भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian freedom struggle)
बेवेल योजना (जून, 1945)
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian freedom struggle) के अंतर्गत 6 मई, 1944 सी.ई. में स्वास्थ्य के आधार पर गाँधी जी को रिहा कर दिया गया। 1945 सी.ई. में एटली की सरकार आयी और वॉयसराय लिनलिथगो की जगह बेवेल आया।
- मई, 1945 सी.ई. तक सारे नेता छोड़ दिए गए। 14 जून को भारत शासन अधिनियम की ही तहत सरकार कुछ और सुधार लाना चाहती थी। इसी आधार पर 25 जून, 1945 को शिमला में सम्मेलन बुलाया गया।

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- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian freedom struggle) के अंतर्गत जिसे बेवेल योजना के नाम से जानते हैं। इसमें वॉयसराय ने एक प्रस्ताव रखा। वह था भारतीयों द्वारा गठित सरकार को शासन संचालन के लिए नियुक्त करना।
- इस सरकार को सुरक्षा और विदेश नीति के अतिरिक्त सारे अधिकार होंगे किंतु वायसराय को कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ होंगी। फिर भी यह आश्वासन दिया गया कि वायसराय इसका दुरुपयोग नहीं करेगा। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian freedom struggle) के अंतर्गत यहाँ तक तो योजना ठीक थी। परन्तु आगे इसमें कुछ तत्त्व प्रतिगामी भी थे। जैसे कांग्रेस और लीग दोनों को बराबर-बराबर प्रतिनिधित्व दिया गया।
- इसका अर्थ था कि वॉयसराय ने राजनीतिक समानता के स्थान पर साम्प्रदायिक समानता को स्वीकार किया। इतना कुछ होने के बावजूद भी कांग्रेस समझौते के लिए तैयार थी। किंतु अड़चन तब आई जब कांग्रेस ने अपने 5 प्रतिनिधियों में दो मुस्लिम प्रतिनिधि (मौलाना अबुल कलाम तथा खान अब्दुल गफ्रफार खाँ) को भेजना चाहा।
- जिन्ना ने गहरी आपत्ति जतायी। उनका मानना था कि भारतीय मुस्लिमों की एक मात्र प्रतिनिधि मुस्लिम लीग ही हो सकती है। इसलिए कांग्रेस को मुस्लिम प्रतिनिधि भेजने का कोई हक नहीं है।
- इसके अलावा मुस्लिम लीग ने एक प्रकार के साम्प्रदायिक वीटों की भी माँग की जिसमें अगर मुसलमान किसी निर्णय का विरोध कर रहे हों तो उसे पारित कराने के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता हो। इस तरह लीग अड़ी रही और वॉयसराय ने लीग के वीटो को स्वीकार करते हुए योजना स्थगित कर दी। परिणामतः मुस्लिम सम्प्रदायवाद का मनोबल और भी बढ़ गया।
राजगोपालाचारी फार्मूला (अप्रैल, 1944)
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian freedom struggle) के अंतर्गत जुलाई, 1944 में हिंदू महासभा के कड़े विरोध के बावजूद गाँधी जी ने राजगोपालचारी सूत्र के आधार पर जिन्ना से बातचीत करने का प्रस्ताव किया। यह सूत्र अप्रैल में प्रस्तुत किया गया था।
- इसके अनुसार युद्ध के पश्चात एक आयोग बिठाया जाये जो मुसलमानों के पूर्ण बहुमत वाले भारत के पूर्वोत्तर और पश्चिमोत्तर भागों से जुड़े हुए क्षेत्रों का सीमाँकन करे, ऐसे क्षेत्रों में सब निवासी इस संबंध में अपना मत दें कि क्या वे अलग पाकिस्तान चाहते हैं।
- अलग होने की स्थिति में कुछ सेवाओं जैसे कि प्रति रक्षा एवं संचार साधनों को साझा रखने पर सहमति हो और इस योजना को पूरी तरह तभी लागू किया जाए जब अंग्रेज पूर्ण रूपेण सत्ता हस्तांतरित कर दें। किंतु 30 जुलाई को जिन्ना ने 6 प्राँतों (पंजाब, सिंध, ब्लूचिस्तान, पश्चिमोत्तर सीमा प्राँत, बंगाल तथा असम) को अलग करके पाकिस्तान बनाने की अपनी माँग दुहराई जिसमें थोड़ा-बहुत फेरबदल किया जा सकता था।
- जिन्ना ने राजगोपालाचारी सूत्र की यह कह कर आलोचना की कि इसमें तो केवल छाया और छिलकें, कटा हुआ, विकलांग और सड़ा-गला पाकिस्तान दिया जा रहा था। उनका यह भी कहना था कि विभाजन को स्वतंत्रता प्राप्ति तक रोका जा सकता है। परिणामतः सितंबर, 1944 में गाँधी-जिन्ना वार्ता टूट गई। इस तरह 1945 में राजनीतिक अवरोध पैदा हो गया।
आजाद हिंद फौज
- आजाद हिंद फौज का विचार सबसे पहले मोहन सिंह के मन में आया। वे ब्रिटेन की भारतीय सेना के अफसर थे। जब ब्रिटिश सेना पीछे हट रही थी तो मोहन सिंह जापानियों के साथ हो गए।
- सिंगापुर पर जापान की विजय के पश्चात मोहन सिंह के प्रभाव क्षेत्र के अंदर 45 हजार लोग आजाद हिंद फौज में शामिल होने के इच्छुक थे। परंतु भारतीयों का नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों और भारतीय सैनिक अधिकारियों के बीच विभिन्न बैठकों में यह बार-बार स्पष्ट किया गया कि आजाद हिंद फौज कांग्रेस तथा भारतीय जनता के आह्वान पर ही हरकत में आएगी।
- 1 सितंबर, 1942 में मोहन सिंह के अधीन आजाद हिंद फौज के प्रथम डिविजन का गठन 16,300 सैनिकों को लेकर किया गया।
- जापानी तब तक भारत पर हमला करने के बारे में सोचने लगे थे और उन्हें भारतीयों का सैनिक रूप से संगठित होना लाभप्रद लग रहा था। लेकिन दिसंबर, 1942 तक आते-आते आजाद हिंद फौज की भूमिका के बारे में जापानी तथा भारतीय अधिकारियों के मध्य गहरे मतभेद पैदा हो गए।
- दरअसल जापानी चाहते थे कि भारतीय फौज 2000 सैनिकों की हो जबकि मोहन सिंह उसे 2 लाख तक ले जाना चाहते थे। अतः मोहन सिंह तथा निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया।
- आजाद हिंद फौज के गठन में एक जापानी सैन्य अधिकारी मेजर फूजीवारा का महत्त्वपूर्ण योगदान था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian freedom struggle) के अंतर्गत मोहन सिंह को इसके लिए तैयार किया कि वह भारत की स्वतंत्रता के लिए जापान के साथ मिलकर काम करे।
- मार्च, 1942 में टोक्यो में भारतीयों की एक कान्फ्रेंस बुलाई गई जिसमें इंडियन लीग की स्थापना की गई। इसके बाद बैंकाक में जून, 1942 में एक बैठक हुई जिसमें रास बिहारी बोस को लीग का अध्यक्ष चुना गया।
- वे 1915 से ही जापान में निर्वासित जीवन जी रहे थे। यहीं पर आजाद हिंद फौज के गठन का निर्णय लिया गया।
- आजाद हिन्द फौज का दूसरा चरण तब प्रारंभ हुआ जब सुभाष चन्द्र बोस सिंगापुर लाए गए। बोस ने 1941 में बर्लिन में इण्डियन लीग की स्थापना की। किंतु जब जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया तब कठिनाई उत्पन्न हो गई और बोस ने दक्षिण पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया।
- जुलाई, 1943 में वे पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुंँचे। वहाँ से उन्होंने दिल्ली चलो का विख्यात नारा दिया और 21 अक्टूबर, 1943 को उन्होंने आजाद हिन्द सरकार एवं भारतीय राष्ट्रीय सेना आजाद हिन्द फौज की स्थापना की घोषणा की।
- पुरानी क्राँन्तिकारी आतंकवादी परम्परा के प्रतीक रूप में आजाद हिन्द सरकार में रास बिहारी बोस को एक सम्मानित स्थान दिया गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian freedom struggle) के अंतर्गत सुभाष की अस्थाई सरकार ने ब्रिटेन एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
- धुरी राष्ट्रों से इस सरकार को मान्यता मिल गयी। सुभाष चंद्र बोस ने रंगून एवं सिंगापुर में आई. एन. ए. के क्वार्टर स्थापित किए।
- आजाद हिंद फौज ने कुछ ही महीनाेंं में तीन लड़ाकू ब्रिग्रेडें खड़ी कर लीं जिनके नाम गाँधी, आजाद तथा नेहरू पर रखे गए।
- शीघ्र ही अन्य ब्रिगेड स्थापित किये गए जिनके नाम सुभाष बिग्रेड तथा रानी झाँसी ब्रिगेड रखा गया। इनमें रानी झाँसी ब्रिगेड महिलाओं से निर्मित थी।
- नेता जी की संपूर्ण फौज में उनके अलावा महत्त्वपूर्ण कमांडर थेµ शाहनवाज खान, गुरुबख्श सिंह ढिल्लो एवं प्रेम कुमार सहगल।
- 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिन्द के रेडियो के एक प्रसारण में महात्मा गाँधी को संबोधित करते हुए सुभाष ने कहा भारत की स्वतंत्रता के लिए अंतिम युद्ध शुरू हो चुका है।
- हमारे राष्ट्र पिता भारतीय स्वतंत्रता के इस पवित्र युद्ध में हमें आपका आशीर्वाद चाहिए। मार्च और जून, 1944 के बीच आजाद हिंद फौज भारतीय भूमि पर सक्रिय रही।
- शाहनवाज खाँ ने जापान के साथ इण्डो वर्मा क्षेत्र का घेरा डाला और इम्फाल का अभियान किया। अब जापान की हार होने लगी। 15 या 16 अगस्त, 1945 को सुभाष एक जहाज पर अज्ञात दिशा की ओर उड़े फिर उनका नाम नहीं सुना गया। इनमें से पहला मुकद्दमा नवंबर, 1945 में आजाद हिन्द के सैनिकों पर चलाया गया।
- नवंबर, 1945 के मुकद्दमे में शाहनवाज खाँ, गुरुबख्श सिंह ढिल्लो तथा प्रेम कुमार सहगल को एक साथ मुकदमें चलाने के लिए लाल किले में बनी अदालत में खड़ा किया गया। संपूर्ण देश में इनके पक्ष में सहानुभूति की लहर दौड़ गई। नेहरू ने इन गुमराह देश भक्तों के प्रति उदारता दिखाने की अपील की।
- कांग्रेस ने आजाद हिंद फौज समिति का गठन किया और रिहा कर दिये गए फौजियों को आर्थिक सहायता देने तथा उनके लिए रोजगार की व्यवस्था करने के लिए आजाद हिंद फौज राहत एवं जाँच समिति भी बनाई।
- जब लाल किले में ऐतिहासिक मुकद्दमा शुरू हुआ तो भूलाभाई देसाई बचाव पक्ष की अगुवाई कर रहे थे। सप्रू, काटजू तथा आसफ अली उनके सहायकों में से थे।
- कार्यवाही के पहले दिन जवाहर लाल नेहरू भी 25 साल पश्चात वकीलों की पोशाक पहन कर अदालत में मौजूद थे। इस मुकदमे को सभी राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त हुआ। मुस्लिम लीग भी आंदोलन के साथ थी लेकिन मुख्यतः एक मुसलमान फौजी रशीद अली के कारण।
- कम्युनिस्ट पार्टी यद्यपि प्रारंभ में अपना समर्थन देने में हिचकिचा रही थी लेकिन कलकत्ता के युवा साम्यवादी नेता गौतम चट्टोपाध्याय, सुनील मुंशी आदि व्यक्तिगत रूप से पहले से ही आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे। इस आंदोलन को यूनियनवादी, अकाली दल, जस्टिस पार्टी, हिंदू महासभा, सिख लीग तथा अदरार पार्टी से भी समर्थन मिला।
- कमांडर इन चीफ ऑचिलनेक का मानना था कि भारतीय अधिकारियों में शत् प्रतिशत की तथा भारतीय जवानों में अधिकांश की सहानुभूति आजाद हिंद फौज के साथ थी।
- अंततः सरकार को दबाव के आगे झुकना पड़ा तथा अपनी नीति को संशोधित करते हुए घोषणा करनी पड़ी कि आजाद हिंद फौज के केवल उन्हीं सदस्यों पर मुकद्दमा चलाया जायेगा जिनके विरुद्ध हत्या एवं बर्बरता का अभियोग है। इसके तुरंत बाद जनवरी, 1946 में कैदियों के प्रथम समूह के विरुद्ध दिया गया फैसला वापस ले लिया गया।
- आगे फरवरी, 1946 में आजाद हिंद फौज के राशिद अली को सात साल की कैद की सजा के विरुद्ध कलकत्ता के अंदर मुस्लिम लीग से संबद्ध छात्रों ने 1 फरवरी, 1946 को हड़ताल का आह्वान किया। आजाद हिंद फौज के नारे थे, जयहिंद और दिल्ली चलो। सबसे अधिक प्रसिद्ध सुभाष चंद्र बोस की वह घोषणा थी जिसमें उन्होंने कहा ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’
- 28 नवंबर को ब्रिटिश मंत्रिमंडल की भारत संबंधी उपसमिति ने एक संसदीय प्रतिनिधिमंडल गठित करने का निर्णय किया। 22 जनवरी, 1946 को एक अधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया गया कि भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए कैबिनेट मिशन भेजा जाए। इस बीच वेवेल ने एक ‘ब्रेक डाउन प्लान’ बनाना आरंभ कर दिया।
- इस योजना के तहत प्रस्ताव किया गया था कि दमन और पलायन के बीच का मध्यम मार्ग अपनाया जाए जिसके अनुसार ब्रिटिश सेना और अधिकारियों की पश्चिमोत्तर और पूर्वोत्तर भारत के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भेज दिया जाए और शेष भारत कांग्रेस को सौंप दिये जाएं।
शाही भारतीय नौसेना विद्रोह (फरवरी, 1946)
- 18 फरवरी, 1946 को बम्बई बंदरगाह में नौसैनिक प्रशिक्षण, पोत तलवार पर नाविक, खराब भोजन एवं नस्लवादी बर्ताव के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठे गए। अगले दिन यह हड़ताल कैंसल और फोर्ट बैरकों और बंबई बंदरगाह के 22 जहाजों में फैल गई।
- विद्रोहियों ने बेड़े के मस्तूलों पर तिरंगे चाँद और हसिया हथौड़ों के निशान वाले झंडे जो क्रमशः कांग्रेस लीग एवं कम्युनिस्ट झंडे के प्रतीक थे, को एक साथ लहराया।
- हड़ताली नाविकों ने एक नौसेना केन्द्रीय हड़ताल समिति का चुनाव किया जिसके प्रमुख एम. एस. खान थे। उनकी माँगों में बेहतर खाना तथा गोरे एवं भारतीय नाविकों के लिए समान वेतन की माँग की गई। साथ ही उन्होंने आजाद हिंद फौज के एवं अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई और इंडोनेशिया से सैनिकों के वापस बुलाए जाने की माँगे रखी।
- 20 फरवरी को इन्होंने अपने-अपने जहाजों में लौट जाने के आदेश का पालन किया जहाँ सेना के गार्डों ने इन्हें घेर लिया। अगले दिन कैंसल बैरकों में नाविकों द्वारा पेश तोड़ने का प्रयास करने पर लड़ाई प्रारंभ हो गई जिसके लिए गोला बारूद जहाज से प्राप्त हो रहा था।
- एडमिरल ग्रॉडफे ने विमान भेज कर उस जहाज को नष्ट कर देने की धमकी दी। उसी दिन तीसरे पहर भाई चारे के हृदयग्राही दृश्य देखने को मिले। लोगों की भीड़ गेटवे ऑफ इंडिया पर नाविकों के लिए खाना लेकर आई।
- 22 फरवरी तक हड़ताल देश भर के नौसैनिक केन्द्रों के साथ ही समुद्र में खड़े कुछ जहाजों पर भी फैल गई। हड़ताल की चरम अवस्था में 78 जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान तथा 20 हजार नाविक इसमें सम्मिलित थे।
- सरदार पटेल ने जिन्ना के साथ मिलकर नाविकों को आत्म समर्पण करने के लिये 23 फरवरी को तैयार कर लिया क्योंकि पटेल को आशँका थी कि ब्रिटिश कहीं ज्यादा कठोर कदम उठा सकती हैं। उनके इस आकलन की पुष्टि बाद में वी. सी. दत्त ने भी की जो नाविकों के एक महत्त्वपूर्ण नेता थे।
- पटेल ने 22 फरवरी, 1946 को नेहरू को लिखा कि नौसेना और सेना की ताकतें इतने जबरदस्त ढँग से जुटी है कि विद्रोहियों को पूरी तरह नष्ट किया जा सकता है।
- कम्युनिस्टों की भी शाँति स्थापित करने की जरूरत महसूस हो रही थी। कराची के नाविक विद्रोह के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी तथा कांग्रेस दोनों की गाडि़याँ शाँति स्थापित करने के लिए शहरों में घूम रही थी। नौसेना केन्द्रीय हड़ताल समिति ने अपने अंतिम संदेश में कहा कि हमारी हड़ताल हमारे राष्ट्र के जीवन की एक ऐतिहासिक घटना रही है।
- पहली बार सेना को जवानों और आम आदमी का रक्त एक लक्ष्य के लिए सड़कों पर बहा है। हम फौजी इसे कभी नहीं भूलेंगे। हमारी महान जनता जिंदाबाद – जयहिंद।
- 1945-46 में भारत में प्राँतीय चुनाव हुआ। इस प्राँतीय चुनाव में 1937 के चुनाव की तरह नेहरू कांग्रेस के सबसे बड़े प्रचारक के रूप में उभरे। टिकट वितरण पटेल के पास था। इस तरह दोनों एक दूसरे पर रोक और संतुलन का कार्य करते रहें। इस चुनाव में भी कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता मिली। केन्द्रीय परिषद की 102 सीटों में उसे 58 सीटें मिली। साधारण चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस को 3% मत मिले।
- हिंदू महासभा तथा कम्युनिस्ट बुरी तरह पराजित हुए। कम्युनिस्ट थोड़ी सी ही प्राँतीय सीट पा सके जैसे बंगाल में 3 सीट जिसमें श्रमिकों के निर्वाचन क्षेत्र से विजयी ज्योति बसु की एक सीट भी सम्मिलित थी तथा बंबई एवं मद्रास में 21 मुस्लिम लीग को 86.6% मुस्लिम वोट प्राप्त हुए।
- मुस्लिम सीटों पर केन्द्रीय परिषद् में लोगों को सफलता मिली। किंतु प्राँतों में पंजाब में खिज्र हयात खाँ के नेतृत्व में मिली-जुली सरकार का गठन हुआ।
- अगर सिंध में लोग सरकार गठित हुई तो बंगाल में उसे यूरोपीय और अन्य दलों की मदद लेनी पड़ी। सबसे बड़ी बात यह हुई कि उत्तरी पश्चिमी सीमाप्राँत और असम, इन दोनों राज्यों में भी, जो लीग के पाकिस्तान में शामिल थे, कांग्रेस की सरकार गठित हुई। मुस्लिम व्यापारियों जिन्हें यास्फानियों के नाम से जाना जाता है कि मदद से लीग ने फजलूल हक की सरकार को गिराया।
- 1945 में जिन्ना के उद्योग से इण्डियन मुस्लिम चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स की स्थापना हुई। युद्ध के पश्चात एक मुस्लिम एयरलाइंस और बैंक की स्थापना का निर्णय लिया गया।
कैबिनेट मिशन
- मार्च, 1946 सी.ई. में एटली ने स्पष्ट रूप से घोषणा की कि अल्पसंख्यक को बहुमत की प्रगति में अवरोध डालने का कोई अधिकार नहीं है। यह एक नीतिगत परिवर्तन की सूचना थी। इसी क्रम से मार्च, 1946 को लार्ड पेथिक लॉरेंस, स्टैफोर्ड क्रिप्स और ए. वी. एलेक्जेण्डर को भारतीयों से समझौता के लिए भेजा गया। इसे हम कैबिनेट मिशन के नाम से जानते हैं।
- कैबिनेट मिशन के द्वारा दूसरा शिमला सम्मेलन बुलाने के बाद भी कोई समझौता नहीं हो सका। अंत में मई, 1946 में कैबिनेट मिशन ने अपना प्रस्ताव जारी कर दिया। इसके निम्नलिखित उपबंध थे-
कैबिनेट मिशन ने संपूर्ण प्राँतों को तीन भागों में विभाजित किया
- शेष भारत-इसमें मद्रास, बंबई, संयुक्त प्राँत, बिहार, मध्य प्राँत तथा उड़ीसा
- उत्तर-पश्चिमी-पंजाब, उत्तर पश्चिम सीमाँत प्रदेश तथा सिन्ध
- उत्तर पूर्वी-असम, बंगाल
- इसने भारत के विभाजन के प्रस्ताव को रद्द कर दिया। उसका मानना था कि इस विभाजन से पंजाब और बंगाल में नए प्रकार की समस्याएँं जन्म लेंगी और हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या के मध्य समझौता मुश्किल हो जाएगा।
- इसके बदले उसने प्राँत और केंद्र के बीच मध्यवर्ती ढाँचा का सुझाव दिया। इसके अनुसार सम्पूर्ण भारतीय प्राँतों को तीन संघों में विभाजित कर दिया जाए। उत्तरी-पूर्वी, उत्तरी-पश्चिमी और शेष भारत। प्राँतों को यह अधिकार दिया गया कि वे अपना पृथक संविधान बना सकते हैं और अपना संविधान लागू कर सकते हैं।
- इस तरह हम देखते हैं कि कैबिनेट मिशन ने भी विभाजन को प्रोत्साहित किया क्योंकि लीग उसमें पाकिस्तान की छवि पा सकती थी। कैबिनेट मिशन ने एक संविधान सभा के गठन की अनुशंसा की। संविधान सभा के सदस्य प्राँतीय परिषद से चुने जाने थे। इसके अनुसार एक अन्तरिम सरकार की स्थापना की बात की गई।
- समूहीकरण की नीति में अस्पष्टता थी। इसी मसले पर कांग्रेस तथा लीग में मतभेद उभरा। कांग्रेस की यह माँग थी कि प्राँतों के पास विकल्प होना चाहिए कि आरंभ में यदि वे न चाहें तो किसी समूह विशेष में शामिल न हों। आम चुनावों तक इस निर्णय के लिये इंतजार करना उचित नहीं है।
- कांग्रेस द्वारा इस विरोध का कारण था कि असम तथा उत्तर पश्चिम सीमाँत प्रदेश को समूह ‘ग’ और समूह ‘ख’ में रखा गया था जबकि यहाँ कांग्रेस की सरकार थी।
- कांग्रेस कैबिनेट मिशन के इस स्पष्टीकरण के विरुद्ध थी कि समूहीकरण आरंभ में तो अनिवार्य रहेगा किंतु बाद में संविधान बन जाने और उसके अनुसार नए चुनाव होने के बाद प्राँतों को उससे अलग हो जाने का अधिकार होगा।
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian freedom struggle) के अंतर्गत कांग्रेस को इस बात पर भी आपत्ति थी कि संविधान सभा में रजवाड़ों से कोई चुने हुए सदस्य नहीं थे। लीग का समूहीकरण के सदर्भ में तर्क था कि कोई भी प्राँत समूह से बाहर नहीं हो सकता है।
- 6 जून, 1946 को लीग ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट कर दिया कि उसने इस मिशन के प्लान को इसी तर्क पर स्वीकार किया है कि इसमें अनिवार्य समूहीकरण की बात की गई है जो पाकिस्तान के निर्माण का आधार है।
- 7 जून, 1946 को कांग्रेस कमेटी को नेहरू ने संबोधित करते हुए कहा कि कांग्रेस संविधान सभा में सम्मिलित होगी। एक संप्रभु निकाय होने के कारण विधानसभा कार्यप्रणाली के नियमों को सूत्रबद्ध करेगी। इससे यह समझा जा रहा था कि मिशनद्वारा बनाये गए नियमों को संशोधित किया जा सकता है।
- नेहरू के भाषण का तात्कालिक लाभ उठाकर 29 जुलाई, 1946 को लीग ने कैबिनेट मिशन प्लान को अस्वीकृत कर दिया। 1946 में संविधान सभा का गठन हो गया किंतु लीग अपना पृथक संविधान चाहती रही।
- 2 सितंबर, 1946 को जवाहर लाल नेहरू के अधीन अंतरिम सरकार गठित हुई। लीग उससे बाहर रही। मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त, 1946 को पाकिस्तान को प्राप्त करने के लिए प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाने की घोषणा की तथा नारा दिया कि ‘लड़कर लेंगे पाकिस्तान’।
- दंगों का प्रारंभ 16-19 अगस्त को कलकत्ता से हुआ जो 1 सितंबर को बंबई को प्रभावित करते हुए पूर्वी बंगाल के नोआखाली, गढ़ मुक्तेश्वर (नवंबर) तक फैल गया। मार्च 1947 तक इसने सारे पंजाब को लपेट में ले लिया। सबसे अधिक हिंसा पंजाब में हुई।
- मार्च, 1947 में लीग के जत्थे ने पंजाब में सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ दिया। उस समय खिज्र हयात खान की सरकार कम्युनिस्ट, अकाली तथा अन्य पार्टियों के सहयोग से खड़ी थी। मार्च, 1947 में खिज्र हयात खान की सरकार गिर गई।
- कलकत्ता में लीग सरकार थी और उसने सीधी कार्यवाही के दिन छुट्टी घोषित कर दी थी। वहाँ मैदान में होने वाली सभा में मुख्यमंत्री सुहरावर्दी के यह आश्वासन देने के बाद कि पुलिस और सेना हस्तक्षेप नहीं करेगी, मुसलमानों ने हमने प्रारंभ कर दिये। प्रत्युत्त्तर में हिंदुओं ने भी हमले किये।
- 19 अगस्त तक कम से कम 4000 लोग मारे गए।
- 25 अक्टूबर को नोआखाली दिवस मनाये जाने के दौरान बिहार में अति भयंकर दंगे हुए। यहाँ मुसलमानों के खिलाफ हिंदू किसानों ने सामूहिक रूप से विद्रोह किया। इसमें कम से कम 700 लोग मारे गए।
- क्षुब्ध और बदहवास नेहरू ने रिपोर्ट दी कि बिहार जो राष्ट्रवादी कांग्रेस का तथा किसान सभा का गढ़ रहा है, के लोगों पर पागलपन सवार है। उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेसी प्रशासन एवं दल के अनेक सदस्यों ने भी हिन्दू सम्प्रदायवाद के सामने घुटने टेक दिये हैं।
- नेहरू द्वारा बिहार की भर्तस्ना से हिंदुओं में जो वैमनश्यपूर्ण प्रतिक्रिया हुई उसके प्रति पटेल में सहानुभूति थी। उन्होंने 11 नवंबर, 1946 को राजेन्द्र प्रसाद को लिखा कि ‘‘यदि हमने बिहार के लोगों एवं वहाँ की सरकार को नेताओं के हिंसक एवं अशोभनीय आक्रमणों का शिकार होने दिया तो यह हमारी भूल होगी।
स्वतंत्रता की ओर- एटली की घोषणा
- 20 फरवरी, 1947 में एटली की सरकार ने दो महत्त्वपूर्ण घोषणाए की। प्रथम घोषणा यह कि हर हालत में 30 जून 1948 तक भारत को स्वतंत्र कर दिया जायेगा।
- दूसरे लार्ड माउण्टबेटन को वायसराय बनाकर भेजने की। परंतु अब तक भारत की परिस्थितियां ब्रिटिश सरकार के शासन के अनुरूप नहीं रह गई थी तथा ब्रिटिशों के मन में यह धारणा बैठ गई थी कि जितनी जल्दी हो सके भारत को छोड़ दिया जाये।
- वेवेल ने 1946 में ही ब्रेक डाउन प्लान के अंतिम प्रारूप में 31 मार्च, 1948 तक अंग्रेजों को पूर्णरूपेण भारत छोड़ने का सुझाव दिया था। इस प्रकार माउंटबेटन के कार्यभार संभालने से पूर्व ही विभाजन सहित स्वतंत्रता की बात व्यापक तौर पर स्वीकार की जाने लगी थी।
- एक बड़ी और नई बात थी कि वी. पी. मेनन ने जनवरी 1947 में भारत सचिव को सुझाव दिया कि डोमिनियन स्टेटस के आधार पर तुरंत सत्ता का हस्तांतरण हो जिससे नई राजनीतिक संरचनाओं पर आधारित नई संविधान सभा की सहमति होने तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़े। पटेल निजी तौर पर इस विचार से सहमत थे। इसके पीछे उनका तर्क था कि डोमिनियन स्टेटस से शीघ्र और शाँतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण सुनिश्चित होगी।
- 24 मार्च और 6 मई के बीच भारतीय नेताओं के साथ 133 साक्षात्कारों की तीव्र श्रृँखला के बाद माउण्टबेटन ने तय किया कि कैबिनेट मिशन की रूपरेखा अव्यावहारिक हो चुकी है। तब उन्होंने एक वैकल्पिक योजना बनाई जिसे प्लान बाल्कन का गुप्त नाम दिया गया। इसमें विभिन्न प्राँतों को सत्ता का हस्तांतरण करने की बात भी जिसमें पंजाब तथा बंगाल की विधायिकाओं को यह अधिकार करने का अधिकार होता कि वे चाहें तो अपने प्राँतों का विभाजन कर लें।
- इस प्रकार बनने वाली विभिन्न ईकाईयां और रजवाड़े सर्वोच्चता समाप्त होने से स्वतंत्र हो जायेंगे और उनको यह स्वतंत्रता होगी कि वे चाहें तो भारत या पाकिस्तान में मिलें या स्वतंत्र रहें परंतु जब यह योजना 10 मई को शिमला में नेहरू को व्यक्तिगत रूप से बताई गई तो उन्होंने इस पर अत्यंत तीखी प्रतिक्रिया प्रकट की।
- अतः यह योजना त्याग दी गई। दरअसल नेहरू ने विखंडन के इस प्रस्ताव में भारत को छोटे-छोटे राज्यों में बाँटकर उसे उत्तरी आयरलैंड जैसी समस्या बनाने की साम्राज्यवादी चाल को पहचान लिया था।
- ब्रिटिश शासन के बढ़ते विरोध को देखते हुए माउण्टबेटन ने स्वतंत्रता की समय सीमा को और भी कम करना चाहा।
- माउण्टबेटन को एक अन्य महत्त्वपूर्ण ब्रिटिश अधिकारी का सहयोग मिल रहा था। ब्रिटिश कैबिनेट ने माउंटबेटन को निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian freedom struggle) के परिणामस्वरूप माउंटबेटन ने स्वतंत्रता की समय सीमा कम करके 15 अगस्त, 1947 को एक योजना लाया। यही योजना इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट का आधार बनी।
माउंटबेटन प्लान के उपबंध
- सिंध और बलुचिस्तान की विधान परिषदों को निर्णय लेना था कि वे भारत के साथ रहेंगे या पाकिस्तान के साथ। पंजाब और बंगाल की विधान परिषदों को दोहरे निर्णय लेने थे। क्या ये राज्य पाकिस्तान के साथ जाना पसंद करेंगे और अगर हां तो क्या राज्य का विभाजन भी होना है। उत्तर पश्चिमी सीमाप्राँत और असम के सिलहट जिले में प्रत्यक्ष जनमत संग्रह होना था।
- चूँकि देश का विभाजन होना था इसलिए सीमा विभाजन के लिए सीमा आयोग गठित करने का प्रावधान था। साथ ही भारतीय खजाने का बँटवारा होना था। (55 करोड़ रुपया पाकिस्तान को दिया जाना था) माउण्टबेटन योजना ने कुछ दिलचस्पी गैर साम्प्रदायवादी आंचलिक संभावनाओं को अवरुद्ध कर दिया।
- बंगाल में अनेक लीग नेता दूरस्थ पंजाब द्वारा शासित होने की बात से प्रसन्न नहीं थे और वहाँ सुहारवर्दी और अबुल हासिम ने संयुक्त एवं स्वतंत्रता बंगाल की योजना प्रस्तुत भी की थी जिस पर शरद बोस जैसे थोड़े से कांग्रेसी नेता विचार करने के लिए तैयार भी थे।
- पश्चिमोत्तर सीमा प्राँत में एक स्वतंत्र पठान राज्य की माँग की जा रही थी। यहाँ अब्दुल गफ्रफार खाँ के नेतृत्व में स्थानीय कांग्रेस का विचार था कि इस प्राँत को लीग द्वारा पाकिस्तान में मिलाने के प्रयास को विफल करने का यही एकमात्र उपाय था परंतु 3 जून की योजना ने ऐसी सभी सम्भावनाओं पर रोक लगा दी क्योंकि अब प्राँतीय विधायिकाएँ भारत अथवा पाकिस्तान इन दो में से किसी एक को चुनने के लिये बाध्य हो गई।
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian freedom struggle) के लिए 4 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश संसद ने माउण्टबेटन प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और 18 जुलाई को इसे ब्रिटिश क्राउन की स्वीकृति मिल गई तथा 15 अगस्त को इसे लागू कर दिया गया और इसी के साथ देश आजाद हो गया।
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian freedom struggle) के अंतर्गत कांग्रेस द्वारा विभाजन को स्वीकार किये जाने की घटना ने एक विवाद को जन्म दिया है जिसके अनुसार नेहरू तथा पटेल ने विभाजन को इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि सत्ता का इंतजार उनके लिये असहय हो गया था। परंतु इस संदर्भ में यह भुला दिया जाता है कि वर्ष 1947 में नेहरू, पटेल तथा गाँधी के सामने विभाजन को स्वीकार करने के सिवाय और कोई रास्ता भी नहीं रह गया था। चूँकि कांग्रेस मुस्लिम जनसमूह को राष्ट्रीय आंदोलन में नहीं खींच सकी थी और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के ज्वार को रोक पाने में अक्षम रही थी इसलिए उनके पास विकल्प ही क्या था?
- इन चुनावों में लीग को 90 प्रतिशत मुस्लिम सीटें मिली थीं। अंतरिम सरकार की अपंगता ने भी पाकिस्तान को एक अपरिहार्य विशेषता बना दिया था।
- अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैैठक में 14 जून, 1947 को पटेल ने कहा कि वस्तुतः हम इस सच्चाई से पलायन नहीं कर सकते कि पंजाब, बंगाल और अंतरिम सरकार में पाकिस्तान की स्थापना हो चुकी है तथा उसने काम करना भी प्रारंभ कर दिया है।
- इस तरह कांग्रेस द्वारा वर्ष 1947 में भारत के विभाजन को स्वीकार करना मुस्लिम लीग की एक संप्रभु मुस्लिम राज्य की दलील को कदम-दर-कदम अनुमोदन करने की प्रक्रिया का ही आखिरी चरण था।
- प्रारंभ में राज्यों के अनिवार्य समूहीकरण का नेहरू ने विरोध किया परंतु समय बीतते-बीतते नेहरू ने यह स्वीकार कर लिया कि समूहीकरण अनिवार्य रहेगा या ऐच्छिक। इस पर संघीय न्यायालय का निर्णय उन्हें मंजूर होगा।
- कैबिनेट मिशन योजना में संघीय न्यायालय का प्रावधान किया गया था। फिर जब ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने स्पष्ट किया कि समूहीकरण अनिवार्य है तो कांग्रेस ने विरोध नहीं किया।
- आधिकारिक तौर पर विभाजन की बात कांग्रेस ने मार्च, 1947 में मान ली, जब कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया गया कि यदि देश का बँटवारा होता है तो पंजाब एवं बंगाल का बँटवारा होना चाहिए।
- गाँधीजी अब समझ गए थे कि दंगों तथा अंतरिम सरकार की अक्षमता के कारण विभाजन अनिवार्य हो गया है।
- अतः वे 19 जून, 1947 की राष्ट्रीय कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में गए तथा कांग्रेसजनों को विभाजन को एक तात्कालिक अनिवार्यता के रूप में स्वीकार करने को कहा लेकिन उन्हें यह भी सलाह दी कि वे इसे हृदय से स्वीकार नहीं करें तथा इसे निरस्त करने के दीर्घकालीन कार्यक्रम बनाएं।
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