अर्थशास्त्र और अर्थव्यवस्थाएँ
अर्थशास्त्र
- ‘अर्थशास्त्र’ शब्द दो ग्रीक शब्दों ‘ओकोस’ और ‘नेमीन’ शब्दों से लिया गया है। इसका अर्थ है- गृहस्थ का नियम अथवा कानून।
- अर्थशास्त्र वह विषय हैं, जिसके तहत यह अध्ययन किया जाता है कि व्यक्ति, समाज और सरकार किस प्रकार अपने सीमित संसाधनों के द्वारा अपनी असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।
- अर्थशास्त्र का संबंध केवल इस बात से नहीं है कि एक राष्ट्र अपने संसाधनों का उपयोग विभिन्न उपयोगों में किस प्रकार करता है, बल्कि उस प्रक्रिया का भी अध्ययन करना है, जिससे इन संसाधनों की उत्पादकता को और बढ़ाया जा सके तथा उन कारकों का भी जिन्होंने भूतकाल में संसाधनों के उपयोग की दर में वृद्धि की हो।
- इस प्रकार अर्थशास्त्र एक व्यापक विषय है, जो उत्पादन, उपभोग बचत, विनियोग, मुद्रास्फीति, राष्ट्रीय-आय, प्रति व्यक्ति आय, मौद्रिक नीति, राजकोषीय नीति, रोजगार के अवसर, जीवन की गुणवत्ता आदि से संबंधित विषयों का अध्ययन करता है।
- अर्थशास्त्र के पिता ‘एडम स्मिथ’ को कहा जाता है। एडम स्मिथ ने अर्थशास्त्र पर पहली किताब “Wealth of Nations” लिखी साथ ही एडम स्मिथ ने अहस्तक्षेप के सिद्धांत का समर्थन किया।
- ब्रिटिश अर्थशास्त्री रॉबिन्स के अनुसार ‘अर्थशास्त्र एक विज्ञान है, जो उद्देश्यों और वैकल्पिक उपयोग वाले सीमित साधनों से संबंधित मानव व्यवहार का अध्ययन करता है।’
- रॉबिन्स की परिभाषा अर्थशास्त्र के क्षेत्र को व्यापक बनाती है। यह ‘छाँट की समस्या’ है, जो उपभोग, उत्पादन और विनिमय के क्षेत्रों में व्यापक है। उदाहरण के लिए, उपभोक्ता को विभिन्न वस्तुओं के उन संयोगों को चुनना होता है, जिनसे उसे सर्वाधिक संतोष मिलता है। इसी प्रकार एक उत्पादक भी उत्पादन के उसी आकार का चुनाव करेगा, जिससे उसे अधिकतम लाभ मिले।
- नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो- सेमुएल्सन के अनुसार- ‘अर्थशास्त्र इस तथ्य का अध्ययन है कि व्यक्ति और समाज, मुद्रा का प्रयोग करते हुए या न करते हुए, दुर्लभ उत्पादक साधनों का चुनाव जिनके वैकल्पिक उपयोग हो सकते हैं, का उपयोग विभिन्न वस्तुओं के समयगत उत्पादन और उनको वर्तमान उपभोग में और भविष्य में विभिन्न व्यक्तियों और समाज के वर्गों में किस प्रकार वितरित करते हैं।’
अर्थशास्त्र के प्रकार
- रैंगनर फ्रिंचः- इन्हें 1969 में अर्थशास्त्र का पहला नोबल पुरस्कार मिला, इनके द्वारा अर्थशास्त्र को निम्नलिखित दो भागों में बांटा गया है। वर्तमान में अर्थशास्त्र का अध्ययन दो भागों में किया जाता है- व्यष्टि अर्थशास्त्र और समष्टि अर्थशास्त्र।
- व्यष्टि का अर्थ है, छोटा, सूक्ष्म। अतः जब अध्ययन अथवा समस्या एक इकाई या अर्थव्यवस्था के एक भाग से संबंधित होती है तो इस अध्ययन विषय को व्यष्टि अर्थशास्त्र कहा जाता है।
- समष्टि का अर्थ है, बड़ा। जब अध्ययन संपूर्ण अर्थव्यवस्था अथवा संपूर्ण अर्थव्यवस्था के समुच्चयों से संबंधित होता है तो इस अध्ययन को समष्टि अर्थशास्त्र कहा जाता है।

व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
- व्यष्टि अर्थशास्त्र आर्थिक क्रिया की एक इकाई अथवा अर्थव्यवस्था की एक इकाई के भाग या एक से अधिक इकाई के छोटे समूह का अध्ययन है।
- ग्रीक शब्द ‘माइक्रोस’ से लिए गए शब्द ‘माइक्रोस’ का अर्थ है छोटा- यह व्यक्तिगत आर्थिक ऐजेंट के व्यवहार से संबधित है तथा वस्तुओं और सेवाओं की कीमत निर्धारण की क्रियाओं का नतीजा है। इस प्रकार इसे ‘मूल्य सिद्धांत’ भी कहा जाता है।
- अर्थव्यवस्था की सूक्ष्म जानकारी किसी व्यक्ति, फर्म, घरेलू कार्य आदि की नीति निर्धारण में सहायक होती है (उत्पादन, उपभोग, मूल्य निर्धारण, मजदूरी दर आदि) में सहायता मिलती है।
- व्यष्टि अर्थशास्त्र का अध्ययन व्यक्तियों के व्यवहार प्रारूपों तथा फर्मों की आय वितरण, उत्पादन दक्षता और समग्र दक्षता प्राप्ति पर जोर देता है।
- दक्षता का अर्थ है उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच संसाधनों का अनुकूलतम आबंटन। जिससे वस्तुओं और सेवाओं की न अत्यधिक मांग और न अत्यधिक आपूर्ति।
समष्टि अर्थशास्त्र
- समष्टि अर्थशास्त्र अर्थशास्त्र की एक शाखा है, जो किसी देश के आर्थिक समुच्चयों का अध्ययन करती है। समष्टि शब्द ग्रीक भाषा के शब्द ‘माक्रोस’ (Macro) से लिया गया है।
- इस शब्द का प्रचार ब्रिटिश अर्थशास्त्री लार्ड जॉन मैनार्ड कींस की पुस्तक ‘The General Theory of Employment Interest and Money’, जो 1936 में प्रकाशित हुई, के प्रकाशन के पश्चात् हुआ।
- 1929 की महान मंदी ने अर्थशास्त्रियों को विषय को नए तरीके से सोचने के लिए मजबूर किया, जो चहुमुखी था। परिणामस्वरूप समष्टि अर्थशास्त्र सिद्धांत विकसित हुआ। इसे ‘आय तथा रोजगार सिद्धांत’ भी कहा जाता है।
- समष्टि अर्थशास्त्र सभी आर्थिक इकाइयों का समग्र विश्लेषण करता है, जिससे आर्थिक प्रणाली का पूर्ण चित्र प्राप्त हो जाए और बड़े पैमाने पर आर्थिक समस्याओं का अध्ययन किया जा सके।
- उत्पादन, मूल्य स्तर और रोजगार के घटक अर्थव्यवस्था में एक साथ कार्य करते हैं, जो यह व्यक्त करता है कि उनमें परस्पर निकट संबंध है। समष्टि अर्थशास्त्र में अर्थव्यवस्था के इन सभी घटकों को सम्मिलित रूप में देखा जाता है।
व्यष्टि और समष्टि अर्थशास्त्र में अंतर
- अर्थशास्त्र की इन दोनों शाखाओं में महत्त्वपूर्ण अंतर हैं, जो नीचे दिए गए हैं-
अध्ययन के पैमाने में अंतरः
- व्यष्टि अर्थशास्त्र में व्यक्तिगत आर्थिक इकाइयों से संबंधित अध्ययन किया जाता है, जबकि समष्टि अर्थशास्त्र समुच्यों का अध्ययन है।
अध्ययन के क्षेत्र में अंतरः
- समष्टि अर्थशास्त्र आय, रोजगार और सृवंद्धि संबंधी नीतियों के व्यापक स्तर से संबंधित है जबकि व्यष्टि अनुकूलतम साधन आबंटन और आर्थिक क्रियाओं जैसे- मूल्य निर्धारण से संबंधित समस्याओं और नीतियों का अध्ययन होता है।
कीमत और आय अवधारणाओं के महत्त्व में अंतरः
- व्यष्टि अर्थशास्त्र का विश्लेषण बाजार में वस्तुओं और सेवाओं की कीमत निर्धारण पर केन्द्रित रहता है, जबकि समष्टि अर्थशास्त्र का विश्लेषण संपूर्ण अर्थव्यवस्था में आय निर्धारण पर केन्द्रित रहता है। प्रत्येक वस्तु और सेवा का अपना बाजार होता है, जहां क्रेता और विक्रेता आपस में वस्तु की कीमत और मात्र निर्धारित करने के लिए अंतर्क्रिया करते हैं।
- यह निर्णय व्यक्तिगत क्रेताओं द्वारा जो वस्तु की मांग करते हैं तथा विक्रेताओं द्वारा जो इन वस्तुओं की पूर्ति करते हैं, व्यष्टि अर्थशास्त्र की विषय सामग्री है। दूसरी ओर संपूर्ण व्यवस्था की आय का निर्धारण, जिसमें सभी क्षेत्रों की आय सम्मिलित है, समष्टि अर्थशास्त्र की विषय सामग्री है।
अध्ययन की विधि में अंतरः
- व्यष्टि अर्थशास्त्र का अध्ययन आंशिक संतुलन से अधिक प्रभावित है, जो आर्थिक क्रिया से संबंधित महत्त्वपूर्ण कारकों से प्रभावित होता है। समष्टि अर्थशास्त्र में अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण आर्थिक समुच्चयों का अध्ययन होता है। इसे सामान्य संतुलन विश्लेषण कहते हैं।
विश्लेषण तथ्यों में अंतरः
- व्यष्टि अर्थशास्त्र में आर्थिक तथ्यों के संतुलन की स्थिति में अध्ययन होता है, जबकि समष्टि अर्थशास्त्र में आर्थिक समुच्चयों के व्यवहार का असंतुलन की स्थिति में अध्ययन होता है।
समष्टि और व्यष्टि अर्थशास्त्र का महत्त्व
- आर्थिक विश्लेषण की दोनों शाखाएं एक-दूसरे की संपूरक और पूरक हैं। इनके व्यवहारिक पक्ष का संबंध अर्थशास्त्र और वाणिज्य से है।
- व्यष्टि अर्थशास्त्र विश्लेषण के महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं- कृषि अर्थशास्त्र, श्रम अर्थशास्त्र, अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र, उपभोग अर्थशास्त्र, तुलनात्मक अर्थशास्त्र, कल्याणकारी अर्थशास्त्र, क्षेत्रीय अर्थशास्त्र, लोकवित्त के पहलू तथा अन्य क्षेत्र।
- समष्टि अर्थशास्त्र में आर्थिक नीतियों और कार्यान्वयन, व्यष्टि अर्थशास्त्र की जानकारी, आर्थिक विकास का अध्ययन, कल्याण संबंधित अध्ययन, मुद्रास्फीति और मुद्रा संकुचन का अध्ययन और अंतर्राष्ट्रीय तुलनात्मक अध्ययन भी शामिल हैं।
अर्थव्यवस्था
- अर्थव्यवस्था वह संरचना है, जिसके अन्तर्गत किसी देश, राज्य या क्षेत्र की समस्त आर्थिक गतिविधियों (उत्पादन, वितरण, उपभोग) आदि का अध्ययन किया जाता है।
- अर्थशास्त्र और अर्थव्यवस्था के बीच संबंध सामान्य रूप से सिद्धान्त और अभ्यास के रूप में देखा जा सकता है। अर्थशास्त्र में आर्थिक गतिविधियों से संबंधित, नियमों इत्यादि का वर्णन होता है, जबकि अर्थव्यवस्था में इन्हीं सिद्धांतों का व्यवहारिक प्रयोग किया जाता है।
अर्थव्यवस्था का अध्ययन 2 रूपों में किया जा सकता हैं-
- उत्पादों के सहयोग के रूप में (जोकि उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए उत्पादन करते हैं)।
- परस्पर विनिमय प्रणाली के रूप में (जिसमें हम वस्तुओं का विनिमय करते हैं जो वास्तव में उनके पीछे छुपी श्रम शक्ति का विनिमय करते हैं)।
- अर्थव्यवस्था की निम्न 3 प्रमुख प्रक्रियाएं-
- उत्पादन
- उपभेाग
- निवेश
अर्थव्यवस्था की समस्याएँ
- प्रत्येक अर्थव्यवस्था में कुछ समस्याएं होती हैं, क्योंकि अर्थव्यवस्था में साधन सीमित हैं, आवश्यकताएं अनंत हैं, तथा साधनों का वैकल्पिक उपयोग किया जा सकता है। इस आधार पर किसी भी अर्थव्यवस्था में तीन प्रमुख समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसे अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याएं कहते हैं, ये हैं-
क्या और किस मात्र में उत्पादित किया जाए?
- साधनों की सीमितता ही ‘क्या और कितना उत्पन्न’ करने की समस्या को जन्म देती है। एक उत्पादक को यह तय करना होता है कि उत्पादन के लिए उपलब्ध साधनों को किस प्रकार उपयोग में लाया जाए। उदाहरण के लिए, सुरेश एक कृषक है। उसके पास एक भूखंड है। उसे यह सोचना पड़ेगा कि उस भूखंड पर कौन-सी फसल उगाए।
- माना वह गेहूं और गन्ना उगा सकता है, पर उसके पास उपलब्ध भूमि सीमित है। अब उसे यह तय करना होगा कि वह गेहूं उगाए या गन्ना या फिर दोनों।
- गेहूं या गन्ना का निर्णय करने के बाद ही वह यह निश्चित कर पाएगा कि अपनी चयनित फसल को कितनी मात्र में उगाए?
- क्या और कितना उत्पादन की समस्या प्रत्येक अर्थव्यवस्था को सुलझानी होती है। यह भी तय करना होता है कि संसाधनों का प्रयोग उपभोक्ता वस्तुएं बनाने के लिए करे या उत्पादक वस्तुएं या फिर वैकल्पिक रूप में, विलासिता की वस्तुओं का निर्माण किया जाए अथवा जन-साधारण के लिए उपयोगी वस्तुओं का।
- किसी अर्थव्यवस्था को सैन्य सामग्री एवं नागरिक उपभोग सामग्री के उत्पादन के बीच भी चयन करना पड़ सकता है। दूसरे शब्दों में, सीमित संसाधनों के कारण अर्थव्यवस्थाओं को उन संयोजनों के बीच चयन करना पड़ता है, जिनका उन्हें उत्पादन करना होता है।
- क्या और कितने उत्पादन की समस्या सरकार द्वारा उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों में संसाधनों के आवंटन से सुलझाई जाती है अथवा बाजार में वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों तथा जन सामान्य की वरीयताओं के आधार पर भी इस समस्या का समाधान हो सकता है।
कैसे उत्पादन किया जाए?
- उत्पादन की तकनीक का चयन ‘कैसे उत्पादन किया जाए’ की समस्या से जुड़ा है। उत्पादन की तकनीक का अर्थ किसी वस्तु के उत्पादन में उत्पादन के कारकों के विभिन्न संयोग से है। प्रायः सभी वस्तुओं का एक से अधिक तकनीकों द्वारा उत्पादन संभव है। प्रत्येक उत्पादन विधि में कारकों के भिन्न-भिन्न संयोगों की आवश्यकता होती है।
- उत्पादन की तकनीक श्रम या पूंजी प्रधान हो सकती है। जिस तकनीक में पूंजी की इकाइयों की तुलना में श्रम का अधिक प्रयोग हो, उसे हम श्रम प्रधान तकनीक कहते हैं। दूसरी ओर, अपेक्षाकृत अधिक पूंजी का प्रयोग करने वाली तकनीक पूंजी सघन या पूंजी प्रधान तकनीक कहलाती है।
- सुरेश अपने खेत में श्रम और पूंजी के अनेक संयोजनों का प्रयोग कर सकता है। यदि वह इच्छुक हो तो हल चलाने, बीज बोने, फसल काटने, गेहूं निकालने के कामों में बैलों और श्रमिकों का प्रयोग कर सकता है। यह श्रम प्रधान तकनीक होगी। दूसरी ओर वह इन्हीं कामों को मशीनों द्वारा भी संपन्न कर सकता है। इस दशा में वह कृषि की पूंजी प्रधान तकनीक उपयोग कर रहा है।
- ठीक इसी प्रकार कपड़ा बनाने के उद्योग में हथकरघा का प्रयोग एक श्रम प्रधान तकनीक है तो विद्युत चालित करघा का प्रयोग पूंजी प्रधान तकनीक कहलाएगा। इस समस्या के समाधान का आधार है कि किस साधन के किस स्तर तक उपयोग द्वारा उत्पादन करना है। प्रत्येक उत्पादक उपलब्ध संसाधनों से अधिकतम उत्पादन करना चाहता है।
किसके लिए उत्पादन किया जाए?
- इस समस्या का संबंध है कि उत्पादन का किस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों के बीच विभाजन किया जाए। प्रायः व्यक्तियों को उनके द्वारा उत्पादित वस्तुएं श्रमिक के रूप में नहीं दी जाती। उत्पादन के विक्रय से मुद्रा अर्जित की जाती है।
- उत्पादक वही मुद्रा राशि उत्पादन प्रक्रिया में योगदान देने वालों के बीच आय के रूप में भुगतान कर देते हैं। व्यक्ति इस प्रकार, प्राप्त आय को व्यय कर अपनी आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए वस्तुएं खरीदते हैं। सुरेश फसल की कटाई-दराई के बाद अनाज को बेचकर विभिन्न साधनों को उनकी सेवाओं के प्रतिफल का भुगतान करेगा।
- श्रमिक की मजदूरी, भूमि की लगान और पूंजी पर ब्याज दिया जाएगा। शेष बची राशि सुरेश को उद्यमी के रूप से अर्जित लाभ होगी। किसी व्यवसाय को प्रारंभ करने का जोखिम उठाने वाला व्यक्ति उद्यमी कहलाता है।
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अन्य प्रमुख समस्याएं
संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग
- साधन दुर्लभ हैं, उनका अल्प उपयोग नहीं करना चाहिए। उनका उचित प्रकार से उपयोग कर उनसे अधिकतम उत्पादन करना चाहिए। इस प्रकार संसाधनों के पूर्ण प्रयोग के निम्न निहितार्थ हैं-
i) सभी संसाधनों का उपयोग
- संसाधनों का यों ही पड़ें रखना उन्हें बर्बाद करने के समान हैं। संसाधनों की बर्बादी से उत्पादन कम हो जाता है। उदाहरण के लिए, माना बहुत से व्यक्ति बेरोजगार हैं। इसका अर्थ है कि मानवीय संसाधनों की बर्बादी हो रही है।
- यदि किसी कारखाने में हड़ताल हो जाए तो वहां लगी पूंजी बर्बाद हो जाती है। यदि इन संसाधनों का प्रयोग हो तो अर्थव्यवस्था में अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन होगा। अतः प्रत्येक अर्थव्यवस्था को ऐसे प्रयास करने चाहिए कि उनके दुर्लभ संसाधनों का पूर्ण उपयोग हो, वे खाली न रहें, बेरोजगार न रहें।
ii) साधनों का दक्षता पूर्ण प्रयोग
- चूंकि साधन दुर्लभ हैं, अतः उनकी समस्त क्षमता का पूरा प्रयोग होना चाहिए। उनकी उत्पादन क्षमता के प्रयोग में कोई कमी न रहनी चाहिए।
- यदि किसी व्यक्ति की क्षमता 8 घंटे कार्य करने की है, किंतु उसे केवल 4 घंटे का ही काम मिलता है तो ये उस व्यक्ति की क्षमता का अपूर्ण उपयोग ही कहलाएगा। यदि उसे पूरे 8 घंटे का काम मिलता तो उत्पादन में भारी वृद्धि होती।
- संसाधनों की क्षमता के प्रयोग में कमी रहना भी उनकी बर्बादी के समान है। प्रत्येक अर्थव्यवस्था को ऐसी उत्पादन विधियां अपनानी चाहिए कि सभी संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग संभव हो पाए।
संसाधन संवृद्धि
- हम जानते हैं कि आवश्यकताएं असीमित होती हैं। अतः लोग निरंतर अधिक-से-अधिक वस्तुओं की मांग करते रहते हैं। परंतु इन बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए तो संसाधनों की मात्र में भी निरंतर वृद्धि होनी चाहिए। तभी वे बढ़ती मांगों को पूरा कर पाएंगे। साधनों में वृद्धि हो सकती है, यदि-
(i) संसाधनों में परिमाणात्मक परिवर्तन हो
- साधनों में परिमाणात्मक परिवर्तन तभी होंगे, जब उपलब्ध संसाधनों की मात्र में वृद्धि हो। उदाहरण के लिए, जनसंख्या वृद्धि से मानवीय पूंजी की मात्र में वृद्धि होती है। इसी प्रकार प्राकृतिक संसाधनों के नवीन भंडारों की खोज से भी अधिक मात्र में संसाधनों की प्राप्ति हो जाती है।
(ii) संसाधनों में गुणात्मक सुधार
- उत्तम प्रशिक्षण और कौशल विकास से मानवीय पूंजी की गुणवत्ता और उत्पादन क्षमता में सुधार होता है। मानव निर्मित पूंजी की गुणवत्ता में सुधार प्रायः प्रौद्योगिकी के विकास के माध्यम से होता है।
- यहाँ संसाधनों के परिमाण में वृद्धि नहीं होती, किंतु उनकी उत्पादकता में वृद्धि हो जाती है। उत्पादकता को हम आगत की प्रति इकाई से प्राप्त निर्गत के रूप में परिभाषित करते हैं। उदाहरण, उचित प्रशिक्षण द्वारा पहले 10 इकाई उत्पन्न करने वाला श्रमिक 15 इकाइयाँ उत्पादन करने में सक्षम हो जाएगा।
- यहाँ श्रमिक संख्या तो वही रहती है, पर उत्पादन 5 इकाइयाँ और अधिक हो जाता है। अतः कह सकते हैं कि अच्छे प्रशिक्षण और कौशल वृद्धि के आधार पर उत्पादन वृद्धि संपन्न हुई है।
अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र
प्राथमिक क्षेत्र
- भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर लोग फसल उगाने के लिए खेतों में कार्य करते हैं जिसे ‘कृषि कर्म’ कहते हैं। इन लोगों को कृषक तथा कृषि श्रमिक तथा व्यवसाय को ‘कृषि’ कहते हैं।
- विभिन्न प्रकार की फसलें होती हैं जिन्हें उगाया जाता है जैसे खाद्यान्न तथा गैर-खाद्य मदें। खाद्यान्नों में अनाज, दालें, फल तथा सब्जी आदि तथा गैर-खाद्य मदों में कपास, जूट आदि को सम्मिलित किया जाता है।
- इसी प्रकार, लोग अपनी जीविका वान्यिकी से भी अर्जित करते हैं जिससे अभिप्राय वन-उत्पादों को एकत्र कर बाजार में बेचने से है। इस व्यवसाय को ‘वान्यिकी’ कहा जाता है। वन उत्पादों में इमारती लकड़ी, ईंधन की लकड़ी, जड़ी-बूटी वाली औषधि आदि को सम्मिलित किया जाता है।
- बहुत से लोग खनिज निकालने के लिये खानों के क्षेत्र में कार्य करते हैं। अनेक लोग ऐसे भी है जो पशुधन में वृद्धि करने में संलग्न हैं जैसे- मुर्गीपालन तथा दुग्धशाला आदि।
- मत्स्यपालन एक अन्य व्यवसाय है जिसमें लोग पोखरों, नदियों अथवा समुद्र में से मछलियाँ पकड़कर बाजार में बेचते हैं। ये सभी गतिविधियाँ अर्थात् कृषि, वान्यिकी, खनन, पशुपालन तथा मत्स्यपालन एक दूसरे के पूरक हैं। इन्हें प्राथमिक उत्पादन में वर्गीकृत करते हैं तथा उन्हें प्राथमिक क्षेत्र में रखते हैं। अतः अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र में निम्नलिखित को सम्मिलित किया जाता है-
- कृषि तथा संबद्ध क्रिया कलाप
- मत्स्यपालन
- वान्यिकी
- खनन तथा उत्खनन
- प्राथमिक क्षेत्र की भूमिका एवं महत्त्व
- राष्ट्रीय आय में अंश
- जनसंख्या के सबसे बड़े भाग को रोजगार प्रदान करती है
- लाखों को भोजन प्रदान करती है
- उद्योगों को कच्चा माल प्रदान करती है
द्वितीयक क्षेत्र
- इस क्षेत्र में निम्नलिखित उत्पादन गतिविधियों को सम्मिलित किया जाता है-
- विनिर्माण
- निर्माण
- गैस, जल तथा बिजली आपूर्ति
विनिर्माण
- विनिर्माण करने वाली इकाइयाँ जिन्हें फैक्ट्री तथा उद्योग कहते हैं, इनमें कच्चे माल का प्रयोग कर वस्तुओं का उत्पादन करने वाली इकाईयों को सम्मिलित किया जाता है। आकार तथा सम्बद्ध व्यय के आधार पर ये लघु उद्योग तथा बड़े पैमाने के उद्योग होते हैं।
- लघु उद्योग में जूते बनाने वाली फैक्ट्री, कपड़े का उत्पादन करने वाली इकाईयां, प्रिंटिंग, शीशा बनाना, फर्नीचर आदि को सम्मिलित किया जाता है। बड़े पैमाने के उद्योग में इस्पात, मोटर गाडि़यां, एल्यूमिनियम आदि के उद्योगों को सम्मिलित किया जाता है। विनिर्माण के व्यवसाय में कुशल श्रमिक कार्य करते हैं।
निर्माण
- इस गतिविधि में आवासीय तथा गैर-आवासीय इमारत, सड़क, पार्क, पुल, बांध, हवाई अड्डे, बस अड्डे आदि को सम्मिलित किया जाता है। यह शहरी क्षेत्रों में होने वाली यह एक नियमित गतिविधि है।
- द्वितीयक क्षेत्र में लोगों द्वारा अपनाएं जाने वाले व्यवसाय हैंः गैस, जल तथा बिजली आपूर्ति। ये आवश्यक सेवाएं हैं।
द्वितीयक क्षेत्र की भूमिका तथा महत्त्व
- राष्ट्रीय आय में अंश
- रोजगार का सृजन
- आधरिक संरचना का सृजन
- उपभोक्ता वस्तुओं का प्रावधन
तृतीयक क्षेत्र
- लोग तृतीयक क्षेत्र की गतिविधियों में भी संलग्न होते हैं जो प्रकृति में भिन्न होती हैं। इस क्षेत्र को ‘सेवा क्षेत्र’ भी कहते हैं जिसमें निम्नलिखित सेवाएं प्रदान की जाती हैं-
- व्यापार, होटल तथा जलपान-गृह
- परिवहन, संग्रहण तथा संचार
- वित्तीय सेवाएं जैसे- बैंकिंग, बीमा आदि
- स्थावर सम्पदा तथा व्यावसायिक सेवाएं
- लोक प्रशासन
- अन्य सेवाएं
अर्थव्यवस्था के अन्य प्रकार
उत्पादन के संसाधन के स्वामित्व तथा नियंत्रण के आधार पर
- संसाधनों पर निजी व्यक्तियों का पूर्ण स्वामित्व हो सकता है। उन्हें इनका प्रयोग कर इच्छानुसार लाभ प्राप्त करने की छूट हो सकती है। अथवा ये सामूहिक स्वामित्व सरकारी नियंत्रण में हो सकते हैं तथा सम्पूर्ण समाज के सामूहिक कल्याण के लिये इनका उपयोग किया जा सकता है।
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता के स्तर तथा लाभ के उद्देश्य की कसौटी के आधार पर अर्थव्यवस्थाओं का नामकरण इस प्रकार हो सकता हैः-
- पूंजीवादी
- समाजवादी एवं
- मिश्रित अर्थव्यवस्था
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था
- पूंजीवादी या स्वतंत्र उद्यम अर्थव्यवस्था अर्थव्यवस्थाओं का प्राचीनतम स्वरूप है। प्राचीन अर्थशास्त्री आर्थिक मामलों में ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ के पक्षधर थे। वे आर्थिक कार्यों में सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम स्तर तक सीमित रखना चाहते थे। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
i) निजी संपत्ति
- पूंजीवादी प्रणाली में प्रत्येक व्यक्ति को संपत्ति का स्वामी होने का अधिकार होता है। व्यक्ति अपनी संपत्ति को पाकर उसे अपने परिवार के लाभार्थ प्रयोग करने को स्वतंत्र होते हैं। भूमि, मशीनों, खानों, कारखानों के स्वामित्व, लाभ कमाने और धन संग्रह करने पर कोई रूकावट नहीं लगाई जाती है।
- व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उसकी संपत्ति उसके कानूनी उत्तराधिकारियों के नाम अन्तरित हो जाती है। इस प्रकार उत्तराधिकार का नियम निजी संपत्ति व्यवस्था को जीवित रखता है।
ii) उद्यम की स्वतंत्रता
- पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सरकार नागरिकों की उत्पादक गतिविधियों में समन्वय लाने का प्रयास नहीं करती। सभी व्यक्ति अपना व्यवसाय चुनने को स्वतंत्र होते हैं।
- उद्यम की स्वतंत्रता का अर्थ है कि सभी फर्में संसाधन प्राप्त कर उन्हें अपनी किसी वस्तु और सेवा के उत्पादन में लगाने के लिये स्वतंत्र होती हैं।
- ये फर्में अपने इच्छित बाजारों में अपना उत्पादन बेचने को भी स्वतंत्र होती हैं। इसी प्रकार प्रत्येक श्रमिक अपना रोजगार और रोजगारदाता चुनने को स्वतंत्र रहता है।
- छोटी व्यावसायिक इकाइयों में उनके मालिक स्वयं ही उत्पादन से जुड़े जोखिम उठाते हैं तथा लाभ अथवा हानि उठाते हैं। किन्तु आधुनिक निगमित व्यवसाय में जोखिम अंशधारियों के हिस्से में आते हैं और व्यवसाय का संचालन वेतन भोगी ‘निदेशक’ करते हैं।
- अतः लाभ कमाने के लिये अपनी पूंजी का प्रयोग कर अपना ही नियंत्रण होना आवश्यक नहीं रह गया है। सरकार या कोई अन्य संस्था श्रमिकों के किसी उद्योग में आने या उससे बाहर जाने पर कोई बंधन नहीं लगाती। प्रत्येक श्रमिक वही रोजगार चुनता है जहां से उसे अधिकतम आय प्राप्त हो सके।
iii) उपभोक्ता प्रभुत्व
- पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता राजा के समान होता है। उपभोक्ता अधिकतम संतुष्टिदायक वस्तुओं और सेवाओं पर अपनी आय खर्च करने को पूरी तरह स्वतंत्र होते हैं।
- पूंजीवादी व्यवस्थाओं में उत्पादन कार्य उपभोक्ताओं द्वारा किये गये चयनों के अनुसार किये जाते हैं। उपभोक्ता की निर्बाध स्वतंत्रता को ही उपभोक्ता की सत्ता का नाम दिया जाता है।
iv) लाभ का उद्देश्य
- पूंजीवाद में मार्गदर्शन करने का सिद्धान्त स्वयं का हित होता है। उद्यमी जानते हैं कि अन्य उत्पादक साधनों को भुगतान के बाद लाभ अथवा हानि उनकी होगी।
- अतः वे सदैव लागत को न्यूनतम और आगम को अधिकतम करने का प्रयास करते रहते हैं ताकि उनको मिलने वाला अन्तर लाभ अधिकतम हो जाए। इसी से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कुशल और स्वयं नियंत्रित अर्थव्यवस्था बन जाती है।
v) प्रतियोगिता
- पूंजीवादी पद्धति में किसी व्यवसाय में फर्मों के प्रवेश और उसकी निकासी पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है। प्रत्येक वस्तु और सेवा के बहुत से उत्पादक बाजार में वस्तु की आपूर्ति कर रहे होते हैं।
- प्रतियोगिता पूंजीवाद की एक आधारभूत विशेषता है और इसी के कारण उपभोक्ता का शोषण से बचाव होता है। यद्यपि आजकल फर्मों के बड़े आकार और उत्पाद विभेदन के कारण बाजार में कुछ एकाधिकारी प्रवृत्तियां पनप रही हैं, फिर भी फर्मों की बड़ी संख्या और उनके बीच कड़ी प्रतियोगिता साफ दिखाई पड़ जाती है।
vi) बाजारों और कीमतों का महत्त्व
- पूंजीवाद की निजी संपत्ति, चयन की स्वतंत्रता, लाभ का उद्देश्य और प्रतियोगिता की विशेषताएं ही बाजार की कीमत प्रणाली के सुचारू रूप से काम करने के लिये उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण करती हैं।
- पूंजीवाद मूलतः बाजार आधारित व्यवस्था है जिसमें प्रत्येक वस्तु की एक कीमत होती है। उद्योगों में मांग और आपूर्ति की शक्तियाँ ही कीमत का निर्धारण करती हैं। जो फर्म उस निश्चित कीमत के अनुसार अपने उत्पादन को ढ़ाल पाती हैं वही सामान्य लाभ कमाने में सफल रहती हैं।
- अन्य को उद्योग से पलायन करना पड़ता है। प्रत्येक उत्पादक उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करेगा जिनसे उसे अधिकतम लाभ मिल सके।
vii) सरकारी हस्तक्षेप का अभाव
- स्वतंत्र बाजार अथवा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में समन्वयकारी संस्था का कार्य कीमत प्रणाली करती है। सरकारी हस्तक्षेप और सहारे की कोई आवश्यकता नहीं होती। सरकार की भूमिका बाजार व्यवस्था के स्वतंत्र और कुशल संचालन में सहायता करती है।
- आज विश्व में शुद्ध रूप से पूंजीवाद देखने को नहीं मिलता है। यू.एस.ए., यू.के., फ्रांस, नीदरलैण्ड, स्पेन, पुर्तगाल, आस्ट्रेलिया आदि की अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक विकास में उनकी अपनी सरकारों की सक्रिय भूमिका सहित पूंजीवादी देशों के रूप में जाना जाता है।
समाजवादी अर्थव्यवस्था
- समाजवादी या केन्द्रीय नियोजित अर्थव्यवस्थाओं में समाज के सभी उत्पादक संसाधनों पर समाज के बेहतर हितों की पूर्ति के लिये सरकार का स्वामित्व और नियंत्रण रहता है। सभी निर्णय किसी केन्द्रीय योजना प्राधिकरण द्वारा लिये जाते हैं।
एक समाजवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैंः
i) उत्पादन के संसाधनों का सामूहिक स्वामित्व
- समाजवादी अर्थव्यवस्था में जनता की ओर से उत्पादन के संसाधनों पर सरकार का स्वामित्व होता है। यहाँ निजी संपत्ति का अधिकार समाप्त हो जाता है।
- कोई व्यक्ति किसी उत्पादक इकाई का स्वामी नहीं हो सकता। वह धन संग्रह कर उसे अपने उत्तराधिकारियों को भी नहीं सौंप सकता। परन्तु लोगों को व्यक्तिगत प्रयोग के लिये कुछ दीर्घोपयोगी उपभोक्ता पदार्थ अपने पास रखने की छूट होती है।
ii) समाज के कल्याण का ध्येय
- सरकार, समष्टि स्तर पर, सभी निर्णय निजी लाभ नहीं बल्कि अधिकतम सामाजिक कल्याण की प्राप्ति के उद्देश्य से करती है।
- मांग और आपूर्ति की शक्तियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण नहीं होती। सभी निर्णय ध्यानपूर्वक कल्याण के उद्देश्य से प्रेरित होकर लिये जाते हैं।
iii) केन्द्रीय नियोजन
- आर्थिक नियोजन समाजवादी अर्थव्यवस्था की एक मूलभूत विशेषता है। केन्द्रीय योजना प्राधिकरण संसाधनों की उपलब्धता का आकलन कर उन्हें राष्ट्रीय वरीयताओं के अनुसार आवंटित करता है।
- सरकार ही वर्तमान और भावी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उत्पादन, उपभोग और निवेश संबंधी सभी आर्थिक निर्णय लेती है।
- योजना अधिकारी प्रत्येक क्षेत्र के लक्ष्यों का निर्धारण करते हैं और संसाधनों का कुशल प्रयोग सुनिश्चित करते हैं।
iv) विषमताओं में कमी
- पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में आय और संपत्ति की विषमताओं का मूल कारण निजी संपत्ति और उत्तराधिकार की व्यवस्थाएं हैं। इन दोनों व्यवस्थाओं को समाप्त कर एक समाजवादी आर्थिक व्यवस्था आय की विषमताओं को कम करने में समर्थ होती है।
- किसी भी व्यवस्था में आय और संपत्ति की पूर्ण समानता को न तो वांछनीय माना जाता है और न ही यह व्यावहारिक है।
v) वर्ग संघर्ष की समाप्ति
- पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में श्रमिकों और प्रबंधकों के हित भिन्न होते हैं। ये दोनों वर्ग ही अपनी आय और लाभ को अधिकतम करना चाहते हैं। इसी से पूंजीवाद में वर्ग-संघर्ष उत्पन्न होता है।
- समाजवाद में वर्गों में कोई प्रतियोगिता नहीं होती। सभी व्यक्ति श्रमिक होते हैं इसलिये कोई वर्ग-संघर्ष नहीं होता। सभी सह-कर्मी होते हैं।
- आज के विश्व में समाजवाद रूस, चीन तथा पूर्वी यूरोप के अनेक देशों को समाजवादी देश कहा जाता है। परन्तु अब उनमें परिवर्तन हो रहा है तथा आर्थिक विकास के लिये वे अपने देशों में उदारीकरण को प्रोत्साहित कर रहे हैं।
मिश्रित अर्थव्यवस्था
- मिश्रित अर्थव्यवस्था में समाजवाद और पूंजीवाद की सबसे अच्छी विशेषताओं को सम्मिलित किया जाता है। अतः इनमें पूंजीवादी स्वतंत्र उद्यम और समाजवादी सरकारी नियंत्रण के कुछ तत्व मिलते हैं।
- मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों का सह-अस्तित्व रहता है। मिश्रित अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैंः-
i) निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों का सह-अस्तित्व
- निजी क्षेत्र में वे उत्पादन इकाइयाँ आती हैं जो निजी स्वामित्व में होती हैं तथा लाभ के उद्देश्य के लिये कार्य करती हैं।
- सार्वजनिक क्षेत्र में वे उत्पादन इकाइयाँ सम्मिलित की जाती हैं जो सरकार के स्वामित्व में होती हैं तथा सामाजिक कल्याण के लिये कार्य करती हैं।
- सामान्यतः दोनों क्षेत्रों के आर्थिक कार्य क्षेत्रों का स्पष्ट विभाजन रहता है। सरकार अपनी लाइसेंस, करारोपण, कीमत, मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों द्वारा निजी क्षेत्र के कार्यों पर नियंत्रण और उनका नियमन करती है।
ii) व्यक्तिगत स्वतंत्रता
- व्यक्ति अपनी आय को अधिकतम करने के लिये आर्थिक क्रियाओं में संलग्न रहते हैं। वे अपना व्यवसाय और उपभोग चुनने के लिये स्वतंत्र होते हैं।
- उत्पादकों को श्रमिकों और उपभोक्ताओं का शोषण करने की छूट नहीं दी जाती है।
- जन-कल्याण की दृष्टि से सरकार उन पर कुछ नियंत्रण लागू करती है। उदाहरणार्थ, सरकार हानिप्रद वस्तुओं के उत्पादन और उपभोग पर रोक लगाती है। सरकार द्वारा जनहित में बनाये गये कानूनों और प्रतिबंधों के दायरे में रहते हुए निजी क्षेत्र ‘पूर्ण स्वतंत्रता का उपयोग’ कर सकता है।
iii) आर्थिक नियोजन
- सरकार दीर्घकालीन योजनाओं का निर्माण कर अर्थव्यवस्था के विकास में निजी एवं सार्वजनिक उद्यमों के कार्य क्षेत्रों व दायित्वों का निर्धारण करती है।
- सार्वजनिक क्षेत्र पर सरकार का प्रत्यक्ष नियंत्रण रहता है अतः वही उसके उत्पादन लक्ष्यों और योजनाओं का निर्धारण भी करती है। निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन, समर्थन, सहारा तथा आर्थिक सहायताओं आदि के माध्यम से राष्ट्रीय वरीयताओं के अनुसार कार्य करने के लिये प्रेरित किया जाता है।
iv) कीमत प्रणाली
- कीमतें संसाधनों के आबंटन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। कुछ क्षेत्रों में निर्देशित कीमतें भी अपनाई जाती हैं। सरकार लक्ष्य समूहों के लाभ के लिये कीमतों में आर्थिक सहायता भी प्रदान करती है।
- सरकार का ध्येय जनसामान्य का हित संवर्धन होता है। जो व्यक्ति बाजार कीमतों पर आवश्यक उपभोग सामग्री खरीदने की स्थिति में नहीं होते, सरकार उन्हें रियायती कीमतों पर या निःशुल्क भी वस्तुएं उपलब्ध कराने का प्रयास करती है। अतः एक मिश्रित अर्थव्यवस्था में जन सामान्य को तथा समाज के कमजोर वर्गों के हित-सवंर्धन में सरकार द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सहारा, दोनों ही उपलब्ध रहते हैं।
- भारतीय अर्थव्यवस्था मिश्रित अर्थव्यवस्था समझी जाती है क्योंकि यहाँ आर्थिक नियोजन के साथ-साथ निजी व सार्वजनिक क्षेत्रों के आर्थिक कार्य क्षेत्र स्पष्टतया परिभाषित हैं। यू.एस.ए., यू.के. आदि देश भी जो पूंजीवादी देश कहे जाते थे, आर्थिक विकास में इनकी सरकारों की सक्रिय भूमिका के कारण अब मिश्रित अर्थव्यवस्था कहलाते हैं।
मिश्रित अर्थव्यवस्था का वर्गीकरण
- मिश्रित अर्थव्यवस्था को निम्न 3 भागों में बांटा जाता है-
i) मिश्रित बाजार प्रणाली-
- यह वह प्रणाली हैं जिसमें बाजार तंत्र की प्रधानता रहती है, संसाधनों का बंटवारा प्रचलित मांग एवं पूर्ति की शक्तियों के द्वारा होता है। संसाधनों का बंटवारा ‘लाभदेयता’ से निर्देशित होता है। इस प्रकार की व्यवस्था में राज्य एक कल्याणकारी राज्य के रूप में कार्य करता है, विकास संबंधी क्रियाओं में उसकी सक्रिय भागीदारी नहीं होती है।
ii) नियोजित मिश्रित प्रणाली-
- इस स्थिति में बाजार व्यवस्था के साथ नियोजित प्रणाली क्रियाशील होती है। योजना आयोग या केन्द्रीकृत व्यवस्था के द्वारा लक्ष्य निर्धारित होते है।
- निजी आयोग तथा सार्वजनिक उद्यमों के बीच समन्वय स्थापित होता है। इस प्रकार इसके अन्तर्गत सार्वजनिक तथा निजी उद्यम साथ-साथ चलते है, निजी क्षेत्र की कार्य प्रणाली सामाजिक लाभ की दृष्टि से राज्य द्वारा नियमित होती है। इसमें नियोजन की प्रधानता रहती है, प्रमुख भूमिका राज्य की होती है।
iii) बाजार प्रधान नियोजित मिश्रित व्यवस्था (उदारवादी व्यवस्था)-
- ऐसी व्यवस्था जिसमें नियोजन तो होता है, परन्तु बाजार तथा निजी क्षेत्र की भागीदारी के प्रति अधिक उदारवादी नीति हो तो इसे उदारवादी व्यवस्था (Liberalised system) या बाजार प्रधान नियोजित मिश्रित व्यवस्था कहते है, यह व्यवस्था धीरे-धीरे बाजार व्यवस्था की ओर बढ़ती जाती है।
- इसमें नियोजन का स्वरूप निर्देशित होता है। ध्यातव्य है कि भारत में 1991 से ही नव आर्थिक सुधारों के साथ ही यह प्रणाली लागू हो चुकी है।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था |
समाजवादी अर्थव्यवस्था |
मिश्रित अर्थव्यवस्था |
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका सुविधा प्रदाता के रूप में होती है। | समाजवादी अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका नियंत्रणकारी रूप में होती है। | मिश्रित अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका नियमनकारी रूप में होती है। |
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में नवीन सोच को ग्रहण करने की क्षमता है। | उत्पादन के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व होता है। | सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र का सह अस्तित्व होता है। |
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की प्रमुख पहचान लचीले बाजार व्यवस्था का होना है। | केन्द्रीय आर्थिक नियोजन इसकी प्रमुख पहचान है। | उद्योगों का वर्गीकरण होता है। |
प्रतिस्पर्द्धा के कारण गुणवत्तायुक्त उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन होता है। | वर्गहीन समाज की स्थापना इसका मूल उद्देश्य है। | आर्थिक क्रियाओं को दो क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है। जिसका आधार आर्थिक कल्याण होता है। |
बाजार प्रक्रिया आर्थिक शक्ति का विकेन्द्रीकरण करती है। | उत्पादन के स्वरूप का केन्द्रीय होना। | आर्थिक नियोजन होता है। |
यह प्रणाली उद्यमों के विकास में सहायक है। | साधनों का अनूकूलतम उपयोग होता है। | बाजार प्रणाली विद्यमान होती है। |
अधिकतम व्यक्तिगत स्वतंत्रता होती है। | आय का समान वितरण होता है। | सरकार की केन्द्रीय भूमिका होती है। |
इसमें तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रगति की संभावना अधिक रहती है। | समता एवं सामाजिक न्याय पर आधारित होता है। | सामाजिक कल्याण को प्रधानता दी जाती है। |
संसाधनों का स्वामित्व निजी हाथों में तथा उत्पादन निजी क्षेत्र द्वारा होता है। | समाज का हित सर्वोपरि होता है। | सामाजिक कल्याण के पीछे लाभ की प्रेरणा होती है। |
संसाधनों का स्वामित्व सरकार के पास होता है। | निजी क्षेत्र व सार्वजनिक क्षेत्र दोनों की भूमिका होती है। | |
अधिकतम लाभ इसका मूल उद्देश्य होता है। | उत्पादन सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा किया जाता है। | उत्पादन की क्रियाएँ दोनों पक्षों द्वारा होती है। |
कीमतें बाजार द्वारा नियंत्रित होती है। | कल्याण इसका मूल उद्देश्य है। | सम्मिलित स्वरूप होता है। |
अमेरिका, जापान, ब्रिटेन इस व्यवस्था के प्रमुख उदाहरण हैं। | कीमतें सरकार द्वारा नियंत्रित की जाती है। | मिश्रित स्वरूप, राज्य का नियमन होता है। |
रूस, क्यूबा, वियतनाम मुख्य समाजवादी अर्थव्यवस्था | भारत-मिश्रित अर्थव्यवस्था |
विकास के आधार पर अर्थव्यवस्था का वर्गीकरण
- किसी अर्थव्यवस्था को उसके वास्तविक राष्ट्रीय आय, तथा उसकी जनसंख्या की प्रति व्यक्ति आय और जीवन के निर्वाह स्तर के आधार पर उसे विकसित या अमीर और विकासशील अथवा गरीब देश कहा जाता है।
- विकास के स्तर के आधार पर अर्थव्यवस्थाओं के प्रकार विकास के स्तर के आधार पर अर्थव्यवस्थाओं को दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैंः-
विकसित अर्थव्यवस्था
- विकसित देशों में राष्ट्रीय और प्रति व्यक्ति आय तथा पूंजी निर्माण अर्थात् बचत और निवेश के स्तर उच्च होते हैं। उनके मानवीय संसाधन अधिक शिक्षित होते हैं। वहां जन सुविधाओं, चिकित्सा-स्वास्थ्य तथा स्वच्छता प्रबंध सुविधाएं, बेहतर होती हैं और मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर निम्न होती हैं।
- साथ ही वहां औद्योगिक और सामाजिक आधारिक संरचना तथा पूंजी और वित्त बाजार भी विकसित होते हैं। संक्षेप में, विकसित देशों में जीवन स्तर उन्नत होता है।
- विकसित अर्थव्यवस्थाओं की मुख्य विशेषतायें निम्नलिखित हैंः
अधिक प्रति व्यक्ति वास्तविक आयः
- वे अर्थव्यवस्थायें जिनकी प्रति व्यक्ति वास्तविक आय अधिक होती है। वर्ल्ड एटलस के अनुसार विकसित अर्थव्यवस्थाओं की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 9,000 डॉलर या उससे कुछ अधिक होती है, जो कि अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं की प्रति व्यक्ति आय से लगभग 30 गुना अधिक होती है।
ऊंची वृद्धि दरः
- विकसित अर्थव्यवस्थाओं की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय ही अधिक नहीं होती बल्कि उसकी विकास दर भी अपेक्षाकृत अधिक होती है।
- विकसित देश अपनी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर की निरन्तरता को बनाये रखने में कामयाब रहते हैं।
ऊंचा जीवन स्तरः
- विकसित देशों के लोगों का जीवन स्तर ऊंचा होता है। वे केवल अपनी भोजन, कपड़े तथा मकान की आवश्यकताओं को ही पूरा नहीं करते बल्कि आराम तथा विलासिता की वस्तुओं का भी काफी सीमा तक उपभोग करने में सफल रहते हैं। विकसित देशों में प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति लगभग 3,700 केलौरी का उपभोग करता है जबकि अल्पविकसित देशों में केवल 2400 कैलोरी का उपभोग किया जाता है।
पूंजी निर्माण की ऊंची दर तथा कम पूंजी-उत्पाद अनुपातः
- विकसित देशों में पूंजी निर्माण की दर अधिक होती है। इन देशों में लोगों की आय अधिक होती है। इसलिये उनमें बचत करने की क्षमता अधिक होती है।
- वे अपनी बचत को लाभप्रद कार्यों में निवेश करने में समर्थ होते हैं क्योंकि विकसित अर्थव्यवस्थाओं में निवेश की अधिक सुविधायें होती हैं।
- अधिक मात्र निवेश किये जाने के फलस्वरूप पूंजी निर्माण की दर बढ़ती है।
- पूंजी निर्माण की दर अधिक होने के फलस्वरूप उत्पादन ऊचे पैमाने पर होता है। उत्पादन बढ़ाने के दो उपाय हैंः
- पूंजी गहन
- पूंजी विस्तार
- विकसित अर्थव्यवस्थाओं में मानवीय पूंजी पूर्ण विकसित होती है। मानवीय पूंजी का तब निर्माण होता है जब लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य, ट्रेनिंग आदि की सुविधायें प्रदान करने के लिए निवेश किया जाता है। इस निवेश से भौतिक पूंजी में निवेश की तुलना में अधिक प्रतिफल प्राप्त होता है। मानवीय पूंजी के कई रूप हैं जैसे-
- श्रमिकों का अच्छा स्वारथ्य तथा लम्बी आयु
- श्रमिकों की शिक्षा तथा प्रशिक्षण
- नवप्रवर्तन
जनसंख्या की कम वृद्धि दरः
- विकसित अर्थव्यवस्थाओं में जनसंख्या की वृद्धि दर बहुत कम होती है। देश जनांकिकी की चौथी अवस्था से गुजर रहे होते हैं। जनांकिकी परिवर्तन की चतुर्थ अवस्था में निम्न जन्म दर तथा निम्न मृत्यु दर के कारण जनसंख्या की वृद्धि दर निम्न स्तर पर स्थिर हो जाती है।
- यह स्थिर जनसंख्या की अवस्था कहलाती है। इस अवस्था में आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप लोगों का जीवन स्तर बहुत ऊंचा हो जाता है।
- शहरीकरण, औद्योगिकीकरण तथा शिक्षा प्रसार से लोगों के सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन आ जाता है। एक बच्चा होने के पश्चात् लोग बच्चों की तुलना में कार, फ्रिज, टेलीफोन इत्यादि सुविधाओं को प्राथमिकता देने लगते हैं।
प्रौद्योगिकी प्रगतिः
- विकसित देश तकनीकी दृष्टि से अत्यंत प्रगतिशील होते है। लिप्सी के अनुसार, तकनीकी प्रगति नवप्रवर्तन के कारण होती है। यह नई वस्तुओं, वर्तमान वस्तुओं के उत्पादन की नई विधियों तथा व्यावसायिक संगठनों के नये प्रकारों को प्रस्तुत करती है।
- विकसित अर्थव्यवस्थाओं में तकनीकी प्रगति के फलस्वरूप उत्पादन के बाकी साधनों जैसे- पूंजी के स्थिर रहने पर भी उत्पादन में वृद्धि होती है।
- जापान तथा जर्मनी के तीन आर्थिक विकास का मुख्य कारण वहां की वैज्ञानिक तथा तकनीकी की उन्नति है।
- औद्योगिक विकास तथा कृषि की उन्नति के लिये वैज्ञानिक अनुसंधान बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। तकनीकी विकास के बिना देश का आर्थिक विकास तीव्र गति से नहीं हो सकता।
- तकनीकी प्रगति के कारण उत्पादन सम्भावना वक्र ऊपर की ओर खिसक जाती है। इससे प्रकट होता है कि उत्पादन के साधनों के स्थिर रहने पर भी उत्पादन में वृद्धि हुई है।
व्यावसायिक ढांचाः
- विकसित देशों में कार्यशील पूंजी का अधिक भाग तृतीयक क्षेत्र (Tertiary Occupation) या द्वितीयक क्षेत्र (Secondary Occupation) में लगा होता है।
- प्राथमिक क्षेत्र अर्थात् कृषि में कार्यशील पूंजी का बहुत कम भाग लगा होता है। परन्तु इन देशों को कृषि विकसित होती है। उदाहरणों के लिये यू. एस. ए. में केवल 4 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है। परन्तु कृषि के उन्नत होने के कारण वह केवल यू. एस. ए. की ही भोजन संबंधी आवश्यकता को पूरा नहीं करती बल्कि कृषि पदार्थों का निर्यात भी किया जाता है।
- भारत में 64 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है। परन्तु कृषि के पिछड़ेपन के कारण यह भारत की भोजन संबंधी आवश्यकता को कठिनाई से पूरा कर पाती है। विकसित देशों में उद्योग बहुत विकसित होते हैं। राष्ट्रीय आय का अधिक भाग उद्योगों से ही प्राप्त होता है।
विकास प्रेरक आर्थिक एजेन्सियांः
- विकसित देशों में विकास प्रेरक एजेन्सियां पर्याप्त मात्र में पाई जाती है। तीव्र गति तथा न्यूनतम लागत पर आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए विकास प्रेरक आर्थिक एजेन्सियों का होना आवश्यक है। इनमें से कुछ प्रमुख एजेन्सियां हैं- बैंक, वित्तीय एवम् निवेश सम्बन्धी संस्थाएं, नियोजन संस्थाएं आदि।
- संगठित तथा कार्यकुशल बैंकिंग व्यवस्था, संगठित मुद्रा बाजार तथा पूंजी बाजार दोनों ही पाये जाते हैं। इनके द्वारा उद्योग तथा कृषि आदि को अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन ऋण उचित व्याज पर प्राप्त हो जाता है। सरकार भी कई प्रकार से आर्थिक विकास की महत्त्वपूर्ण एजेन्सी का कार्य करती है।
- सरकार की मौद्रिक तथा राजकोषीय नीतियां भी आर्थिक विकास की निर्धारक है। विकसित देशों की मौद्रिक नीतियां देश के आर्थिक विकास के अनुकूल होती हैं। इसका अभिप्राय यह है कि मुद्रा की पूर्ति आवश्यकता के अनुसार होती है तथा ब्याज की दर कम होती है। आर्थिक विकास के फलस्वरूप कीमतों में वृद्धि होती है।
उन्नत विदेशी व्यापारः
- विकसित अर्थव्यवस्थाओं का विदेशी व्यापार उन्नत होता है। इन अर्थव्यवस्थाओं के निर्यात अधिक होते हैं। उनकी तुलना में आयात कम होते हैं। इसलिये भुगतान सन्तुलन अनुकूल होता है।
- विदेशी व्यापार के उन्मत होने के कारण इन देशों में उत्पादन अधिक होता है। उत्पादन अधिक होने के कारण रोजगार में वृद्धि होती है। लोगों का जीवन स्तर ऊंचा होता है तथा बाजार का विस्तार होता है।
- विकसित अर्थव्यवस्थाओं का संसार के निर्यात-आयात व्यापार में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इन देशों के विदेशी मुद्रा के कोष भी अधिक होते हैं।
विकसित प्राकृतिक साधनः
- विकसित अर्थव्यवस्था अपने प्राकृतिक साधनों का काफी सीमा तक प्रयोग करने में सफल रहती है। यू.एन.ओ. के अनुसार, प्राकृतिक साधन वह कोई भी वस्तु होती है जो मनुष्य को अपने प्राकृतिक पर्यावरण से प्राप्त होती है तथा जिसे वह किसी प्रकार से अपने लाभ के लिये प्रयोग कर सकता है। इसके अन्तर्गत भूमि, जलवायु, पानी, वन, खनिज पदार्थ, ऊर्जा के साधन जैसे- पेट्रोल, गैस आदि शामिल किये जाते हैं।
- देश की भूमि की प्रकृति तथा जलवायु पर कृषि तथा लोगों की कार्यक्षमता निर्भर करती है। देश के धरातल तथा जलमार्गों पर यातायात के विभिन्न साधनों का विकास निर्भर करता है। नदियों से सिंचाई, बिजली तथा परिवहन की सुविधायें प्राप्त होती है।
- वनों से ईंधन, इमारती लकड़ी, कई उद्योगों जैसे कागज, आदि को कच्चा माल प्राप्त होता है। पेट्रोल, कोयला, गैस आदि के रूप में ऊर्जा प्राप्त होती है। इसी प्रकार खनिज पदार्थों जैसे- लोहा, तांबा, टीन, सोना, चांदी, जवाहरात आदि का देश के औद्योगिक तथा आर्थिक विकास के लिये बहुत अधिक महत्त्व है।
- जिन देशों में प्राकृतिक साधन अधिक होते हैं वे देश अपना आर्थिक विकास आसानी से कर सकते हैं। आर्थिक दृष्टि से विकसित अधिकतर देश जैसे अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, रूस, कनाडा आदि प्राकृतिक साधनों में काफी सम्पन्न हैं। परन्तु प्राकृतिक साधनों की उपलब्धता में परिवर्तन आता रहता है।
- वैज्ञानिक, तकनीकी विकास तथा नये आविष्कारों के फलस्वरूप नये साधनों का पता चलता है। उदाहरण के लिये द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अरब देश पेट्रोल के कुओं की खोज के द्वारा बहुत अधिक धनी बन सके हैं। परन्तु आर्थिक विकास के लिये केवल प्राकृतिक साधनों की उपलब्धता ही काफी नहीं है उनका उपयुक्त प्रयोग तथा विकास भी आवश्यक है। उदाहरण के लिए, अफ्रीका के कई देश प्राकृतिक साधनों की दृष्टि से बहुत धनी है। परन्तु अपने साधनों का उपयुक्त विकास तथा प्रयोग नहीं कर पाने के कारण वे अपना आर्थिक विकास नहीं कर पाये हैं। अतएव विकसित देश अच्छी तकनीकों के प्रयोग द्वारा अपने प्राकृतिक साधनों का उचित उपयोग करके अपने आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने में सफल रहते हैं।
बाजार का विस्तृत आकारः
- विकसित अर्थव्यवस्थाओं में बाजार का आकार विस्तृत होता है। बाजार के विस्तृत आकार के फलस्वरूप श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण सम्भव हो जाता है। इनके फलस्वरूप कार्यकुशलता में वृद्धि होती है तथा साधनों की उत्पादकता बढ़ जाती है। बाजार के आकार के बड़े होने के कारण उत्पादन का पैमाना भी बढ़ता है। इसके फलस्वरूप कई प्रकार की आन्तरिक तथा बाहरी बचतें प्राप्त होती हैं। इनके फलस्वरूप उत्पादन की मात्र बढ़ती है तथा उत्पादन लागत कम होती है। इसलिये उनमें बाजार का विस्तृत आकार आर्थिक विकास का महत्त्वपूर्ण निर्धारक होता है।
विकसित अर्थव्यवस्था |
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वह देश जहां तीनों संसाधनों (प्राकृतिक, मानवीय तथा भौतिक) का अनुकूलतम या समुचित उपयोग हो रहा है, विकसित देश कहलाता है। वहां का जीवन स्तर सूचकांक उच्च होता है तथा वे इसे बनाये रखने तथा इसमें निरंतर सुधार के लिए प्रत्यनशील रहते है। | |
विकसित देशों या अर्थव्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताएं होती है- | |
राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय का अधिक होना। | आधारभूत संरचनाओं का विकसित होना। |
निर्धनता का कम होना। | नगरीकरण का अधिक होना। |
सकल घरेलू उत्पाद में प्राथमिक क्षेत्र का योगदान कम तथा तृतीय क्षेत्र का योगदान अधिक होना। | जन्मदर तथ मृत्युदर दोनों का कम होना। |
उच्च औद्योगिकी तकनीक का प्रयोग में लाया जाना। | बाजार की पूर्णताएं। |
मानव विकास सूचकांक का उच्च होना। | मुद्रा तथा पूंजी बाजार का विकसित होना। |
विदेशी व्यापार में निर्यात की अधिकता। | पूंजी निर्माण की दर अधिक होना। |
संतुलित व्यापार शेष तथा भुगतान शेष। | लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पाया जाना। |
उच्च जीवन प्रत्याशा। |
अल्पविकसित देशों की सामान्य विशेषताएं
प्रति व्यक्ति निम्न आयः
- अल्प विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय का स्तर बहुत नीचा होता है।
निर्वाह का निम्न स्तरः
- अल्प विकसित देशों में, अधिकतर लोग निर्धनता, कुपोषण, बीमारी, अशिक्षा आदि की स्थिति में रहते हैं। निर्धन जनता को जीवन की मूल आवश्यकताएं, जैसे- न्यूनतम भोजन, वस्त्र तथा मकान भी आसानी से उपलब्ध नहीं होते।
जनसंख्या में तीव्र दर से वृद्धिः
- अल्प विकसित देशों में जनसंख्या में वृद्धि आर्थिक संवृद्धि को निष्प्रभाव कर देती है। अधिक जनसंख्या से अभिप्राय, अधिक उपभोग व्यय तथा उत्पादक गतिविधियों में निम्न निवेश, आर्थिक विकास को धीमा कर देता है।
आय का असमान वितरणः
- अल्प विकसित देशों में निर्धन तथा धनी व्यक्तियों में आय की असमानता बहुत अधिक होती है।
आम जनता की व्यापक निर्धनताः
- अल्प विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय का नीचा स्तर तथा इसके वितरण में ऊंचे स्तर की असमानता, आम जनता की व्यापक निर्धनता का कारण बनती है।
उत्पादकता का नीचा स्तरः
- उत्पादकता का स्तर अर्थात् प्रति व्यक्ति उत्पाद अल्प विकसित देशों में बहुत नीचा होने की प्रवृत्ति होती है, जो कि मुख्य रूप से-
- अकुशल श्रम शक्ति, जो स्वयं निर्धनता का परिणाम है, खराब स्वास्थ्य और शिक्षा का अभाव,
- निम्न कार्य सभ्यता तथा
- मशीनों और उपस्करों के रूप में पूंजी का कम प्रयोग के कारण हैं।
पूंजी निर्माण की नीची दरः
- अल्प विकसित देशों में बचत की दर काफी नीची होती है और पूंजी निर्माण की दर भी नीची होती है।
तकनीकी पिछड़ापनः
- अल्प विकसित देशों के अधिकतर क्षेत्रों में बचत की दर नीची होने के कारण आम तौर पर पुरानी (अप्रचलित) उत्पादन तकनीक का प्रयोग किया जाता है।
बेरोजगारी का ऊंचा स्तरः
- अल्प विकसित देशों बेरोजगारी का स्तर बहुत ऊंचा होता है, क्योंकि पूंजी के अभाव के कारण तथा विभिन्न आर्थिक क्षेत्र में निम्न स्तर का विकास होने के कारण ये देश बढ़ती हुई श्रम शक्ति की पूर्ति को रोजगार देने में समर्थ नहीं होते।
विकास के सामाजिक निर्देशकों का नीचा स्तरः
- अल्प विकसित देशों में सामाजिक निर्देशकों का स्तर, जैसे-नीची साक्षरता दर, शिशु मृत्यु की ऊंची दर, जीवन की कम प्रत्याशा आदि विकसित देशों की तुलना में बहुत नीचा होता है।
विकसित तथा अर्द्ध-विकसित देशों में अन्तर |
||
अन्तर का आधार |
विकसित देश |
अर्द्ध-विकसित |
1- प्राकृतिक साधन | पर्याप्त प्राकृतिक साधन और उनका पूर्ण विदोहन। | पर्याप्त प्राकृतिक साधन परन्तु पूर्ण विदोहन न होना। |
2- आर्थिक स्थिति | प्रति व्यक्ति वास्तविक आय अधिक होने से उपभोग का स्तर ऊँचा रहता है। | प्रति व्यक्ति आय कम होने के कारण उपभोग का स्तर निम्न रहता है। |
राष्ट्रीय आय के अनुपात में बचत और विनियोग का स्तर ऊँचा होता है। | बचत और विनियोग का स्तर नीचा रहता है। | |
3- कृषि | जनसंख्या का एक अल्प भाग कृषि में कार्यरत रहता है और कृषि आधुनिक ढंग पर की जाती है। | जनसंख्या का अधिकांश भाग कृषि उद्योग में संलग्न होता है और कृषि पुराने ढंग से की जाती है। |
4- उद्योग | विशाल उत्पादन इकाइयों का संगठन। | उत्पादन कार्य छोटी-छोटी इकाइयों द्वारा किया जाना। |
प्रति इकाई औसत उत्पादन का कम होना। | प्रति इकाई औसत उत्पादन का अधिक होना। | |
ऊँची कार्यक्षमता के कारण प्रति श्रमिक अधिक उत्पादकता। | निम्न कार्यक्षमता के कारण श्रम उत्पादकता का नीचा होना। | |
5- पूँजी निर्माण | प्रति व्यक्ति ऊँचा पूँजी अनुपात | प्रति व्यक्ति कम पूँजी अनुपात |
प्रति इकाई औसत उत्पादन का कम होना। | प्रति इकाई औसत उत्पादन का निम्न कार्य क्षमता के कारण श्रम उत्पादक का नीचा होना। | |
6- निर्यात | निर्यात पर कम निर्भरता। | निर्यात पर अधिक निर्भरता। |
निर्यात का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय उत्पादन में सन्तुलन बनाये रखना। | निर्यात का उद्देश्य राष्ट्रीय आय में वृद्धि करना होता है। | |
अधिकांशतः निर्मित माल का निर्यात किया जाता है। | अधिकांशतः कच्चे माल का निर्यात किया जाता है। | |
7- जनसंख्या | कम जनसंख्या और जन्म तथा मृत्यु दर भी कम होती है। | अधिक जनसंख्या और जन्म व मृत्यु दर का ऊँचा पाया जाना। |
अधिक जीवन प्रत्याशा और अधिक कार्य-कुशलता का होना। | कम जीवन प्रत्याशा और कम कार्य-कुशलता। | |
8- प्राविधिक स्तर | पूँजी- प्रधान तकनीक का प्रयोग व उच्च प्राविधिक स्तर। | श्रम- प्रधान तकनीक का उपयोग और निम्न प्राविधिक स्तर। |
विकासशील अर्थव्यवस्था
- विकासशील देश विकास की सीढ़ी पर काफी नीचे होते हैं। उन्हें कई बार अल्प विकसति, पिछड़े या गरीब देश भी कहा जाता है। परन्तु अर्थशास्त्री उन्हें विकासशील कहना बेहतर मानते हैं क्योंकि इस शब्द से गतिशीलता का भास होता है। इन देशों में राष्ट्रीय तथा प्रति व्यक्ति आय निम्न होती हैं। इनके कृषि और उद्योग पिछड़े होते हैं, बचत, निवेश और पूंजी निर्माण का स्तर निम्न होता है।
क्या भारत एक अल्प-विकसित देश है?
- भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था है। भारत एक अर्द्ध-विकसित राष्ट्र है जिसके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-
- कृषि की प्रधानता,
- प्रति व्यक्ति आय का निम्न स्तर,
- पूँजी निर्माण का निम्न स्तर,
- बेरोजगारी,
- ऊँची जन्म व मृत्यु-दर,
- निम्न प्रत्याशित आयु,
- जनसंख्या का घनत्व,
- पुरानी उत्पादन विधि,
- निम्न साक्षरता,
- पिछड़ा आर्थिक व सामाजिक ढाँचा,
- निम्न जीवन-स्तर आदि।
- यह ऐसी कसौटियाँ हैं जो भारत को पिछड़ेपन के धरातल पर लाकर खड़ा कर देती हैं परन्तु पिछले कुछ वर्षों से भारत विकास की स्थैतिक अवस्था से निकलकर प्रावैगिक अवस्था में प्रवेश कर चुका है जैसा कि निम्न विवरण से स्पष्ट हैः
नियोजित मिश्रित अर्थव्यवस्था
- 1 अप्रैल, 1951 से भारतीय अर्थव्यवस्था नियोजित अर्थव्यवस्था के रूप में कार्यशील है। यहाँ आर्थिक विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ बनायी जाती हैं। इसे मिश्रित इसलिए कहा जाता है कि यहाँ सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र दोनों को काम करने का समान अवसर दिया गया है।
- जुलाई, 1991 से देश में आर्थिक सुधारों का नया कार्यक्रम अपनाया गया है जिसके अन्तर्गत आर्थिक उदारीकरण का मार्ग अपनाया गया है। सरकार निजीकरण, बाजारीकरण व अन्तर्राष्ट्रीयकरण पर बल देने लगी है।
प्रति व्यक्ति आय एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि-
- भारत में प्रति व्यक्ति आय एवं राष्ट्रीय आय में निरन्तर वृद्धि हो रही है। प्रति व्यक्ति वार्षिक आय जो वर्ष 1950-51 में (1993-94 की कीमतों के आधार पर) ₹ 3,687 रुपये थी, वह वर्ष 2000-2001 में बढ़कर 10,254 रुपये हो गयी है।
- 2020-21 में देश के सकल घरेल उत्पाद व राष्ट्रीय आय सम्बन्धी अतिम अनुमान केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने 31 मई, 2021 को जारी किए, जिसमें इस वित्तीय वर्ष में जीडीपी में संकुचन 7.3 प्रतिशत अनुमानित की गई है। वर्ष 2019-20 में देश के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि 4.0 प्रतिशत रही थी। अनंतिम अनुमानों के तहत् राष्ट्रीय आय सम्बन्धी प्रमुख आकलन निम्नलिखित हैं-
स्थिर मूल्यों (2011-12 के मूल्य स्तर) पर प्रमुख आकलन
सकल घरेलू उत्पाद-
- वित्तीय वर्ष 2020-21 में सकल घरेलू उत्पाद ₹135-13 लाख करोड़ अनुमानित है। इस प्रकार 2020-21 में जीडीपी में वृद्धि (-) 7.3 प्रतिशत रही है, जबकि 2019-20 में 4.0 प्रतिशत की वृद्धि इसमें प्राप्त की गई थी।
राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय
- अनंतिम अनुमानों में स्थिर कीमतों पर (2011-12 के मूल्यों पर) 2020-21 में शुद्ध राष्ट्रीय आय ₹117.46 लाख करोड़ अनुमानित है, जबकि 2019-20 में यह ₹126.81 लाख करोड़ रही थी। इस प्रकार 2020-21 में स्थिर कीमतों पर शुद्ध राष्ट्रीय आय में भी 7.4 प्रतिशत की सिकुड़न अनुमानित है, जबकि 2019-20 में वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि 3.6 प्रतिशत रही थी।
- स्थिर मूल्यों पर प्रति व्यक्ति आय 2020-21 में ₹786,659 रहने का एनएसओ का ताजा अनंतिम आकलन है, जबकि 2019-20 में वास्तविक प्रति व्यक्ति आय ₹94,566 रही थी। इस प्रकार वास्तविक प्रति व्यक्ति आय में 8.4 प्रतिशत की सिकुड़न 2020-21 में होने का एनएसओ का अनंतिम आकलन है।
मूल कीमतों पर सकल मूल्य संवर्द्धन-
- वित्तीय वर्ष 2019-20 में स्थिर मूल कीमतों पर (2011-12 के मूल्य स्तर पर) जीवीए ₹132.71 लाख करोड़ था, जो 2020-21 में ₹124.53 लाख करोड़ रहने का अनुमान है इस प्रकार 2020-21 में जीवीए में 6.2 प्रतिशत सिकुड़न अनुमानित है। पूर्व वर्ष 2019-20 में जीवीए में वृद्धि 4.1 प्रतिशत रही थी।
प्रचलित मूल्यों पर राष्ट्रीय आय सम्बन्धी प्रमुख आकलन
सकल घरेलू उत्पाद-
- वित्तीय वर्ष 2020-21 में प्रचलित कीमतों पर सकल घरेलू उत्पाद ₹197.46 लाख करोड़ रहने का एनएसओ का ताजा अनतिम अनुमान है।
- NSO के पहले संशोधित आकलन के अनुसार पूर्व वर्ष 2019-20 में यह ₹203.51 लाख करोड़ था। इस प्रकार चालू मूल्यों पर 2020-21 में जीडीपी में सिकुड़न 3.0 प्रतिशत रहने का अनुमान है, जबकि 2019-20 में 7.8 प्रतिशत की वृद्धि इसमें प्राप्त की गई थी।
राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय
- एनएसओ के 31 मई, 2021 के अनंतिम अनुमानों में प्रचलित कीमतों पर 2020-21 में शुद्ध राष्ट्रीय आय ₹174.62 लाख करोड़ अनुमानित है, जबकि 2019-20 में यह ₹179.94 लाख करोड़ रही थी। इस प्रकार चालू कीमतों पर शुद्ध राष्ट्रीय में भी 3.0 प्रतिशत की संकुचन 2020-21 में अनुमानित है।
- 2019-20 में इसमें वृद्धि 7.7 प्रतिशत रही थी। चालू मूल्यों पर प्रति व्यक्ति आय 2020-21 में ₹1,28,829 रहने का एनएसओ का ताजा अनंतिम अनुमान है, जबकि 2019-20 में यह ₹1,34,186 थी। इस प्रकार चालू मूल्यों पर प्रति व्यक्ति आय में 4.0 प्रतिशत की गिरावट 2020-21 में होने का एनएसओ का ताजा अनंतिम अनुमान है।
- 7 जनवरी, 2021 के पहले अग्रिम आकलन में 2020-21 में प्रचलित मूल्यों पर प्रति व्यक्ति आय ₹1,26,968 तथा 26 फरवरी, 2021 के दूसरे अग्रिम अनुमानों में यह ₹1,27,768 अनुमानित की गई थी।
- मूल कीमतों पर सकल मूल्य संवर्द्धन प्रचलित मूल्यों पर मूल कीमतों पर जीवीए 2019-20 में ₹ 184.61 लाख करोड़ था, जो 2020-21 में ₹ 179.15 लाख करोड़ रहने का एनएसओ का ताजा अनुमान है। इस प्रकार प्रचलित मूल्यों पर 2020-21 में जीवीए में 3.0 प्रतिशत की गिरावट अनुमानित है। पूर्व वर्ष 2019-20 में इसमें वृद्धि 7.6 प्रतिशत रही थी।
2021-22 की पहली तिमाही में जीडीपी में 20.1 प्रतिशत व जीवीए में 18.8 प्रतिशत की वृद्धि एनएसओ के ताजा आँकड़े
- पिछले वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून 2020) में जीडीपी में 24.4 प्रतिशत की गिरावट जहाँ दर्ज की गई थी, इस वर्ष अप्रैल-जून 2021 की तिमाही में जीडीपी में वृद्धि 20.1 प्रतिशत के रिकॉर्ड स्तर पर रही है।
- कोरोना महामारी की दूसरी लहर के बावजूद 2021-22 की पहली तिमाही में जीडीपी में 20.1 प्रतिशत की उच्च वृद्धि मुख्यतः निम्न आधार प्रभाव के कारण है, अन्यथा अप्रैल-जून 2021 में जीडीपी (₹ 32.38 लाख करोड) कोविड से पहले के वर्ष में अप्रैल-जून 2019 द्वारा 31 अगस्त, 2021 को जारी किए गए। इन आंकड़ों के अनुसार सन्दर्भित तिमाही (अप्रैल-जून 2021) में 2011-12 के स्थिर मूल्यों पर जीडीपी पूर्व वर्ष की समान अवधि (अप्रैल-जून 2020) की तुलना में 20-1 प्रतिशत अधिक रही है।
- पिछले वर्ष समान अवधि (अप्रैल-जून 2020) में जीडीपी में 24.4 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। एनएसओ के इन आंकड़ों के अनुसार अप्रैल-जून 2021 के दौरान स्थिर मूल्यों पर जीडीपीः 32.38 लाख करोड रहा है। जो पिछले वर्ष अप्रैल-जून 2020 में ₹ 26.95 लाख करोड़ था। इस प्रकार स्थिर मूल्यों पर 20.1 प्रतिशत की वृद्धि इसमें दर्ज की गई है।
- प्रचलित मूल्यों पर इस अवधि में जीडीपी में वृद्धि 31.7 प्रतिशत आकलित की गई है। सकल मूल्य संवर्धन की दृष्टि से कृषि क्षेत्र में 4.5 की वृद्धि इस तिमाही में जहाँ दर्ज की गई है। विनिर्माणी क्षेत्र में जीवीए में 49.6 प्रतिशत तथा निर्माण क्षेत्र में 68.3 प्रतिशत की गिरावट अप्रैल-जून 2021 में दर्ज की गई है।
- सीएसओ के इन आंकड़ों के अनुसार अप्रैल-जून 2021 की तिमाही में देश में सकल मूल्य वर्द्धन में वृद्धि 18.0 प्रतिशत रही है।
- अनंतिम आँकड़ों में अप्रैल-जून 2021 की तिमाही में स्थिर मूल्यों पर जीवीए ₹30.48 लाख करोड़ आकलित किया गया है पिछले वर्ष समान अवधि (अप्रैल-जून 2020) में यह ₹25.66 लाख करोड़ था।
बचत व विनियोग दरों में वृद्धि-
- योजना अवधि में बचत व विनियोग दर में भी उतार-चढ़ाव आते रहे हैं।
तीनों क्षेत्रों का सापेक्षिक महत्त्व-
- स्वतंत्रता के पश्चात् से वर्तमान समय तक भारत की राष्ट्रीय आय में कृषि के योगदान में कमी आयी है और उद्योग तथा सेवा क्षेत्र का सापेक्षिक महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है। ये परिवर्तन अर्थव्यवस्था के विकास के परिचायक हैं।
कृषि क्षेत्र का विकास-
- कुछ समय पूर्व तक भारत में कृषि अत्यन्त ही पिछड़ी हुई तथा अविकसित स्थिति में थी परन्तु अब खेती में उपकरणों, रासायनिक खाद, अधिक उपज देने वाले बीजों व अन्य कृषि आदान का प्रयोग धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है और खेती का व्यापारीकरण भी बढ़ रहा है। ‘हरित क्रान्ति’ के कारण अब पहले की अपेक्षा कृषि उत्पादन की मात्र काफी तेजी से बढ़ने लगी है।
औद्योगिक विकास-
- औद्योगिक क्षेत्र में तो परिवर्तन द्रुत गति से हो रहे हैं। अब देश में अनेक प्रकार के आधुनिक उद्योग, मूल व भारी उद्योग, जैसे-मशीन उद्योग, लोहा व इस्पात उद्योग, इन्जीनियरी उद्योग आदि स्थापित किये जा चुके हैं। पहले केवल दस्तकारी या कुटीर उद्योगों का ही बोल-बाला था। औद्योगिक उत्पादन की मात्र में इधर कुछ वर्षों से भारी वृद्धि हुई है।
- औद्योगिक विकास के फलस्वरूप देश में निर्मित वस्तुओं का आयात काफी बढ़ गया है और निर्यात व्यापार में निर्मित वस्तुओं का भाग काफी तेजी से बढ़ रहा है। राष्ट्रीय आय और रोजगार में उद्योग क्षेत्र का योगदान धीरे-धीरे बढ़ रहा है।
सार्वजनिक क्षेत्र का विकास-
- यहाँ सार्वजनिक उद्योगों में बराबर वृद्धि हो रही है। 1950-51 में भारत में 5 सार्वजनिक उद्योग थे वर्तमान में इनकी संख्या 235 हो गयी है। इन उद्योगों में लोहा एवं इस्पात उद्योग, सीमेण्ट उद्योग, रसायन उद्योग, इन्जीनियरिग उद्योग, कोयला उद्योग व अनेक उपभोक्ता व औद्योगिक उद्योग शामिल हैं।
बाजार-तन्त्र द्वारा आर्थिक क्रियाओं का निर्देशन-
- भारतीय अर्थव्यवस्था में बाजार-तन्त्र बहुत प्रभावशाली है। यहाँ वस्तुओं के आलावा उत्पादन के साधनों, जैसे-श्रम और पूँजी के पर्याप्त रूप में संगठित बाजार हैं। वस्तु बाजारों में अधिकांश चीजों की कीमतें माँग और पूर्ति की शक्तियों के बीच सन्तुलन द्वारा निर्धारित होती हैं। बाजार-तन्त्र द्वारा दिये जाने वाले निदेंशों को नियन्त्रित करने के लिए लाइसेन्स प्रणाली के आलावा आयात नियन्त्रण, अनिवार्य वस्तुओं के अभाव के समय उनका उचित मूल्य दुकानों के द्वारा वितरण तथा किसानों को प्रोत्साहन देने के लिए कृषि उत्पादों की समर्थन कीमतों पर सरकार द्वारा खरीद की व्यवस्था की गई है।
निर्धनता दूर करने के विशिष्ट कार्यक्रम-
- छटी योजना में गरीबी दूर करने के विशिष्ट कार्यक्रम, जैसे-समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम व रोजगार सम्बन्धी विशेष कार्यक्रम अपनाने से निर्धनता-अनुपात घटा है लेकिन इस सम्बन्ध में योजना आयोग व लकड़ावाला विशेषज्ञ-समूह के आँकड़ों में भारी अन्तर पाया जाता है।
यातायात एवं संचार-
- रेलों, सड़कों जहाजरानी तथा संचार के साधनों में भी पर्याप्त विकास हुआ है। भारतीय रेल प्रणाली विश्व की बड़ी रेल प्रणालियों में अपना अग्रणी स्थान रखती है। जहाजरानी में भारत का विश्व की बड़ी 16 जहाजरानी प्रणालियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। संचार व्यवस्था में भी नये कीर्तिमान स्थापित किये गये हैं। उपग्रह के माध्यम से दूरसंचार व्यवस्था का विकास हुआ है।
मुद्रा और साख व्यवस्था-
- बैंकिग और वित्त के क्षेत्र में भी प्रगति उत्साह वर्द्धक रही है। बैंकों एवं बीमा-कम्पनियों के राष्ट्रीयकरण से बैंक जमाओं और बीमा व्यवसाय में अत्यधिक वृद्धि हुई है। वित्तीय साधनों की उपलब्धि से कृषि, निर्यात, उद्योग, लघु एवं कुटीर उद्योगों, फुटकर एवं छोटे व्यापार, स्व-नियुक्त रोजगार, शिक्षा आदि क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है।
सामाजिक सेवाओं का विस्तार-
- शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सामाजिक सेवाओं के विस्तार में भी पर्याप्त प्रगति हुई है। स्कूली एवं विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा और शोध के क्षेत्रों में अभूतपूर्व सुधार हुआ है। साक्षरता का स्तर बढ़ा है। अब देश में प्रशिक्षित श्रमिकों, तकनीकी विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों, अनुसन्धानकर्ताओं, प्रशासकों व प्रबन्धकों आदि की कमी नहीं है।
सामाजिक परिवर्तन-
- भारतीय समाज में शिक्षा के प्रसार व विकास के साथ-साथ परिवर्तन हुआ है। रूढि़वादिता, बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, छुआछूत आदि बुराइयाँ धीरे-धीरे कम हुई हैं और देशवासियों ने विकास के अनुरूप अपने को ढालने की चेष्टा की है जो एक प्रगति के पथ पर अग्रसर राष्ट्र के लिए आवश्यक है।
अल्पविकसित अर्थव्यवस्था
- यहाँ तीनों प्रकार के संसाधन उपलब्ध होते है, परन्तु किन्हीं बाधाओं से उनका समुचित प्रयोग या दोहन नहीं होता है। यहाँ के निवासियों का जीवन स्तर निम्न होता है। ये जीवन स्तर में तेजी से सुधार कर इसे विकसित देशों के समकक्ष ले जाना चाहते हैं।
- यहाँ भौतिक एवं सामाजिक आधारभूत संरचना क्षेत्र में सुधार करके उसको विकसित बनाकर आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाता है। अल्पविकसित अथवा विकासशील अर्थव्यवस्था से आशय पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था से है। विकसित अर्थव्यवस्था की तहत अल्पविकसित अर्थव्यवस्था की भी कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी गयी है।
- संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अल्पविकसित अर्थव्यवस्था या देश की सापेक्ष परिभाषा दी गयी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार अल्पविकसित देशों से आशय उन देशों से है जिनकी प्रति व्यक्ति आय संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाड़ा, ऑस्टेलिया, जापान तथा पश्चिमी यूरोप के देशों की प्रति व्यक्ति आय की तुलना में कम है।
- संयुक्त राष्ट्र संघ की इस परिभाषा की आलोचना की जाती है क्योंकि कहा जाता है कि कुवैत की प्रति व्यक्ति आय पश्चिमी यूरोप के कुछ देशों से भी अधिक है परन्तु उसे क्यों नहीं विकसित अर्थव्यवस्था माना जाता है।
- इसके अतिरिक्त किसी विशाल जनसंख्या वाले देश जहां प्राकृतिक संसाधनों का पूर्णतया अभाव है, अर्थव्यवस्था के पूर्ण विकास के बाद भी उस देश की प्रति व्यक्ति आय का स्तर नीचा हो सकता है। अतः यह परिभाषा उचित नहीं है।
- भारतीय योजना आयोग के अनुसार ‘एक अल्पविकसित देश वह है जहां एक ओर अप्रयुक्त अथवा अर्द्ध प्रयुक्त मानवीय शक्ति पायी जाती है तो दूसरी ओर अशोषित प्राकृतिक संसाधनों का न्यूनाधिक मात्र में अस्तित्व पाया जाता है।’
- एक अल्पविकसित देश वह देश है। जिसमें एक ओर अप्रयुक्त या अल्प प्रयुक्त प्रयोजित मानव शक्ति अवशोषित प्राकृतिक संसाधनों का सहअस्तित्व हो और दूसरी ओर मौद्रिक, प्रौद्योगिकी एवं गैर-आर्थिक सीमाओं के कारण विकसित देशों की तुलना में आय, उपभोग, बचत तथा पूंजी निर्माण का स्तर निम्न होने के कारण निर्धनता के दुश्चक्र के बावजूद वहां की जनता विकास तथा संभाव्य संवृद्धि के लिये प्रयत्नशील है।
- अल्पविकसित देशों के अन्य नाम इस प्रकार है- निम्नविकसित, अर्द्धविकसित, विकासशील, पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था निर्धन देश, जनाधिक्य वाला देश, कृषि प्रधान देश, विश्व की गंदी बस्तियां, दक्षिण के देश, तीसरे विश्व के देश इत्यादि।
पारंपरिक अर्थव्यवस्था
- एक अर्थव्यवस्था पारंपरिक अर्थव्यवस्था होती है जब इसमें ये लक्षण हो- प्राथमिक क्षेत्र (अर्थात् कृषि उत्खनन) की प्रधानता, उत्पादन की श्रम-प्रधान प्रविधियां, पूंजी तथा अनुसंधान की कमी, मशीनों का कम प्रयोग, उत्पादन स्व- उपभोग के लिए, जीवन निर्वाह-स्तर की अर्थव्यवस्था, श्रम-विभाजन और विशिष्टीकरण का अभाव, छोटे पैमाने का उत्पादन तथा विकास, सुविधाओं की सीमित संभावनाएं आदि।
आधुनिक अर्थव्यवस्था
- एक अर्थव्यवस्था आधुनिक तब मानी जाती है जब उसमें निम्नलिखित लक्षण दिखाई दे- द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्रों (अर्थात् उद्योग तथा सेवा क्षेत्रों) की प्रधानता, उत्पादन की पूंजी-प्रविधियां (तकनीकें), अनुसंधान का महत्त्व तथा प्रौद्योगिकी का आधुनिकीकरण, नई मशीनों का प्रयोग, उत्पादन विक्रय तथा लाभ के लिए श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण की व्यापक भूमिका, बड़े पैमाने का उत्पादन, विकास तथा प्रगति के अधिक अवसर व सुविधाएं।
बाजार अर्थव्यवस्था
- बाजार अर्थव्यवस्था में वस्तुओं का लेन-देन मुद्रा के माध्यम से किया जाता है। इसलिए इस अर्थव्यवस्था को ‘मौद्रिक अर्थव्यवस्था’ भी कहते है। बाजार, अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषताएं निम्नवत् हैं-
- वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन बाजार में विक्रय के लिए किया जाता है।
- वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें मांग तथा पूर्ति की परिस्थितियों द्वारा निर्धारित होती है।
- विनिमय के माध्यम के रूप में मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।
- क्रेताओं, विक्रेताओं और श्रमिकों के बीच प्रतियोगिता होती है।
- उत्पादन के कारकों को खरीदा और बेचा जाता है तथा उनकी सेवाओं का भुगतान मुद्रा में किया जाता है।
- बाजार अर्थव्यवस्था में उत्पादन प्रमुख उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना ही होता है।
बंद अर्थव्यवस्था
- बंद अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था है जिसके शेष विश्व के साथ कोई आर्थिक संबंध नहीं होते अर्थात् यह एक ऐसा एकांकी आत्मनिर्भर देश होता है जो विदेशी व्यापार नहीं करता।
- जिन वस्तुओं का यह देश उपभोग करता है, उनका उत्पादन भी इसे ही करना पड़ता है।
- इसी प्रकार जो कुछ भी यह उत्पादन करता है उसका इसकी जनसंख्या द्वारा उपभोग किया जाता है या सीमाओं के भीतर परिसंपत्तियों में जोड़ा जाता है। ऐसी अर्थव्यवस्था में निर्यात तथा आयात का कोई स्थान नहीं होता है।
खुली अर्थव्यवस्था
- यह वह अर्थव्यवस्था है जिसके शेष संसार के साथ आर्थिक संबंध होते है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस अर्थव्यवस्था में पूंजीगत और सेवाओं का अन्य देशों के साथ बाह्य प्रवाह और अन्य देशों से पूंजीगत माल और सेवाओं का अंतःप्रवाह होता है।
- ऐसी अर्थव्यवस्था में उत्पादन, उपभोग तथा पूंजी निर्माण बाह्य लेन-देन (संव्यवहार) से प्रभावित होते है। इसमें आयात और निर्यात का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। आधुनिक विश्व की लगभग सभी अर्थव्यवस्थाएं खुली अर्थव्यवस्थाएं है।