भारतीय अर्थव्यवस्थाः अंग्रेजों से पूर्व एवं पश्चात् Indian Economy: Before and After the British
औपनिवेशिक शासन की स्थापना के समय भारतीय अर्थव्यवस्था
- भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना 18वीं शताब्दी के मध्य में हुई। अंग्रेजों ने भारतीय अर्थव्यवस्था के आर्थिक ढाँच को पूर्णतः नष्ट कर दिया।
कृषि की स्थिति
- भारत कृषि प्रधान देश रहा है। 18वीं शताब्दी में भी भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का ही प्रभुत्व था।
- कुल जनसंख्या के लगभग 70 प्रतिशत भाग को कृषि क्षेत्र में ही अपनी जीविका प्राप्त करनी होती थी। इसके अलावा भी बहुत बड़ी जनसंख्या ऐसे कार्यों में लगी हुई थी जो कि प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर ही निर्भर थे।
उस समय भारतीय कृषि की प्रमुख विशेषताएँः
- कृषि मात्र जीवन-यापन का साधन थी।
- प्रमुखतः, खाद्यान्न फसलों की ही खेती की जाती थी।
- किसानों की अतिरेक फसलों की बिक्री के लिए संगठित मण्डी या बाजार नहीं पाए जाते थे।
- स्थानीय व्यापारी गांवों में व्यापार करते थे।
- संक्षेप में, किसान सामान्य जीवन व्यतित करते थे तथा कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर थे। किंतु कृषि में परंपरागत तकनीकों के प्रयोग के कारण कृषि उत्पादन निम्न स्तर पर था। इसके बावजूद भी किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर थी तथा ये सम्पूर्ण ग्रामीण समुदाय के भरण-पोषण में समक्ष थे।
उद्योग
- औपनिवेशिक शासन के पूर्व भले ही भारत एक कृषि प्रधान देश था किंतु यहाँ के उद्योग पर्याप्त रूप से विकसित थे। इनका विस्तार ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में था। जो निम्न हैं-
ग्रामीण उद्योग
- ग्रामीण उद्योग प्रमुखतः शिल्पकारों एवं कारीगरों द्वारा चलाए जाते थे। वे समूचे भारत में फैले हुए तथा कृषि से पूरी तरह से जुड़े हुए थे।
- कपड़ा बुनना, धान-कूटना, गन्ना पेरना, आदि ऐसे उद्योग थे जो सभी ग्रामीण क्षेत्रों में पाए जाते थे। इन उद्योगों में विशिष्टीकरण का अभाव था एवं साधारण उत्पादन तकनीकों का प्रयोग किया जाता था।
शहरी उद्योग
- भारत का प्रमुख उद्योग हथकरघा था। हथकरघे की इकाइयाँ समस्त भारत में फैली हुई थीं। प्रमुखतः, यह उद्योग ढाका (अब बांग्लादेश में), लखनऊ, अहमदाबाद, नागपुर एवं मदुरै में केंद्रित था। धातु उद्योग में पीतल, कांसा, आदि वस्तुओं का उत्पादन किया जाता था।
- यह उद्योग वाराणसी, नासिक, पुणे अहमदाबाद, विशाखापत्तनम, तंजौर आदि स्थानों पर केंद्रित था। जहाज-निर्माण का उद्योग भी भारत में विद्यमान था। सोने- चांदी का काम, जेवर, पत्थर का काम आदि उद्योग भी उन्नत अवस्था में पाए जाते थे।
बंगाल का सूती उद्योग
- मलमल एक विशेष प्रकार का सूती कपड़ा है। इसका मूल निर्माण क्षेत्र बंगाल, विशेषकर ढाका के आस-पास का क्षेत्र रहा है (यह नगर अब बांग्लादेश की राजधानी है)। ढाका के मलमल ने उत्कृष्ट कोटि के सूती वस्त्र के रूप में विश्व भर में बहुत ख्याति अर्जित की थी। यह बहुत ही महीन कपड़ा होता था।
- विदेशी यात्री इसे शाही मलमल या मलमल ख़ास भी कहते थे। इसका आशय यही था कि वे इस कपडे़ को शाही परिवारों के उपयोग के योग्य मानते थे।
उद्योगों की घरेलू व्यवस्था
- सभी उद्योग प्रायः घरेलू कारीगरों द्वारा ही चलाए जाते थे, वे सीमित पूँजी जुटा पाने में ही सक्षम थे तथा ग्राहकों की पसन्द के अनुसार उत्पादन करते थे।
- व्यवसाय प्रायः वंशानुगत होते थे। एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक इसी क्रम में उद्योगों का विस्तार होता रहता था।
घरेलू एवं विदेशी व्यापार
- देश में घरेलू व्यापार ज्यादा विकसित नहीं था। ग्रामीण क्षेत्र आत्म-निर्भर थे, अतः उनकी घरेलू व्यापार में भागीदारी नगण्य थी। अतः व्यापारिक क्रियाएं शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित थी।
- भारत दूसरे देशों से भारी मात्रा में व्यापार (External Trade) करता था। भारत से बड़ी मात्र में निर्मित वस्तुओं के निर्यात किए जाते थे।
स्वेज नहर के माध्यम से व्यापार
- स्वेज नहर उत्तर-पूर्वी मिस्र में स्वेज स्थल-संधि केआर-पार उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होने वाला कृत्रिम जलमार्ग है। यह भूमध्य सागर की मिस्र पत्तन पोर्ट सईद को लाल सागर की एक प्रशाखा स्वेज की खाड़ी से जोड़ता है।
- इस नहर से अमेरिका और यूरोप से आने वाले जलयानों को दक्षिण एशिया, पूर्वी अफ्रीका तथा प्रशांत महासागर तटवर्ती देशों के लिए एक छोटा और सीधा जलमार्ग सुलभ हो गया है। अब उन्हें अफ्रीका के दक्षिणी छोर की परिक्रमा नहीं करनी पड़ती।
- स्वेज नहर आज आर्थिक और सामरिक दृष्टि से विश्व का सबसे महत्त्वपूर्ण जलमार्ग है। वर्ष 1869 में इसके खुल जाने से परिवहन लागतें बहुत कम हो गईं और भारतीय बाजार तक पहुँचना सुगम हो गया।
- भारतीय कपड़ा, हथकरघे, कढ़ाई किए कपड़े, रेशमी कपड़े, धातु-पदार्थ एवं कीमती पत्थरों, आदि का बड़ी मात्र में फारस, सीरिया, अरब, आदि देशों को निर्यात किया जाता था।
- विदेशों को किए गए निर्यात के बदले में भुगतान सोने-चाँदी में किया जाता था। इस प्रकार बड़ी मात्र में सोना-चाँदी भारत में आते थे।
- भारतीय व्यापारियों द्वारा जारी की गई हुडियाँ विश्व-भर में स्वीकार की जाती थीं। जो भारत की अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में उच्च स्थिति को प्रदर्शित करता था।
परिवहन एवं संचार
- औपनिवेशक शासन के पूर्व भारत में परिवहन एवं संचार का विकास प्रर्याप्त नहीं था तथा अधिकांश व्यापार कच्ची-सड़कों के माध्यम से बैलगाड़ी द्वारा किया जाता है।
- जलमार्गों का विकास आंशिक रूप से गंगा एवं बह्मपुत्र नदी के द्वारा ही किया जाता था। इस कारण घरेलू व्यापार का विकास प्रर्याप्त रूप से नहीं हो पाया।
बैंकिग
- अंग्रेजों के आगमन से पूर्व बैकिग प्रणाली भारत में उपस्थित थी तथा इनका विकास शहरी क्षेत्रों में हुआ था। सभी बड़े बैंक शहरी क्षेत्रों में स्थित थे।
- यूरोपीय व्यापारी भी इन बैंकों द्वारा उपलब्ध करवायी गई सेवाओं पर ही निर्भर रहते थे। बड़े बैंकरों को जगत सेठ के नाम से जाना जाता था। जगत सेठ राजाओं और शासकों की वित्तीय आवश्यकताओं की आपूर्ति करते थे।
- भारतीय समाज में सामन्तवादी प्रवृत्तियां हावी थी। राजा- महाराजाओं द्वारा राजदरबारियों एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियों को विभिन्न गांवों के स्वामित्व अधिकार प्रदान कर दिए गए थे।
- ये भू-स्वामी राजा को लगान का भुगतान करने के लिए जिम्मेदार होते थे। ये भू-स्वामी भूमि पर खेती का काम किसानों से करवाते थे। किसानों का पूरी तरह से शोषण किया जाता था। सामन्तवाद के साथ ही पूँजीवाद के बीज भी विद्यमान थे।
सामाजिक संस्थाएँ
- आर्थिक जीवन सामाजिक संस्थाओं से प्रभावित भी होता है और सामाजिक संस्थाओं को प्रभावित भी करती है। इसलिए यह आवश्यक है कि उस समय की उपलब्ध सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डाला जाए। भारत के सामाजिक जीवन को प्रभावित करने वाली दो प्रमुख संस्थाएँ थींः
- जाति प्रथा, एवं
- संयुक्त परिवार प्रणाली।
स्वतंत्रता की पूर्व-संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था
- स्वतंत्रता की पूर्व-संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था एक पिछड़ी हुई, निर्भर एवं औपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था थी। इसके तत्कालीन स्वरूप की सही जानकारी निम्न सूचकों की सहायता से प्राप्त की जा सकती हैः

व्यापक गरीबी
- ब्रिटिश शासन के दौरान न केवल गरीबी सब तरफ से फैल गई थी बल्कि उससे भी भयावह स्थिति यह थी कि गरीबी और बढ़ती जा रही थी और सरकार उसके उपचार के लिए कोई उपाय नहीं सोच रही थी।
- गरीबी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था गतिहीन हो गई थी। भारतीय अर्थव्यवस्था में व्याप्त गतिहीनता का बोध ब्रिटिश काल में प्रति-व्यक्ति आय की वृद्धि दर से भी हो सकता है। निःसन्देह गरीबी बहुत ही व्यापक रूप में फैली थी।
अकाल
- अकाल का अर्थ होता है जिन्दा रहने के लिए आवश्यक खाद्यान्न की न्यूनतम मात्र का भी उपलब्ध न होना। ऐसी स्थिति तब उत्पन्न होती है जब देश में व्यापक स्तर पर सूखा पड़ता है अथवा इसी प्रकार की कोई अस्वाभाविक घटना होती है।
- 1770-1900 ई. के बीच की अवधि में ही भारत में कुछ नहीं तो 22 प्रमुख अकाल पडे़। सबसे पहला अकाल सन् 1770 ई. में बंगाल में पड़ा। वहाँ की 35 प्रतिशत जनसंख्या इस अकाल की शिकार बनी।
- दूसरा अकाल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 1860-61 ई. में पड़ा जिसमें 20 लाख व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। 1865-66 ई. में उड़ीसा, बंगाल, बिहार और मद्रास में 10 लाख लोग अकाल के शिकार हो गये।
- सन् 1868-70 ई. के अकाल में 14 लाख से अधिक लोग उत्तर प्रदेश, बम्बई और पंजाब में मर गये। सबसे भंयकर अकाल सन् 1943 ई. में बंगाल में पड़ा।
- अकेले बंगाल में 30 लाख से अधिक व्यक्ति अकाल के शिकार हो गये। अंग्रेजी शासन के दौरान अकालों की बारम्बारता मे बहुत वृद्धि हो गयी थी।
निम्न राष्ट्रीय आय एवं प्रति-व्यक्ति आय
- स्वतंत्रता-उपरांत राष्ट्रीय आय समिति द्वारा भारत की राष्ट्रीय आय के विश्वसनीय अनुमान तैयार किए गए।
1950-51 में भारत की राष्ट्रीय आय (चालू कीमतो पर) (करोड़ रू.) |
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साधन लागत पर निवल घरेलू उत्पाद | 9,550 |
घटाएँ विदेशों में अर्जित आय | 20 |
राष्ट्रीय आय (या साधन लागत पर निवल राष्ट्रीय उत्पाद) | 9,530 |
- उपलब्ध विश्वसनीय आँकड़ों के अनुसार सन् 1949 ई. में भारत की प्रति-व्यक्ति आय मात्र 255 रूपये थी। यह कितनी कम थी इसके अनुमान अन्य देशों की प्रति-व्यक्ति आय से तुलना करके लगाए जा सकते है।
कुछ देशों में प्रति-व्यक्ति आय (वर्ष 1949 (रूपए में) |
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देश | प्रति-व्यक्ति आय |
भारत | 255 |
आस्टेलिया | 3,070 |
कनाडा | 4,210 |
फ्रांस | 2,280 |
जापान | 480 |
यू.के. | 2,700 |
अमरीका | 6,970 |
- भारत की प्रति व्यक्ति आय न केवल कम थी, बल्कि इसमें कोई वृद्धि भी नहीं हो रही थी।
प्रति व्यक्ति आय की वार्षिक दर (प्रतिशत) |
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अवधि | दर |
1860-1890 | 0-64 |
1890-1920 | 0-72 |
1920-1940 | 0-16 |
1940-1950 | (-) 0-33 |
विशाल जनसंख्या
- भारत में जनसंख्या वृद्धि के उपरान्त सारणी में प्रस्तुत आँकडों की सहायता से लगाए जा सकते हैं।
भारत की जनसंख्या |
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वर्ष | जनसंख्या (मिलियन) | वार्षिक वृद्धि की दर (%) |
1891 | 235.9 | – |
1901 | 235.5 | -0.02 |
1911 | 249.0 | 0.57 |
1921 | 248.1 | -0.04 |
1931 | 275.5 | 1 |
1941 | 312.8 | 1.35 |
1951 | 356.9 | 1.41 |
- सन् 1921 के बाद से भारत की जनसंख्या निरन्तर बढ़ती गई। सन् 1921 को महान विभाजक वर्ष (Year of Great Divide) का नाम दिया गया।
- जनसंख्या की वृद्धि दर तो बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन जनसंख्या का विशाल आकार ही चिन्ता का विषय बनता जा रहा था।
कृषि ऋणग्रस्तता
- कृषि जीविका का प्रमुख साधन थी। किन्तु कृषि क्षेत्र में जड़ता व्याप्त थी और इसकी उत्पादकता बहुत ही निम्न स्तर की थी। गतिहीनता का एक और प्रमाण कृषि उत्पादन की मात्र तथा उत्पादकता में भी मिलता है। कृषि उस समय जीविका का एकमात्र साधन थी।
- 1893-94 ई. से 1945-46 ई. के 52 वर्षों की अवधि में कृषि उत्पादन में कुल वृद्धि मात्र 10 प्रतिशत की हुई। खाद्यान्न की प्रति-व्यक्ति उपलब्धता 587 पौंड से कम होकर 399 पौंड रह गई थी। कृषि क्षेत्र में गतिहीनता घर किए हुए थी जो विस्तृत रूप से फैली हुई गरीबी के रूप में दिखाई देती थी।
उद्योग/धन का बाह्य निष्सकासन
- ब्रिटिश शासन के दौरान औद्योगिक क्षेत्र की अवहेलना की गई थी। सन् 1951 ई. में भारत में कुछ गिने-चुने बडे़ उद्योग थे। लघु उद्योग व्यापक स्तर पर फैली हुई थी।
- यह ब्रिटिश शासन की नीतियों की ही देन थी कि बड़ी मात्र में कच्चे माल के भंडार उपलब्ध होने के बावजूद भी भारत में औद्योगिक विस्तार नहीं हो पाया। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में विकसित आधुनिक उद्योगों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीः
उद्यमों का चंद हाथों में केन्द्रीकरण-
- इस अवधि में व्यापार, उद्योग एवं बैंकिंग क्षेत्र में जो प्रगति हुई है उनमें से अनेक उपक्रमों का स्वामित्व गिने-चुने उद्यमियो का ही था। इसके विपरित इंग्लैड, फ्रांस, जर्मनी एवं अमरीका आदि देशों में केन्द्रीकरण की प्रवृत्तियाँ अर्थव्यवस्थाएँ विकसित होने के बाद ही दिखलाई देने लगी थीं।
- भारत में उद्योंगों की स्थापना के तुरन्त बाद ही यह दिखाई देने लगे। बंगाल एवं बम्बई के दो प्रांतों में ब्रिटिश भारत की लगभग एक-चौथाई जनसंख्या निवास करती थी। लेकिन समस्त बडे़ उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों की 66.8 प्रतिशत श्रमिक यहाँ रहते थे।
विदेशी पूँजी की प्रभुत्ता–
- बडे़ उद्योगों की स्थापना के लिए पूँजी की बड़ी मात्र में आवश्यकता होती थी और यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि निवेशक अपने साधनों से इसे जुटा सकेंगे, यह अनिवार्य था कि वे बैकों एव बड़ी वित्तीय फर्मों से सहायता लेते। भारतीय अर्थव्यवस्था के तहत भारतीय उद्योगों पर वित्तीय पूँजी प्रदान करने वाले उद्यमियों का नियंत्रण मजबूत हो गया।
- वित्तीय पूँजी, प्रबन्धकीय एजेंसी प्रणाली (Managing Agency System) द्वारा प्राप्त होती थी। इस प्रणाली में प्रबन्धकीय फर्में उद्यमों को सेवाएं प्रदान करती थीं और बदले में उन्हें पारितोषिक मिलता था। पारितोषिक की राशि अलग-अलग होती थी। किन्तु सामान्यतः यह बहुत अधिक होती थी।
कुछ केन्द्रों तक संकेद्रण–
- भारतीय उद्योगों का विकास कलकत्ता तथा बम्बई तक सीमित रह गया था। कुछ अर्थों में इन दोनों शहरों की अतिविकसित भी माना जा सकता है।
विकास का प्रतिरूप–
- ब्रिटिश शासन के दौरान, भारतीय अर्थव्यवस्था में जिन उद्योगों का विकास हुआ, उनका प्रतिरूप एक समान थाः-
- इनका विकास 1870 के दशक या उसके बाद ही हुआ।
- विदेशी प्रतिस्पर्धा के कारण ये विकसित नहीं हो पाए।
- प्रथम विश्व युद्ध के विकास के अनुकूल परिस्थितियाँ बनी। युद्ध के दौरान
- आयात रोक दिए गए थे, एवं
- वस्तुओं की माँग बढ़ चुकी थी। दो विश्व युद्धों के बीच की अवधि में मंदी की स्थिति बनी रही।
- इनका विकास तभी सम्भव हुआ जब इन्हें संरक्षण प्रदान किया गया।
- दूसरे विश्व युद्ध के दौरान तेज गति से विकास हुआ। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भारतीय उद्योगों नें भारी मात्र में लाभ कमाए। विदेशी प्रतिस्पर्धा की कोई समस्या नहीं थी। युद्ध के दौरान कमाए लाभों के कारण भारती उद्यमियों ने अनेक दिशाओं में प्रगति कीः
- भारत में पूँजीकृत कम्पनियों की संख्या एवं उनकी प्रदत्त- पूंजी में भारी वृद्धि हुई। प्रायः सभी नई कम्पनियों पर भारतीय पूंजीपतियों का अधिकार था।
- भारतीय संयुक्त-पूँजी बैंकों की जमाओं एवं सम्पत्ति में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। भारतीय व्यावसायिक घरानों ने प्रमुख बैंकों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।
- भारतीय जीवन बीमा कम्पनियों ने तेज गति से प्रगति की।
- यूरोपीय फर्मों एवं उद्योगों के शेयरों एवं प्रबन्धकीय अधिकारों को भारतीय पूँजीपतियों ने बड़ी मात्र में खरीदा।
- साथ ही बड़े व्यावसायिक घरानों का उद्भव हुआ जिनके अधिकार में उद्यम थे। बड़े व्यावसायिकों ने एकाधिकार शक्ति अर्जित की लेकिन युद्ध के दौरान कमाएं लाभों को वे भी उत्पादन-सुविधाओं में निवेश करने में असमर्थ रहे।
- इसका प्रमुख कारण था पूँजीगत सामान बड़ी मात्र में देश में उपलब्ध नहीं था। इस बाधा को पार करने के लिए विदेशी निवेशकों के साथ गठंबधन भी किए गए। किन्तु, ये सब सफल नहीं हो पाए। कुल मिलाकर भारतीय पूंजीवाद का विस्तार नहीं के बराबर हो पाया।
आधारिक संरचना
- भारतीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत आर्थिक आधारिक संरचना का अध्ययन निम्न तीन शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता हैः
1- परिवहन,
2- ऊर्जा, एवं
3- सिंचाई।
परिवहन
- ब्रिटिश शासन के दौरान परिवहन प्रणाली के दो प्रमुख अंग थेः
(i) रेलवे, एवं
(ii) सड़कें।
रेलवे
- भारत में पहली रेलगाड़ी 16 अप्रैल 1853 ई. को चली। इसने कुल 34 किलोमीटर की दूरी तय की थी। अगले 100 वर्षों के दौरान भारत में रेलवे का उल्लेखनीय विस्तार हुआ। सन् 1950 ई. में भारत में 53,596 कि.मी. लम्बी रेल लाइनें बिछी हुई थीं।
- ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में आधुनिक क्षेत्र का विस्तार रेलवे के विकास के कारण ही सम्भव हो पाया। रेलवे ने भारतीय अर्थव्यवस्था के व्यवसायीकरण एवं बाजार अर्थव्यवस्था के विस्तार में भी योगदान दिया। रेलवे ने सामाजिक एवं आर्थिक एकीकरण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।
- रेलवे से आर्थिक विकास में जिस तरह के सहयोग की कल्पना की जा सकती थी वैसा हुआ नहीं। रेलवे ने आर्थिक विकास में योगदान तो दिया लेकिन यह नगण्य मात्र ही रहा। इसके लिए अंग्रेजों की नीति को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
- अंग्रेज भारत में उपलब्ध संसाधनों के औपनिवेशिक शोषण में अधिक रुचि रखते थे। रेलवे का विकास इस स्वार्थ की पुष्टि के रूप में ही किया गया था।
- ब्रिटिश शासन का देश भर में विरोध किया जाता था और यदा-कदा हिंसा पर उतारू भीड़ काबू से बाहर भी हो जाती थी।
- यह आवश्यक था कि तेज गति से चलने वाले परिवहन के साधन उपलब्ध होने चाहिए जिनके माध्यम से फौजों को जल्दी ही एक-जगह से दूरी जगह ले जाना सम्भव हो पाए। यह काम रेलवे ने किया।
- रेलवे के विकास में इंग्लैंड के पूँजीपतियों ने भारी राशि में निवेश किए और मुनाफे कमाए। लेकिन फिर भी अंग्रेजों ने स्वतंत्र भारत के लिए एक अमूल्यवान सम्पदा का विकास किया।
सड़कें
- भारत में सड़क विकास का काम बहुत पहले से ही होता रहा है और अंग्रेजों के आने से पहले ही भारत में सड़कों का एक अच्छा-खास जाल बिछा हुआ था, किन्तु आधुनिक भारत में सड़क निर्माण का काम सन् 1929 ई. में आरम्भ हुआ।
- सन् 1951 ई. में भारत में सड़कों की स्थिति की जानकारी सारणी से प्राप्त की जा सकती है।
वर्ष 1951 में भारत में सड़कें | (कि.मी.) |
राष्ट्रीय राजमार्ग | 22.0 |
राजकीय राजमार्ग | 43.0 |
अन्य सड़कें | 335.0 |
कुल | 400.0 |
- सारणी के अनुसार भारत में सड़कों का पर्याप्त विकास हुआ। लेकिन वास्तव में सड़क विकास में भारी कमियाँ देखने को मिलीं।
- भारत के आकार को देखते हुए सड़कें अपर्याप्त थीं। कुल सड़कों में एक बहुत बड़े अंश में कच्ची सड़कें पायी जाती थीं।
ऊर्जा
- सन् 1950-51 ई. में भारत में कुल ऊर्जा उत्पादन 6.6 बिलियन किलो वॉट हुआ। ऊर्जा उत्पादन के प्रमुख स्रोत थेः
- कोयला,
- तेल एवं गैस, तथा
- जल।
- ऊर्जा उत्पादन में इन तीनों साधनों का सापेक्ष योगदान सारणी से स्पष्ट हो जाता है।
1950-51 में ऊर्जा उत्पादन |
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साधन | (% भाग) |
कोयला | 57.1 |
तेल एवं गैस | 37.1 |
जल | 5.8 |
कुल | 100.0 |
- भारत जैसी अर्थव्यवस्था में जहाँ तेल और कोयले की भारी कमी है ऊर्जा के उत्पादन के लिए जल-संसाधनों का गहन उपयोग किया जाना चाहिए। लेकिन जैसा कि सारणी से स्पष्ट है भारत में ऐसा नहीं किया गया। कुल ऊर्जा-उत्पादन में जल-संसाधनों का योगदान मात्र 5.8 प्रतिशत था।
- राष्ट्रीय आयोजन समिति की रिपोर्ट के अनुसार भारत में उपलब्ध जल-ऊर्जा क्षमता के केवल 1.4 प्रतिशत भाग को ही विकसित किया गया, जबकि यूरोप और अमरीका के देशों में यह प्रतिशत 15 से 90 के बीच रहा।
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सिचाई
- भारत जैसे देश में जहाँ कृषि लगभग पूर्णतः वर्षा पर निर्भर करती है यह स्पष्ट है कि कृषि एवं समूचे आर्थिक विकास में सिचाई सेवाओं की उपलब्धि की अहम् भूमिका होती है। प्राचीन काल से ही भारत में सिंचाई के साधनों के विकास पर ध्यान दिया जाता रहा है।
- टैंकों और कुंओं का निर्माण सर्वोत्तम सामाजिक कल्याण का काम माना जाता था। मुगल शासन के दौरान नहरों का जाल बिछा दिया गया।
- सन् 1950-51 में निवल बोया गया क्षेत्र 291 मिलियन एकड़ था जिसमें लगभग 51.5 मिलियन एकड़ क्षेत्र पर सिंचाई की सुविधाएँ उपलब्ध थीं, अर्थात् केवल 17.7 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई की सेवाएँ उपलब्ध थीं। अंग्रेजों ने एक अनियोजित ढंग से भारत में सिंचाई सुविधाओं के विकास का काम किया।
- यदि किसी एक सुनिश्चित एवं नियोजित तरीके से सिंचाई कार्यक्रम को तैयार किया जाता और उसे लागू किया जाता तो निश्चय ही सन् 1947 में भारतीय अर्थव्यवस्था एक सुधरे रूप में हमारे सामने प्रकट होती।
वर्ष 1950-51 में भारत में सिंचाई के स्रोत |
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स्रोत | क्षेत्र | प्रतिशत |
नहरें | 20.7 | 40.2 |
टैंक | 8.8 | 17.1 |
कुएँ | 14.7 | 28.5 |
अन्य | 7.3 | 14.2 |
कुल | 51.5 | 100.0 |
सामाजिक आधारिक संरचना की स्थिति
- हम सामाजिक आधारिक संरचना की समीक्षा निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत करेंगे: शिक्षा एवं साक्षरता, तथा स्वास्थ्य सेवाएँ।
शिक्षा एवं साक्षरता
- सन् 1951 ई. में भारत में साक्षरता का अनुपात केवल 16.6 प्रतिशत था। पुरुषों में साक्षरता का अनुपात 24.9 प्रतिशत जबकि महिलाओं में यह मात्र 7.9 प्रतिशत था।
- अंग्रेजों द्वारा भारत में अपनी शिक्षा-प्रणाली लादी गई। इस प्रणाली में अनेक दोष थे जिनमें निम्नलिखित प्रमुख थेः
- शिक्षा-प्रणाली एक-तरफा थी। शिक्षा-प्रणाली के लाभ केवल सम्पन्न वर्ग तक ही सीमित रहे।
- समाज के गरीब एवं दुर्बल वर्ग को शिक्षा की सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करवायी गई।
- लड़कियों एवं महिलाओं के लिए शिक्षा की सुविधाएँ कुछ बड़े शहरों तक ही सीमित थीं।
- गुणात्मक दृष्टि से शिक्षा-व्यवस्था दुर्बल और दोषपूर्ण थी। मौलिक चिन्तन एवं नए विचारों के निर्माण को कोई महत्त्व नहीं दिया गया था।
स्वास्थ्य सेवाएँ
- शिक्षा के साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धि का भी घोर अभाव पाया जाता था। स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव के परिणामस्वरूप महामारियाँ आए दिन की बात बन गई थीं। मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर एवं मातृत्व मृत्यु दर सभी ऊँचे अनुपात में बनी रहीं।
- स्वास्थ्य सेवाएँ केवल कुछ शहरों तक ही सीमित थीं और इन शहरों में भी यह समाज के कुछ चुने हुए वर्गों को ही उपलब्ध हो पाती थीं।
व्यावसायिक ढाँचा
- ब्रिटिश शासन के दौरान, ग्रामीण एवं शहरी दस्तकारियों का तेज गति से पतन हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग कृषि की ओर फिर से भागने लगे। कृषि पर आश्रित रहने वाले व्यक्तियों की संख्या में असाधारण रूप से वृद्धि हुई।
- सन् 1891 ई. में भारत की कुल कार्यशील जनसंख्या का 60 प्रतिशत भाग कृषि पर निर्भर रहता था। 1901 में यह बढ़कर 65% और 1951 में 72 प्रतिशत हो गया था। इन आँकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि भारत अवनति की ओर जा रहा था।
- देश में कृषि योग्य जमीन की कमी महसूस होने लगी। बढ़ती जनसंख्या के दबाव के कारण कृषि में उत्पादकता का ह्रास हुआ। फलस्वरूप, अन्य देशों पर जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु- खाद्यानों के लिए भी निर्भर हो गए।
विदेशी व्यापार की संरचना और दिशा
- अंग्रेजों के भारत आने से पहले यहाँ के कपड़े तथा अनेक विलासिता और आरामदायक वस्तुओं का भारी मात्र में निर्यात होता था। अन्य देशों से इसके बदले में सोना और चाँदी प्राप्त होते थे। अंग्रेजी शासन की स्थापना के साथ ही भारत के विदेशी व्यापार की संरचना में अन्तर आ गया।
- भारतीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत भारत को उन वस्तुओं का आयात करने के लिए मजबूर किया गया जो कि कुछ ही समय पहले यह दूसरे देशों को भेजता था, जैसे सूती कपड़ा, चीनी, आदि।
- इसी प्रकार, देश से भारी मात्र में कृषि-जन्य पदार्थों और कच्चे माल का निर्यात किया जाने लगा। निर्यात की मुख्य वस्तुएँ पटसन, कपास, चाय, तिलहन, चमड़ा, तम्बाकू, खाद्यान्न, आदि थी। इसके अतिरिक्त देश से बड़ी मात्र में सोना चांदी भी बाहर भेजा जाने लगा।
- विदेशी व्यापार की संरचना से इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है कि देश के संसााधनों का अंग्रेजों ने दुरूपयोग किया। ऐसा करने से ही अंग्रेजों के स्वार्थों की संतुष्टि होती थी। अतः भारत ब्रिटिश साम्राज्य की कालोनी मात्र बनकर रह गया।
- भारतीय अर्थव्यवस्था के तहत भारत के विदेशी व्यापार की दिशा की भी थी। भारत के विदेशी व्यापार का अर्थ एकमात्र ब्रिटेन से लेन-देन तक ही सीमित रह गया था। अंग्रेज भारत से कच्चा माल लेते थे और भारत को निर्मित वस्तुएँ देते थे।
- भारत को अपने फन्दे में और अधिक मजबूती से जकड़ने के लिए अंग्रेजों ने भारत के दूसरे देशों के साथ होने वाले व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा दिए। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह ब्रिटेन पर निर्भर हो गयी।
- इस बात से स्पष्ट होता है कि 19वीं शताब्दी के अन्त में भारत के कुल आयात का लगभग 69 प्रतिशत भाग केवल इंग्लैंड से ही प्राप्त होता था। इसके अलावा ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन अन्य राज्यों से भी भारत को सामान भेजा जाता था।
- अतः व्यापार की दिशा भारत की इंग्लैंड के ऊपर बढ़ती हुई निर्भरता का सूचक बन गया था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद से अंग्रेजों की पकड़ कुछ ढीली पड़ने लगी। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति तक कई अन्य देशों ने भारत के साथ व्यापार सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे।
- इन देशों में अमरीका, जापान और जर्मनी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं किन्तु इन देशों के साथ बढ़ते हुए व्यापारिक सम्बन्धों के बावजूद भी भारत का विदेशी व्यापार इंग्लैंड के साथ ही बँधा हुआ था।
ब्रिटिश शासन की रचनात्मक भूमिका
- यद्यपि यह कहना सही है कि स्वार्थों ने अंग्रेजों को अन्धा बना दिया था और वे भारत के हितों को सदा ही ताक पर रखकर बैठे रहे, किन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रजों ने भारत के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक उत्थान में कुछ हद तक योगदान भी किया।
- प्रसिद्ध विचारक और चिन्तक कार्ल मार्क्स ने भारत में ब्रिटिश शासन को ‘इतिहास के अचेतक साधन’ की संज्ञा दी थी।
- ब्रिटिश शासन ने निम्न रूप में भारत के आर्थिक जीवन के विकास में योगदान दियाः
- पुरातन सामाजिक व्यवस्था का विनाश कर अंग्रेजों ने नवीन सामाजिक व्यवस्था के आगमन की आधारशिला रख दी थी।
- आधुनिक आर्थिक विकास नवीन सामाजिक व्यवस्था के ही अन्तर्गत हो सकेगा। पुरातन व्यवस्था इसके मार्ग में रोड़ा बनती है। नवीन सामाजिक व्यवस्था की एक देन यह थी कि जाति-प्रथा के बन्धन टूट गए।
- शिक्षा की ‘अंग्रेजी’ पद्धति देश में लाई गई। शिक्षा के प्रसार के साथ भारतवासियों में विकास और स्वतन्त्रता की चेतना जागी और उन्होंने अंग्रेजों की विघटनकारी नीतियों का विरोध करना आरम्भ कर दिया।
- भारत में रेल व्यवस्था अंग्रेजों की ही देन थी। यद्यपि अंग्रेजों ने रेल व्यवस्था को अपने स्वार्थों की पुष्टि का ही साधन माना था किन्तु बाद के वर्षों में रेल व्यवस्था ने देश के आर्थिक विकास में पर्याप्त योगदान दिया है।
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