नीतिशास्त्र की परिभाषा
- नीतिशास्त्र एक नैतिक दर्शन है। यह मानवीय आचरण का वैज्ञानिक दर्शन प्रस्तुत करता है। यह दर्शनशास्त्र की उस शाखा का प्रतिनिधित्व करती है, जो व्यक्ति के द्वारा किये गये कार्यों के नैतिक या अनैतिक अथवा सही या गलत को बतलाती है।
- यह वास्तव में दर्शनशास्त्र के मूल्यमीमांसा (Axiology) शाखा से संबंधित है, जो नैतिक (Ethics) एवं सौंदर्यशास्त्र (Aesthetics) की विवेचना करता है। नीतिशास्त्र के संबंध में सबसे बड़ी समस्या है कि विद्वानों के मध्य मतैक्य भिन्नता की स्थिति है। कुछ विद्वान इसे विज्ञान की शाखा में निरूपित करते है जबकि कुछ विद्वानों ने इसे कला के रूप में संदर्भित किया है।
- नीतिशास्त्र को विज्ञान मानने वाले विद्वान इसके सुव्यवस्थित एवं तार्किक अध्ययन का दृष्टांत प्रस्तुत करते है क्योंकि इसको भी व्यक्ति के आचरण मार्ग द्वारा परमार्थ प्राप्ति के सुव्यवस्थित अध्ययन किये जाते है।

नीतिशास्त्र क्या है?
- Ethics शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द Ethica से हुई है। Ethica का अर्थ है रीति, प्रचलन या आदत। नीतिशास्त्र रीति, प्रचलन या आदत का व्यवस्थित अध्ययन है। प्रचलन, नीति या आदत मनुष्य के वे कर्म हैं जिनका उसे अभ्यास हो जाता है। दूसरे शब्दों में, ये मनुष्य के अभ्यासजन्य आचरण हैं।
- मनुष्य की ऐच्छिक क्रियाएं आचरण कहलाती हैं। अर्थात् आचरण वे कर्म हैं जिन्हें किसी उद्देश्य या इच्छा से किया जाता है। नीतिशास्त्र इन्हीं ऐच्छिक क्रियाओं या आचरण का समग्र अध्ययन है। इसकी विषय वस्तु आचरण है।
- अतः इसे आचारशास्त्र भी कहा जाता है। इस प्रकार एक बात तो स्पष्ट है कि, नीतिशास्त्र का प्रचलित रीति-रिवाजों तथा सामाजिक परपराओं से घनिष्ठ संबंध होता है।
- अब यहाँ रीति रिवाज या सामाजिक परंपराओं को समझना आवश्यक हो जाता है। प्रश्न यह उठता है कि, रीति-रिवाज या सामाजिक पंरपरा का निर्माण कैसे होता है? ये पहलू वस्तुतः मनुष्य के सामाजिक जीवन के साथ ही किसी न किसी रूप में जुड़ा रहा है।
- जब से मनुष्य ने परस्पर सहयोग के साथ रहना प्रारंभ किया और परस्पर एक दूसरे के साथ रहकर समस्याओं का समाधान खोजने लगा, तभी से उसे कुछ ऐसे नियमों की आवश्यकता पड़ी जो उसकी तथा दूसरे मनुष्यों की इच्छाओं, रुचियों, आकांक्षाओं, उद्देश्यों तथा स्वार्थों में होने वाले संघर्ष को कम कर सके या समाप्त कर सके। जिनका पालन करके वह दूसरों के साथ सुखपूर्वक रहते हुए सामंजस्यपूर्ण सामाजिक जीवन व्यतीत कर सके।
- कालान्तर में इन्हीं नियमों ने सामाजिक परंपराओं और रीति-रिवाजों का रूप ग्रहण कर लिया। जिसका पालन करना समाज के सदस्य के रूप में प्रत्येक मनुष्य के लिये आवश्यक समझा जाने लगा।
- इन सामाजिक परंपराओं और रीति रिवाजों ने एक शास्त्र या विज्ञान का रूप ग्रहण कर लिया, जिसे नीतिशास्त्र कहा जाता है। परंतु आज हम जिस नीतिशास्त्र को समझने का प्रयास कर रहे हैं, वस्तुतः वह रीति-रिवाज या सामाजिक परंपरा से भिन्न है। क्योंकि ये रीति-रिवाज आज समाज में दृढ़ रूप से स्थगित हो चुके हैं।
- साथ ही व्यक्ति, समाज, शासन और राष्ट्र के आचरण और ऐच्छिक क्रिया को निष्पक्ष तथा व्यवस्थित रूप से संचालित करते हुए उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ के निर्णय हेतु मानदंड प्रस्तुत कर रहे हैं।
- वस्तुतः नीतिशास्त्र का संबंध ऐच्छिक क्रिया या आचरण से ही है। मनुष्य की वे सभी क्रियाएं आचरण कही जाती है, जिन्हें किसी संकल्प या इच्छा से किया गया हो। ऐसे आचरण का मूल्यांकन दो आधारों पर किया जा चुका है।
- पहला, मनुष्य का आचरण कैसा होता है अर्थात् कैसे हम कोई काम करते हैं? दूसरा पहलू यह है कि मनुष्य का आचरण कैसा होना चाहिए, अर्थात् हमें कैसा काम करना चाहिए या हमारा कौन-सा आचरण उचित है और कौन सा अनुचित?
- संक्षेप में, नीतिशास्त्र (Ethics) का संबंध आचरण के औचित्य और अनौचित्य से है। इसे परखने के कुछ नियम व मानदण्ड होते है, जिसका निर्धारण नीतिशास्त्र के तहत ही होता है। अतः नीतिशास्त्र का लक्ष्य है- जीवन के वास्तविक आदर्श आचरण के नियमों तथा मानदण्डों को स्थापित करना।
कुछ प्रचलित परिभाषा
- विलियम लिली के अनुसार, नीतिशास्त्र जीवन के समग्र मानकों की व्याख्या प्रस्तुत करता है, जिनसे हम व्यक्ति के कर्म के उचित अथवा अनुचित होने का निर्णय देते हैं।
- मैकेंजी को अनुसार, व्यवहार में जो कुल सत् या शुभ है, उसी का अध्ययन नीतिशास्त्र है। इस प्रकार नीतिशास्त्र हमें हमारे सर्वोच्च लक्ष्य की ओर अग्रसर करने हेतु मार्गदर्शन प्रदान करता है।
महत्त्वपूर्ण परिभाषा
- वह व्यवहार या आचरण जिसे सामाजिक मान्यता प्राप्त हो। मानव अपने तर्क व अनुभव के आधार पर जब अपने मूल्यों का परीक्षण करता हैं, तो इससे विकसित अभिवृत्ति को नीतिशास्त्र कहा जाता है।
- बीबीसी की नैतिक किताब के आधार पर नैतिकता, नैतिक मूल्यों की एक सहजतम प्रणाली है, जिसके अंदर मूल्यों के नैतिक नियम अपने सामान्य रूप में होते हैं। एक निर्धारित स्तर जिसके द्वारा मानव कृत्यों का सही या गलत का निर्धारण होता है, उसे ‘नीतिशास्त्र’ कहा जायेगा।
- चेस्टर आई. बनार्ड ने नैतिक व्यवहार की व्याख्या करते हुए कहा कि सही या गलत की मान्यताओं या भावनाओं से शासित स्वहित या तत्काल परिणामों से अप्रभावित होकर विशिष्ट दशाओं के तले कुछ करने या नहीं करने का निर्णय करना ‘नीतिशास्त्र’ है।
- ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोश ने ‘नीतिशास्त्र’ को नैतिकताओं अथवा नैतिक सिद्धांतों के विज्ञान की संज्ञा दी है। सामान्यतः विभिन्न शब्दों जैसे-मूल्य, सिद्धांत, सदाचार, नियम, आदि के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। वर्तमान में इसे ‘सामाजिक उत्तरदायित्व’ के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। नैतिक मूल्य कई विशेषणों से सुशोभित होते है।
- इनमें कुछ सार्वभौमिक होते हैं, जबकि अन्य समय, स्थान एवं परिस्थिति पर निर्भर करते हैं। ये किसी अमुक कार्य, परिस्थिति, व्यवसाय या उत्तरदायित्व के लिए विशेष हो सकते है, जैसे चिकित्सक या अधिवक्ता के नैतिक मूल्य, आदि। नैतिक प्रमाप किसी भी नियम संहिता और आचार संहिता का अतिक्रमण कर सकते है।
- इसलिए सार्वजनिक जीवन में चाहे वह राजनीति हो या प्रशासन, सत्ता का उपयोग हो अथवा दुरूपयोग न केवल जनता बल्कि कानूनी सत्ता के लिए भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
- नैतिकता का आशय पारदर्शिता, कुशलता, शुद्धता, निरपेक्षता, सत्यता और कर्तव्यपरायणता के संदर्भ में लिया गया है। नैतिकता एक गत्यात्मक विचार (Dynamic) है।
- प्राचीन काल से वर्तमान तक बदलती व्यवस्था के साथ चेतना व चिंतन के स्तर पर परिवर्तित होती रही है। अंततः यह कहा जा सकता है कि नैतिकता का मूल भाव अनन्य भाव से ही है अर्थात कर्म को सेवा से जोड़ना है।
नीतिशास्त्र: एक परिचय
- नीतिशास्त्र सामान्यतः दर्शनशास्त्र की एक शाखा के रूप में विख्यात रहा है किंतु वर्तमान में यह व्यावहारिक विज्ञान के रूप में अधिक प्रतिष्ठित विषय स्वीकार किया जा रहा है। यह व्यावहारिक विज्ञान होने के नाते, व्यक्ति के कर्मों को उचित-अनुचित तथा शुभ-अशुभ के रूप में परिभाषित व मूल्यांकित भी करता है, इसलिए प्रत्येक क्षेत्र में आचार संहिता के रूप में यह महत्त्वपूर्ण विषय बनकर उभरा है।
- गांधीजी के अनुसार राजनीतिशास्त्र व अन्य विषय यह बताते है कि क्या हुआ और क्यों हुआ परंतु नीतिशास्त्र एक ऐसा विषय है जो यह बताता है कि क्या करना चाहिए। अतः इस रूप में अन्य विषयों पर यह श्रेष्ठता हासिल प्राप्त कर लेता है।
नीतिशास्त्र
- नीतिशास्त्र या आचार संहिता समानार्थी है। उदाहणार्थ नैतिक आचरण का अर्थ नियमबद्ध आचरण से ही है। नीतिशास्त्र को नैतिकता का विज्ञान भी कहा जाता है और व्यक्ति भी इसी नैतिकता के सिद्धांतानुसार व्यवहार करता है।
नीतिशास्त्र के निम्नलिखित अभिन्न अंग हैं-
- नैतिकता का मूल अनन्य भाव में ही है अर्थात कर्म को सेवा में जोड़ना। अरस्तु का कथन है कि मानव एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज के बिना नहीं रह सकता।
- नैतिकता प्राचीनकाल से आज तक बदलती व्यवस्था के साथ चेतना के स्तर पर परिवर्तित होती रही है। बौद्ध धर्म मुख्यतः आचार धर्म ही है जिसने सत्कर्म को ही धर्म कहा है। इसी प्रकार जैन धर्म भी कर्मवादी है, इसका उद्देश्य मनुष्यों के कर्मों को परिष्कृत एवं उन्नत बनाना रहा है। ऐसे ही भारतीय प्राचीन विद्वानों से लेकर वर्तमान सामाजिक चिंतकों ने परहित को स्वहित से ऊपर माना है, जो नैतिकता का मूल है।
- विवेकानंद के अनुसार सभी सदाचारों के ऊपर है निःस्वार्थ की कल्पना।
- नैतिकता का अन्य सार तत्त्व सार्वभौमिकता भी है, इसे कांट भी कहते है।
- जो काम प्रकृति में सार्वभौमिक होते है केवल वही नैतिक है।
- सत्य ही नैतिक है जो त्रिकालजयी है जिससे ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम’ की कल्पना की गयी है।
- सत्य का वह रूप जो सभी काल परिस्थिति में उचित हो वही नैतिक है।
नीतिशास्त्र और उसके बहुआयामी स्वरूप
- अब नैतिकता और नीतिशास्त्र की अवधारणा को समझने के बाद कुछ समस्याओं और द्वंद्वों पर विचार करते हैं। ताकि नीतिशास्त्र के विभिन्न पहलू पर हमारी बहुआयामी समझ विकसित हो सके।
हिंसा या अहिंसा के बीच का नैतिक द्वंद
- यदि महात्मा गांधी के अहिंसा के प्रति विचार को समझने का प्रयास किया जाये तो पता चलता है कि गांधी अपने मूल चरित्र में अहिंसा का पालन करते हैं। परंतु विशेष परिस्थितियों के अनुरूप वह हिंसा को भी जायज मानते है।
- गांधी को इस संबंध में मानना है कि यदि कोई व्यक्ति पागल की तरह बंदूक लेकर सड़क पर लोगों को गोली मारने लगे और उससे निर्दोष लोगों की जान जा रही हो तो उस परिस्थिति में उस व्यक्ति के प्रति हिंसा के माध्यम से प्रतिरोध सही है। क्योंकि अहिंसा निष्क्रियता और लाचारी नहीं सिखाती है।
- अहिंसा हमें जीवों से प्यार करना सिखाती है। ऐसा व्यक्ति जो सार्वजनिक सद्भाव को इस प्रकार बर्बरतापूर्ण ढंग से नष्ट कर रहा हो और सरलता से उसे रोकना संभव नहीं हो, तो उस परिस्थिति में उस बर्बर व्यक्ति के साथ हिंसात्मक कार्यवाही किया जाना उचित होगा।
- नोटः इस प्रकार यदि इस घटना और द्वंद्व पर विचार किया जाये तो नैतिकता ‘परिस्थिति सापेक्ष’ भी है। जो परिस्थितियों के अनुरूप बदलती रहती है। अतः संभव है कि कोई एक नैतिक नियम आज के परिप्रेक्ष्य में उचित प्रतीत हो रहा हो तो कुछ समय के पश्चात् या किसी अन्य परिस्थिति में अनुचित हो तथा नया आयाम ग्रहण कर ले।
विवाह- निजी विषय या समाज द्वारा निर्देशित
- खाप पंचायत द्वारा सगोत्रीय विवाह की मान्यता पर जारी फरमान और इस प्रकार के विवाह करने वालों की नृशंश हत्या अपने आप में एक नैतिक द्वंद्व स्थापित कर देता है। एक समाज जो सामूहिक रूप से इस प्रकार के विवाह को सही नहीं मानता है। परंतु वही कानून की दृष्टी में यह किसी भी प्रकार से अपराध नहीं है।
- प्रश्न यह उठता है कि किसे सही माना जाये? क्योंकि इस प्रकार के विवाह भारत के कई राज्यों में कई जातियों के अंतर्गत पाये जाते हैं। परंतु खाप पंचायत अपने सामाजिक मान्यताओं के आधार पर कानून से परे व्यक्तिगत चयन की स्वतंत्रता का दमन करती हैं, तो वहीं ऑनर किलिंग जैसी प्रथाओं को जन्म देकर सामाजिक सद्भाव और सहिष्णुता की भावना को भी समाप्त कर रही हैं।
- अब यदि खाप पंचायत के सामाजिक मान्यताओं पर चर्चा की जाये तो पता चलता है कि सामाजिक मान्यता व्यक्ति की स्वैच्छिक स्वीकृति का परिणाम होता है। इसे दबाव और दमन के माध्यम से आरोपित नहीं होना चाहिये।
- इस प्रकार इस द्वंद्व का मूल्यांकन किया जाय तो पता चलता है कि खाप पंचायत की कार्यवाही इस कारण अनैतिक मानी जायेगी, क्योंकि जहाँ यह भारतीय संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध है, वहीं सामाजिक स्तर पर यह सहयोग तथा सहिष्णुता रूपी नैतिक आधार को नजरअंदाज करता है। साथ ही समाज में एक अनुचित परंपरा और रीति रिवाज को जन्म दे रही है।
मृत्यु दण्ड-समाज के लिए संदेश या जीवन के अधिकार का उल्लंघन
- अब प्रश्न मृत्युदंड के उचित और अनुचित का है। आज राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रश्न नैतिक द्वंद्व का विषय बना हुआ है। यदि स्केनेडिविनियन राष्ट्रों को देखा जाये तो मृत्युदंड को पूर्णतः समाप्त कर दिया गया है। जबकि चीन जैसे देश में सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष 2-3 हजार लोगों को मृत्युदंड की सजा दी जाती हैं।
- सुधारवादी सिद्धांत के अनुसार मृत्यु की सजा उचित नहीं कही जा सकती है। इनकी यह मान्यता है कि अपराधी को अपने सुधार के लिये अवसर मिलना चाहिये। किसी अपराधी को मृत्युदंड देने का अर्थ है कि उसके सुधार की संभावना को समाप्त कर देना, जबकि सुधार की संभावना सदैव बनी रहती है। वहीं प्रतिकारवादी सिद्धांत का कठोरवादी रूप मृत्युदंड को उचित मानता है।
- इस सिद्धांत का मृदुल रूप यह मानता है कि जब व्यक्ति को यह विश्वास हो जाए कि उसे शुभ कर्मों के लिये पुरस्कार और अशुभ कर्मां के लिये उचित दंड मिलेगा, तब वह निश्चित रूप से अपराध करने से अपने आप को रोक पायेगा। साथ ही साथ अपराध की मात्र और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उसे मृत्युदंड दिया जा सकता है।
- क्योंकि यदि किसी की बर्बर हत्या पूर्ण नियोजित मानसिकता से की गयी है तो उसके अनुरूप मृत्युदंड दिया जाना उचित है, क्योंकि समाज को यह संदेश प्राप्त हो जाये कि ऐसा कार्य अनुचित है।
नैतिकता के सारतत्त्व और व्यावहारिक जीवन
सामाजिक जीवन में नैतिकता के सारतत्त्व:
- सामाजिक जीवन में नैतिकता से तात्पर्य है, सामाजिक मानवीय क्रिया के दौरान नीतिगत आचरण स्थापित करना। समाज में वही कर्म नैतिक और उचित माने जाएंगे जो सामाजिक लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करें।
- उचित कर्म ही शुभ-चरित्र का निर्माण करता है और जितनी अधिक चारित्रिक शुभता की मात्र होगी समाज में पुण्य की मात्र भी उतनी ही अधिक होगी। इसे हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं- वर्तमान भौतिकवादी एवं उपभोक्तावादी समाज में व्यक्ति के लिए निःश्रेय या सर्वोच्च शुभ का आकर्षण निरन्तर कम हुआ है। आज व्यक्ति जीवन के भौतिक गुणों, धन, यश, बल इत्यादि के पीछे ही अग्रसर है।
- यह पदसोपान क्रम अवस्था में पाया जाता है और यह जैसे-जैसे निरन्तर आगे बढ़ता है शुभत्व की मात्र बढ़ती जाती है और व्यक्ति उस परम शुभ की ओर बढ़ना प्रारंभ कर देता है। व्यक्ति को प्रथम तथा भौतिक शुभों की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए, परन्तु यदि इसे प्राप्त करने का नियम अनुचित है तो यह पाप को उत्पन्न करने वाला होता है।
- जैसे यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन को सुखमय और सम्मानपूर्वक व्यतीत करने के उद्देश्य से सिविल सेवा में आता है और प्रवेश के पश्चात यह भ्रष्ट तरीके से या, अनुचित प्रयास से धन अर्जित करता है, तो उस व्यक्ति का चरित्र अशुभ है और यह जब एक सामूहिक प्रवृत्ति के रूप में प्रस्तुत होने लगे तो यह सामाजिक पाप के नाम से जाना जाएगा।
- इस प्रकार हम देखते हैं, कि नैतिकता की स्थापना की प्रारंभिक अवस्था कर्त्तव्य मंच से है अतः समाज में व्यक्ति के अन्तर्गत कर्त्तव्य मंच की भावना को जागृत करना होगा। चूंकि व्यक्ति का कोई कार्य अच्छा है, कोई कार्य बुरा है, जिसे वह समाज और उसके द्वारा प्रस्तुत मूल्यों से सीखता है।
- अतः इन मूल्यों के प्रवेश को सही करना होगा जो व्यक्ति अपने परिवार, परिवेश, शिक्षा आदि से प्राप्त करता है। इस प्रकार व्यक्तिगत जीवन में साध्य मूलक मूल्य की स्थापना करना आवश्यक है।
- यहां साध्य मूलक मूल्य से तात्पर्य है ऐसा मूल्य जो उच्च कोटि के शुभ की प्राप्ति हेतु व्यक्ति को प्रेरणा प्रदान करे क्योंकि मूल्य व्यक्ति को कुछ प्राप्त करने हेतु प्रेरणा प्रदान करता है। जैसे- कल्याण की भावना, सेवा, सामाजिक सद्भाव आदि।
राजनीतिक स्तर पर नैतिकता का सारतत्त्व:
- चूंकि हम एक लोकतांत्रिक राज्य में निवास करते हैं। लोकतंत्र जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनहित में जनता का शासन है। अतः प्रत्येक स्थिति में जनता ही सर्वोपरि है। कोई भी राजनीतिक लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनी शुभता को अपने संविधान में या, एक लोकतांत्रिक नैतिक संहिता के रूप में प्रस्तुत करती है।
- लोकतांत्रिक नैतिकता इसके विभिन्न शुभों के माध्यम से व्यक्त होती है जैसे-धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक न्याय, बंधुत्व, समता, समानता इत्यादि के माध्यम से। इस प्रकार राजनीतिक स्तर पर नैतिकता का सारतत्त्व है- न्यायपूर्ण समाज की स्थापना करना।
- जहां यह प्रक्रिया जनता को मत डालने हेतु प्रेरित करेगी, वहीं अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों के चुनाव में भी सही मार्गदर्शन प्रदान करेगी। साथ ही साथ राजनीतिक प्रतिनिधियों को सत्ता में आने के पूर्व तथा पश्चात् अपने साध्य रूपी शुभ अर्थात् सुशासन की स्थापना के लिए प्रेरित करेगा। क्योंकि यह राजनीतिक प्रतिनिधियों के राजनीतिक चरित्र को व्यक्त करता है और इन प्रयासों से निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और संवेदनशील नीतियों का निर्धारण संभव हो पाएगा।
आर्थिक स्तर पर नैतिकता का सारतत्त्व:
- ‘अर्थ’ किसी भी व्यवस्था की रक्त धारा है। इसके अभाव में जीवन गति रूक जाएगी। आर्थिक नैतिकता को व्यक्तिगत, सामाजिक, राज्य और बाजार के स्तर पर समझने का प्रयास करते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर अपने जीवन में आवास, भोजन, वस्त्र इत्यादि रूपी शुभ की प्राप्ति हेतु कर्म करना चाहिए। परन्तु जब इन शुभों की प्राप्ति की दिशा में अनुचित प्रयास किया जाता है तो वह अनैतिक होगा।
- इस प्रकार राज्य को भी अपनी आर्थिक गतिविधियों का संचालन इस प्रकार करना चाहिए कि जनता को समान रूप से लाभ प्राप्त हो। भारत जैसे लोकतांत्रिक परिवेश में राज्य को नैतिक शुभ सामाजिक आर्थिक रूप से पिछडे़ लोगों के प्रति अपनी आर्थिक गतिविधियों का संवेदनशील होकर संचालन करना चाहिए।
- यदि राज्य को यह प्रतीत होता है कि नीतिगत रूप से समाज के सम्राट और संपन्न लोगों को अधिक शुभ की प्राप्ति हो तो ऐसी स्थिति में उनकी यह आर्थिक नीति अनैतिक हो जाएगी। इसी परिप्रेक्ष्य में एफडीआई का रिटेल क्षेत्र में आना आज भारतीय खुदरा व्यापारी और राज्य सरकार की आर्थिक नीतियों के बीच एक प्रश्न बना हुआ है।
- आर्थिक लाभ तो प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य और व्यापार का शुभ या साध्य होना चाहिए परन्तु इस शुभ की प्राप्ति में यदि किसी अनुचित विधियों का सहारा लिया गया या समाज और पर्यावरण का किसी भी प्रकार से अशुभ हुआ तो वह अनैतिक होगा।
पर्यावरणीय स्तर पर नैतिकता का सारतत्त्व:
- मानवीय अन्तःक्रिया की बात हो रही हो और पर्यावरण के प्रति नैतिक चिन्तन नहीं किया जाए तो नैतिकता का सारतत्त्व पूर्ण नहीं हो पाएगा। वस्तुतः पर्यावरण और मानव जगत परस्पर अत्यधिक निर्भर है।
- प्रकृति को प्रायः मां की संज्ञा दी जाती है, जो न केवल हमारी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करती है, बल्कि हमें एक सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश भी उपलब्ध कराती है। अतः पर्यावरणीय संरक्षण एवं परिस्थितिकी संतुलन वह सर्वोच्च शुभ है, जिसे अपनाए रखना व्यक्ति का नैतिक कर्त्तव्य है।
- इस प्रकार पर्यावरणीय संदर्भ में नैतिकता का सारतत्त्व पारस्परिकता एवं अन्तर्निर्भरता की वह भावना है, जो प्रकृति की आधारभूत विशेषता के रूप में देखी जाती है। अपने से निम्न बौद्धिक क्षमता के जीवों और पेड़-पौधे की रक्षा करना मनुष्य का नैतिक कर्त्तव्य है।
- परन्तु अपने स्वार्थ वश में व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों और दायित्वों से दूर पर्यावरण का दोहन कर रहा है। इस प्रकार पाते है कि व्यक्ति अपने भौतिक सुख की आकांक्षा की प्राप्ति में पेड़-पौधे, प्राकृतिक संचालन, जीवन-जन्तुओं का अनुचित प्रयोग कर रहा है, परिणामतः पर्यावरण असन्तुलन की समस्या उत्पन्न हो रही है।
- यह सत्य है कि पेड़-पौधे और प्राकृतिक संसाधन मनुष्य के शुभ की प्राप्ति के साधन है परन्तु उसका अनुचित दोहन पाप का संचय करता है, जिससे उत्पन्न असन्तुलन वैश्विक तापन जैसी समस्या उत्पन्न करता है।
शासन में नैतिकता का सारतत्त्व:
- शासन का नैतिक स्वरूप सुशासन या जनकल्याण रूपी शुभ की प्राप्ति की दिशा में उत्तरदायित्वपूर्ण, पारदर्शी, न्यायपूर्ण, भागीदारी आधारित, समतामूलक, उचित ढंग से सेवा संपादन पर बल देता है।
- जब लोकतंत्र जनता का जनता के द्वारा जनहित में जनता के ऊपर शासन है, तो जनता की सक्रिय भागीदारी होनी ही चाहिए। इस आधार पर सुशासन लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा स्थापित अवधारणा के अनुसार जनकल्याण रूपी शुभ की प्राप्ति की दिशा में उचित प्रयास है।
प्रशासनिक नैतिकता के अभाव से उत्पन्न समस्याएं
- इनको दो परिपेक्ष में विकसित किया जाता है- तकनीकी और मानवीय मूल्य। भारतीय प्रशासन में तकनीक पर तो बल दिया गया है लेकिन मानवीय मूल्य नगण्य हो गये है। प्रशासनिक सिक्के के दो पहलू है।
- पहला है सही सोच (नैतिक सोच) और दूसरा सही प्रबंधन (प्रबंधन मूलक)। भारतीय प्रशासन में सही सोच के ऊपर सारा बल है। पर प्रबंधन के ऊपर कम। नैतिकता आंतरिक होती है।
- बाहरी कारक इस पर कार्य नहीं करते इस तरीके की गलत धारणा प्रशासन में बनी हुई है। इस धारणा को तोड़ने के लिए वाद-विवाद व परिचर्चा होनी चाहिए। नैतिकता की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए।
- नीतिशास्त्र के आधार और नियंत्रक ‘नीतिशास्त्र के निर्धारक’ कहलाते है। इसे दो शीषर्कों के अधीन अध्ययन करते है-आंतरिक और बाह्य।
- आंतरिक कारकः व्यक्तिगत विश्वास प्रणाली और मूल्यों को आंतरिक निर्धारक कहते हैं, जबकि कानूनों और संगठनात्मक पक्ष को बाह्य निर्धारक कहते है।
नैतिकता को निर्धारित करने वाले आंतरिक कारक
नैतिकता को निर्धारित करने वाले वाह्य कारक
कानून
- बाह्य निर्धारकों में सबसे महत्त्वपूर्ण है। कुछ लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि नैतिक मुद्दों का सामना करने में कानून स्वयं एक प्रमुख मार्ग निर्देशक हैं। कई देशों में सार्वजनिक जीवन में लोगों के उचित आचरण एवं नैतिक मूल्यों के लिए संविधान में ही उल्लेख किया गया है।
- मध्य अमेरिकी देश ‘बेलीज’ दुनिया का एकमात्र देश है जिसके संविधान में ही आचार संहिता सम्मिलित है। अमेरिका की संसद ‘कांग्रेस’ ने 1958 में संघात्मक स्तर पर नैतिक संहिता लागू की और 20 वर्ष बाद 1978 में ‘Ethics in Govt. Act’ बनाया गया। अमेरिका के 50 में से 47 राज्यों में लिखित नैतिक संहिता को स्वीकार किया गया।
- भारत में भी लोकसेवा विधेयक (2006) कानून बनने की अपनी बारी का इन्तजार कर रहा है। इस विधेयक में सिविल सेवकों के लिए अनेक मूल्यों का प्रावधान किया गया है। 1999 में ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने एक लोक सेवा अधिनियम बनाया, जिसमें कुछ मूल्यों को शामिल किया गया है।
संगठनात्मक ढांचा
- नैतिकता का निर्धारण करने के लिए विधायी ढांचे के अलावा संस्थागत ढांचे की भी आवश्यकता होती है। जैसे अमेरिका में 1978 में ‘Ethics in Govt. Act’ के अलावा ‘Office of Govt. Ethics’ की भी स्थापना की गई। इसी तरह 36 अमेरिकी राज्यों ने ‘Ethics Commission’ की स्थापना की। भारत में न तो कार्यालय है और न ही नैतिकता संबंधी आयोग।
- राजनीति में सत्यनिष्ठा न होने के कारण- बाहुबल, धनबल, अपराधीकरण एवं कालाधन बढ़ता जा रहा है। इसके साथ ही भारत में राज्यसभा की नैतिकता समिति एवं लोकसभा की नैतिकता समिति बनायी गई है। द्वितीय प्रशासनिक आयोग की यह भी सिफारिश है कि संसद के प्रत्येक सदन द्वारा नैतिक आयुक्त पद का गठन किया जाना चाहिए।
न्यायपालिका
- विधिक और संस्थागत ढांचे के अतिरिक्त लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में न्यायिक ढांचा भी नैतिकता का एक मुख्य बाहरी निर्धारक होता है। भारत में किसी भी व्यक्ति को न्यायालय के द्वारा दोष सिद्ध कर दिए जाने पर वह कानूनी रूप से नहीं वरन् नैतिक रूप से भी गलत सिद्ध हो जाता है। इसके साथ ही भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में कई अधिकारों की व्याख्या इस प्रकार की है कि उसमें नैतिक मूल्य शामिल हो जाए।
- 1999 में जेसिका लाल हत्याकाण्ड में दिल्ली उच्च न्यायालय के द्वारा निचले न्यायालय के फैसले को बदलते हुए जेसिका के हत्यारों को सजा देना कानूनी पुरस्कार के साथ-साथ निष्पक्षता के नैतिक मूल्य की भी स्थापना हुई।
- न्यायाधीश सार्वजनिक जीवन में नैतिकता को अपने निर्णयों के द्वारा तभी लागू कर सकते हैं जब वे खुद किसी भी दुराचरण और अनैतिक रास्ते पर न चलते हो, भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में न्यायाधीशों के लिए आचार संहिता बनायी गई है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1997 से न्यायिक जीवन के मूल्यों के पुनर्गइन नामक एक चार्टर बनाया है, जिसे न्यायाधीशों की आचार संहिता कहते हैं।
लोक प्रचार
- प्रचार से जागरूकता पैदा होती है और जागरूकता से किसी भी विषय में लोगों की अभिवृत्ति निर्मित की जा सकती है।
- सतत जागरूकता समाज की मानसिकता और व्यक्ति की अभिवृत्ति दोनों में दीर्घकालिक परिवर्तन करती है। जैसे हांगकांग में भ्रष्टाचार से लड़ने के बारे में समाज की चेतना को जगाने का श्रेय (Independent Commission against Corruption– ICAC) को जाता है। ICAC ने लोगों की इन धारणाओं को तोड़ दिया है कि भ्रष्टाचार से लड़ने का प्रयास निरर्थक है।
- भारत में भी सत्यमेव जयते, जैसे कार्यक्रमों के द्वारा उठाए गए सामाजिक मुद्दों से लोगों की अभिवृत्ति में परिवर्तन हुआ। कई राज्यों में इस कार्यक्रम के बाद कानून तक बदले गए।
विधायी सर्वेक्षण
- किसी भी देश की विधायिका किसी लोकनीति का निर्माण करने की आवश्यकता पर बहस करती है और उस पर अन्तिम मुहर लगाती है।
- किसी भी देश की लोकनीति से सार्वजनिक नैतिकता जुड़ी होती है। जैसे- अमेरिका में मिथ कावा अधिनियम वहां की लोकनीति को व्यक्त करता है और उस मूल को भी व्यक्त करता है कि जैसे किसी व्यक्ति का झूठ बोलना या असत्य दावा गलत है।
- ठीक इसी तरह किसी कंपनी का प्रबंधक का अपने उत्पाद के बारे में बढ़ा चढ़ाकर बोलना या झूठा दावा करना गलत है ऐसे मामलों को जब कानूनन रोका जाता है तो वहां की विधायिका का सर्वेक्षण महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
नौकरशाह विकेन्द्रीकरण
- नैतिकता का सारतत्त्व उत्तरदायी होने से संबंधित है और उत्तरदायित्व केन्द्रीकरण के बजाए, विकेन्द्रीकरण से गहराई से संबंधित है।
नीतिशास्त्र के आयाम
- नीतिशास्त्र से संबधित सिद्धांत एवं इनके अनुप्रयोग का अध्ययन ही नीतिशास्त्र के आयाम कहलाते हैं। महत्त्वपूर्ण आयाम निम्नलिखित है-
मानक नीतिशास्त्र
- यह नीतिशास्त्र का वह सिद्धांत है जो स्थापित करता है कि कोई पदार्थ कैसा है और कैसा होना चाहिए। किसी पदार्थ का मूल्यांकन किस प्रकार से किया जाना चाहिए।
- कौन सा पदार्थ अच्छा है और कौन सा खराब? कौन सा कार्य सही है और कौन सा गलत? इसके तहत एक आचार संहिता तैयार कर दी जाती है और उन्हीं तय आचार या नियम के अनुसार- कार्य निर्धारण किया जाता है। इसका वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया गया है-
- परिणामवाद
- परिणाम निरपेक्ष नीति
- गुण नैतिकता
परिणामवाद
- किसी भी कार्य की नैतिकता या अनैतिकता का आधार उस क्रिया का परिणाम होगा। नैतिक दृष्टि से उचित कार्य वही होगा जिसका परिणाम बेहतर होगा।
परिणामवाद के प्रकार
उपयोगितावाद (Unitarianism): | कोई भी ऐसा कार्य जो अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख दे वह बेहतर है। सुख को बेहतर तब मानेंगे जब आनंद की अनुभूति अधिक हो और दुःख कम हो। |
सुखवाद (Hedonism): | मानव के लिए सुख ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति को ऐसे कार्य करने चाहिए जो उसके सुख को चरम पर लेकर चला जाए। |
स्वार्थवाद (Egoism): | वही कार्य सही है, जो व्यक्तिगत सुख को अधिकतम कर दे। इससे वैसे कार्यों को स्वीकृति मिल जाएगी जो व्यक्तिगत सुख को बढ़ाए भले ही वह सामूहिक सुख को कम कर दे। |
अध्यात्मवाद (Asceticism): | स्वार्थवाद का विलोम/यह ऐसा जीवन है जहाँ स्वार्थ का कोई स्थान नहीं होता और व्यक्ति आध्यात्मिक क्षेत्र में अपना उत्थान करता है। |
परोपकारवाद (Alteruism): | यहाँ व्यक्ति ऐसा कार्य करता है जो अधिकांश लोगों के लिए लाभकारी होता है भले ही खुद उसका नुकसान हो जाए। उदाहरण-दूसरों के लिए जीना। |
नियम परिणामवाद (Rule Consequentialism): | क्रिया का परिणाम ही नैतिकता का आधार है परिणाम के आधार पर ही नैतिक नियम बनाए गए हैं। |
नकारात्मक परिणामवाद (Negative Conseequentialion): | सकारात्मक परिणामवाद को बढ़ाने के बदले नकारात्मक परिणाम को कम करना। |
परिणाम निरपेक्ष नीति के प्रकार
प्राकृतिक अधिकार का सिद्धांत |
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दैवीय आदेश का सिद्धांत |
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उद्देश्यात्मक सिद्धांत |
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बहुलवादी परिणाम निरपेक्ष नीति |
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गुण-नैतिकता
- यहां सीधे-सीधे किसी नैतिक सिद्धांत का सहारा नहीं लिया जाता है। किसी भी नैतिक कार्य के लिए यहां चरित्र की भूमिका तय कर दी गई है। कालांतर में मानव चरित्र विभिन्न प्राकृतिक आधारों और विभिन्न कारकों यथा परिवार, संस्कृति, शिक्षा आदि द्वारा नियंत्रित होता है।
- परिणामस्वरूप कुछ लोग अन्य की तुलना में ज्यादा गुणवान होते हैं। वो लोग जो ज्यादा गुणवान होते है अपने गुणों का व्यवहार कर सुख उत्पन्न करते है और जीवन को अच्छा बनाते हैं। नैतिक कृत्यों को निम्न आधारों पर जांचा जा सकता है-
- कृत्य निश्चित रूप से अच्छाई का प्रोत्साहक हो। उदाहरण-अच्छा जीवन, व्यक्तिगत सुख सामुदायिक हित इत्यादि।
- कृत्य का इरादा अच्छा हो।
आत्मप्रसादवाद (Eudemonism)
- अरस्तू द्वारा प्रतिपादित। सही कार्य भलाई की ओर ले जाता है। अच्छे गुणों का अभ्यास कर व्यक्ति इसे प्राप्त कर सकता है।
अधिनीतिशास्त्र (Meta-Ethics)
- इसके अंतर्गत निम्न प्रकार के प्रश्नों का उत्तर खोजा जाता हैः-
- अच्छाई क्या है?
- अच्छे और बुरे में हम लोग अंतर कैसे ला सकते हैं?
- नैतिक शब्द या निर्णय से क्या तात्पर्य है?
- उदाहरण: अच्छा-बुरा, सही-गलत।
- नैतिक शब्द का सही अर्थ क्या है?
- क्या नैतिक निर्णय सर्वमान्य, या सापेक्षिक हैं?
- नैतिक निर्णयों को सत्य/असत्य ठहराने का आधार क्या है?
- किसी के सही या गलत होने का पता हम कैसे लगाते हैं?
- वास्तव में यह अधिनीति शास्त्र निम्न तीन से संबंधित हैं-
- शब्दार्थ (Semantics): इसके अंतर्गत शब्द, फ्रेज, चिन्ह इत्यादि का अध्ययन करते हैं।
- ज्ञान-मीमांसा (Epistemology): इसके अंतर्गत हम लोग ज्ञान या वैसे विश्वास का अध्ययन करते हैं जिसे तर्क या ज्ञान की कसौटी पर कसा जाता है।
- सत्ता-मीमांसा (Ontology): व्यक्ति के प्रकृति का अध्ययन
- अधिनीतिशास्त्र को निम्न दो भागों में बांटते है- 1. नैतिक यथार्थवाद, 2. नैतिक निःयथार्थवाद
नैतिक यथार्थवाद (Moral Realism):
- इसे विकल्पवाद भी कहते है। यहां नैतिक मूल्यों के वैकल्पिक आधार का अध्ययन किया जाता है। यहां कथनों का मूल्यांकन किया जाता है।
- मूल्यांकन का आधार तथ्यात्मक है। उदाहरण: सत्य एवं असत्य नामक शब्द हमारे विश्वास, भावना और अभिरूचि पर आधारित नहीं है। इन शब्दों का मूल्यांकन करना भी जरूरी है।
नैतिक यथार्थवाद के दो प्रकार हैं:
नैतिक प्रकृतिवाद:
- इसमें तथ्यात्मक नैतिक गुणों का अध्ययन किया जाता है। नैतिक गुणों की जानकारी बहुत कम है, इसे और भी कम करके आसानी से अनैतिक में परिवर्तित किया जा सकता है।
- इसके अंतर्गत संज्ञान (Cognitive) को स्वीकार किया जाता है, जिसका अर्थ है कि, नैतिक वाक्यों को नैतिक कथन के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है। अतः नैतिक कथन भी सत्य अथवा असत्य हो सकता है। इन नैतिक वाक्यों के अर्थ की अभिव्यक्ति प्राकृतिक विशेषता के आधार पर की जा सकती है, जहां नैतिक प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती है।
नैतिक अप्रकृतिवाद:
- ‘मूर’ के द्वारा प्रतिपादित। यहां नैतिक कथन ऐसे होते हैं जिसे किसी भी परिस्थिति में लघुकरण के द्वारा अनैतिक कथन में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। उदाहरण-‘अच्छाई’ इसे किसी भी दूसरे रूप से परिभाषित नहीं किया जा सकता है।
- नैतिक निःयथार्थवाद रू यहां पर वस्तुनिष्ठ मूल्य की स्थिति नहीं रहती। इसे हम एक या अनेक रूपों में देख सकते हैं। जो निम्न है-
- नैतिक सापेक्षतावाद: कोई वस्तुनिष्ठ नैतिक विशेषता नहीं। कथन की सत्यता या असत्यता निरीक्षक की अभिवृत्ति पर निर्भर करता है या नैतिक कथन केवल एक अभिवृत्ति, राय, व्यक्तिगत वरीयता या किसी की पसंद पर निर्भर करता है।
- नैतिक असंज्ञानात्मवाद: नैतिक कथन अवास्तविक है। अतः यह न तो सत्य है न ही असत्य। इससे स्पष्ट होता है कि नैतिक ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं। इसके विभिन्न प्रकार नीचे दिए जा रहे हैं-
- संवेगवाद: नैतिक कथन केवल हमारी भावना को अभिव्यक्त करता है।
- सार्वभौमिकवाद: नैतिक कथन सार्वभौम होते है। जैसे- ‘हत्या गलत है’ मतलब हत्या मत करो।
- नैतिक समय: इसमें एक से ज्यादा नैतिक ज्ञान नहीं होता है।
व्याख्यात्मक नीतिशास्त्र
- यहां नैतिकता का मूल्यांकन लोगों के व्यवहार, लोगों की नैतिकता और मूल्य के प्रति विश्वास के आधार पर किया जाता है। इसे तुलनात्मक नीतिशास्त्र भी कहा जाता है। उदाहरण-भूत और वर्तमान के नीतिशास्त्र की तुलना, एक और अन्य समाज के नीतिशास्त्र की तुलना।
व्यावहारिक/अनुप्रयोगात्मक नीतिशास्त्र
- सभी नैतिक सिद्धांतों का व्यावहारिक जीवन में अनुप्रयोग का अध्ययन ही व्यावहारिक नैतिकता है। उदाहरणः गर्भपात, पशुओं पर परीक्षण इत्यादि।
पर्यावरणीय नीतिशास्त्र
- पर्यावरणीय नीतिशास्त्र की शुरूआत 1960 के दशक से हुई। 1990 के दशक में जलवायु परिवर्तन एवं वैश्विक तापन को एक नैतिक मुद्दे के रूप में देखा गया।
- मनुष्य की अपने प्रति एवं दूसरों के प्रति जो बाध्यताएं होती है, वे बाध्यताएं एक नैतिक स्थिति की तरफ संकेत करती है, जैसे- हम सभी की दूसरों कि प्रति एक बाध्यता यह भी है कि किसी भी अन्य व्यक्ति को नुकसान न पहुंचाया जाए। किन्तु जब कोई भी मनुष्य अपने कार्यों से ज्यादा से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है तो वह दूसरों को नुकसान न पहुंचाने की बाध्यता को नकार देता है।
- इतना ही नहीं वह जाने-अनजाने अनेक ऐसे काम करता है, जिन कामों से दूसरों को परोक्ष रूप से नुकसान पहुंचता है, जैसे- ईमारती लकड़ी के लिए जंगल के कुछ पशुओं को भगाने के लिए जंगल के कुछ हिस्सों में आग लगाना, संसाधनों के लिए पृथ्वी का अंधाधुंध दोहन। इन कार्यों से चूंकि अन्य को नुकसान पहुंचाने की बाध्यता का खण्डन होता है, इसलिए ये मुद्दे नैतिक परिधि में आते हैं।
- जलवायु परिवर्तन एवं वैश्विक तापन वैश्विक मुद्दे हैं। वैश्विक मुद्दों के समाधान के लिए राष्ट्रों और व्यक्तियों के वैश्विक उत्तरदायित्व की आवश्यकता होती है, इसलिए भी जलवायु परिवर्तन एवं वैश्विक तापन नैतिक मुद्दा है।
- जलवायु परिवर्तन एवं वैश्विक तापन को रोकने के संबंध में एक बहुत बड़ा प्रश्न ‘जिम्मेदारियों’ के बंटवारे का है। इस संबंध में दो महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है-
- ऐतिहासिक सिद्धांत
- समय खण्ड सिद्धांत
- पहला सिद्धांत ऐतिहासिक वितरण एवं दूसरा मौजूद वितरण को देखता है। पहला सिद्धांत वैश्विक तापन की पूरी जिम्मेदारी सबसे पुराने औद्योगिक राष्ट्रों को देता है। जबकि दूसरा सिद्धांत समान हिस्सेदारी की बात करता है।
- दूसरे सिद्धांत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन को आधार बनाया गया, जबकि पहले सिद्धांत में प्रति-राष्ट्र कार्बन उत्सर्जन को आधार बनाया गया। इन दोनों का समन्वय साझा किन्तु विभेदीकृत उत्तरदायित्व की धारणा में किया गया।
- पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का दूसरा प्रमुख मुद्दा विलासिता उत्सर्जन एवं जीविका उत्सर्जन के बीच चुनाव का है। अमीर देशों का कार्बन उत्सर्जन विलासिता उत्सर्जन होने से अनुचित कहा जा सकता है।
- पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का एक अन्य मुद्दा भावी पीढि़यों के हितों को ध्यान में रखना है। अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम हित में वर्तमान पीढि़यों का ही नहीं वरन भावी पीढि़यों का हित भी शामिल है।
- पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का एक मुद्दा, मूल्यों को लेकर है। केवल मानवीय मूल्यों को महत्व देना उचित नहीं है। प्रकृति में स्वयं कुछ मूल्य विद्यमान है। प्रकृति का मूल्य मनुष्य के लिए नहीं है, प्रकृति में ही मूल्य है।
कारोबारी नैतिकता
- वह नीतिशास्त्र जो कारोबारी माहौल में पैदा हुए नैतिक सिद्धान्तों एवं समस्याओं की जांच करता है एवं उनके संदर्भ में कुछ मानदण्डों की स्थापना करता है, उसे कारोबारी नैतिकता कहते हैं। बढ़ती प्रतिस्पर्धा और कमजोर मूल्यों की वजह से कारोबार में अक्सर अनैतिक तरीके अपनाकर अल्पकालिक लाभ प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।
- कॉर्पोरेट नैतिकता के अर्न्तगत गैर आर्थिक, सामाजिक और नैतिक मूल्यों के प्रति वचनबद्धता व्यक्त की जाती है।
व्यावसायिक नैतिकता
- सेवा क्षेत्र से संबंधित नैतिकता को व्यावसायिक नैतिकता कहते हैं। व्यावसायिक नैतिकता का इतिहास बहुत पुराना है। मिस्र के हम्मूराबी की विधि संहिता में व्यावसायिक नैतिकता को शामिल किया गया।
- हम्मूराबी की विधि संहिता में भवन निर्माताओं के लिए व्यावसायिक नैतिकता का उपबंध किया गया है। प्राचीन-भारत में मौजूद गिल्ड व्यवस्था में भी व्यावसायिक नैतिकता शामिल होती थी। गिल्ड एक प्रकार के व्यापारियों या पेशों का संघ है, जो हितों की रक्षा और मानदण्डों को लागू करने के लिए गठित किया जाता है।
- भारत में व्यावसायिक, नैतिकता को लागू करने के लिए बाहरी एवं आंतरिक दो प्रकार के नियंत्रक प्रयुक्त हैं। बाहरी नियंत्रक कानून हैं-जैसे डॉक्टरों के आचरण को नियमित करने के लिए 1956 में IMC, Act के तहत आचार संहिता शामिल की गयी। वकीलों के लिए 1961 के The Advocate Act. के अर्न्तगत आचार संहिता शामिल की गयी।
- पत्रकारों और प्रिंट मीडिया के लिए 1978 में PC Act के माध्यम से आचार संहिता लागू की गयी। बाहरी नियंत्रकों के अलावा अलग-अलग क्षेत्रें में आंतरिक नियंत्रक भी प्रयोग किए जा रहे हैं। जैसे टेलीकॉम के क्षेत्र में ट्राई (Trai) इंजीनियरिंग क्षेत्र में AICTE जैसे संगठनों के द्वारा आंतरिक स्तर पर नैतिकता को लागू करने का प्रयास किया जा रहा है।
- उच्च शिक्षा पर बनाई गई यशपाल समिति ने सभी अकादमिक एवं पेशेवर पाठ्यक्रमों के नियमन के लिए उच्च शिक्षा और शोध पर राष्ट्रीय आयोग बनाने की सिफारिश की। इस आयोग के द्वारा विभिन्न पेशेवर क्षेत्रें के एकीकृत नियमन की व्यवस्था को अपनाया जा सकेगा।
चिकित्सीय नैतिकता
- चिकित्सा क्षेत्र में नैतिकता, चिकित्सीय नैतिकता कहलाता है। इस संदर्भ में हिप्पोक्रेटस (आधुनिक चिकित्सा के पिता) का शपथ अति महत्त्वपूर्ण है। इसके अनुसार, फ्चिकित्सक हर संभव प्रयास करेगा कि रोगी का उपचार बेहतर हो, कुछ ऐसा नहीं करेगा जिससे कि रोगी का नुकसान हो।
- कुछ महत्त्वपूर्ण मूल्य है जिनका चर्चा चिकित्सीय नैतिकता में होती हैः- चिकित्सक जो भी करेगा, रोगी के हित में करेगा, चिकित्सक कोई ऐसा कार्य नहीं करेगा जिससे रोगी को नुकसान हो, रोगी को अधिकार होगा कि, वह उपचार कराए तथा हर वर्ग के लोगों को उपचार मिलना चाहिए, रोगी एवं चिकित्सक को मान-सम्मान बरकरार रखने की छूट होगी, चिकित्सक ईमानदारी से कार्य करेगे।
कॉर्पोरेट नैतिकता से संबंधित मुख्य क्षेत्र
व्यापार नीतिशास्त्र
- व्यापार नीतिशास्त्र में एक तरफ कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी बनाने पर बल देता है।
- दूसरी तरफ विभिन्न कंपनियों के बीच आधार और नेतृत्व संबंधी मुद्दों को उठाया जाता है। जैसे-शत्रुतापूर्ण औद्योगिक जासूसी कंपनियों की ओर से राजनीतिक चंदा, पक्षपात के लिए। इसके साथ ही अपनी राजनीतिक निकटता का प्रयोग लोगों का भरोसा जीतने के लिए करना।
- कंपनी प्रशासन के नेतृत्व के मुद्दे जिसमें येाग्यता को ध्यान न दिया जाए। उद्योग हत्या, कंपनी की कुछ बातों को गोपनीय बनाने के लिए किसी को बाध्य करना, ये सभी व्यापार नीतिशास्त्र के उल्लंघन के उदाहरण हैं।
बौद्धिक संपदा, कौशल नीतिशास्त्र
- पेटेंट उल्लंघन, ट्रेड मार्क उल्लंघन, बायो-प्रोस्पेक्टिग और बायो-पायरेसी आदि मुद्दे इसके अंतर्गत आते हैं।
उत्पाद नीतिशास्त्र
- दोषपूर्ण, नशामुक्त स्वभाविक रूप से खतरनाक उत्पादों को गलत जानकारी देकर उत्पादित करना, बिना जानकारी के Clinical Trial करना। पशुओं के अधिकार और आर्थिक रूप से वंचित समूहों का परीक्षण की वस्तुओं में इस्तेमाल करना।
लेखांकन नैतिकता
- लेखांकन नैतिकता के अंतर्गत निम्नलिखित मुद्दे आते हैं-
- Corporate Ethics (Insider Trading)
- कंपनी के सीईओ व शीर्ष प्रबंधन के द्वारा किया गया पक्षपातर्पूा भुगतान।
- रिश्वत, दलाली या सुविधा भुगतान।
- इसके अंतर्गत निम्नलिखित मुद्दे आते हैं- ह्विसिल ब्लोअर को प्रताडि़त करना।
- उम्र लिग, जाति, धर्म, विकलांगता, आकर्षक होने, वजन के आधार पर भेदभाव तथा यौन उत्पीड़न एवं पक्षपात के मुद्दे।
बिक्री एवं विपणन का नैतिक शास्त्र
- इसके अंतर्गत निम्नलिखित मुद्दे आते हैं –
- मूल्यों में जान-बूझकर भेदभाव, गैर प्रतिस्पर्द्धी व्यवहार
- आक्रामक विज्ञापन, अचेतन या द्विभाषी संदेश, यौन व्यवहार संबंधी उकसाने वाले विज्ञापन, काला बाजारी और उत्पादों के विज्ञापन में बच्चों की भावना से खिलवाड़ करना।
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