को छुआ गया है। जैसे श्रम बाजार और रोजगार को बढ़ाने के लिए विनिर्माण गतिविधियों पर और अधिक ध्यान देकर अर्थव्यवस्था के इस कमजोर पक्ष को और अधिक मजबूत किया जा सकता है।
- भारत में तेज विकास हेतु बाजार, जमीन श्रम, सस्ता ऋण उपलब्ध करने जैसे सुधार की आवश्यकता है। बढ़ने के पीछे नीति आयोग ने काले धन को जिम्मेदार बताया है। इस क्षेत्र में काले धन पर लगाम लगाने हेतु स्टॉम्प ड्यूटी कम करने की सलाह दी है। गैर कृषि आमदनी को कृषि आमदनी दिखाकर कालेधन का सृजन किया जा रहा है।
डेल्टा रैंकिग
- NITI Ayog के द्वारा आकांक्षी जिलों की पहली Delta ranking 31 मार्च 2018 से 31 मई 2018 के बीच इन जिलों द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ों के आधार पर रैंकिंग दी गई है इस रैंक को बनाने में 5 क्षेत्रों को आधार बनाया गया है –
- इस रैंकिंग का उद्देश्य सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करना हैं एवं जिलों में सकारात्मक प्रतिस्पर्धा भावना को उत्पन्न करना हैं।
- इन जिलों में विरासत, कमजोर संसाधन, आधार, कठोर जीवन परिस्थिति आदि के कारण विभिन्न स्तर पर मैन पॉवर की कमी को दूर करना हैं।
नीति आयोग के कार्य
- एक परिपक्व भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण की प्रक्रिया में देश ने बहुलतावाद तथा विकेन्द्रीकरण को व्यापक रूप से मान्यता प्रदान करते हुए किया उसे अपनाया भी है। यही वह मूल कारण है जिससे केन्द्र सरकार के स्तर पर राज्य सरकारों एवं स्थानीय स्तरों की संस्थाओं के प्रति दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता समय-समय पर महसूस की जाती है।
- वर्तमान परिदृश्य में राज्य सरकारों एवं स्थानीय निकायों को भी विकास प्रक्रिया में बराबर का भागीदार बनाना अति आवश्यक है। इसके लिए निम्नलिखित बदलाव अपरिहार्य है-
- उनकी विकासात्मक जरूरतों एवं आकांक्षाओ को समझना।
- राष्ट्रीय नीतियों एवं कार्यक्रमों में लचीलापन लाते हुए विविध स्थानीय वास्तविकताओं का समावेश करना।
- इस प्रकार योजना आयोग के स्थान पर नई संस्था नीति आयोग को ‘टीम इंडिया’ के नये सिद्धांत के अनुरूप स्वयं को तैयार करते हुए, औपचारिक रूप से निम्नलिखित प्रकार्यों को संपादित करना है-
सहकारी एवं प्रतियोगितापूर्ण संघवादः
- यह सहकारी संघवाद के संचालन का प्राथमिक मंच होगा जिसमें राज्यों को राष्ट्रीय नीतियों के निर्माण में सहभागी बनाया जाएगा। इस हेतु गुणात्मक एवं परिणात्मक लक्ष्यों के समयबद्ध कार्यान्वयन के लिए प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्रियों की संयुक्त अधिकार शक्ति का उपयोग किया जाएगा।
- ऐसा केन्द्र एवं राज्य सरकारों के बीच व्यवस्थित एवं सुगठित अंतःक्रियाओं के माध्यम से संभव होगा, जिसमें विकास के मुद्दों के प्रति समझ बनाकर रणनीतियों एवं कार्यान्वयन प्रक्रियाओं को लेकर सर्वसम्मति प्राप्त करने की कोशिश की जाएगी। इस प्रकार ‘केन्द्र से राज्य की ओर’ की एकतरफा नीति के स्थान पर सतत केन्द्र-राज्य सहभागिता की नीति अपनाई जाएगी।
- आयोग इस सहयोग को इस प्रकार बढ़ाने में मदद करेगा कि एक प्रतिस्पर्धी संघवाद को बढ़ावा मिले जिसमें केन्द्र राज्यों के साथ तथा राज्य आपस में भी प्रतिस्पर्धा करे। इस प्रकार देश के विकास का एक संयुक्त अभियान शुरू हो सकेगा।
साझा राष्ट्रीय एजेंडाः
- इससे देश के विकास की प्राथमिकताओं एवं रणनीतियों के प्रति राज्यों की सक्रिय भागीदारी के साथ एक साझा ‘विजन’ विकसित होगा। इससे राष्ट्रीय एजेंडा की एक रूपरेखा तैयार होगी जिसका कार्यान्वयन प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री करेंगे।
केन्द्र राज्यों का सच्चा मित्रः
- केन्द्र, राज्यों को उनकी अपनी चुनौतियों का सामना करने में सहायता प्रदान करेगा, जो अनेक माध्यमों से संभव होगा, जैसे मंत्रालयों के साथ समन्वय करके, केन्द्र में उनके विचारों को स्थापित करके, तथा परामर्श सहयोग तथा क्षमता निर्माण के द्वारा।
विकेन्द्रित नियोजनः
- नये निकाय को नियोजन प्रक्रिया की पुनर्रचना करके इसे ‘सतह-उर्ध्व मॉडल’ के रूप में विकसित करना है। राज्यों को मजबूत बनाते हुए उन्हें नीचे की स्थानीय सरकारों को सशक्त बनाने के लिए मार्गदर्शन करना है जिससे कि ग्राम स्तर पर विश्वसनीय योजनाओं के सूत्रण की एक प्रक्रिया विकसित की जा सके जिनका समाहार सरकार के उच्चतर स्तरों पर हो सके।
दृष्टि एवं परिदृश्य नियोजनः
- भारत के भविष्य के मध्यम तथा दीर्घकालीन रणनीतिक रूपरेखा का प्रकल्प तैयार करना-योजनाओं, प्रक्षेत्रों, क्षेत्रों एवं समय से आगे-सभी संभव वैकल्पिक धारणाओं को शामिल करते हुए।
- यही ‘राष्ट्रीय सुधार एजेंडा के चालक’ हैं जो महत्वपूर्ण अंतरों की पहचान करके अब तक इस्तेमाल नहीं की गई क्षमताओं का पूरा-पूरा उपयोग करेंगे। इन्हें अपनी सफलता तथा उपादेयता के प्रति आंतरिक रूप से सचेत एवं गतिशील कर ऐसा वातावरण सृजित करना होगा जिसमें उभरती प्रवृत्तियों का समावेश और नयी चुनौतियों का उत्तर दिया जा सके। इसका अर्थ एक मूलभूत बदलाव होगा।
- इस प्रकार देश का पैसा कहाँ जाता है-इसके नियोजन से ऐसे नियोजन की ओर अंतरण जिसमें यह देखना है कि हम देश को कहाँ ले जाना चाहते हैं।
- इस नयी संस्था की स्थिति भारत सरकार तथा राज्य सरकारों की समस्त विकास गतिविधयों का समेकन करने की है, इसलिए यह इस उद्देश्य के सर्वथा उपयुक्त है।
क्षेत्र रणनीतिः
- प्रक्षेत्रीय एवं अंतर प्रक्षेत्रीय विशेषज्ञता एवं विशिष्टता का ‘भंडार’ निर्मित करके केन्द्रीय मंत्रलयों एवं राज्य सरकारो के विकास नियोजन तथा उनकी समस्याओं का समाधान करने में सहायता प्रदान करना एक महत्वपूर्ण कार्य है।
- इससे सुशासन के सर्वोत्तम प्रचलनों (राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर) को, विशेषकर देश में व्यवस्थागत सुधार एवं बदलाव के लिए अपनाने में मदद मिलेगी।
विशेषज्ञाता का अंतरजालः
- सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों में बाहरी विचारों को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों के एक सहयोगी समुदाय के माध्यम से शामिल करना।
- इसके लिए सरकार का बाहरी दुनिया से जुड़ाव आवश्यक है, अकादमिक जगत निजी क्षेत्र विशेषज्ञता तथा व्यापक रूप में लोगों को नीति निर्माण प्रक्रिया में संलग्न करना आवश्यक होगा- जैसा कि ऋग्वेद में कहा गया है- सभी दिशाओं से सद्विचारों के प्रवाह का हम स्वागत करें!
- यह निकाय सुशासन पर शोध एवं सर्वोत्तम प्रचलनों का एक ‘संग्राहक’तथा ‘प्रसारक’ बने-एक आधुनिक संसाधन केन्द्र के माध्यम से, जो कि इनको चिन्हित करे, विश्लेषण करे तथा उनकी प्रतिकृति को साझा करे।
- उत्तरोत्तर प्रौढ़ होती भारतीय जनता का ध्यान वास्तविक विवरण तथा परिणाम पर केन्द्रित करना।
- बढ़ती आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए नयी संस्था को नियोजन एवं रणनीति निर्माण से आगे जाकर विकास एजेंडे का लागू करने की ओर भी ध्यान देना होगा। इसके लिए वास्तविक परिणामों, यथार्थ लक्ष्यों, समयबद्धता, सक्षम अनुश्रवण एवं मूल्यांकन के माध्यम से कार्यान्वयन को नियोजन प्रक्रिया के केन्द्र में लाना होगा।
- केवल नियोजन अथवा योजना-निर्माण की अवधारणा से ‘कार्यान्वयन के लिए नियोजन’ की ओर बढ़ना होगा। यह सरकारी तंत्र के लिए अंतरों को पाटने, क्षमता बढ़ाने तथा अवरोधों को हटाने में उत्प्रेरक का कार्य भी करेगा।
सुसंगतिकरणः
- सरकार के विभिन्न स्तरों की प्रक्षेत्र कार्यवाहियों में विशेषकर एक-दूसरे प्रक्षेत्र को प्रमाणित करने वाले मुद्दों के शामिल होने पर संचार, समन्वय, सहयोग एवं समस्त हितधारकों के अभिसरण के माध्यम से सुसंगतता स्थापित करना। बल इस बात पर कि विकास में एक समेकित एवं समग्र दृष्टिकोण पर सभी के बीच सहमति बने।
संघर्षों का समाधानः
- अंतर-प्रक्षेत्रीय, अंतर- विभागीय, अंतर-प्रांतीय तथा केन्द्र-राज्यों के बीच पारस्परिक सहमति के एक मंच प्रदान करना और सबके हित में सर्वसम्मति का निर्माण कर कार्यान्वयन के स्तर पर स्पष्टता एवं तीव्रता लाना।
विश्व के साथ अंतरापृष्ठीय समन्वयः
- यह एक ‘नोडल प्वाइंट’ होगा जोकि भारत के विकास के लिए वैश्विक विषय विशेषज्ञता तथा संसाधनों का रणनीतिक प्रयोग करेगा।
क्षमता निर्माणः
- सरकार में क्षमता निर्माण तथा प्रौद्योगिकी स्तर उन्नयन के लिए तैयारी पर जोर दिया जाएगा, जो अद्यतन वैश्विक प्रवृत्तियों तथा प्रबंधकीय एवं तकनीकी जानकारी पर आधारित होगा।
अनुश्रवण एवं मूल्यांकनः
- यह नीतियों एवं कार्यक्रम का अनुश्रवण एवं मूल्यांकन करेगा, साथ ही उनके प्रभाव का मूल्यांकन भी कार्य-प्रदर्शन मैट्रिक्स तथा व्यापक कायर्क्रम मूल्यांकन के आधार पर करेगा। यह न केवल कमजोरयिों एवं अवरोधों को चिन्हित कर उनका निदान करेगा, बल्कि आँकड़ा-संचालित नीति निर्माण के माध्यम से अधिक कार्यकुशलता तथा प्रभावकारिता को प्रोत्साहित करेगा।
भारत का रूपांतरण
- सरकार ‘नीति आयोग’ के माध्यम से भारत के विकास एजेंडा को रूपांतरित कर उसमें ‘योजना से नीति की ओर’ आह्वान करना चाहती है।
- भारत में पिछले छह दशकों में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक प्रौद्योगिक तथा जनसांख्यिकी रूप से भारी नीतिगत परिवर्तन हुए हैं। सरकार की भूमिका भी राष्ट्रीय विकास के लिए उसी प्रकार समानांतर रूप से विकसित होती रही है। बदलते समय के साथ समायोजन के लिए सरकार ने नीति आयोग को भारत के लोगों की जरूरतों एवं आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए साधन के रूप में स्थापित किया है।
- सरकार की सोच है कि नई संस्था विकास प्रक्रिया में उत्प्ररेक का कार्य करेगी तथा विकास के प्रति एक समग्र दृष्टिकोण रखते हुए इसे सार्वजनिक क्षेत्र एवं भारत सरकार की सीमित परिधि से बाहर जाकर अनुकूल वातारण का निर्माण करेगी। इसकी पूर्ति हेतु निम्नलिखित साधनों का प्रयोग किया जाएगा-
- राज्यों को राष्ट्रीय विकास में बराबर का भागीदार बनाकर उनकी भूमिका को शक्तिशाली बनाना और इस प्रकार सहकारी संघवाद के सिद्धांत को कार्य व्यवहार में परिणत करना।
- आतंरिक एवं बाह्य संसाधनों का एक ज्ञान केन्द्र बनाना। जहाँ कि सुशासन एवं सर्वोत्तम प्रचलनों की एक मंजूषा स्थापित रहे, साथ ही एक ‘थिंक टैंक’ के रूप में जो सरकार के सभी स्तरों पर अपनी रणनीतिक विशेषज्ञता उपलब्ध कराये।
- एक ऐसा सहयोगी मंच जहाँ कि अनुश्रवण, प्रगति, अंतरों को पाटने तथा केन्द्र एवं राज्य के विभिन्न मंत्रलयों को विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के संयुक्त उद्यम में एक जगह लाकर कार्यन्वयन के एक सहयोगी मंच के रूप में कार्य करे।
बदलते भारत की रूपरेखा
- सरकार यह मानती है कि योजना आयोग ने भारत की अच्छी सेवा की है। लेकिन पिछले 7 दशकों में भारत अनेक स्तरों और पैमानों पर नाटकीय रूप से बदला है। इन परिवर्तनकारी शक्तियाँ ने भारत की शक्ल बदल दी है और विशेषकर यह पाँच क्षेत्रों में हुआ जैसा कि सरकारी दस्तावेजों से स्पष्ट होता है-
जनसांख्यिकीय परिवर्तनः
- भारत की जनसंख्या तिगुनी बढ़कर 121 करोड़ तक पहुँच गई है। इसके अंतर्गत शहरी जनसंख्या में जुड़ी 30 करोड़ की आबादी भी शामिल है। इसके साथ ही 35 वर्ष से कम उम्र के 55 करोड़ युवा जनसंख्या के हिस्सा बने हैं।
- विकास, साक्षरता एवं संचार के बढ़ते स्तर के साथ लोगों की आकांक्षाएँ अभाव व अस्तित्व के स्तर से आगे बढ़कर सुरक्षा व अधिशेष तक जा पहुँची हैं। आज का भारत बिल्कुल बदला हुआ भारत है और भारत की शासन व्यवस्था को इस बदले हुए भारत की जरूरतों के अनुरूप बदलना है।
आर्थिक परिवर्तनः
- भारत की अर्थव्यवस्था में भी भारी बदलाव आया है। इसका सौ गुणा विस्तार हुआ है- सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 1000 करोड़ रुपये से शुरू होकर और 100 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच गया है वर्तमान मूल्यों पर। इस प्रकार आज यह विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में एक है।
- भारत के जी.डी.पी. में कृषि के हिस्से में भारी गिरावट आई है- यह 50 प्रतिशत से गिराकर 15 प्रतिशत तक आ चुकी है।
- पहली योजना के 2400 करोड़ रुपये के योजना आकार से बढ़कर 12वीं योजना का आकार 43 लाख करोड़ रुपये का हो चुका था। प्राथमिकताएँ, रणनीतियाँ एवं संरचनाएँ जो योजना आयोग के जन्म के समय से चली आ रही थी, अब बदलनी चाहिए। इस व्यापक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में भारत में योजना प्रक्रिया की प्रकृति को ही बदलने की जरूरत है, ऐसा सरकार मानती है।
परिवर्तित निजी क्षेत्रः
- भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति तथा इसमें सरकार की भूमिका में भारी परिवर्तन आया है। लगातार खुलती तथा उदारीकृत होती अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र की आज एक अत्यंत जीवंत और गतिशील भूमिका है। निजी क्षेत्र मात्र अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के मुहाने पर ही नहीं बल्कि वैश्विक पैमाने और पहुँच के साथ अपनी सार्थक भूमिका निभा रहा है। यह बदला हुआ आर्थिक परिदृश्य प्रशासनिक बदलाव की जो माँग करता है जिसमें सरकार की भूमिका आदेश एवं नियंत्रण पारिस्थितिक प्रणाली में संसाधनों के आबंटन से आगे बढ़कर एक बाजार पारिस्थितिक प्रणाली को निवेशित, समर्थित एवं नियमित करने की होनी चाहिए।
- राष्ट्रीय विकास को अब सार्वजनिक क्षेत्र से परे देखने की जरूरत है। सरकार को ‘पहले प्रदायक एवं अंतिम आश्रय’ तथा अर्थव्यवस्था के ‘बड़े खिलाड़ी’ की अपनी भूमिका में परिवर्तन करके एक ‘सामर्थ्यकारी वातारण’ का पोषण करने वाले ‘उत्प्रेरक’ की भूमिका में आना चाहिए जहाँ कि छोटे-से-छोटे उद्यमियों से लेकर बड़ी-से-बड़ी कम्पनियों की उद्यमशीलता परवान चढ़े। इससे एक महत्वपूर्ण बात यह होगी कि सरकार जन कल्याण के क्षेत्र जैसे-खाद्य, पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा तथा आजीविका आदि पर अपने बहुमूल्य संसाधनों को अधिक खर्च कर सकेगी।,
भूमंडलीकरण की शक्तियाँः
- हाल के दशकों में बहुत हद तक दुनिया भी एक ‘विश्वग्राम’ के रूप में विकसित हुई है। विभिन्न देश और समाज आपस में आधुनिक परिवहन, संचार, जनमाध्यम तथा अंतर्राष्ट्रीय बाजारों एवं संस्थाओं के अंतरजाल के माध्यम से जुड़े हुए हैं। ऐसे वातावरण में भारत की आर्थिक क्रियाएँ वैश्विक गतिशीलता को बढ़ाती है। साथ ही हमारी अर्थव्यवस्था भी सुदूर घट रही घटनाओं से भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहती। इसलिए सरकार के कामकाज को जोड़कर आर्थिक नीति की रूपरेखा में विश्व आर्थिक प्रणाली से हमारे जुड़ाव की वास्तविकताओं को शामिल करना चाहिए।
राज्यों की भूमिकाः
- भारतीय राज्यों का विकास केन्द्र के उपांगों से शुरु होकर राष्ट्रीय विकास के वास्तविक चालकों के रूप में हुआ है। इसलिए राज्यों का विकास राष्ट्रीय लक्ष्य होना चाहिए क्योंकि राज्यों के विकास में ही देश का विकास है। इसी कारण केन्द्रीकृत नियोजन में ‘सबके प्रति समान व्यवहार’ दृष्टिकोण स्वाभाविक रूप से अंतर्विष्ट रहता है, लेकिन अब यह व्यावहारिक नहीं रह गया है।
- राज्यों को भी सुना जाना जरूरी है और उन्हें भी कार्यान्वयन के लिए पर्याप्त लचीलापन प्रदान किया जाना चाहिए। डॉ.बी.आर. अम्बेडकर के कथन में-फ्जहाँ केन्द्रीय नियंत्रण तथा एकरूपता अनिवार्य न हो या अव्यवहार्य हो, वहाँ सत्ता का केन्द्रीकरण अनुचित है।य् इस प्रकार जहाँ भारत की रणनीतियाँ वैश्विक अनुभवों तथा राष्ट्रीय सहक्रिया से उपजें और विकसित हों, वहीं वे स्थानीय जरूरतों एवं अवसरों के अनुरूप ढलें, यह देखना होगा।