झारखण्ड (Jharkhand) का नामकरण
- ‘झारखण्ड (Jharkhand) ’ शब्द का उद्गम दो शब्दों से मिलने से हुई है-झार अथवा झाड़ (जिसे स्थानीय भाषा में वन कहते हैं और खण्ड अर्थात् टुकड़ा (भू-भाग अथवा प्रदेश)। झारखण्ड (Jharkhand) का शब्दिक अर्थ हुआ-वन प्रदेश अथवा वनों (झाड़ों) का प्रदेश।
- झारखण्ड (Jharkhand) राज्य का सर्वप्रथम साहित्यिक प्रमाण ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ से प्राप्त होता है। ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में इस क्षेत्र के लिए पुण्ड्र/पुण्ड शब्द का प्रयोग किया है।

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- इस क्षेत्र के लिए अन्य पुराणों में भी अलग- अलग नामों से उल्लेख किया गया है- ‘भगवत पुराण’ में कीकट प्रदेश के नाम से ‘विष्णु पुराण’ में ‘मुण्ड’ के नाम से तथा ‘वायु पुराण’ में ‘मुरूण्ड’ के नाम से उल्लेख किया गया है।
- ‘महाभारत’ में झारखण्ड के लिए दो नामों का उल्लेख प्राप्त होता है-
- पुंडरिक प्रदेश
- पशुभूमि/महाभारत के दिग्विजय पर्व में इस भू-भाग को पुंडरिक प्रदेश कहा गया है।
- महाभारत में इस भू-भाग का एक अन्य नाम ‘पशुभूमि’ प्राप्त होता है। प्राचीनकाल में कौटिल्य ने झारखण्ड को अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में कुकुट/कुकुटदेश कहा है। मौर्यकाल में वनवासियों के लिए नियम होते थे।
- मगध राज्य को झारखण्ड (Jharkhand) के हित में उपयोग करने एवं मगध के शत्रुओं से उसके गठबन्धन को रोकने हेतु ‘आटविक’ नामक पदाधिकारी नियुक्त किए गए थे।
- मौर्यशासक अशोक ने ‘रक्षित’ के नेतृत्व में धर्म प्रचारकों का एक दल ‘आटवी’ जनजातियों के बीच भेजा था।
- पूर्वमध्यकाल के संस्कृत साहित्य के इतिहास में इस भाग को ‘कलिन्द देश’ कहा गया है। मध्यकाल में ‘झारखण्ड (Jharkhand) ’ शब्द का उल्लेख मुस्लिम इतिहास- कारों ने किया है।
- ये मुस्लिम इतिहासकार है जो अपनी रचनाओं में ‘झारखण्ड (Jharkhand) ’ शब्द का सामान्यतः प्रयोग किया है- ‘सलीमुल्ला’ अपनी रचना ‘तारीख ए- बांग्ला’ शम्स-ए-सिराज अफीफ अपनी रचना ‘तारीख ए-फिरोजशाही’ गुलाम- हुसैन-खाँ’ अपनी रचना ‘सियार-उल-मुतखरीन’ आदि में किया है।
- जिस नाम से ‘झारखण्ड (Jharkhand) ’ शब्द का उल्लेख किया जाता है वह भाग मुख्यतः छोटानागपुर का पठार एवं संथाल परगना के वन क्षेत्र है। झारखण्ड का पयार्यवाची छोटानागपुर पठार एवं संथाल परगना है।
- छोटानागपुर का पठार झारखण्ड का सर्वाधिक बड़ा भू-भाग है। इसी कारण झारखण्ड (Jharkhand) कहने से छोटानागपुर का बोध होता है तथा छोटानागपुर कहने से झारखण्ड शब्द का बोध होता है।
- छोटानागपुर के विषय में चीनी यात्री फाह्यान जो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय आए थे, इन्होंने अपने यात्र वृतान्त में छोटा नागपुर के पठार का जिक्र अपने ग्रंथ ‘फो- को-क्वी’ में ‘कुक्कुट लाड’ के नाम से किया है।
- चीनी यात्री ह्नेनसांग जो कन्नौज के राजा हर्षवर्धन के समय आए थे, इन्होंने अपने यात्र वृतांत में छोटानागपुर के पठार का उल्लेख अपने ग्रंथ ‘सी-यू-की’ में ‘किलो- ना-सु-का-ला-ना’ (कर्ण सुवर्ण) के नाम से किया है।
- छोटानागपुर नाम ब्रिटिश शासन काल के दौरान प्रयुक्त हुआ। ब्रिटिश सरकार ने 1834 ई. में छोटानागपुर पठार को दक्षिण-पश्चिमी सीमांत एजेन्सी के नाम से एक प्रशासनिक इकाई के रूप में गठित किया।
- संथाल परगना झारखण्ड (Jharkhand) का दूसरा बड़ा भू-भाग है जिसे प्राचीनकाल में ‘नरि खण्ड’ कहा जाता था। इस क्षेत्र को बाद में ‘कांकजोल’ कहा जाने लगा।
- चीनी यात्री ह्नेनसांग ने इस क्षेत्र के कुछ भाग (राजमहल क्षेत्र) को ‘कि-चिंग- कोई-लो’ नाम का उल्लेख किया है जिसे ‘राजमहल’ क्षेत्र के नाम से जाना जाता है।
- संथाल परगना के कुछ हिस्से को ‘दामिन-ए-कोह’ के नाम से जाना जाता है जिसके अन्तर्गत राजमहल, दुमका, गोड्डा एवं पाकुड़ के भाग आते हैं।
- प्रागैतिहासिक (प्राक इतिहास) अर्थात् इस काल इतिहास पूर्णतः पुरातात्विक साधनों पर निर्भर है, इस काल का कोई लिखित साधन उपलब्ध नहीं है, क्योंकि इस समय मानव जीवन असभ्य एवं बर्बर था।
प्रागैतिहासिक काल को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-
- पुरापाषाण काल (Paloeolithic Age)
- मध्य पाषाण काल (Middle Paloe-olithic Age)
- नवपाषाण काल (Neolithie Age)
1. पुरापाषाण काल
- यह काल आखेटक एवं खाद्य-संग्राहक काल के रूप में जाना जाता है। ये लोग अग्नि से अनभिज्ञ थे। कृषि का ज्ञान नहीं था। जो खुदाई के पश्चात् जो भी पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए है पत्थर के उपकरण।
- पूर्व पाषाण-कालीन औजारों में पत्थर की कुल्हाडियों के फलक, खुर्पी, चाकू के रूप में प्रयोग किए जाने वाले पत्थर के टुकड़ों के अवशेष प्राप्त किए गए है।
- झारखण्ड (Jharkhand) में ये पुरा पाषाणकालीन अवशेष राँची, देवघर, हजारीबाग, दुमका, बोकारो, पश्चिमी सिंहभूम पूर्वी सिंहभूम आदि क्षेत्रें के नदियों के तटों से प्राप्त हुए है। पुरापाषाणकाल का समय 10 लाख से 11 हजार ई. पू. के मध्य माना जाता है।
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2. मध्य पाषाणकाल
- यह काल आखेटक एवं पशुपालन का काल था। इस समय प्रयुक्त होने वाले उपकरण आकार में बहुत छोटे होते थे जिसे ‘माइक्रोलिथ्स’ (सूक्ष्म पाषाण उपकरण) कहते थे।
- इस समय एगेट, जेस्पर, चर्ट, चाल सिडनो जैसे पदार्थ प्रयोग किए जाते थे। कुछ स्थलों से मानव अवशेष भी प्राप्त हुए है। इस समय के लोग कृषि एवं पशुपालन की तरफ आकर्षित हो रहे है।
- झारखण्ड (Jharkhand) में मध्य पाषाण काल के अवशेष इनका, पलामू, धनबाद, रांची पूर्वी सिंहभूम तथा पश्चिमी सिंहभूम से प्राप्त हुए है। जिससे यह प्रमाणित होता है कि झारखण्ड में मानव अधिवास था।
- हजारीबाग जिले के विभिन्न स्थानों, बडकागाँव, मांडु, रजरप्पा से पुरातात्विक सामग्री मिली हैं जिसमें कुल्हाड़ी, बंजनी, खुरचनी, तक्षिनी, ब्रेजड़ इत्यादि हजारीबाग के इल्को नाम के स्थान से एक पत्थर के बेड़ खंड पर आदिमानव द्वारा निर्मित चित्र शैलचित्र, लिपि इत्यादि मिले हैं।
- हजारीबाग के सीतागढ़ पहाड़ से आदिमानव के अवशेष मिले हैं। सीतागढ़ से प्राप्त पुरातात्विक महत्त्व के अधिकांश नमूने ग्रे बलुआ पत्थर (Gray and Stone) पर उकेरे गये हैं। जिसमें बुद्ध की चार आकृतियों से युक्त एक स्तूप भी मिला है।
- यहीं से 4 अष्टदल की आकृति मिली है जो गुलाबी बलुआ पत्थर पर उकेरा गया है। जो वर्तमान में विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग का प्रतीक चिह्न है। इसका काल लगभग 11 हजार से 6 हजार ई. पू. के मध्य का माना जाता है।
- नवपाषाण काल में मनुष्य आखेटक, पशुपालक से आगे निकलकर खाद्य पदार्थों का उत्पादक एवं उपभोक्ता बन गए। इस कल में ये लोग खानाबदोश वाले जीवन का परित्याग कर स्थायित्वपूर्ण जीवन की तरफ आकर्षित होने लगे। इन्हें मृदभाण्ड निर्माण करने की तकनीक का ज्ञान हो गया।
- वस्त्रें के स्थान पर जानवरों के चर्म का उपयोग करते थे। झारखण्ड में इस काल से संबंधित कुठार, चाकू, सेल्ट छेनी, ताँबे लोहे की आरी आदि साम्राग्रियाँ प्राप्त हुई है।
- झारखण्ड (Jharkhand) के छोटानागपुर से नवपाषाणकालीन लगभग सभी प्रकार के हस्तकुठार प्राप्त हुए है जो भारत में पाये जाते थे।
- भारत में 12 प्रकार के हस्तकुठार पाये जाते थे। हस्तकुठार को देखने से लगता है कि जिस समय सिंधु घाटी कांस्यकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का विकास हो रहा था उसी समय छोटानागपुर में नवपाषाणकालीन संस्कृति का विकास हो रहा था।
- झारखण्ड (Jharkhand) में नवपाषाणकालीन संस्कृति के अवशेष लोहरदगा, रांची पूर्वी सिंहभूम एवं पश्चिमी सिंहभूम से प्राप्त होते हैं।
ताम्र-पाषाण काल:
- ताम्र-पाषाणिक युग संक्रमण का काल था। इस काल में मानव पत्थर के उपकरण के साथ-साथ ताँबे धातु के उपकरण का प्रयोग किया जाता था।
- झारखण्ड (Jharkhand) में ताम्र-पाषाण युगीन संस्कृति का केन्द्र-बिन्दू ‘सिंहभूम’ था। इस युग में हजारीबाग से हड़प्पावासियों को टिन का निर्यात किया जाता था।
ताम्र युग:
- ताम्र पाषाण युग के पश्चात् ताम्र युग आरम्भ हुआ। इस युग में सभी उपकरण ताँबे के बने होते थे। इस युग में बिरहोर, असुर, बिरजिया जनजातियाँ ताँबे के खानों से ताँबा निकालने एवं उसे गलाकर उपकरण बनाने का कार्य करते थे।
- झारखण्ड (Jharkhand) के कई स्थानों से ताँबे के कुल्हाड़ी एवं हजारीबाग के बारहखण्ड नामक स्थान से ताँबे के 49 खान के अवशेष प्राप्त हुए है।
- ताँबा का अवशेष: 4200 ई.पू.
- सघन रूप से ताँबा मिलना प्रारम्भ: 3500 ई.पू.
कांस्य युग:
- ताँबा के बाद कांस्य युग आया। कांसा वह धातु है जिसे ताँबा और टिन मिलाकर बनाया जाता है। ताम्रपाषाण के कांसा काल को भी महान क्रांतिकारी अभिनव परिवर्तन का काल माना जाता है।
- छोटानागपुर क्षेत्र में असुर बिरजिया ताँबे के बाद कांसा बनाने का काम करने लगे। यद्यपि इसका पुरातात्विक प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। लेकिन अनुमान लगाया जाता है कि 3 हजार से 2 हजार ई.पू. के आस-पास झारखण्ड (Jharkhand) में कांसा बनाया जाता होगा।
लौह युग:
- कांस्य युग के बाद लौह युग का आगमन हुआ। 1000-1200 ई.पू. के आस-पास भारत में लोहे का युग प्रारंभ हो गया। विश्व फलक पर लोहे की सर्वप्रथम खोज 1400 ई.पू. में एशिया माइनर में हुई थी।
- कुछ इतिहासकारों का मानना है कि 2500 ई.पू. के आस-पास झारखण्ड (Jharkhand) के असुर लोग लोहे की तलवार बनाते थे।
- छोटानागपुर को लौह तकनीक तंत्र का एक पृथक केंद्र माना और यहाँ असुरों व बिरजियों ने 1200-500 ई.पू. के बीच लौह तकनीक का अच्छा विकास किया।
ऐतिहासिक काल
- 1500 ई- पू- से 600 ई- पू- तक आध ऐतिहासिक काल (गूढ़ लिपि का काल)-
- वैदिक काल
- ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.)
- उत्तरवैदिक काल (1000 ई.पू. से 600 ई.पू.)
- धार्मिक आंदोलन का काल- जैन धर्म, बौद्ध धर्म, मुण्डा राज्य में झारखण्ड
झारखण्ड (Jharkhand) का ऐतिहासिक काल
- प्रागैतिहासिक काल के बाद के समय को ऐतिहासिक काल कहा जाता है। ऐतिहासिक काल में लिखित इतिहास मौजूद होता है जिसे आधुनिक मानव पढ़ सके।
वैदिक काल
- वैदिक काल में झारखण्ड (Jharkhand) को ‘कीकट प्रदेश’ के नाम से जाना जाता था।
- वैदिक काल में इस क्षेत्र में पायी जाने वाली जनजातियों में प्रमुख असुर, खडि़या एवं बिरहोर थी। इस समय जनजातियों के लिए ‘असुर’ शब्द का प्रयोग किया जाता था।
वैदिक काल को दो कालों में विभाजित किया गया है-
- ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.)
- उत्तर प्रदेश काल (1000-600 ई.पू.)
ऋग्वैदिक काल
- ऋग्वैदिक काल में यहाँ के लोग पशुचारण का कार्य करते थे। इस खण्ड में झारखण्ड (Jharkhand) क्षेत्र को कीकटानाम दशो अनार्य’ कहा जाता था।
- ऋग्वैदिक के अनुसार यहाँ की जनजातियाँ लिंग पूजा करती थी, इसी कारण यहाँ के जनजातियों को शिश्नोदेवा (लिंग पूजक) कहा जाता था।
उत्तर वैदिक काल
- उत्तरवैदिक काल में कीकट प्रदेश कई भागों में विभक्त था, जैसे- मगध, कलिंग, अंग, पुण्डू आदि। इस समय यहाँ के निवासियों को ‘व्रात्य’ कहा जाता था।
- उत्तर वैदिक काल के ग्रंथों (यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक उपनिषदाें) से झारखण्ड के अतिरिक्त जो जानकारियाँ मिलती हैं उनमें से एक महत्त्वपूर्ण जानकारी यह है कि इस युग में आर्य सभ्यता धीरे-धीरे-पूर्व और दक्षिण की ओर फैली।
- निश्चय ही आर्यों का प्रसार वैदिक काल में झारखण्ड (Jharkhand) तक हुआ होगा। यही काल है झारखण्ड (Jharkhand) के लौह युग का जब असुरों की लौह संस्कृति अच्छी तरह प्रसारित हो चुकी है।
- ऐसा प्रतीत होता है की यहाँ की प्राचीन जनजाति असुरों के साथ-साथ आर्यों का बसाव भी झारखण्ड (Jharkhand) क्षेत्र में हुआ होगा।
झारखण्ड में असुर आदि जनजातियों का प्रवेश
- झारखण्ड (Jharkhand) प्रारम्भ में जंगल-झाड़ों के कारण आदिवासियों के लिए प्रिय स्थल था। यहाँ पर जनजातियों का प्रवेश भिन्न-भिन्न कालों में हुआ क्योंकि आर्यों द्वारा इन जनजातियों को इनके मूल स्थान से भगा दिया गया जिसके पश्चात् से भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न स्थानों पर आकर स्थायी रूप से बस गए।
- झारखण्ड (Jharkhand) के प्राचीन जनजातियों में असुर, खडि़या, बिरहोर तथा बिरजिया है। इन जनजातियों में ‘असुर’ जनजाति प्राचीनतम जनजाति है। इसके पश्चात् कोरबा जनजाति का झारखण्ड (Jharkhand) में आगमन हुआ। बाद में आने वाली जनजातियों में मुण्डा, हो, उराँव आदि जनजातियाँ है।
- संभवतः ऐसा माना जाता है कि ‘असुर’ जनजाति के सभ्यता का विनाशक ‘मुण्डा’ जनजाति के लोग थे। 1000 ई.पू. तक झारखण्ड (Jharkhand) में उपलब्ध प्रायः सभी जनजातियों छोटानागपुर क्षेत्र में बस गयी सिवाय संथालों, खरवारों एवं चेरों को छोड़कर।
- पूर्वमध्यकाल में झारखण्ड के पलामू क्षेत्र में खरवार एवं चेरों जनजाति, हजारीबाग क्षेत्र में संथाल जनजाति तथा ब्रिटिश शासन काल में संथाल जनजाति संथाल परगना में बसे।
झारखण्ड में धार्मिक आंदोलन
- छठी सदी ई.पू. में हुए धार्मिक आंदोलन का झारखण्ड (Jharkhand) पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इस आंदोलन को निम्नवत् दो चरणों में देखा जा सकता है-
- जैन धर्म
- बौद्ध धर्म
जैन धर्म
- झारखण्ड (Jharkhand) में जैन धर्म का प्रभाव अत्यधिक है क्योंकि झारखण्ड का सीधा-सीधा संबंध जैनियों के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से है।
- 717 ई.पू. में जैनियों के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का निर्वाण झारखण्ड के गिरिडीह जिले के इसरी के निकट एक पहाड़ी पर हुआ था। इन्हीं के नाम पर उस पहाड़ी का नाम पार्श्वनाथ या पारसनाथ पहाड़ पड़ा।
- छोटानागपुर का मानभूम (वर्तमान में धनबाद) जैन सभ्यता एवं संस्कृति का केन्द्र था परन्तु इस धर्म का प्रचार-प्रसार संपूर्ण झारखण्ड में था क्योंकि जैन संस्कृति के अवशेष झारखण्ड (Jharkhand) के बड़म, बलरामपुर, परा, कतरास आदि में भी दृष्टिगोचर होते हैं।
- पलामू में इस धर्म का प्रभाव कम दिखाई देता है जिसका कारण जैन धर्म के केन्द्रीय स्थल मानभूम से दूर होना परन्तु पलामू के सतबरवा के निकट हनुमाण्ड गाँव में जैनियों के कुछ पूजा स्थल प्राप्त हुए है।
- सिंहभूम के आरम्भिक निवासी जैन मतावलम्बी थे जिन्हें ‘सरक’ कहा जाता था। ‘सरक’ शब्द श्रावक का अपभ्रंश शब्द है। गृहस्थ जैन मतावलम्बी को श्रावक कहा जाता था। कुछ समय पश्चात् सरक को हो ‘जनजाति के लोगों ने इन्हें सिंहभूम क्षेत्र से बाहर निकाल दिया।
- मानभूम जिले के फाइनल सर्वे सेटलमेंट रिपोर्ट (1925) में यह उद्धृत है कि इस क्षेत्र के प्रमुख जैनियों ने प्रमुख नदियों के संगम पर जैन मंदिरों का निर्माण करवाया था।
- जैन ग्रंथ आचरांग सूत्र में छोटानागपुर सहित बंगाल क्षेत्र को राज अथवा लाज क्षेत्र कहा गया है। जैन ग्रंथ आचारंग सूत्र में यह उल्लेखित है कि उन्होंने लाज क्षेत्र में भी भ्रमण किया था किन्तु उन क्षेत्रें में वहाँ धृष्ट जनों ने उनका अच्छा स्वागत नहीं किया था।
- धृष्ट लोग उन पर कुत्ता छोड़ देते थे तथा पत्थर मारते थें। आचारंग सूत्र में उल्लेखित धृष्ट जन निश्चित ही यहाँ की जनजातियाँ रहीं होंगी।
- कर्नल डाल्टन ने भी कंसाई नदी क्षेत्र में पकबीरा में दिगम्बर जैन मूर्तियों को देखा था। उन्होंने बोडाम, पालमा और करी नामक स्थानों की भी चर्चा की हैं।
बौद्ध धर्म
- जैन धर्म की तरह बौद्ध धर्म का भी झारखण्ड (Jharkhand) पर गहरा प्रभाव पड़ा बौद्ध धर्म का प्रसार झारखण्ड में हुआ था इसका प्रमाण यहाँ उपलब्ध अनेक बुद्ध मूर्तियाँ, बौद्ध स्मारक और बौद्ध अवशेषों से मिल जाता है। महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ई.पूर्व में हुआ था।
- बुद्ध को 35 वर्ष की आयु में ज्ञान की प्राप्ति हुई थी वह समय था 528 ई.पू. का। गया में ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही संभवतः उनका झारखण्ड (Jharkhand) में प्रवेश हुआ होगा।
- पलामू, मानभूम (धनबाद), राँची, हजारीबाग, चतरा आदि क्षेत्रें में उनका भ्रमण हुआ होगा जिसके कारण इन क्षेत्रें में उनके अनेक स्मारक एवं मूर्तियाँ देखी जाती है।
- इस प्रकार झारखण्ड (Jharkhand) से अनेक बौद्ध अवशेष प्राप्त हुए है। धनबाद बौद्ध धर्म का केन्द्र बिन्दु था। धनबाद जिले के दियापुरदालमी एवं बौद्धपुर से बौद्ध धर्म के अनेक स्मारक प्राप्त हुए है जिसमें बौद्धपुर का बुद्धेश्वर मंदिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
- झारखण्ड (Jharkhand) के पलामू जिले के मूर्तिगाँव से सिंह-शीर्ष प्राप्त हुए है जो सांची स्तूप के द्वार पर उत्कीर्ण सिंह-शीर्ष के समान है। हजारीबाग जिला क्षेत्र में जी.टी. रोड पर बरही के निकट अवस्थित सूर्यकुण्ड गाँव से बुद्ध की प्रस्तर मूर्तियाँ मिली है।
वज्रयान शाखा
- रजरप्पा के छिन्न मस्तिका मंदिर बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा से संबंधित है। चतरा के ईंटखोरी प्रखण्ड में भद्रकाली मंदिर के आस-पास बौद्ध धर्म से संबंधित कई प्राचीन अवशेष प्राप्त हुए है।
- राँची जिले के खूँटी के वेलवारदाग ग्राम से बौद्ध बिहार का अवशेष प्राप्त हुआ है। सरायकेला के ईचागढ़ से बौद्ध देवी ‘तारा’ की मूर्ति प्राप्त हुई है। इस मूर्ति को राँची संग्रहालय में संग्रहित किया गया है।
- जोन्हा जल प्रपात के ढलान से बुद्ध की एक मूर्ति प्राप्त हुई है। जमशेदपुर के पटम्बा ग्राम से बुद्ध की दो मूर्तियाँ प्राप्त हुई है।
- गुमला जिला के कटुंगा ग्राम से बुद्ध की एक मूर्ति प्राप्त हुई है। इस प्रकार उपरोक्त बातों से स्पष्ट है कि इस जनजातीय प्रदेश में बौद्ध धर्म का प्रसार था।
- मौर्योत्तर काल में बौद्ध की अच्छी स्थिति थी, लेकिन जब समुद्रगुप्त ने इस जनजातीय क्षेत्र को जीता तो बौद्ध धर्म का पतन प्रारंभ हो गया।
- पुनः बंगाल का कट्टर शैव शासक शशांक ने झारखण्ड (Jharkhand) में शैव धर्म का अधिपत्य कायम किया तो कई बौद्ध मूर्तियों को नष्ट कर दिया पुनः जब पाल शासक आए तो व्रजयान शाखा का बौद्ध धर्म फलने-फूलने लगा।
- शासकों के आक्रमणों के फलस्वरूप बौद्ध धर्म का पतन होता गया। और अंततः हिंदू धर्म के बाद बौद्ध धर्म रह गया।
मगध साम्राज्य
- इस समय झारखण्ड (Jharkhand) क्षेत्र का राजा जरासंघ था, यह ‘असुर’ जाति से संबंधित था। इसका शासन क्षेत्र अंग, कलिंग, बंग, पुण्डू (झारखण्ड) तथा चेदि (छत्तीसगढ़) आदि में था।
- इसका साम्राज्य विस्तार दक्षिण में कर्ण सुवर्ण (सिहंभूम) तक विस्तृत था। यह शैव धर्म का उपासक था। जरासंघ महाभारत कालीन मगध नरेश था। जरासंघ की मृत्यु पाण्डुपुत्र भीम द्वारा महाभारत युद्ध से 14 वर्ष पूर्व 1220 कलि संवत में हुई थी।
हर्यक वंश (1545 ई.पू.-412 ई.पू.)
- मगध साम्राज्य के उत्कर्ष के समय हर्यक वंश का शासक बिम्बिसार अजातशत्रु एवं उदायिन आदि के समय झारखण्ड (Jharkhand) का इतिहास लगभग मौन है।
- प्राप्त बौद्ध ग्रंथों के अनुसार ‘अजातशत्रु’ अपने जीवन के अन्तिम पड़ाव में वह झारखण्ड क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार की इच्छा व्यक्त किया था।
शिशुनाग वंश (412 ई.पू.-345 ई.पू.)
- शिशुनागवंशीय राजाओं ने मगध साम्राज्य पर लगभग 360 वर्षों तक शासन किया। इतिहासकार शरत चंद्र राय के अनुसार ‘असुर’ एवं शिशुनाग वंश के कमजोर पड़ने के पश्चात् पुण्ड्र प्रदेश अथवा आधुनिक झारखण्ड (Jharkhand) प्रदेश में मुण्डा जनजातियों ने प्रवेश किया।
- इस समय लोहा एवं लोहे के हथियार की आपूर्ति मगध साम्राज्य को झारखण्ड (Jharkhand) प्रदेश से ही किया जाता था।
नन्द वंश (344 ई.पू. 322 ई.पू.)
- मगध साम्राज्य नन्द वंश के समय झारखण्ड (Jharkhand) का अभिन्न अंग था। नन्द वंश के राजाओं ने इस क्षेत्र (पुण्ड्र प्रदेश) का उपयोग लकडि़यों, जंगली जानवरों एवं हाथियों के लिए किया।
- नन्द वंश के सेनाओं में हाथी झारखण्ड (Jharkhand) के वनों से भेजे जाते थे। नन्द वंश के समय झारखण्ड (Jharkhand) प्रदेश में बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण धर्मों का समान रूप से प्रचार-प्रसार हुआ।
मौर्य साम्राज्य
- चन्द्रगुप्त मौर्य (322 ई.पू. – 298 ई.पू.) ने अपने गुरु विष्णुगुप्त अथवा चाणक्य अथवा कौटिल्य की सहायता से नन्दवंश के अंतिम शासक घनानन्द को हराकर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।
- नन्दवंश के पास एक विशाल सेना थी जिसमें झारखण्ड (Jharkhand) के जनजातीय सैनिक एवं हाथी शामिल थे। वास्तव में मगध सैन्य सफलता का कारण इसमें जनजातीय तत्त्व था।
- कौटिल्य अपने ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में झारखण्ड (Jharkhand) क्षेत्र के लिए ‘कुकुट/कुकुट देश में गणतंत्रत्मक शासन व्यवस्था थी।
- मगध राज्य को झारखण्ड (Jharkhand) के हित में उपयोग करने जनजातियों को नियंत्रण में रखने हेतु एवं मगध के शत्रुओं से उसके गठबंधन को रोकने हेतु ‘आटविक’ नामक पदाधिकारी की नियुक्ति की गई थी।
- कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार इसके दक्षिण भाग में विभिन्न प्रकार की धातुएँ, जैसे- सोना, ताँबा, जस्ता, लौह आदि पायी जाती है।
- इसी कारण मगध से दक्षिण भारत जाने वाले व्यापारिक मार्ग झारखण्ड (Jharkhand) से होकर गुजरता था, जिस कारण झारखण्ड (Jharkhand) का व्यापारिक महत्त्व बढ़ गया था।
- अर्थशास्त्र के अनुसार ‘कुकुट देश’ में इन्द्रवानक नदी प्रवाहित होती थी। सभवतः यह शंख एवं दूब नदियों का इलाका था।
- कौटिल्य ने अपने इस ग्रंथ में इन्द्रवानक नदी की चर्चा करते हुए लिखा है कि इस नदी से ‘हीरे’ प्राप्त किए जाते थे।
- मौर्य शासक अशोक (273 ई.पू. 232 ई.पू. अपने 13वें शिलालेख में इस क्षेत्र को आटविक/आटवी/आटव के नाम से संबोधित किया है। इनके समय आटवी प्रदेश बघेलखण्ड से उड़ीसा के समुद्र तटीय इलाके तक विस्तृत था जिसके अन्तर्गत झारखण्ड क्षेत्र भी शामिल था।
- अशोक के समय जनजातियों पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण था। अशोक ने अपने कलिंग शिलालेख संख्या दो में उड़ीसा के निकटवर्ती अविजित जनजातीय समूह के विषय में चर्चा करते हुए कहा है कि ‘‘उन्हें मेरे लिए धम्म का आचरण करना चाहिए ताकि वे लोक एवं परलोक की प्राप्ति कर सके।’
- अशोक ने ‘रक्षित’ के नेतृत्व में धर्म प्रचारकों का एक दल ‘आटवी’ जनजातियों के मध्य भेजा था।
शुंग वंश (185 ई.पू. 73 ई.पू.)
- शुंग वंश की स्थापना 185 ई.पू. में पुष्यमित्र शुंग द्वारा अंतिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या के पश्चात् की गई।
- शुंग वंश के इतिहास की जानकारी पुराण, वाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित, कालिदास के मालविकाग्मिित्रम, पंतजलि के महाभाष्य, दिव्यवदान तथा इतिहासकार तारानाथ द्वारा प्राप्त होती है।
- कालिदास द्वारा रचित ‘मालाविकाग्निमित्रम्’ में पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र नायक है।
- वाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित के अनुसार पुष्यमित्र शुंग ने अपने स्वामी वृहद्रथ की हत्या की तथा अंतिम शुंग वंशीय शासक देवभूति की हत्याकर उसके मंत्री वासुदेव ने कण्व वंश की स्थापना की।
मौर्योत्तर काल
- मौर्योत्तर काल में विदेशी आक्रांताओं ने मध्य एशिया से होते हुए देश के उत्तर-पश्चिम मार्गों से यहाँ आकर अपना-अपना आधिपत्य स्थापित कर लिए।
- इन विदेशी आक्रांताओं से भारत का व्यापारिक संबंध था जिसमें प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर झारखण्ड प्रदेश इस व्यापारिक संबंधों में शामिल था।
- झारखण्ड (Jharkhand) के सिहंभूम जिले से प्राप्त रोमन साम्राज्य के सिक्के इसके विदेशी व्यापार की पुष्टी करते हैं। इसी प्रकार झारखण्ड (Jharkhand) के चाईबासा से प्राप्त ‘इण्डो- सिथियन’ सिक्के भी इसके विदेशी व्यापार की पुष्टि करते हैं।
कुषाण वंश
- कुषाणवंशीय सम्राट कनिष्क ने अपने प्रतिनिधि के रूप में नियुक्ति बिहार में की थी जो कनिष्क का क्षत्रप ‘वंशफर’ था। उसने पुलिन्दों को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था।
- झारखण्ड में कनिष्क कालीन सिक्के सिहंभूम तथा रांची जिले से प्राप्त होते हैं। इन सिक्कों की प्राप्ति से स्पष्ट होता है कि झारखण्ड (Jharkhand) क्षेत्र के पूर्ण अथवा अंशतः भाग कनिष्क के अधीन था।
- ईसा के प्रथम एवं द्वितीय शताब्दियों के कुषाणकालीन सिक्के राँची जिले से प्राप्त हुए है। तीसरी से छठी शताब्दी के पुरा कुषाणकालीन सिक्के झारखण्ड के कुछ क्षेत्रें से प्राप्त हुए है, लेकिन उन सिक्कों पर किसी राजवंश अथवा राजा का जिक्र नहीं है।
गुप्त काल
- कुषाणों के पतन के पश्चात् गुप्त साम्राज्य का उदय हुआ जिसकी स्थापना श्री गुप्त ने की। इस वंश के महान शासकों में एक शासक समुद्र गुप्त था। समुद्रगुप्त के दरबार में प्रसिद्ध कवि हरिषेण रहता था, जिसने इलाहाबाद (प्रयाग) के प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के विजय अभियानों का उल्लेख किया है। यह अभिलेख स्तम्भ लेख है।
- समुद्रगुप्त के इन विजय अभियानों में एक आटविक विजय थी। आटविक प्रदेश का बघेलखंड से उड़ीसा समुद्रतटीय आटविक क्षेत्र तक विस्तार है जिसके अन्तर्गत झारखण्ड क्षेत्र शामिल है।
- समुद्रगुप्त ने आरविक प्रदेश के शासक को पराजित किया तथा उसके साथ ‘परिचारकीकृत’ नीति का पालन किया। प्रयाग प्रशस्ति में छोटानागपुर को ‘मुरुंड़ देश’ कहा गया है।
- गुप्त वंशीय शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के समय चीनी यात्री फाह्यान भारत भ्रमण पर आया था। इस समय चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन उज्जैन से लेकर बंगाल तक विस्तृत था जिसके अन्तर्गत झारखण्ड क्षेत्र भी शामिल था। इस झारखण्ड क्षेत्र को चीनी यात्री फाह्यान ने ‘कुक्कुटलाड’ कहा है।
- झारखण्ड (Jharkhand) क्षेत्र से प्राप्त गुप्तकालीन पुरातात्विक अवशेष है-हजारीबाग जिले के सतगाँव नामक गाँव के समीप के मंदिर, हजारीबाग जिले से महुदी पहाड़ पर पत्थरों को काटकर चार मंदिर तथा रांची के उत्तर अवस्थित पिठोरिया के पहाड़ी पर अवस्थित एक कुआँ।
गुप्तोत्तर काल (550-600 ई.)
- गुप्तोत्तर काल ‘शंशाक’ एक प्रतापी गौड़ शासक था जिसका साम्राज्य मिदनापुर (पश्चिम बंगाल) से लेकर सरगुजा (छत्तीसगढ़) तक विस्तृत था। शंशाक का शासन बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा में भी था। शशांक शैव धर्म का उपासक था।
- पश्चिम की तरफ से कन्नौज के शासक हर्षवर्द्धन द्वारा तथा पूर्व की तरफ से कामरूप के शासक भास्कर वर्मन द्वारा दबाए जाने के पश्चात् गौड़ शासक शंशाक अपनी राजधानी पौंड्रवर्धन छोड़कर दक्षिण बिहार के पहाड़ी क्षेत्र की ओर पलायन कर गया तथा ‘बरूणिका’ को अपने शक्ति का केन्द्र बनाया।
- शंशाक अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु था। इसने झारखण्ड में बौद्ध केन्द्रों एवं मूर्तियों को नष्ट कर दिया। इस प्रकार झारखण्ड में बौद्ध-जैन धर्म के स्थान पर हिन्दू धर्म की स्थापना की। इस प्रकार 10वीं सदी ई. तक झारखण्ड में हिन्दू धर्म पूर्ण रूप से स्थापित हो गया।
- शशांक शैव धर्म का उपासक होने के कारण यहाँ से प्राप्त मंदिरों में अत्यधिक मंदिर शैव (शिव) का है। इसके समय ब्राह्मणों द्वारा निर्मित मंदिर के अवशेष इसकी प्रमाणिकता को सिद्ध करते हैं, जैसे-पकबीरा का मंदिर दुलमी का मंदिर, तेलकुप्पी का मंदिर आदि।
- कन्नौज शासक हर्षवर्द्धन केे विस्तृत साम्राज्यों में काजांगल (राजमहल) का छोटा राज्य भी शामिल था। हर्षवर्धन के समय भारत यात्र पर आए चीनी यात्री हृेनसांग, हर्षवर्धन से पहली बार काजांगल में मिला था।
झारखंड का क्षेत्रीय राजवंश
- झारखण्ड (Jharkhand) के इतिहास में क्षेत्रीय राजवंशों का स्थान अति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इन क्षेत्रीय राजवंशों के बिना झारखण्ड का राजनीतिक इतिहास अधूरा है। इस प्रकार झारखण्ड (Jharkhand) का राजनीतिक इतिहास इस क्षेत्रीय राजवंशों के स्थापना के पश्चात् प्रारम्भ होती है।
- इन क्षेत्रीय राजवंशों में प्रथमतः मुण्डाओं ने राज्य-निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया इसके बाद अन्य क्षेत्रीय राजवंशों में छोटानागपुर खास का नागवंश पलामू का रक्सेल वंश एवं सिंहभूम का सिंह वंश ने राज्य स्थापित करने का कार्य किया। इनके अलावा अन्य छोट-छोटे राजवंशों ने राज्य स्थापित करने का कार्य किया।
झारखण्ड के क्षेत्रीय राज्य
झारखण्ड का मुण्डा राज
- झारखण्ड (Jharkhand) में आकर बसने वाले सबसे पुरानी जातियों में से एक मुण्डा जाति है। झारखण्ड में मुण्डाओं के द्वारा सर्वप्रथम राज्य-निर्माण का कार्य आरम्भ किया गया।
- ‘रिसा मुण्डा’ प्रथम मुण्डा नेता था जिसने जनजातीय राज्य निर्माण की प्रक्रिया को आरम्भ किया।
- ‘रिसा मुण्डा’ 12 हजार मुण्डाओं के साथ ‘सोना लेकन दिसुम’ (सुनहले देश की खोज) करने के लिए झारखण्ड आया था।
- इस समय इस क्षेत्र में नागों की प्रधानता थी, इसी कारण इसे नाग देश (नाग दिसुम) कहा गया है। रिसा मुण्डा ने ‘सुतिया पाहन’ को मुण्डाओं का शासक नियुक्त किया।
सुतिया नागखण्ड
- मुण्डा शासक सुतिया पाहन ने अपने नवस्थापित राज्य का नाम ‘सुतिया नागखण्ड’ रखा, इस राज्य को उसने सात गढ़ो में विभाजित किया-
- लोहागढ़ – लोहरदगा
- हजारीबाग – हजारीबाग
- मानगढ़ – मानभूम
- सुरगुमगढ़ – सुरगुज्जा
- सिंहगढ़ – सिंहभूम
- पालुनगढ़ – पलामू
- केसलगढ़
- सुतिया पाहन ने इन सात गढ़ों को 21 परगनों में विभाजित किया जो निम्नवत् है- दोइसा, गंगपुर वेलखादर, सुरगुजा पोरहट, ओमदंडा उदयपुर, खुखरा, जसपुर, गंगपुर, बिरना, बेलखादर गिरना, सोनपुर, लचरा, लोहारडीह बोनाई, तमाड़ बेलसिंग चंगमंगकर एवं कोरिया।
मुण्डाओं की शासन व्यवस्था
- मुण्डाओं की अपनी पारम्परिक शासन व्यवस्था थी। मुण्डाओं के झारखण्ड में आगमन के पश्चात् मुण्डाओं ने जंगलों को साफ कर ‘खुटकट्टी गाँव’ का निर्माण किया तथा इनके भू-स्वामी को ‘सूत-कट्टीदार कहते थे।
- ये लोग गणतंत्र के समर्थक थे। मुण्डाओं की शासन व्यवस्था पारम्परिक पंचायती व्यवस्था थी जिसके ग्राम पंचायत को ‘पहड़ा पंचायत’ कहा जाता था।
- इस पंचायत में प्रायः अनुभवी बुद्ध लोग रहते थे। तथा इनके निर्णय सभी प्रकार के मामलों में मान्य होता था। पहड़ा पंचायत का निर्माण 5 से 21 गाँवों को मिलाकर किया जाता था। गाँवों की संख्या में वृद्धि भी की जा सकती थी।
- मुण्डाओं के शासन व्यवस्था को संचालित करने हेतु निम्नवत् प्रमुख पद निर्धारित किए गए थे-
- हातु मुण्डा: मुंडा गाँव का प्रधान
- मुखिया: पंचायत का प्रधान
- पाहन: मुण्डाओं का पुजारी इसका पद अतिमहत्त्वपूर्ण था। यह धार्मिक क्रियाकलापों के साथ-साथ हातु पंचायत के बैठकों में भी इसकी भूमिका होती है।
- पहड़ा पंचायत: हातु पंचायत से बड़ा पंचायत।
- पहड़ा राजा: पहड़ा पंचायत का सर्वोच्च अधिकारी। इसे ‘मानकी’ भी कहते थे। इसे सर्वोच्च न्यायपालिका विधायिका एवं कार्यपालिका माना जाता है।
- दीवान
- कोतवाल
- दरोगा
- कर्ता
- पाण्डे
- लाल: ये पद पहड़ा पंचायत के सर्वोच्च अधिकारी पहड़ा राजा के सहयोग हेतु बनाया गया था। ये लोग गाँव के बीच में बनाए गए पंचायत अखरा में बैठते थे। यह मुण्डाओं का सांस्कृतिक केन्द्र भी था। मुण्डा पंचायत में महिलाओं को स्थान नहीं दिया गया था। मुण्डा राज का अन्तिम राजा ‘मदरा मुण्डा’ था।
छोटानागपुर खास का नागवंश
- छोटानागपुर खास जनजाति का प्रमुख क्षेत्र था। यहाँ मुण्डाओं के स्थान पर स्थापित नागवंश छोटानागपुर में अग्रणी स्थान रखता था। ‘खुखरा’ नागवंश की पहली राजधानी थी। नागवंश की स्थापना को लेकर काफी विवाद है।
- मई 1789 में तत्कालीन नागवंशी महाराज दर्पनाथ साह ने भारत के गर्वनर जनरल को बताया की उनके आदि पुरुष या नागवंश के संस्थापक फणि मुकुट राय पुंडरीक नाग थे और वाराणसी की ब्राह्मण कन्या पार्वती के पुत्र थे। जिसे मुण्डा वंश के अंतिम शासक मदरामुण्डा एवं अन्य नेताओं द्वारा सर्वसम्मति से शासक चुना गया।
- जे. रीड़ के मतानुसार नागवंशी राज्य की स्थापना 10वीं सदी के आस-पास हुई है तथा इस वंश के संस्थापक फणिमुकुट राय थे।
- फणिमुकुट राय ने अपनी राजधानी सुतियाम्बे को बनाया तथा वहाँ एक सूर्य मंदिर की स्थापना करवायी। इनके शासन काल में 66 परगने थे। फणिमुकुट राय गैर आदिवासियों को नियंत्रित कर अपने राज्य में बुलाया था।
- गैर आदिवासियों में कायस्थ जाति के पांडे भवराय श्रीवास्तव को दीवान नियुक्त किया था, जिनका राज दरबार में महत्त्वपूर्ण स्थान था। फणिमुकुट राय ने वैवाहिक संबंधों के आधार पर शत्रु राज्यों पर विजय प्राप्त की।
- नागवंशी राज्य के पूर्व में पंचेत राज्य था जहाँ फणिमुकुट राय ने राजघराने में विवाह किया था तथा पश्चिम में क्योंझोर राज्य अवस्थित था।
- फणिमुकुट राय ने पंचेत राजघराने की सहयोग से क्योंझोर राज्य को जाते लिया। फणिमुकुट राय के पश्चात् मुकुट राय मदन राय एवं प्रताप राय नागवंशी शासक हुए।
- चौथा नागवंशी राजा प्रताप राय हुए जिन्होंने सुतियाम्बे से राजधानी बदलकर स्वर्णरेखा नदी के किनारे चुटिया ले गए। इन तमाम अवधि में अर्थात् नागवंशी राज्य व्यवस्था में शांति-सुरक्षा व समृद्धि बना रहा।
- भीम कर्ण नागवंशीय शासकों में एक प्रतापी शाक था। इसका समय 1095-1184 ई. था। भीम कर्ण पहला नागवंशीय राजा था जो अपनी उपाधि ‘राय’ के स्थान पर ‘कर्ण’ को धारण किया।
- उपाधि परिवर्तन करने का मुख्य कारण कल्चुरी राजवंश से सम्पर्क का परिणाम था। कल्चुरी नरेशों की उपाधि ‘कर्ण’ थी। इसने सुरगुज्जा के रक्सेल राजा से युद्ध किया।
- यह बरवा की लड़ाई के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में रक्सेल के नागवंशी शासक को भीमकर्ण ने पराजित किया और बरवा व पलामू के टोरी परगना पर नागवंशियों का कब्जा हो गया।
- भीमकर्ण ने राजधानी चुटिया से हटाकर खूंखरा स्थानांतरित किया दरअसल उस समय बख्तियार खिलजी झारखण्ड के रास्ते ही बंगाल के शासक लक्ष्मण सेन को पराजित किया था और भय था कि कहीं चुटिया पर भी आक्रमण ना कर दे। अतः राजधानी खुखरा ले गया। भीमकर्ण ने कई जलाशय का निर्माण किया था उसमें एक था-भीमसागर (राँची)।
- शिवदास कर्ण 15वीं सदी के प्रारम्भ में नागवंशी शासक बना। प्रमुख शासक बना। इसने 1401 ई- गुमला जिला के घाघरा में हापामुनि मंदिर की स्थापना की। यह मंदिर भगवान विष्णु की मूर्ति है।
- दिल्ली सल्तनत के लोदी वंश के समय नागवंशी शासक थे- प्रताप कर्ण (1451-69 ई.) छत्र कर्ण (1469-96 ई.) एवं विराट कर्ण। प्रताप कर्ण के समय घटवार राजाओं का विद्रोह।
- तामड़ राजा ने प्रताप कर्ण को किले में बंदी बनाया तथा राजधानी खुखराद की घेराबंदी की। खैरागढ़ के खरवार राजा वाघदेव ने प्रताप कर्ण की सहायता की तथा तमाड़ राजा के विद्रोह को दमनकर प्रताप कर्ण एवं किले को बंदी से मुक्ति दिलवाया।
- छत्र कर्ण ने कोराम्बे में वासुदेव (विष्णु) की मूर्ति की स्थापना की। बंगाल के प्रसिद्ध वैष्णव संत चैतन्य प्रभु ने छत्र कर्ण द्वारा बनावाएं गए वासुदेव की मूर्ति से आकृष्ट होकर मथुरा जाने के क्रम में 16वीं सदी के प्रारम्भ में झारखण्ड आए। इन्होंने पंचपरगना क्षेत्र में रूककर जनजातियों के मध्य अपने धर्म का प्रचार-प्रसार किया।
- आधुनिक काल में नागवंशीय राजाओं ने भिन्न-भिन्न स्थलों को राजधानी बनाकर राज करते रहे जो क्रमशः निम्नवत् है- सुतियाम्बे, चुटिया, खुखरा, दोइसा, पालकोट, पालकोट भैंरो एवं रातूगढ़। नागवंश की प्रथम राजधानी सुतियाम्बे तथा अन्तिम राजधानी रातूगढ़ थी।
नागवंश राज्य के संस्थापक एवं राजधानियाँ
संस्थापक राजा – राजधानी
- फणि मुकुट राय – सुतियाम्बे
- प्रताप राय – चुटिया
- भीम कर्ण – खुखरा
- दुर्जन शाह – दोईसा/डोइसा
- यदुनाथ शाह – पालकोट
- जगन्नाथ शाहदेव – पालकोट भौंरो
- प्रताप उदयनाथ शाहदेव – रातूगढ़
- सिहभूम का सिह वंश
सिंह वंश
- झारखण्ड (Jharkhand) के क्षेत्रीय राजवंशों में सिंह वंश का महत्त्वपूर्ण स्थान था। हो जनजाति के अनुसार सिंहभूम का नामकरण उनके कुल देवता सिंगबोगा के नाम पर हुआ जबकि सिंह वंशाें के सदस्यों का कहना है कि हो जनजाति के आगमन से पहले ही उनके राजवंश की स्थापना हो चुकी थी।
- सिंह वंश का इतिहास ‘वंश प्रभा’ लेखन के अनुसार सिंह लोग सिंहभूम के भूईयों तथा सरको के संपर्क में 693वीं सदी के आस-पास आए। इसके अनुसार सिंह वंश की दो शाखाएँ स्थापित हुई-
- पहली शाखा 8वीं सदी के प्रारम्भ में।
- दूसरी शाखा 13वीं सदी के प्रारम्भ में।
पहली शाखा
- पहली शाखा 8वीं सदी के आरम्भ में इन क्षेत्रें पर कब्जा कर लिया। ये पश्चिम भारत से आए राठौर राजपूत थे और इन्होंने पोरहट राज्य की स्थापना की। इस शाखा के संस्थापक काशी नाथ सिंह थे।
- प्रारम्भ में इस शाखा पर छोटानागपुर के नागवंशियों का प्रभाव था परन्तु बाद में स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे।
दूसरी शाखा
- इस वंश के दूसरी शाखा की स्थापना दर्पनारायण सिंह ने 1205 ई- में की।इनका शासन काल 1205-1262 ई- तक रहा। इसके बाद युधिष्ठिर राजा बने। इनका शासन काल संक्षिप्त रहा। पुनः इनके पुत्र काशीराम सिंह राजा बने जिन्होंने ‘पोरहट’ नाम से नई राजधानी बनाई।
- पुनः अच्युत सिंह राजा बने जिन्होंने सिंह राज्य की कुल देवी के रूप में पौरी देवी की स्थापना करवायी। इनके पश्चात् त्रिलोचन सिंह एवं अर्जुन सिंह प्रथम राजा बने।
- बनारस तीर्थ यात्र से वापस आ रहे अर्जुन सिंह प्रथम को मुसलमानों ने पकड़ लिया किन्तु बाद में इन्हें अपने राज्य वापस जाने की अनुमति दे दी। इनके पश्चात् सिंह वंश का शासक जगन्नाथ सिंह द्वितीय बना।
- इसका व्यक्तित्व उत्पीड़क स्वभाव का था। इसके उत्पीड़न के कारण भुइयाँ जनजाति के लोगों ने विद्रोह कर दिया।
- इसके पश्चात् सिंह वंश के राजा क्रमशः कृष्ण सिंह, अजय सिंह, शिकार सिंह, दायर सिंह, मान सिंह, अजय सिंह द्वितीय, शिवनारायण सिंह, लक्ष्मी नारायण सिंह एवं चित्र सिंह हुए।
पलामू का रक्सेल वंश
- रक्सेल वंश पलामू के दक्षिण पूर्वी भाग में अवस्थित था। इस वंश के लोग अपने को है“य वंश के राजपूत मानते थे जो राजपूताना से रोहतासगढ़ होते हुए पलामू में प्रवेश किए थे। ये लोग पलामू में प्रवेश करने पूर्व दो दलों में बटे हुए थे-
- पहला दल: महराजगंज एवं हरिहरगंज होते हुए देवगन में आकर अपने को स्थापित कर लिए।
- दूसरा दल: चतरा-पांकी होता हुआ कुंडेलवा में आकर अपने को स्थापित कर लिया।
- इस प्रकार रक्सेल की दो शाखाएँ स्थापित हुई-(1) देवगन (2) कुंडेलवा इस प्रकार रक्सेलों के देवगन शाखा ने देवगन किले का निर्माण करवाया तथा अपनी राजधानी बनायी।
- कुंडेलवा शाखा ने कुंडेलवा किले का निर्माण करवाया तथा उसे अपनी राजधानी बनवाया।
- इस समय दहला के कल्चुरियों ने पलामू के कुछ समीपवर्त्ती भागों पर अपना अधिकार जमा लिया था किन्तु अन्य भागों पर रक्सेलों का अधिकार था।
पलामू का चेरो राजवंश
- चेरो वंश की स्थापना भगवत राय ने किया था। 16वीं सदी के आरम्भ में चेरों का पलामू में आगमन हुआ। चेरों ने रक्सेल वंश को अपदस्थ कर अपने साम्राज्य की स्थापना की।
ढालभूम का ढालवंश
- पूर्वी सिंहभूम के ढ़ालभूम क्षेत्र में ढ़ाल राजाओं का शासन था। ढ़ाल वंश के संस्थापक के पिता धोबी जाति के थे एवं माता ब्राह्मण जाति की थी। इस वंश में नर बलि प्रथा विद्यमान थी।
खड़गडीहा राज्य
- खड़गडीहा राज्य की स्थापना हंसराजदेव ने 15वीं सदी ई- में की। हंसराजदेव दक्षिण भारत का रहने वाला था तथा इसका वैवाहिक संबंध उत्तरी बिहार के ब्राह्मण जमींदार परिवार में हुआ था।
- इसने बंदावत जाति के शासक को पराजित कर हजारीबाग के अधिकांश क्षेत्रें पर अधिकार कर लिया।
- मानवंशी शासकों का शासन क्षेत्र हजारीबाग एवं मानभूम था। दूध पानी शिलालेख, और गोविंदपुर शिलालेख से मानभूम के मानवंश की जानकारी मिलती है।
- मान राजाओं ने 13वीं सदी में राबर जनजातियों के ऊपर घोर अत्याचार किया। विशेष कर महिलाओं पर। अतः इसके काल में शबर जनजातियों ने मानभूम क्षेत्र को छोड़कर पंचेत क्षेत्र में अपना आश्रय बनाया।
रामगढ़ राज्य
- राज्य का संस्थापक बाघदेव सिंह थे। नागवंशी शासकों के दरबार में रहते थे, नागवंशी शासकाें से मतभेद होने पर इन्होंने रामगढ़ राज्य की स्थापना की।
- बाघदेव अपने शासन को स्थायित्व प्रदान करने हेतु समय-समय पर राजधानी बदलते रहे। इसकी प्रथम दूसरी-तीसरी राजधानी क्रमश सिसिया-उरदा-बादम, रामगढ़, ईचाक और पद्मा रही है।
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पंचेत राज्य
- पंचेत राज्य मानभूम का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य था। अनुश्रुतियों के अनुसार इस राज्य की स्थापना काशी नरेश के पुत्र ने की थी।
- काशीपुर नरेश की रानी जगन्नाथ पुरी की यात्र के क्रम में एक बच्चे को अरूण वन में जन्म दिया जिसे वर्तमान में पंचेत वन के नाम से जानते हैं।
- रानी बच्चे को इसी बन में छोड़कर जगन्नाथपुरी की ओर बढ़ गई। इस बच्चे का लालन-पालन कपिला गाय ने किया। इसी कारण इस राज्य का राज्य चिह्न कपिला गाय की पूँछ चांबर थी।
- इसी कारण इस राज्य के राजाओं को गोमुखी राजा कहा जाता था। संभवतः ये भी जाति में धोबी थे। बच्चा बड़ा होकर पंचेत राज्य की स्थापना की।