राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement)
तात्कालिक कारण
- लिटन की प्रतिगामी नीति जैसे- वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, आर्म्स एक्ट, सिविल सेवा परीक्षा में आयु कम करना आदि।
- रिपन के समय इल्बर्ट बिल विवाद।

प्रारम्भिक राजनीतिक संगठन
कांग्रेस से पूर्व की संस्थाएँ
- भारत में स्थापित होने वाली संस्थाओं में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पहली संस्था नहीं थी। इससे पहले भी कई संस्था स्थापित हो चुकी थी। भारत में संगठित, राजनीतिक गतिविधियों की शुरूआत निम्नलिखित संस्था से होती है-
लैण्ड होल्डर्स सोसाइटी (1837):
- यह संस्था बिहार, बंगाल तथा उड़ीसा के जमींदारों की थी तथा इसका मुख्य उद्देश्य था अपने वर्ग के हितों की रक्षा करना। इसके भारतीय सचिव प्रसन्न कुमार ठाकुर एवं अंग्रेज सचिव विलियम काब्री थे।
बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी (1843):
- इसके संस्थापक जार्ज थॉमसन थे इस संस्था की स्थापना का उद्देश्य थोड़ा व्यापक था। जैसे आम जनता के हितों की रक्षा करना तथा उन्हें बढ़ावा देना।
- लैंड होल्डर्स संस्था जहाँ धन के अभिजात तंत्र का प्रतिनिधित्व करती थी तो वहीं बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी बुद्धि के अभिजात तंत्र का प्रतिनिधित्व करती थी।
ब्रिटिश इंडियन ऐसासिएशन (1851):
- 1851 में लैण्ड होल्डर्स सोसायटी एवं बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी दोनों का विलय हो गया तथा ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की स्थापना हो गई। इसके अध्यक्ष राधाकान्त देव थे।
राष्ट्रवाद के उद्भव के उत्तरदायी कारक
- ब्रिटिश प्रशासन की विदेशी एवं क्रूर प्रकृति (औपनिवेशिक प्रकृति)
- भारत का आर्थिक एवं प्रशासनिक एकीकरण
- सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन
- पाश्चात्य विचारों का प्रभाव
- पत्र पत्रिकाओं का योगदान- बंगाल में हिन्दू पैट्रियट, इण्डियन मिरर, अमृत बाजार पत्रिका, बंगाली, सोम प्रकाश, संजीवनी, महाराष्ट्र में रोस्त गोफ्तर, मराठा, (अंग्रेजी) केसरी (मराठी) इन्दु प्रकाश, नेटिव ओपिनियन, संयुक्त प्राँत में एडवोकेट, हिन्दुस्तानी और आजाद।
पूना सार्वजनिक सभा (1870):
- इस संस्था की स्थापना जस्टिस महादेव गोविंद राणाडे, जी. पी. जोशी, एस.एच. चिपलांकर तथा अन्य सहयोगियों ने की थी। इस संस्था ने 1878 सी.ई. से एक पत्रिका निकाली जिसने राजनैतिक चेतना जगाने में काफी योगदान दिया।
ईस्ट इंडिया एसोसिएशन (1866):
- इंग्लैण्ड के लंदन में राजनैतिक प्रचार करने के उद्देश्य से भारतीय छात्रों जैसे फिरोज शाह मेहता, बदरूद्दीन तैय्यब जी, दादा भाई नौरोजी तथा मनमोहन घोष ने इस संस्था की स्थापना की थी।
इंडियन लीग 1875:
- शिशिर कुमार घोष ने इसकी स्थापना की थी।
इण्डियन एसोसिएशन (1876):
- इस संस्था की स्थापना सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा आनंद मोहन बोस ने की। इसकी सदस्यता शुल्क मात्र 5 रुपया वार्षिक था।
- सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इसकी स्थापना के समय कहा था कि नई एसोसिएशन संयुक्त भारत की अवधारणा पर आधारित है जिसका प्रेरणा स्रोत मैजनी के नेतृत्व में इटली का एकीकरण है। इंडियन एसोसिएशन को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पूर्वगामी कहा गया है।
- इसका मुख्य उद्देश्य था भारत में एक प्रबल जनमत तैयार करना एवं हिन्दू-मुस्लिम जनसंपर्क की स्थापना। सार्वजनिक कार्यक्रम के आधार पर लोगों को संगठित करना। सिविल सेवा के भारतीयकरण के पक्ष में मत तैयार करना।
- कलकत्ता में इंडियन एसोसिएशन ने सिविल सेवा की उम्र घटाए जाने के विरोध में 1877 में टाउन हाल में एक सभा बुलायी। एसोसिएशन ने ब्रिटिश सरकार के सामने स्मृति पत्र पेश करने हेतु लालमोहन घोष को ब्रिटेन भेजा।
- इंडियन एसोसिएशन की नेशनल कांफ्रेस 1885 में कलकत्ता में हुई जहाँ सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने भाग लिया। इसी कारण दिसम्बर, 1885 में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में शामिल नहीं हो सके।
मद्रास महाजन (1884):
- एम. वीर राघवाचारी जी. सुब्रहमण्यम् अय्यर और आनंद चार्लू ने मद्रास महाजन सभा की स्थापना की। 1884 सी.ई. में बंबई प्रेसीडेंसी एसोसिएशन की स्थापना फिरोजशाह मेहता, के. टी. तेलंग और बदरूद्दीन तैय्यब जी ने मिलकर की। इनके अलावा इलाहाबाद पीपुल्स एसोसिएशन तथा लाहौर की इंडियन एसोसिएशन की स्थापना इसी समय हुई थी। फिरोजशाह मेहता बाम्बे के बेताज बादशाह कहे जाते थे।
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कांग्रेस की स्थापना
- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना एक ब्रिटिश अधिकारी ए. ओ. ह्यूम के प्रयास से हुई। वे एक सेवानिवृत अधिकारी थे जिन्होंने सेवानिवृति के पश्चात भारत में ही रहने का निश्चय किया था।
- उनका मानना था कि भारत में आई राष्ट्रीय जागृति को सच के रूप में स्वीकार करना चाहिए और समयानुसार ऐसा कदम उठाना चाहिए जिससे इन वर्गों की माँगों के लिये एक न्याय संगत व्यवस्था हो। ऐसा मंच बनाने के लिये उन्होंने कलकत्ता के स्नातकों को पत्र लिखा तथा स्वयं भी बंबई का दौरा किया।
- मार्च, 1885 सी.ई. में तय किया गया कि एक नई संस्था इंडियन नेशनल यूनियन (कांग्रेस का प्रारंभिक नाम) का एक सम्मेलन, क्रिसमस सप्ताह के दौरान पूना में आयोजित किया जाये क्योंकि यह जगह देश के केन्द्र में थी तथा पूना सार्वजनिक सभा की कार्यपालिका समिति ने सम्मेलन की सारी व्यवस्था तथा आवश्यक कोष के इंतजाम करने की जिम्मेदारी ली थी। परंतु पूना में प्लेग फैल जाने के कारण बंबई के ग्वालिया टैंक स्थित गोकुल दास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में 28 दिसंबर, 1885 सी.ई. को कांग्रेस की प्रथम बैठक हुई। प्रारम्भ में इसका नाम भारतीय राष्ट्रीय संघ था किन्तु दादा भाई नौरोजी ने इस संस्था का नाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर दिया।
- कांग्रेस का पहला अध्यक्ष बनने का गौरव बंगाल के व्योमेश चंद्र बनर्जी को मिला। जबकि सचिव ए. ओ. हयूम थे। इसमें करीब 100 लोगों ने भाग लिया जिनमें से 72 लोंगों को सदस्य के रूप में मान्यता दी गई। इसी अधिवेशन से इस परंपरा की स्थापना हुई कि अध्यक्ष का चुनाव सम्मेलन स्थल वाले प्राँत के बाहर से होना चाहिए।
पहले अध्यक्षीय भाषण में कांग्रेस का उद्देश्य
- देश के लोगों के मध्य मित्रता तथा आपसी मेल-मिलाप को बढ़ावा देना।
- प्रजाति, धर्ममत तथा प्राँतों के प्रति पैदा हुए सभी विद्वेषों को दूर करना तथा राष्ट्रीय एकता को भावना को संगठित करना।
- शिक्षित वर्गों द्वारा तत्कालिक मुद्दों पर व्यक्त मतों को दर्ज करना और जनहित में उठाये जाने वाले कदमों का निर्धारण करना। इस सम्मेलन में सबसे अधिक गहराई से राष्ट्रीय एकता की आकांक्षा को व्यक्त किया गया।
- इतिहासकार ब्रिटेन मार्टिन ने 1885 सी.ई. में न्यू इंडिया में टिप्पणी की कि कांग्रेस का पहला अधिवेशन एक नितांत व्यावसायिक मामला था जो कि उसी तरह के इंग्लैण्ड और अमेरिका में होने वाले राजनीतिक संगठनों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है।
- कांग्रेस के संस्थापक एल आक्टेवियन ह्यूम 1885 से 1906 सी.ई. तक कांग्रेस के महासचिव रहे। वे स्कॉटलैण्ड के निवासी थे। 1912 में इनकी मृत्यु के पश्चात कांग्रेस ने इन्हें अपना जन्मदाता एवं पिता घोषित किया। ह्यूम इटावा (उ.प्र.) के जिलाधिकारी भी रहे।
- 1885 सी.ई. में कांग्रेस के सम्मेलन के समय निम्नांकित अन्य संगठनों का भी सम्मेलन अलग-अलग प्राँतों में हुआ।
कांग्रेस की उत्पत्ति के संबंध में विवाद
सेफ्टी बाल्व सिद्धान्तः
- इस सिद्धान्त के जनक लाला लाजपत राय हैं। उन्होंने ह्यूम के जीवनीकार विनियम बेडरवर्न के कथन को आधार बनाकर 1916 में यंग इंडिया में प्रकाशित अपने लेख में यह सिद्धान्त प्रस्तुत करते हुए कहा कि कांग्रेस लार्ड डफरिन के मस्तिष्क की उपज थी और कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य राजनीतिक आजादी हासिल करने से कहीं ज्यादा यह था कि उस समय ब्रिटिश साम्राज्य पर आसन्न भारतीय असंतोष के खतरे से उसे बचाया जा सके। आगे कांग्रेस के अन्य आलोचक जैसे मार्क्सवादी तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इन मतों को आगे बढ़ाया।
- वामपंथी विचारक रजनी पाम दत्त ने लिखा कि कांग्रेस की स्थापना के दो पक्ष थे। एक पक्ष तो जन आंदोलन के खतरे के खिलाफ साम्राज्यवाद से सहयोग का था तथा दूसरा पक्ष राष्ट्रीय संघर्ष में जनता की अगुवाई का था।
- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पहले सर संघ चालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने 1939 में अपने पैम्पलेट ‘वी’ में लिखा कि हिंदू राष्ट्रीय चेतना को उन लोगों ने तबाह कर दिया जो राष्ट्रवादी होने का दावा करते हैं।
- हिंदूओं को विराष्ट्रीकरण के रास्ते पर ले जाने के लिये ह्यूम, कॉटन तथा बेडरबर्न द्वारा 1885 में तय की गई नीतियाँ ही जिम्मेदार थीं। इन लोगों ने उस समय उबल रहे राष्ट्रवाद के खिलाफ सुरक्षा वॉल्व के तौर पर कांग्रेस की स्थापना की जो उस समय जाग रहे एक विशाल देव को सुलाने के लिए खिलौना था एवं राष्ट्रीय चेतना को तबाह कर देने वाला हथियार था।
- सी. एफ. एन्ड्रयूज एवं गिरिजा मुखर्जी ने भी 1938 में प्रकाशित भारत में कांग्रेस का उदय और विकास में सुरक्षा वॉल्व की बात पूरी तरह स्वीकार की है।
तडि़त चालक सिद्धान्तः
- इस सिद्धान्त के प्रतिपादक ने गोपाल कृष्ण गोखले के दस्तावेज को आधार बनाया है। इस सिद्धान्त के अनुसार सरकारी असंतोष से बचने के लिये भारतीयों ने ही ह्यूम का उपयोग तडि़त चालक की भाँति किया।
- उन्होंने कहा कि कोई भी भारतीय, राष्ट्रीय कांग्रेस की शुरुआत नहीं कर सकता था। अगर कांग्रेस का संस्थापक एक अंग्रेज और वरिष्ठ पूर्व अधिकारी नहीं होता तो उन दिनों जिस नजर से राजनीतिक आन्दोलन को देखा जाता था, अधिकारी किसी न किसी आधार पर आन्दोलन को दबा देते।
- कैम्ब्रिज विश्व विद्यालय के एक विद्वान अनिल सील का मानना है कि राष्ट्रीय कांग्रेस कुछ मायनों में राष्ट्रीय नहीं था बल्कि यह स्वार्थी व्यक्तियों द्वारा चलाया गया आन्दोलन था और यह उनके आर्थिक हितों और संकीर्ण विवादों की पूर्ति के लिये साधन के रूप में कार्य करता था।
- मान्य मतः मान्य विचार यह है कि यह क्षेत्रीय संस्थाओं का विकसित रूप था।
- कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन (कलकत्ता, दिसम्बर 1888): इस अधिवेशन की अध्यक्षता दादा भाई नौरोजी ने की। इसी अधिवेशन में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी की नेशनल कांफ्रेंस का विलय कांग्रेस में हो गया।
- कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन (मद्रास, दिसम्बर 1887): मद्रास अधिवेशन की अध्यक्षता बदरूद्दीन तैय्यब जी ने की। यह कांग्रेस के पहले मुस्लिम अध्यक्ष थे। इसी अधिवेशन से अंग्रेज शासकों एवं अधिकारियों की कटु आलोचना कांग्रेस के मंच से प्रारम्भ हो गयी। इस अधिवेशन के बाद अंग्रेजों को कांग्रेस के प्रति दृष्टिकोण विरोधी हो गया।
- कांग्रेस का चतुर्थ अधिवेशन (इलाहाबाद, दिसम्बर 1888): इस अधिवेशन की अध्यक्षता जार्ज यूले ने की। प्राँत के गवर्नर सर ऑकलैण्ड कौखिन ने सम्मेलन रोकने की पूरी कोशिश की।
- डफरिन ने कांग्रेस की कटु आलोचना की और उसका मजाक उड़ाकर कहा यह सूक्ष्मदर्शी अल्पसंख्यकों की प्रवक्ता। सैय्यद अहमद खाँ ने कांग्रेस अधिवेशन की आलोचना की। यह पहला अवसर था जब लाला लाजपतराय कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए।
- कांग्रेस का 5वा अधिवेशन (1889): कांग्रेस का 5वां अधिवेशन विलियम वेडरबर्न की अध्यक्षता में बम्बई में हुआ। बम्बई अधिवेशन में इंग्लैण्ड में कांग्रेस के दृष्टिकोण का प्रचार करने के लिये एक प्रतिनिधि मण्डल भेजने का फैसला किया गया, जिसके सदस्य चुने गये जार्ज यूले, “यूम, एडम, नार्टन, हावर्ट, फिरोजशाह मेहता, मनमोहन घोष, सुरेन्द्र बनर्जी, सैफुद्दीन, एन. मचोलकर और डब्ल्यू. सी. बनर्जी।
- इसमें भारतीय सदस्यों में से अधिकाँश इंग्लैण्ड नहीं जा सके। ब्रिटेन में कांग्रेस के प्रचार का फल यह हुआ कि चार्ल्स ब्रैडले ने जो 1889 में बम्बई अधिवेशन में शामिल हुए थे, ने एक विधेयक तैयार किया और उसे ब्रिटिश संसद में 1890 में पेश किया लेकिन प्रबल विरोध के कारण विधेयक वापस ले लिया गया। बदले में ब्रिटिश सरकार ने खुद एक विधेयक पेश किया जो 1892 के इंडियन काउंसिल एक्ट के रूप में पारित किया।
- कांग्रेस का छठा अधिवेशन (1890): कांग्रेस का छठा अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। यहाँ पर कांग्रेस के नेताओं ने यह प्रस्ताव पास किया कि 1892 का कांग्रेस अधिवेशन में भारत में नहीं बल्कि इंग्लैण्ड में किया जाएगा बशर्ते सभी केन्द्रों की स्टैण्डिंग कमेटियों के सदस्यों की अनुमति प्राप्त हो जाये।
- ऐसा करके कांग्रेसी यह साबित करना चाहते थे कि उन्हें ब्रिटेन की सरकार और ब्रिटिश जनता की न्यायप्रियता में पूरा विश्वास है। लेकिन, यह अधिवेशन इंग्लैण्ड में न हो सका। यह भारत में हुआ।
- कलकत्ता विश्व विद्यालय की पहली महिला स्नातक कादम्बिनी गांगुली ने 1890 में कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन को सम्बोधित किया था। यह इस बात का सूचक था कि भारतीय नारी की अतीत में जो उपलब्धियां थीं, वह बीच में लुप्त हो जाने के बाद एक बार पुनः उजागर होने लगी थीं।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) का उदारवादी चरण (1885-1905)
- कांग्रेस की स्थापना के आरम्भिक 20 वर्षों में इसकी नीति अत्यंत उदार थी। इसलिए इस काल को उदारवादी चरण कहा जाता है। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) के इस उदारवादी चरण को भी कई भागों में विभाजित किया गया है।
- 1885-1892 सी.ई. तक इस चरण में नेतृत्व ए.ओ. ह्यूम के हाथों में था और महत्त्वपूर्ण नेता ब्योमेश चंद्र बनर्जी, दादा भाई नौरोजी, महादेव गोविन्द राणाडे और फिरोजशाह मेहता थे। कांग्रेस की दृष्टि अभिजात्य बनी रही और वह निचले स्तर पर नहीं जा सकी।
- द्वितीय चरण (1892-1905 सी.ई.) इस चरण में गोपाल कृष्ण गोखले का उदय हुआ जो राणाडे के शिष्य थे। कांग्रेस में भी गरम दल का उदय हो चुका था। उदारवादी चरण में कांग्रेस के नेताओं की निम्नलिखित विशेषताएँ थीः
- वे पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त थे। वे निचले स्तर की जनता से नहीं जुड़ पाए। उनकी राजनीति की पद्धति थी- प्रार्थनाएँ, प्रतिवेदन और स्मरण पत्र के जरिए ब्रिटिश जनमत को भारतीय समस्याओं से अवगत कराना।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) का उद्देश्यः क्रमिक रूप में राजनीतिक लाभ प्राप्त करना
कांग्रेस का कार्यक्रम
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) हेतु राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना और बढ़ते हुए राष्ट्र की भावना को मूर्त रूप देना।
- सामान्य कार्यक्रमों के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों की जनता को एकत्रित करना।
- जनता को एकत्रित प्रशिक्षण देना।
- औपनिवेशिक अर्थ तंत्र की मीमांसा करना।
कांग्रेस उदारवादियों की माँगें निम्नांकित थींः
- आई. सी. एस. की परीक्षा का ब्रिटेन के साथ भारत में भी आयोजन।
- न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण।
- प्राँतीय काउंसिल का गठन। आर्म्स एक्ट को रद्द करना।
- सेना में भारतीयों की कमीशन्ड ऑफिसरों के पद पर नियुक्ति।
- भारत के सभी भागों में स्थायी बन्दोबस्त का प्रचलन।
- मुस्लिम जनता की सहानुभूति जीतने के लिये 1888 सी.ई. के कांग्रेस अधिवेशन में एक विधेयक लाया गया जिसमें इस प्रकार का प्रावधान था कि कोई ऐसा प्रस्ताव या विधेयक पास नहीं किया जाएगा जो मुस्लिमों की भावना को ठेस पहुँचाए।
- 1889 सी.ई. में एक अल्पसंख्यक अनुच्छेद लाया गया जिसके अनुसार यह प्रावधान किया गया कि क्षेत्र की अल्पसंख्यक जनता को उसकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाएगा।
- 1887 सी.ई. में किसानों का समर्थन प्राप्त करने का भी प्रयास किया गया। इसके लिये दो लोकप्रिय पर्चे निकाले गए जिनका 12 प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद किया गया।
- कांग्रेस के जन संपर्क कार्यक्रम से सरकार चौकन्नी हो गई। नवंबर, 1888 में डफरिन ने कांग्रेस की आलोचना की तथा इसे अल्प प्रसार वाला संगठन बताया।
- संयुक्त प्राँत के लेफ्रिटनेंट गवर्नर ऑकलैंड काल्विन ने इलाहाबाद अधिवेशन को रोकने का प्रयास किया। इस समय उदारवादी नेता का उद्देश्य भारतीय जनमत को प्रबुद्ध करना था। प्रार्थना, याचिका और स्मरण पत्र के माध्यम से वे ब्रिटिश जनमत को भी प्रभावित करना चाहते थे।
- उदारवादियों ने इंग्लैण्ड में भी प्रचार किया। 1888 में नौरोजी ने विलियम डिग्वी की अध्यक्षता में इडियन एजेंसी की स्थापना की। 1889 सी.ई. में लंदन में कांग्रेस की एक ब्रिटिश समिति स्थापित हुई जिसके संस्थापक दादा भाई नौरोजी, विलियम बेडरवर्न, डब्ल्यू. सी. केन और ह्यूम थे। 1890 सी.ई. में कांग्रेस के एक मुख्य पत्र के रूप में पत्रिका इण्डिया का सम्पादन शुरू हुआ।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) की उदारवादी राजनीति की सीमाएँः
- इन्होंने कानून की चाहरदिवारी के अन्तर्गत रह कर आंदोलन करना उचित समझा। ब्रिटिश न्यायप्रियता में इनका गहरा विश्वास था। इन्होंने जन आंदोलन लाने का कोई प्रयास नहीं किया।
- इसका सामाजिक आधार विस्तृत नहीं था क्योंकि ये नेता उच्चवर्गीय मानसिकता के थे। नरमदलीय नेताओं की निजी जीवन शैली अंग्रेजी थी तथा ये अपने व्यवसायों में अत्यंत सफल थे। इस कारण अंग्रेजों के प्रति इनका दृष्टिकोण दोहरा होता था।
- ये उनकी कुछेक नीतियों की आलोचना तो करते थे परंतु सामान्यतया ये अंग्रेजों के प्रशंसक थे तथा ब्रिटिश शासन की दैवी प्रकृति में आस्था भी रखते थे। इस समय के नेता रेल के विशेष डब्बे में यात्र करते थे। एक बार गाँधी जी ने कहा था कि 1901 के कलकत्ता अधिवेशन में जे- घोषाल ने उनसे अपनी कमीज के बटन बंद करने को कहा था।
- एक बार राणाडे भी जब शिमला गए तो उनके साथ 25 नौकरों की फौज थी पहले विपिन चंद्र पाल भी उदारवादियों के खेमे के थे तथा उन्होंने 1897 सी.ई. में कहा था कि मै ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठावान हूँ, क्योंकि मैं समझता हूँ कि ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा और अपने देश व अपने देशवाशियों के प्रति निष्ठा एक ही बात है और मैं यह भी मानता हूँ कि भगवान ने हमारे उद्धार के लिये इस सरकार को हम पर शासन करने के लिये भेजा है। आगे 1902 के पश्चात उनकी दृष्टि उग्रवादी हो गई।
उपलब्धि
- उदारवादियों के प्रयास से 1892 सी.ई. का एक्ट पारित हुआ।
- प्रारंभिक चरण में इन्होंने भारतीय जनता को राष्ट्रीय आन्दोलन से परिचित कराया।
कांग्रेस का उग्रवादी चरण (1905 के पश्चात)
उग्रवाद के उदय के कारण
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) में उदारवादी आन्दोलन की असफलता
- आर्थिक संकट
- धर्म सुधार आन्दोलन के परिणामस्वरूप जनता में आत्मविश्वास
- अन्तर्राष्ट्रीय घटना क्रम- 1896 सी.ई. में इथियोपिया द्वारा इटली को हराया जाना।
- 1905 सी.ई. में एक छोटे देश जापान के द्वारा रूस की पराजय। गैरे ने लिखा कि इटली की हार ने 1897 में तिलक के आंदोलन को काफी बल प्रदान किया।
- कर्जन की नीतियाँ (बंगाल का विभाजन) कर्जन ने 1900 में कहा कि कांग्रेस का महल भरभरा रहा है। भारत में रहते मेरी यह अंतिम इच्छा है कि मैं इसके शाँतिपूर्ण मृत्यु में सहयोग कर सकूं।
उग्रवादी विचारों का सैद्धान्तिक आधारः
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) के दौरान गरम दल के अनुसार सन् 1857 के विद्रोह के राष्ट्रवादी उद्देश्य स्वधर्म तथा स्वराज्य की स्थापना था।
- उग्रवादी नेताओं के अनुसार उदारवादियों ने जो बुद्धिवाद तथा पाश्चात्य आदर्शों को अपनाया था, उसके कारण वे जनसाधारण से काफी दूर चले गए थे। उनका मानना था कि उदारवादी नेता इस समस्या का समाधान नहीं कर सकते। इस काल में विभिन्न सुधारकों के तहत चलाये गए धर्म सुधार आन्दोलनों ने राजनीतिक उग्रवाद को प्रोत्साहन दिया।
- अपनी संस्कृति, धर्म और परंपरा के प्रति लोगों में स्वाभाविक लगाव था। राजनीतिक उग्रवादी जिन्होंने अपनी सांस्कृतिक विरासत से प्रेरणा पाई थी, परम राष्ट्रवादी थे तथा यह चाहते थे कि भारत सब देशों से समान स्तर पर और आत्म सम्मान से मिले।
- उग्रवादियों की दृष्टि से उद्धार केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं था बल्कि इसका अर्थ कहीं अधिक व्यापक तथा गूढ़ था। गरम दल के तीन भागों में अधिक सक्रिय था।
- महाराष्ट्र दल के नेता थे तिलक, बंगाल दल के नेता थे विपिन चन्द्र पाल तथा अरविंद घोष एवं पंजाब दल का नेतृत्व लाला लाजपतराय कर रहे थे।
- उग्रवादियों का राष्ट्रवाद भावुकता से परिपूर्ण था। राष्ट्रवाद की इस प्रेरणादायक धारणा से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जैसे सभी आदर्शों का समावेश था।
- अरविंद ने देशभक्ति को अत्यंत ऊँचा उठा कर उसे मातृ वंदना के समक्ष रख दिया। एक पत्र में उन्होंने कहा था कि ‘‘मैं अपने देश को अपनी माँ मानता हूं, मैं उसकी आराधना करता हूं, मैं उसकी स्तुति करता हूं।’’
- अरविंद दयानंद की शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे तथा उन्हें वे भारत का सबसे बड़ा सुधारक मानते थे।
- तिलक ने इस बात का विरोध किया कि एक विदेशी सरकार जनता के निजी और व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करे। 1891 सी.ई. के विवाह की न्यूनतम आयु को बढ़ाने वाले विधेयक का उन्होंने इसी आधार पर विरोध किया। उन्होंने 1881 के प्रथम फैक्ट्री एक्ट का भी विरोध किया।
- तिलक ने सन् 1893 में गणपति महोत्सव प्रारंभ किया 15 अप्रैल, 1896 को प्रथम बार शिवाजी उत्सव का आयोजन हुआ।
- 4 नवम्बर, 1896 को दक्षिण सभा की स्थापना से महाराष्ट्र में नरम दल तथा गरम दल का पूरी तरह अलगाव हो गया। तिलक ने सन् 1895 सी.ई. में कांग्रेस के पण्डाल में महादेव गोविन्द राणाडे को नेशनल सोशल कान्फ्रेंस नहीं करने दी।
- 1896-97 में तिलक ने सम्पूर्ण महाराष्ट्र में ‘कर न देने का आंदोलन चलाया।’ इसी दौरान जनता ने उन्होंने लोकमान्य की उपाधि दी।
- प्लेग के समय सरकार के अमानवीय व्यवहार को तिलक ने अपने पत्र ‘केसरी’ में कटु आलोचना की। इससे प्रेरित होकर पूना के चापेकर बंधुओं ने प्लेग कमिश्नर रैण्ड एवं एमर्स्ट की गोली मारकर हत्या कर दी।
- फलतः तिलक को 18 महीने की जेल सजा हुई। लार्ड बेकन का कथन अधिक दरिद्रता एवं आर्थिक असंतोष क्राँति को जन्म देता है। भारत के संदर्भ में अक्षरशः सत्य है। तिलक ने कांग्रेस के संदर्भ में कहा कि ‘‘यदि हम मेंढक की तरह वर्ष में केवल एक बार हरायेंगे तो भारतीयों को कोई सफलता नहीं मिल सकती।
उदारवादी और उग्रवादी के बीच मतभेदः
- वैचारिक
- व्यक्तियों की टकराहट।
- वैचारिकः उग्रवादी और उदारवादी के बीच उद्देश्य के संबंध में कोई खास मतभेद नहीं था। मुख्य मतभेद साधनों पर था। उदारवादी की राजनीति को उग्रवादी राजनीति भिक्षावृति की संज्ञा देते थे।
बंगाल विभाजन (1905) एवं स्वदेशी आंदोलन
- वायसराय लार्ड कर्जन का सबसे घृणित कार्य 1905 में बंगाल विभाजन था। वस्तुतः एक लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन बंगाल का सूबा अपमान जनसंख्या, विभिन्न भाषाओं और बोलियों वाला इलाका था। इसके विभिन्न भागों की आर्थिक प्रगति भी असमान थी। राष्ट्रवादी स्वयं इसके उस प्रशासनिक पुनर्गठन की माँग कर रहे थें जिसमें बिहार तथा उड़ीसा को अलग किया जाना था।
- यद्यपि कर्जन ने स्वीकार किया कि राज्य के विभाजन के पीछे उत्तरदायी कारक प्रशासनिक पुनर्व्यास्थापन या किंतु उसका वास्तविक उद्देश्य बंगाल में राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने का था। गृह सचिव रिले का कहना था कि राष्ट्रवादी उभार की दृष्टि से तत्कालीन बंगाल एक बड़ी शक्ति है जो विभाजित होने से कमजोर हो जायेगी।
बंगाल विभाजन के दो उद्देश्य थेः
- मूल बंगाल में बंगालियों की आबादी कम करके उन्हें अल्पसंख्यक बनाना था। मूल बंगाल में एक करोड़ 70 लाख बंगाली तथा 3-70 करोड़ उडि़या एवं हिंदी भाषी लोगों को रखने की योजना थी। इसके पीछे धार्मिक विभाजन का भी उद्देश्य था। बंगाल का विभाजन कर ढाका को बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी वाले प्राँत की राजधानी बनाना था।
- इससे पूर्वी बंगाल में मुस्लिम एकता स्थापित होती। कर्जन ने फरवरी, 1904 में ढाका में भाषण करते हुए कहा भी था कि बंगाली मुसलमानों को दो भागों में बाँटा जाना था।
- पूर्वी बंगाल मेंः असम, चटगाँव, ढाका, राजशाही, हिलटपरा, मालदा शामिल थे। इस प्राँत की राजधानी ढाका थी।
- पश्चिम बंगालः इसमें पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा शामिल थे। (असम को 1874 में ही बंगाल से अलग किया जा चुका था)।
- गृह सचिव रिशले ने सर्वप्रथम 3 दिसंबर, 1903 सी.ई. के पत्र में पहली बार इस योजना को घोषित किया। फेजर, रिजले एवं कर्जन ने बंगाल विभाजन को अंतिम रूप दिया।
- फैजर बंगाल के तत्कालीन लेफ्रिटनेंट गवर्नर और रिजले गृह सचिव थे। तभी से इस योजना का विरोध प्रारंभ हो गया। पहले दो महीने में ही इसके विरोध में ढाका, मेमनसिंह तथा चटगाँव जिले में 500 बैठकें हुई। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, कृष्ण मित्र, पृथ्वीचंद्र राय आदि ने अनेक लेख लिखे। कांग्रेस तथा अन्य उदारवादी नेताओं के विरोध असफल हो गये।
- 19 जुलाई, 1905 को बंगाल विभाजन की औपचारिक घोषणा कर दी गई परंतु यह विभाजन 16 अक्टूबर, 1905 से प्रभावी हुआ। 7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता के टाउन हॉल में एक ऐतिहासिक बैठक में स्वदेशी आन्दोलन की विधिवत घोषणा की गई। इसमें विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का निर्णय लिया गया।
- विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का कार्यक्रम सबसे पहले कृष्ण कुमार मित्र की साप्ताहिक पत्रिका संजीवनी के 13 जुलाई, 1905 सी.ई. के अंक में सुझाया गया था।
- 16 अक्टूबर, 1905 सी.ई. को बंगाल का विभाजन हुआ। जैसा कि माना जाता है कि कुछ बुरे शासक भी अच्छे परिणाम पैदा करते हैं। इस विभाजन से राष्ट्रीय आन्दोलन में तीव्रता आ गयी। 16 अक्टूबर के दिन रक्षाबंधन का त्योहार मनाया गया जो बंगाली एकता का प्रतीक था।
- टैगोर ने नारा दिया ‘अमार सोनार बांग्ला और एकला चलो रै। कृष्ण कुमार मित्र ने स्वदेशी विचार दिया और रवीन्द्रनाथ टैगोर एवं रामेन्द्र त्रिपाठी ने आत्म शक्ति पर बल दिया।
- स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और राष्ट्रीय उद्योग पर बल दिया गया। पी. सी. राय तथा नील रत्न सरकार के प्रयासों से केमिकल उद्योग की स्थापना हुई। इस आंदोलन में विद्यार्थियों ने भी बढ़ चढ़ कर भाग लिया। उन्हें डराने के लिये कर्जन ने 22 अक्टूबर, 1905 को कार्लाइल सर्कुलर जैसे कदम उठाये। इसमें धमकी दी गई थी कि राष्ट्रवादी शिक्षण संस्थाओं को अनुदानों, छात्रवृत्तियों एवं विश्वविद्यालय की संबद्धता से वंचित कर दिया जायेगा।
- सरकार के कर्लाइल सर्कुलर के विरोध में राष्ट्रीय शिक्षा पर बल दिया गया। सतीश चंद्र मुखर्जी और अरविन्द घोष ने राष्ट्रीय शिक्षा के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
- सतीश चंद्र ने डॉन सोसाइटी की स्थापना की। 9 नवंबर को सुबोध मालिक ने इस आंदोलन को एक लाख की बड़ी राशि प्रदान की।
- वारीसाल ने स्थित अश्विनी कुमार दत्त की बांधव समिति ने अपनी प्रथम वार्षिक रिपोर्ट में 89 न्यायिक समितियों के माध्यम से 523 ग्रामीण विवादों को सुलझाने का दावा किया था।
- वारीसाल सम्मेलन (1906) के अध्यक्ष एस. अब्दुल रसूल ने कहा पिछले 50-100 वर्षों के दौरान हम जो हासिल नहीं कर सके, वह हमने 6 महीनों में हासिल कर लिया है।
- 1906 के पश्चात विपिन चंद्र पाल की न्यू इंडिया, अरविंद घोष की वंदेमातरम ब्रह्म बांधव उपाध्यक्ष की संध्या एवं वरीन्द्र कुमार घोष से संबंद्ध समूह को युगांतर नामक पत्रिका स्वराज्य के लिये संघर्ष का आहवान करने लगी।
- स्वदेशी आन्दोलन का रूझान सामान्यतः राजनीति को धार्मिक पुनरुत्थानवाद से जोड़ने का रहा था। धार्मिक पुनरुत्थानवाद को बारंबार आंदोलनकारियों द्वारा हौसला बढ़ाने के लिये एवं जन संपर्क के साधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा था। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी स्वदेशी प्रतिज्ञाओं की पद्धति को मंदिरों में प्रयोग करने वाले पहले व्यक्ति थे।
- मई, 1906 में उग्रवादी नेताओं ने प्रतिमा पूजा के साथ शिवाजी उत्सव मनाने पर बल दिया। विपिन चंद्र पाल ने ऐसे विचारों को इस आधार पर उचित बताया कि धर्म तथा राष्ट्रीय जीवन को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
- ब्रह्म बांधव उपाध्याय ने तो यहाँ तक कहा कि तुम कुछ भी सीखो, कुछ भी कहो, कुछ भी करो परंतु बंगाली बने रहो, हिंदू बने रहो। वंदे मातरम् में अरविंद घोष ने हिन्दू समाज के वर्ग विभाजन में जनतंत्र यहाँ तक कि समाजवाद बीज ढूंढ़ निकाले परंतु कुछ नेताओं ने इस पुनरुत्थानवादी तत्त्व की आलोचना भी की।
- संजीवनी तथा प्रवासी जैसी ब्रह्मसमाजी पत्रिकाएँ पोगापंथ की आलोचना करती थीं और स्पष्ट घोषणा की कि जो देशभक्ति हमारे अतीत को गौरवमंडित करती हो और उसे सुधार की आवश्यकता से परे समझती हो और जो धर्म प्रगति करने की आवश्यकता को अस्वीकार करती हो वह एक व्याधि है।
- कृष्ण कुमार मित्र की एंटी सर्कुलर सोसाइटी ने अपने मुसलमान कार्यकर्ताओं तथा शुभचिंतकों की भावनाओं का आदर करते हुए शिवाजी उत्सव का बहिष्कार किया और हेमचंद कानूनगो जैसे क्राँतिकारी ने भी बाद में तत्कालीन प्रचलित धार्मिकता की आलोचना की।
- एंटी सर्कुलर सोसाइटी एकमात्र ऐसी समिति थी जिनमें कई महत्त्वपूर्ण मुसलमान नेता जैसे लियाकत हुसैन, अबुल हुसैन बख्श तथा अब्दुल गफुर आदि जुड़़े हुए थे। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपने दो उपन्यास गोरा (1907-1909) तथा घरे बड़े (1914) में इसका सजीव चित्रण किया है।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) की विशेषताएँ
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) में संघर्ष की जितनी भी धाराएँ फूटीं उनमें सबसे अधिक सफलता मिली विदेशी माल के बहिष्कार आन्दोलन को।
- स्वदेशी आन्दोलन की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता थी कि इसने आत्मनिर्भरता थी कि इसने आत्म-निर्भरता एवं आत्म शक्ति का नारा दिया। टैगोर के शाँति निकेतन की तर्ज पर बंगाल नेशनल कॉलेज की स्थापना की गई। इसके पहले प्राचार्य अरविंद घोष बने।
- अगस्त, 1906 में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद का गठन हुआ जिसका उद्देश्य था ‘‘राष्ट्रीय नियंत्रण के तहत जनता को इस तरह का साहित्यिक वैज्ञानिक एवं तकनीकी शिक्षा देना जो राष्ट्रीय जीवन धारा से जुड़ा हो।’’ शिक्षा का माध्यम देशी भाषाएं बनीं जो क्षेत्र विशेष में प्रचलित थी।
- तकनीकी शिक्षा के लिये बंगाल इंस्टिट्यूट की स्थापना की गई। स्वदेशी आंदोलन वास्तव में भारत में आधुनिक राजनीति की शुरुआत थी। इस आन्दोलन के दौरान अनेक समितियों का निर्माण हुआ। इनमें प्रमुख थी डॉन सोसाइटी (डॉन पत्रिका के नाम पर), एन्टी सर्कुलर सोसाइटी, स्वदेशी बांधव समिति, बत्ती, अनुशीलन समिति, सुरहिंद समिति तथा साधना समिति।
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राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) का क्षेत्रीय विस्तार
- लोकमान्य तिलक ने पूरे देश में विशेषकर बंबई तथा पुणे में इस आंदोलन को लोकप्रिय बनाया। लाला लाजपत राय एवं अजित सिंह ने पंजाब तथा उत्तर प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में इस आन्दोलन को पहुँचाया।
- उत्तर भारत में रावलपिंडी, कांगड़ा, मुलतन तथा हरिद्वार में स्वदेशी आन्दोलन ने खूब जोर पकड़ा। सैयद हैदर रजा ने दिल्ली में इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। चिदम्बर पिल्लैई ने मद्रास प्रेसीडेन्सी में इसका नेतृत्व किया। जहाँ विपिन चंद्र पाल ने अपने भाषणों से इस आन्दोलन को और मजबूत बनाया।
उग्रवाद का क्षेत्रीय विस्तार
- बिहार, असमः बिहार और असम में उग्रवाद बहुत लोकप्रिय नहीं हो सका क्योंकि यहाँ का अभिजात्य वर्ग बंगाली बाबुओं में खुश नहीं था।
- संयुक्त प्राँत में भी उग्रवाद का बहुत अधिक प्रभावी नहीं हुआ। संयुक्त प्राँत में मोतीलाल नेहरू ने आत्मशक्ति और स्वदेशी पर अत्यधिक बल दिया। संयुक्त प्राँत के बनारस में उग्रवाद प्रचंड रूप से पनपा।
- यहाँ मराठी तथा विशेष रूप से बंगाली बड़ी संख्या में रहते थे। इन्होंने मुखदा चरण समाध्याय (संध्या के नये संपादक) के माध्यम में कलकत्ता से संपर्क बनाये रखा। यहाँ के प्रमुख नेता थे सचिन्द्र नाथ सान्याल तथा सुंदर लाल।
महाराष्ट्र
- महाराष्ट्र क्षेत्र में मराठा तथा केसरी ने जनजागरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। बंबई प्रेसिडेंसी के गुजरात भाषी जिले में उग्रवाद जोर नहीं पकड़ सका। यहाँ सूरत में कांग्रेस का अधिवेशन 1907 में हुआ जिसमें कुंवर जी मेहता तथा कल्याण जी मेहता ने भाग लिया।
- इन दोनों बंधुओं ने पाटीदार युवक मंडल की स्थापना करके संगठनात्मक कार्य प्रारंभ किया जिसकी चरम परिणति हुई 1928 के बारदोली आन्दोलन में। मेहता बंधु ही बारदोली की महान गाँधीवादी सफलता के सच्चे निर्माता थे।
- पंजाब में लाला लाजपत राय (लालाजी) ने पंजाबी अखबार निकाला इसका आदर्श वाक्य थाµकिसी भी मूल्य पर स्वावलंबन। 1906 सी.ई. तक यहाँ के उग्रवाद बंगाल की तुलना में नरम ही रहा।
- व्यवहार में यहाँ पर बहिष्कार के स्थान पर रचनात्मक कार्यक्रम पर ही अधिक बल दिया गया और प्रायः नरमदलीय कांग्रेसियों के साथ तथा मुहम्मद शफी एवं फजले हुसैन के नेतृत्व वाले एक मुस्लिम समूह के साथ संयुक्त कार्यवाही का प्रयास करता रहा। परंतु 1906 में पारित चेनाव कॉलोनी बिल (चिनाव क्षेत्र को बस्ती से अंग्रेजों का और कड़ा नियंत्रण रखने हेतु) ने जनता को आन्दोलित कर दिया।
- लाजपत राय को किसानों को भड़काने के आरोप पर देश निकाला दे दिया गया। अजीत सिंह ने लाहौर में ‘अंजुमने मोहिब्बाने वतन’ की स्थापना की तथा भारत माता नामक अखबार निकाला। 1907 सी.ई. में दोनों को देश से निर्वासित कर दिया गया।
मद्रास
- मद्रास में कई गुट में थे मइलापुर गुट का नेतृत्व वी. कृष्णास्वामी अय्ययर कर रहे थे जबकि इग्मोर गुट के प्रमुख जी सुब्रमण्यम अय्यर थे। बहिष्कृत समूह में टी. प्रकाशन, के. एम. कृष्णा राव एवं चिदम्बरम पिल्लई थे।
- प्रकाशम एवं कृष्णा राव ने ‘किस्टना’ पत्रिका निकाली। आँध्र के मुहाने क्षेत्र (राजा मुंदरी, काकीनाड़ा) में वंदे मातरम् आंदोलन चला जिसे 1907 में विपिनचन्द पाल के दौर से बड़ा बल मिला।
- उग्रवाद के पतन के पश्चात आँध्र क्षेत्र में टी. प्रकाशम कोंडावेंकट पैयया और पट्टाभि सीतारमैया जैसे गाँधीवादी नेताओं ने अलग तेलुगू भाषी राज्य की माँग करने के लिये आँध्र महासभा का गठन आरंभ किया।
- मद्रास में उग्रवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व चिदम्बरम पिल्लई कर रहे थे। ये तूतीकोरिन के वकील थे।
- इन्होंने अक्टूबर, 1906 में स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी की स्थापना की थी जो कोलंबो तक जहाज चलाती थी। उनके साथ सुब्रमण्यम शिवा भी सक्रिय थे।
- सुब्रमण्यम् शिवा मदुरै के एक निम्नवर्गीय आंदोलनकारी थे। जो लगभग प्रतिदिन चिदम्बरम पिल्लई के साथ तूतीकोरिन के समुद्र तट तक सभाओं को संबोधित किया करते थे।
- ये लोगों को स्वराज्य का संदेश देते, बहिष्कार का ढँग बतलाते और कभी कभी हिंसक तरीके अपनाने के लिये उकसाते थे। मजदूरों को सुब्रमण्यम शिवा ने कहा ‘‘रूसी क्राँति से लोगों को लाभ हुआ था और क्राँतियों से संसार का सदा लाभ हुआ है।’’
- तमिल क्राँतिकारियों में एक महान कवि सुब्रमण्यम भारती भी शामिल थे। इन्होंने उभरते तमिल राष्ट्रवाद में भारी योगदान दिया। भारती ने ऐसा कविताएँ लिखीं जिनमें 1917 की रूसी क्राँति की जय-जय कार होती थी।
- 1911 सी.ई. में जब विपिन चंद्र पाल ने इस क्षेत्र का दौरा किया तो वातावरण आन्दोलित हो गया और पिल्लई एवं शिवा को गिरफ्तार कर लिया गया। परिणामस्वरूप तिरुनेलबेली और तूतीकोरिन में हिंसा भड़क उठी।
उदारवादी और उग्रवादी में मतभेद
- उदारवादी बहिष्कार की नीति को सिर्फ बंगाल तक रखना चाहते थे जबकि उग्रवादी इसे संपूर्ण भारत में फैलाना चाहते थे। उदारवादियों के लिए बहिष्कार का अर्थ केवल ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार था, जबकि उग्रवादी ब्रिटिश व्यवस्था से जुड़ी हुई सभी चीजों का बहिष्कार करना चाहते थे।
- व्यक्तियों की टकराहट-तिलक के शिष्य आगरकर, रानाडे के खेमें में चले गए। गोखले, फिरोजशाह मेहता और आगरकर के गुट से तिलक का व्यक्तिगत विरोध था। महाराष्ट्र और बंगाल के उग्रवादी एक दूसरे के निकट आते चले गए।
सूरत कांग्रेस विभाजन
- 1905 सी.ई. के बनारस अधिवेशन की अध्यक्षता गोपाल कृष्ण गोखले ने की। इसी अधिवेशन में स्वशासन का प्रस्ताव पारित किया गया। 1906 सी.ई. में कलकत्ता अधिवेशन में विरोध स्पष्ट हो गया।
- घोष ने अध्यक्ष पद के लिए तिलक का प्रस्ताव किया किंतु फिरोजशाह मेहता ने दादा भाई नौरोजी को अध्यक्ष पद के लिए आमंत्रित किया। किन्तु उग्रवादियों के दबाव में स्वराज, स्वदेशी बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा के चार भारी भरकम प्रस्ताव पारित किए गए।
- पहली बार औपचारिक रूप में स्वराज की माँग कलकत्ता (1906 में) अधिवेशन में उठायी गई। इससे पहले ही दादा भाई नौरोजी ने अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस (1904) में भाषण देते हुए भारत को स्वशासन तथा दूसरे ब्रिटिश उपनिवेश की तरह का दर्जा देने की माँग की थी।
- 1905 के बनारस अधिवेशन में भेजे गए अपने संदेश में उन्होंने कहा था कि भारत की समस्याओं का एकमात्र समाधान स्वशासन है। 1907 सी.ई. में अगला अधिवेशन नागपुर में होना था किंतु नागपुर में तिलक गुट का पलड़ा भारी हो सकता था। इसलिए अंतिम समय में इसका स्थान बदलकर सूरत (ताप्ती नदी के किनारे) रखा गया। सूरत के विभाजन का तात्कालिक कारण अध्यक्षों के चुनाव का मुद्दा था।
- उग्रवादी अपना लाल लाजपत राय को अध्यक्ष निर्वाचित करना चाहते थे जबकि उदारवादी इसका विरोध करते थे। सूरत अधिवेशन में रदरफोर्ड भी शामिल थे।
- उग्रवादी, स्वदेशी, स्वराज, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा के चारों प्रस्तावों पर गारंटी चाहते थे जबकि उदारवादी गारंटी देने को तैयार नहीं थे। इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस का विभाजन हो गया और उग्रवादी कांग्रेस से बाहर हो गए।
- लार्ड मिंटों ने भारत सचिव मार्ले को लिखा कि ‘‘सूरत में कांग्रेस का पतन हमारी बहुत बड़ी जीत है।’’
- वारीसाल सम्मेलन (1906) के अध्यक्ष एस. अब्दुल रसूल ने कहा था ‘‘पिछले 50 से 100 वर्षों के दौरान हम जो हासिल नहीं कर सके वह हमने 6 महीनों में हासिल कर लिया और हमें यहाँ तक पहुँचाया है बंगाल विभाजन ने।’’
सांस्कृतिक क्षेत्र स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) का सर्वाधिक प्रभाव सांस्कृतिक क्षेत्र पर पड़ा। बांग्ला साहित्य का यह स्वर्ण काल था। टैगोर का ‘अमार सोनार बांग्ल’ 1871 में बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान बना।
- ग्रामीण हिंदुओं तथा मुसलमानों के मध्य उस समय लोकप्रिय बांग्ला लोक संगीत पर भी इस आंदोलन का प्रभाव पड़ा जैसे पत्नी नीति और नारी गान पर तमाम लोककथाएं लिखी गई। दक्षिणारांजन मित्र मजूमदार की लिखी ‘ठाकुर कुमार झूली’ आज भी बंगाली बच्चों में लोकप्रिय हैं।
- कला के क्षेत्र में भी स्वदेशी प्रवृत्ति विकसित हुई। अवनींद्रनाथ टैगोर ने भारतीय कला पर पाश्चात्य अधिपत्य को तोड़ा तथा मुगलों, राजपूतों की समृद्ध स्वदेशी पारंपरिक कलाओं व अजंता की चित्रकला से प्रेरणा ग्रहण की। 1906 में स्थापित इंडियन सोसाइटी ऑफ ऑरियण्टल आर्टेस की पहली छात्रवृत्ति नंदलाल बोस को मिली। विज्ञान के क्षेत्र में जगदीश चन्द्र बसु और प्रफुल्ल राय की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) में इस समय के अग्रणी श्रमिक नेताओं में अश्विनी कुमार बनर्जी, प्रभात कुसुम राय चौधरी, ऐथेनेसियस अपूर्व कुमार घोष तथा प्रेमतोष बोस थे। इन्होंने हावड़ा में वर्न कंपनी के 247 बंगाली बाबुओं के कार्य संबंधी एक नए अधिनियम को अपमानजनक समझा तथा विरोध स्वरूप बर्हिगमन कर गए।
- सरकारी छापखानों में हड़ताल के मध्य 21 अक्टूबर, 1908 के प्रिंटर्स यूनियन के नाम से श्रमिक संघ स्थापित हुआ। जुलाई, 1906 में ईस्ट इंडियन रेलवे के बाबुओं की हड़ताल के परिणामस्वरूप रेलवे की स्थापना हुई। पहला जमालपुर रेल कारखाने के हड़ताली मजदूरों पर गोली चलाई गई (अगस्त, 1906) तथा दूसरी घटना शेरपुर में हुई जहाँ मुस्लिम दंगाइयों पर सितंबर, 1907 में गोली चलाई गई।
- 1907 तथा 1908 के मध्य अश्विनी कुमार दत्त एवं कृष्ण कुमार मित्र को बंगाल से निर्वासित कर दिया गया। मद्रास में चिदम्बरम पिल्लै तथा हरि सर्वोतम राव को गिरफ्तार कर लिया गया।
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राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) में महाराष्ट्र के क्राँतिकारी आंदोलन
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) के क्राँतिकारियों का सबसे पहला केन्द्र महाराष्ट्र बना। यहाँ चितापावन ब्राह्मणों में स्वराज्य के प्रति उग्र भावना का विकास हुआ।
- प्रथम राजनीतिक हत्या डब्ल्यू. सी. रैण्ड की हत्या थी। 1897 सी.ई. में पूना में चापेकर बंधुओं (दामोदर एवं बालकृष्ण) ने प्लेग कमिश्नर मि. रैण्ड और लेफ्टिनेंट अर्यस्ट की हत्या कर दी।
- 1897 सी.ई. में तिलक को 18 महीने की सजा मिली क्योंकि इन्हीं के निबंध केसरी ने आतंकवादी भावना का प्रसार किया था। धीरे-धीरे कई आतंकवादी संगठन स्थापित होने लगे।
- चापेकर बंधुओं ने 1896-97 सी.ई. में पूना में व्यायाम मंडल की स्थापना की थी। इसकी स्थापना के पीछे उनका उद्देश्य विशुद्ध राजनीतिक था। प्लेग कमिश्नर की हत्या के बाद दामोदर चापेकर को कुछ लोगों ने गिरफ्तार करवा दिया फलतः उन्हें 18 अप्रैल, 1898 को फाँसी दे दी गई। आगे 8 फरवरी, 1899 को व्यायाम मंडल के सदस्यों ने उन द्रविड़ बंधुओं को मृत्यु दंड दे दिया जिन्होंने दामोदर चापेकर को गिरफ्तार कराया था।
- द्रविड़ बंधुओं की हत्या के आरोप में व्यायाम मंडल के सदस्यों को गिरफ्तार किया गया और बालकृष्ण चापेकर तथा अन्य को फाँसी दे दी गई।
- तिलक ने अपने केसरी के लेख में रैण्ड और अर्यस्ट की हत्या की तुलना शिवाजी द्वारा अफजल खाँ की हत्या से की। इस लेख के कारण उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें 18 माह की सजा दी गई। महाराष्ट्र में मराठा, केसरी और काल ने आतंकवादी विचारों का प्रकाशन किया।
- मैडम कामा ने वंदेमातरम नामक पत्र का संपादन किया। उसी तरह वीरेन्द्र कुमार चट्टोपाध्याय ने तलवार नामक पत्र और लाला हरदयाल एवं सोहन सिंह भाखना ने गदर नामक पत्रिका का सम्पादन प्रारंभ किया।
- सावरकर बंधुओं (वीर सावरकर और गणेश सावरकर) ने 1904 में मित्र मेला नामक क्राँतिकारी आतंकवादी संगठन की स्थापना की। आगे चलकर गणेश सावरकर ने 1904 में ही अभिनव भारत नामक आतंकवादी संगठन की स्थापना की।1904 में धीरे-धीरे क्राँतिकारी आतंकवादियों ने शाखाओं का प्रसार विदेशों में करना शुरू किया। 1906 सी.ई. में वी. डी. सावरकर लंदन चले गये।
- रास बिहारी बोस पंजाब और बंगाल के क्राँतिकारियों के बीच सेतु का काम करते थे। 1908 सी.ई. में तिलक को 6 वर्ष की सजा दी गयी और उन्हें माण्डले जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने गीता रहस्य नामक ग्रंथ लिखा। अलीपुर षड्यंत्र केस से मुक्त होने के बाद अरविन्द घोष
- पाण्डिचेरी चले गए और वहाँ उन्होंने एक आश्रम स्थापित कर लिया। उनके द्वारा लिखी गयी दो महत्त्वपूर्ण कृतियां है- सावित्रि और द लाफ डिवाइन।
नासिक षड्यंत्र केस (1909)
- 21 दिसम्बर, 1909 सी.ई. की रात को नासिक के जिला मजिस्ट्रेट जैक्सन को अनंत लक्ष्मण कन्हारे ने गोली मार दी। कन्हारे को गिरफ्तार कर लिया गया और फाँसी दे दी गई। वी. डी. सावरकर को लंदन से गिरफ्तार करके नासिक लाया गया और 37 व्यक्तियों को साथ नासिक षड्यंत्र केस चला जिसमें सावरकर को आजीवन कारावास की सजा मिली।
बंगाल में क्राँतिकारी आंदोलन
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) में बंगाल में क्राँतिकारी आंदोलन का सूत्रपात भद्रलोक समाज ने किया। परन्तु यहाँ क्राँतिकारी विचारधारा को फैलाने का श्रेय बरीन्द्र कुमार घोष (अरविन्द घोष के छोटे भाई) तथा भूपेन्द्र नाथ दत्त (विवेकानंद के छोटे भाई) को दिया जाता है। इन दोनों ने मिलकर 1906 में युगांतर पत्र का संपादन किया। इसमें 1906 में वारीसाल सम्मेलन पर पुलिस लाठी चार्ज के विरोध में कहा गया कि शक्ति का मुकाबला शक्ति से करना चाहिए अगर देश की 30 करोड़ जनसंख्या अपने 60 करोड़ हाथों को उठाती है- तो बल को बल के द्वारा ही रोका जा सकता है।
- ब्रह्मबांधव उपाध्याय ने संध्या का सम्पादन प्रारंभ किया। बंगाल के अलोकप्रिय लेफ्रिटनेंट गवर्नर फूलर की हत्या की योजना असफल रही।
- बंगाल में सर्वप्रथम क्राँतिकारी समूहों की स्थापना 1902 के आसपास मिदनापुर में ज्ञानेन्द्रनाथ बसु द्वारा तथा कलकत्ता में जतीन्द्रनाथ बनर्जी एवं वारीन्द्र कुमार घोष द्वारा स्थापित अनुशीलन समिति से हुई। इनको प्रथम मित्र तथा अरविंद घोष का समर्थन प्राप्त था। इस समय अरविंद गरम दल का नेतृत्व कर रहे थे। 1902 में पुलिनदास ने ढाका अनुशीलन समिति की स्थापना की। यह बंगाल का पहला आतंकवादी संगठन था।
- 1905 सी.ई. में पी. मित्र ने कलकत्ता में अनुशीलन समिति का स्थापना की। बहुत सी पत्रिकाओं के द्वारा आतंकवादी विचारधाराओं का प्रसार होने लगा।
- अरविन्द घोष वारीन्द्र कुमार घोष और भूपेन्द्र चंद चट्टोपाध्याय ने युगांतर पत्र का संपादन प्रारंभ किया। क्राँतिकारियों की इस प्रथम पीढ़ी में हेमचन्द्र कानूनगो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे।
- जनवरी, 1908 सी.ई. में वे पेरिस से स्वदेश लौट आये तथा कलकत्ता के उपनगर मणिकतल्ला के एक संयुक्त धार्मिक पाठशाला में बम बनाने का कारखाना खोला परंतु वारीन्द्र कुमार घोष की लापरवाही से पूरा समूह पकड़ा गया। इनमें अरविंद घोष भी थे।
- यह गिरफ़्तारी खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी द्वारा कैनेडी महिलाओं की हत्या (अप्रैल, 1908 सी.ई.) के कुछ घंटों के भीतर ही हुई।
- इन लोगों पर अलीपुर षडयंत्र केस चलाया गया। मुकदमे के मध्य ही कचहरी में सरकारी वकील तथा पुलिस के डिप्टी सुपरिडेंट की हत्या गोली मार कर कर दी गई।
- इस मुकदमे में अरविंद घोष को रिहा कर दिया गया। नरेन्द्र गोसाई की, जो सरकारी गवाह बन गए थे, कन्हाई लाल दत्त तथा सत्येन्द्र बोस ने गोली मारकर हत्या कर दी।
किंग्स फोर्ड की हत्या का प्रयास (1908)
- डी. एच. किंग्स फोर्ड बिहार के मुज्जफरपुर जिले के न्यायाधीश थे उन पर 30 अप्रैल, 1908 सी.ई. को मुज्जफरपुर में खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी ने बम फेंका।
- किंग्स फोर्ड बच गया परन्तु दुर्भाग्य से उस गाड़ी में मिस्टर केनेडी की पत्नी एवं पुत्री मारी गई। प्रफुल्ल चाकी ने आत्महत्या कर ली परन्तु खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर लिया गया तथा 1908 में 15 वर्ष की आयु में उसे फाँसी दे दी गई। खुदीराम बोस सबसे कम उम्र में फाँसी पाने वाले क्राँतिकारी थे।
ढाका षडयंत्र केस
- दूसरी तरफ ढाका षडयंत्र केस में पुलिन्द बिहारी दास, आशुतोष गुप्ता एवं ज्योतिरमॉय राय को गिरफ्तार कर लिया गया।
बाघा जतिन गुट
- 1915-16 में बंगाल में राजनीतिक डकैतियाँ तथा हत्याएं अपनी चरम सीमा पर पहुंँच गई। अधिकाँश क्राँतिकारी गुट बाघा जतिन के नाम से प्रसिद्ध जतीन्द्रनाथ मुखर्जी के नेतृत्व में एक जुट हो गए। 9 सितम्बर, 1915 सी.ई. को बालासेर (उड़ीसा) में पुलिस द्वारा घेर लिए जाने पर जतिन ने मरते दम तक अत्यंत वीरता पूर्वक मुकाबला किया।
अलीपुर षडयंत्र केस (1908)
- 18 मई, 1908 को कलकत्ता के अलीपुर अदालत में अवैध शस्त्र रखने के कारण 34 व्यक्तियों पर अलीगढ़ षडयंत्र केस का मुकदमा चला। इस केस में सरकारी गवाह नरेन्द्र गोसाई की अलीपुर जेल में सत्येन्द्र नाथ घोष ने हत्या कर दी।
- वारीन्द्र गुट के सभी सदस्यों को आजीवन काला पानी की सजा मिली। परन्तु अरविन्द घोष छोड़ दिये गये। रिहाई के बाद उन्होंने कहा कि जेल में उन्हें कृष्ण के दर्शन हुये। अरविन्द घोष ने कर्मयोगिन नामक पत्र अंग्रेजी में निकाला। इस पत्र के आपत्ति पूर्ण लेख के लिये इनके विरूद्ध वारंट जारी किया गया तब ये फरार हो गये और पांडिचेरी में जाकर रहने लगे वहीं पर अरोविल में 1916 सी.ई. में एक आश्रम की स्थापना की।
पंजाब में क्राँतिकारी आंदोलन
- पंजाब में क्राँतिकारी आतंकवाद का उदय बार-बार पड़ने वाले अकालों और भूराजस्व तथा सिंचाई करानें में वृद्धि के परिणाम स्वरूप हुआ।
- पंजाब में क्राँतिकारी आंदोलन के प्रणेता जतिन मोहन चटर्जी (जे.एम. चटर्जी) थे। इन्होंने 1904 में सहारपुर में भारत माता सोसायटी नामक गुप्त संस्था बनाई थी। इनका परिवार सहारनपुर में बसा था। इनके साथ लाल हरदयाल, अजीत सिंह और सूफी अम्बा आ मिले।
- 1907 में अजीत सिंह एवं लाला लाजपत राय निर्वासित हो गये तथा लाल हरदयाल विदेश चले गये। 1908 में क्राँतिकारी गुट का नेतृत्व मास्टर अमीर चन्द्र के हाथों में आ गया। इनका संबंध बंगाल के क्राँतिकारियों से था। 23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में वायसराय हार्डिंग पर बम फेंका गया। बम फेंकने वाले में बसन्त विश्वास और मन्मथ विश्वास बंगाल से भेजे गए थे।
- संयुक्त राज्य अमेरिका में गदर पार्टी की स्थापना के उपरान्त पंजाब गदर पार्टी की गतिविधियों का केन्द्र बन गया। पंजाब के बहुत से क्राँतिकारी लाला हरदयाल तथा भाई परमानंद आदि संयुक्त राज्य में अमेरिका में गदर पार्टी में आंदोलन में शामिल हो गए।
लाहौर षड्यंत्र (1915)
- 1915 में पंजाब में एक संगठित आंदोलन की रूपरेखा तैयार की गई जिसमें निश्चय किया गया कि 21 फरवरी, 1915 को सम्पूर्ण उत्तरी भारत में एक साथ क्राँति का बगुल बजाया जाए। यह योजना सरकार को पता चल गई। अनेक नेता पकड़े गए। उन्हें लाहौर षड़यंत्र के रूप में सजा दी गई। इन नेताओं में पृथ्वी सिंह, परमानंद, करतार सिंह, विनायक जगह सिंह आदि देश भक्त थे।
मद्रास में क्राँतिकारी आंदोलन
- मद्रास प्रान्त में भी क्राँतिकारी विचारों का प्रसार हुआ। यहाँ नीलकण्ठ ब्रह्मचारी और बंची अय्यर ने गुप्त रूप से भारत माता समिति की स्थापना की। अय्यर ने 17 जून, 1911 को तिन्नेवेल्ली के जिला जज आशे को गोली मारकर हत्या कर दी और बाद में आत्महत्या कर ली।
- मद्रास में भारत माता एसोसिएशन के वांची अय्यर ने गरम दलीय नेता चिदम्बरम पिल्लई की गिरफ़्तारी का विरोध कर रही भीड़ पर गोली चलाने वाले अधिकारी की हत्या कर दी। 21 फरवरी, 1915 सी.ई. की तिथि निर्धारित की गई जब पेशावर से लेकर चटगाँव तक विद्रोह होना था।
दिल्ली में क्राँतिकारी आंदोलन
- कलकत्ता से दिल्ली में राजधानी परिवर्तन के अवसर पर जब वायसराय लार्ड हार्डिंग समारोहपूर्वक दिल्ली में प्रवेश कर रहे थे, तब चाँदनी चौक में 23 दिसम्बर, 1912 को उनके जुलूस पर बम फेंका गया, परन्तु वह बच गया।
- लार्ड हार्डिंग की हत्या के षड़यंत्र की योजना रास बिहारी बोस ने बनाई थी। बम फेंकने वालों में बसंत विश्वास और मन्मथ विश्वास प्रमुख थे।
- लार्ड हार्डिंग की हत्या से संबंधित मुकदमा दिल्ली षड़यंत्र केस के नाम से जाना जाता है। इस मुकदमे में बसंत विश्वास, बाल मुकुंद, अवध बिहारी तथा मास्टर अमीर चंद्र को फाँसी हो गई।
- इस षड़यंत्र का रहस्य खुल जाने पर रास बिहारी बोस भागकर जापान चले गये जहाँ उन्होंने अपनी क्राँतिकारी गतिविधियाँ जारी रखीं।
- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1942 में उन्होंने इंडियन इंडिपेडेन्स लीग का गठन किया तथा आजाद हिन्द फौज के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विदेश में क्राँतिकारी आंदोलन
- भारत के राष्ट्रवादी क्राँतिकारियों ने विदेशों में काम करने, अन्य देशों के क्राँतिकारियों से सम्पर्क स्थापित करने, भारत का स्वतंत्रता के बारे में वैध प्रचार करने तथा विदेशियों से सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से अपने आंदोलन का केन्द्र विदेशों में विशेषकर ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, अफगानिस्तान, जर्मनी तथा पेरिस आदि स्थलों को बनाया।
- लंदनः भारत के बाहर सबसे पुरानी क्राँतिकारी समिति फ्इंडिया होमरूल सोसाइटीय् की स्थापना श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लंदन में की।
इंडिया होमरूल सोसाइटी
- इंडिया होमरूल सोसाइटी की स्थापनाः 1905 सी.ई. लंदन में श्यामजी कृष्ण वर्मा के द्वारा की गई जिसके उपाध्यक्ष- अब्दुल्ला सुहरावर्दी थे।
- श्याम कृष्ण वर्मा 1897 सी.ई. में लंदन में बस गए थे। उनके पास भारतीय क्राँतिकारियों का एक समूह था जिनमें वी. डी. सावरकर, लाला हरदयाल और मदन लाल ढींगरा प्रमुख थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने भारत के लिए स्वशासन की प्राप्ति के उद्देश्य से इंडिया होमरूल सोसाइटी की स्थापना की थी।
- इसकी स्थापना ब्रिटेन के समाजवादी नेता हिडमैन के सुझाव पर की गई। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने एक पत्र इंडियन सोसियोलॉजिस्ट निकालना प्रारम्भ किया। इसमें उन्होंने स्पष्ट कहा कि इसका उद्देश्य भारत के लिए स्वराज प्राप्त करना और ब्रिटेन में अपने पक्ष का प्रचार करना है।
- श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लंदन में भारतीयों के लिए इंडिया हाउस नामक हास्टल की स्थापना की। बाद में यही इंडिया हाउस क्राँतिकारियों का अड्डा बन गया।
- श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा उनके सहयोगियों की बढ़ती हुई क्राँतिकारियों गतिविधियों की और ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित हुआ।
- लंदन के द टाइम्स तथा अन्य समाचार पत्रों ने श्यामजी तथा उनके साथियों की आलोचना की। इसके बाद श्यामजी लंदन छोड़कर पेरिस में बस गए और इंडिया हाउस का राजनीतिक नेतृत्व वी. डी. सावरकर ने संभाला।
- 10 मई, 1908 को इंडिया हाउस में गदर दिवस मनाया गया। इसी समय वी. डी. सावरकर ने प्रसिद्ध पुस्तक इंडियन वार ऑफ इंडिपेडेन्स 1857 लिखी। इसी पुस्तक में 1857 के विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा गया।
कर्जन वायली की हत्या (1909)
- लंदन में 1 जुलाई, 1909 सी.ई. को मदन लाल ढींगरा ने इंडिया ऑफिस के राजनीतिक सलाहकार कर्जन वायली की गोली मारकर हत्या कर दी। धींगरा को गिरफ्तार कर लिया गया और फाँसी दे दी गई।
- इसके बाद वीर सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया और नासिक षड़यंत्र कांड तथा अन्य अभियोगों के मामले में मुकदमा चलाने के लिए उन्हें भारत भेजा गया।
- फाँसी पर चढ़ते हुए मदन लाल ढींगरा ने कहा फ्मुझ जैसा गरीब बेटा जिसके पास न धन है ना कोई योग्यता माँ की मुक्ति की बेदी पर अपना रक्त ही बलिदान कर सकता है ईश्वर करे मैं उसी माँ की कोख से बार-बार जन्म लेकर उसी पवित्र ध्येय के लिये तब तक बार-बार मरता रहूं जब तक कि मेरा ध्येय पूरा न हो जाए और वह मानवता के कल्याण के लिए एवं ईश्वर के कृपा स्वरूप स्वाधीन न हो जाए।
- मैडम भीकाजी कामाः यह महाराष्ट्र की पारसी परिवार से संबंधित थीं तथा श्यामजी कृष्ण वर्मा की सहयोगी थीं। मैडम भीकाजी रूस्तम के. आर. कामा ने 1902 भारत छोड़ दिया तथा यूरोप के विभिन्न देशों एवं अमेरिका में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध क्राँतिकारी प्रचार करने में लगी रहीं।
- वह सरदार सिंह राना के साथ पेरिस में रहती थीं तथा उन्होंने भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अगस्त, 1907 सी.ई. में दूसरी इंटरनेशनल की स्टुटगार्ट (जर्मनी) में अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस में भाग लिया। मैडम कामा ने भारत में ब्रिटिश शासन के घातक दुष्परिणाम का खुलासा करते हुए एक उत्तेजनापूर्ण भाषण दिया तथा सम्मेलन में अन्त में वहीं भारत का राष्ट्रीय तिरंगा हरा, पीला व लाल ध्वज फहराया। मैडम कामा को मदर ऑफ इंडियन रिवोल्यूशन कहा जाता है।
- अमेरिकाः 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में बहुत से भारतीय संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा में जाकर बस गए थे। 1906 सी.ई. के आसपास इन भारतीयों ने संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रवादी गतिविधियाँ शुरु कीं तथा ब्रिटिश शासन विरोधी सामग्री प्रकाशित करने लगे।
- संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रमुख भारतीयों में तारकनाथ दास थे। इन्होंने 1907 में कैलीफोर्निया में भारतीय स्वतंत्रता लीग का गठन किया और अगले वर्ष वे स्वतंत्र हिन्दुस्तान नामक समाचार पत्र प्रकाशित करने लगे।
- 1913 सी.ई. में सोहन सिंह भकना ने हिन्द गदर नामक एक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन भी किया। इसी कारण इस संगठन का नाम गदर पार्टी पड़ गया। इस संगठन ने सेनफ्रांसिस्को के युगांतर आश्रम से कार्य करना प्रारम्भ किया। इस स्थान का नाम कलकत्ता से प्रकाशित सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी पत्रिका युगान्तर के नाम पर रखा गया था।
- क्राँतिकारी आतंकवादी 20वीं सदी के प्रारम्भ से ही विदेश में अपनी जड़ें जमा रहे थे। उदाहरण के लिए 1907 सी.ई. में अमेरिका में पश्चिमी तट पर निर्वासित जीवन बीता रहे रामनाथपुरी ने ‘सर्कुलर-ए-आजादी’ बाँटी जिसमें स्वदेशी आन्दोलन का समर्थन किया गया था। तारकनाथ दास ने 1908 में कनाडा के वैंकूवर में फ्री हिन्दुस्तान नामक पत्र प्रारंभ किया।
- जी. डी. कुमार ने वैंकूवर में स्वदेश सेवक गृह की स्थापना की और गुरूमुखी में स्वदेश सेवक नामक अखबार भी निकालना शुरू किया। इस समय 1910 सी.ई. तक तारक नाथ दास एवं जी. डी. कुमार बैंकूवर छोड़ चुके थे और अमेरिका आ चुके थे।
- अमेरिका में सिएटल में तारकनाथ दास एवं जी. डी. कुमार ने यूनाइटेड इण्डिया हाऊस की स्थापना की।
हिन्दी एसोसिएशन एवं गदर पार्टी
- पश्चिमी अमेरिकी तट पर मई, 1913 सी.ई. पोर्टलैण्ड में हिन्दी एसोसिएशन की स्थापना की गई। इसकी पहली बैठक में भाई परमानंद, सोहन सिंह भाखना और हरनाम सिंह उपस्थित थे।
- 1913 सी.ई. में परमानंद, सोहन सिंह भाखना और लाला हरदयाल ने मिलकर सेनफ्रांसिस्कों में गदर पार्टी की स्थापना की। इस संस्थान से काशीराम पंडित, कर्त्तार सिंह सरावा, रामचंद्र आदि भी जुड़े हुए थे। पहली बैठक में सोहन सिंह भाखना को गदर पार्टी का अध्यक्ष चुना गया।
- हरदयाल जनरल सेक्रेटरी बने तथा पंडित काशीराम इसके कोषाध्यक्ष बने। इस सम्मेलन में भाई परमानंद तथा हरनाम सिंह टूंडी लाट भी उपस्थित थे। यहाँ फैसला लिया गया कि सेन फ्रांसिस्कों में युगान्तर आश्रम नाम से मुख्यालय बनाया जायेगा। नवम्बर, 1913 सी.ई. से गदर पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ।
- इसका प्रकाशन अंग्रेजी, उर्दू, गुरूमुखी में होता था। एक आयरिश महिला मैडम कामा ने पेरिस में आतंकवादी विचार का प्रसार शुरू किया। अजीत सिंह यूरोप के अन्य भागों में इस विचार का प्रसार कर रहे थे।
अफगानिस्तान में क्राँतिकारी आंदोलन
- 1915 सी.ई. में राजा महेन्द्र प्रताप ने बरकतुल्ला और ओबईदुल्ला सिंधी की सहायता से काबुल में भारत की प्रथम और स्वतंत्र अस्थायी सरकार की स्थापना की।
- इनके मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों में मौलाना अब्दुल्ल, मौलाना वशीर, सी. पिल्ले, शमशेर सिंह, डा. मथुरा सिंह, खुदाबख्श आदि थे। मुहम्मद अली बरकतुल्ला प्रधानमंत्री चुने गए।
- राजा महेन्द्र प्रताप राष्ट्रपति बने। समर्थन के लिये राजा महेन्द्र प्रताप लेनिन से भी मिलने गए। युद्ध के दौरान विदेश से भारत के क्राँतिकारियों को सहायता भेजने के प्रयास बर्लिन में केन्द्रित थे। उसी समय बंगाल में भी आतंकवादी आन्दोलन में उछाल आया।
- बंगाल का एक आतंकवादी बाघा जतीन था। जतीन मुखर्जी ने विदेश के आतंकवादियों से अस्त्र मँगाना चाहा किंतु उसके षडयंत्र का भण्डाफोड़ हो गया और वह पुलिस मुठभेड़ में मारा गया।
कामागाटामारू केस (1914)
- कनाडा में एक नये प्रवास कानून को लागू किया गया था जिसके अनुसार सीधे अपने जहाज पर आने वालों के सिवा किसी अन्य जहाज या व्यक्ति के कनाडा की सीमा में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया।
- सिंगापुर में रह रहे एक भारतीय कान्ट्रेक्टर गुरदित्त सिंह ने इस कानून का उल्लंघन करने के लिये कामगाटामारू नामक जहाज किराये पर लिया तथा पूर्वी एवं दक्षिण पूर्वी एशिया के विभिन्न भागों में रहने वाले 376 भारतीयों को लेकर वैंकूवर के लिये रवाना हो गया।
- रास्ते में गदर पार्टी के नेता आकर उनका प्रोत्साहन करते। इस जहाज के प्रवास की पूर्व सूचना पर कनाडा सरकार ने कानून को और कड़ा कर दिया तथा जहाज को बंदरगाह में नहीं जाने दिया गया।
- वैंकूवर में शोर कमेटी के सदस्य नेता हुसैन रहीम, सोहन लाल पाठक तथा बलवन्त सिंह के प्रयत्नों के बावजूद तथा अमेरिका में बरकतुल्ला, भगवान सिंह, रामचंद्र एवं सोहन सिंह भाखना के शक्तिशाली अभियानों के बावजूद कामगाटामारु का कनाडा जल सीमा से बाहर निकाल दिया गया। इस जहाज के कलकत्ता के पास बजबज पहुँचने पर तथा पुलिस के विद्वेषपूर्ण रवैये के कारण संघर्ष छिड़ गया जिसमें 18 यात्रियों की मृत्यु हो गई एवं 202 को गिरफ्तार कर लिया गया।
- सरकार के इस रवैये से जनता में आक्रोश उबलने लगा। पंजाब की छावनियों में 19 वर्षीय नौजवान कर्तार सिंह सराभा ने क्राँति का संगठन किया। उन्होंने मरते वक्त कहा था कि अगर मुझे एक से अधिक जीवन मिले तो मैं उन सबको देश के लिये बलिदान कर दूं।
- आतंकवादियों के द्वारा भारत में एक व्यापक कार्यवाही की योजना बनाई गयी। सैनिकों के बीच भी आतंकवादी विचारों का प्रकाशन शुरू किया गया। इस योजना के तहत किसानों, सैनिकों एवं आम जनता का गठबंधन बना कर स्शस्त्र विरोध करने की योजना थी।
- 21 जुलाई, 1915 सी.ई. का दिन निश्चित किया, जिस दिन पेशावर से लेकर चटगाँव तक महत्त्वपूर्ण सरकारी केन्द्रों पर हमला किया जाना था परंतु समय रहते ही यह षडयंत्र खुल गया जिसमें करतार सिंह सराभा, विष्णु पिंगले आदि को गिरफ्तार कर लिया गया।
- भारत सरकार ने भारत सुरक्षा अधिनियम के तहत विशेष मुकदमा दायर किया जो प्रथम लाहौर षडयंत्र केस के नाम से विख्यात हुआ।
तोषामारू काण्ड (1914)
- तोषामारू एक जहाज था जिस पर गदर पार्टी के कुछ सदस्य लौट रहे थे जहाज सिंगापुर रूका वहाँ क्राँतिकारी परमानंद के भाषण अनेक भारतीय सैनिकों में क्राँतिकारी भावना जागृत हुई। सिंगापुर लाइट इन्फैन्ट्री के जवानों ने जमादार चिश्ती खाँ एवं डुंडे खाँ के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया इसे सिंगापुर क्राँति नाम से भी जाता है।
सिल्क पेपर षडयंत्र (1915)
- मौलवी अवयदुल्ला सिंधी द्वारा कुछ पत्र महमूद हसन को पीली सिल्क पर फारसी भाषा में लिखा गया था बाद में इन पत्रों के पकड़े जाने पर इसे सिल्क पेपर षडयंत्र के नाम से जाना गया।
सकारात्मक प्रभाव
- इन्होंने भारतीय जनता के बीच अभूतपूर्व त्याग का उदाहरण पेश किया। उन्होंने हमारी मनुष्यता के गौरव को वापस कर दिया।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) के तहत क्राँतिकारी आतंकवाद का दूसरा चरण
- असहयोग आंदोलन की असफलता ने युवकों को फिर आतंकवाद की ओर मोड़ दिया। पंजाब, संयुक्त प्राँत और लाहौर में फिर एक बार आतंकवाद की लहर आई।
- 1923-24 में गोपीनाथ शाहा ने एक ब्रिटिश अधिकारी ‘डे’ की हत्या कर दी। संयुक्त प्राँत में दो महत्त्वपूर्ण आतंकवादी प्रकाश में आए यथा सचिन सान्याल और योगेशचंद्र चटर्जी। ये दोनों संयुक्त प्राँत में रहने वाले बंगाली थे। सचिन सान्याल ने अपने पत्र ‘बंदी जीवन’ के द्वारा आतंकवादी विचारधारा का प्रचार किया।
- यह पत्र हिंदी तथा गुरूमुखी में भी छपा था। शतरचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1926 में पाथेर दांबी को प्रकाशित किया जिसमें शहरी मध्य वर्ग की क्राँति को स्तुति की गई थी।
- सरकार ने इस उपन्यास पर प्रतिबंध लगा दिया। सचिन सान्याल तथा योगेशचन्द्र चटर्जी मिलकर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसेसिएशन की स्थापना की। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना का उद्देश्य था सशस्त्र क्राँति के माध्यम से औपनिवेशक सत्ता को उखाड़ फेंकना और एक संघीय गणतंत्र संयुक्त राज्य भारत की स्थापना करना।
- हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ने धन जमा करने के उद्देश्य से पहली बड़ी कार्यवाही काकोरी में की। सरकारी खजाना लुटने की यह घटना काकोरी कांड के नाम से मशहूर है। 9 अगस्त, 1925 सी.ई. को 10 व्यक्तियों ने लखनऊ के पास एक गाँव काकोरी में 8 डाउन ट्रेन की रोककर रेलवे का खजाना लूट लिया।
- इस घटना की प्रतिक्रिया में रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाक खाँ तथा राजेन्द्र लाहिड़ी को मृत्युदंड दे दिया गया। चार अन्य को आजीवन कारावास देकर अंडमान द्वीप पर भेज दिया गया। चन्द्रशेखर आजाद फरार होने में कामयाब रहे।
- उत्तर भारत क्राँतिकारियों ने इस आघात से उबरते हुए उत्तर प्रदेश में विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, अजय घोष (भावी कम्युनिस्ट महासचिव) तथा पंजाब में भगवती चरण वोहरा और सुखदेव एवं बिहार के फणीन्द्र नाथ घोष ने चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में हिन्दुस्तान रिपब्लिक आर्मी को पुनः संगठित करने का काम प्रारंभ किया।
- 1925 में सचिन सान्याल ने एक पम्पलेट प्रकाशित किया जिसमें काकोरी कांड के संदर्भ में घोषित किया कि नये तारों को जन्म लेने के लिए पुराने तारे नष्ट होते ही रहते हैं। इस काल के क्राँतिकारियों की विशेषता थी कि ये युवा समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में आते जा रहे थे।
- अंततः 9 से 10 सितंबर, 1928 सी.ई. को फिरोजशाह कोटला मैदान (दिल्ली) में उत्तर भारत के युवा क्राँतिकारियों की बैठक हुई। इस सभा में भगत सिंह तथा उनके पंजाब समूह, संयुक्त प्राँत से यतीन्द्र नाथ, अजय घोष, तथा बिहार के फणिन्द्र नाथ घोष ने मिलकर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ की स्थापना की। इन युवाओं ने सामूहिक नेतृत्व को स्वीकार किया।
- इस काल के क्राँतिकारी नेता व्यक्तिगत आतंकवाद और हत्या की रणनीति को छोड़ धीरे-धीरे संगठित क्राँतिकारी कार्यवाई में विश्वास करने लगे थे। परंतु 30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान लाला लाजपत राय पर बर्बर लाठी चार्ज तथा उसके पश्चात उसकी मौत ने युवा क्राँतिकारियों को एक बार पुनः व्यक्तिगत आतंकवाद की राह पर खड़ा कर दिया।
- इस घटना का बदलना लेने के लिए 17 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद तथा राजगुरु ने लाहौर में लाला लाजपत राय पर लाठी बरसाने वालों में से एक पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या कर दी।
- इसके पश्चात H.S.R.A. के नेतृत्व ने जनता को यह समझाने का निर्णय किया कि उसका उद्देश्य अब बदल गया है। वह जनक्राँति में विश्वास रखता है।
- भगत सिंह एक नास्तिकवादी समाजवादी थे। वे नौजवान भारत सभा से जुड़े हुए थे। उन्होंने एक निबंध प्रकाशित किया कि मैं नास्तिक क्यों हूं। उन्होंने घोषणा की कि मैं बम और पिस्तौल के सम्प्रदाय में विश्वास नहीं करता बल्कि मैं पूरी व्यवस्था को बदलना चाहता हूं।
- 8 अप्रैल, 1929 सी.ई. को केन्द्रीय विधान परिषद में Trade Dispute Bill तथा Public Safety Bill पारित किया जा रहा था तो भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने एसेंबली में बम फेंका और वहाँ कुछ पम्फलेट बिखेर दिया। उनका उद्देश्य था अपनी विचारधारा का प्रसार। इन्होंने विधान परिषद में इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाए। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और लाहौर षडयंत्र मुकदमे के तहत सुखदेव, राजगुरु और भगतसिंह को 23 मार्च, 1931 को फाँसी दे दी गई।
- उनकी माँग थी कि उन पर साधारण अपराधी की तरह मुकदमे न चलाकर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले राजनैतिक कैदी की तरह मुकदमा चलाया जाए।
- अंत में 64वें दिन उनकी मृत्यु हो गई किंतु उन्होंने भूख हड़ताल नहीं छोड़ी। उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि कलकत्ता में उनकी अर्थी के पीछे दो मील लम्बा जुलूस चल रहा था।
- फरवरी, 1931 सी.ई. में चन्द्रशेखर आजाद इलाहाबाद में एक मुठभेड़ में मारे गए और 1933 सी.ई. तक चटगाँव शस्त्रगार पर कब्जा करने वाले सूर्यसेन को कुचल दिया गया। इस तरह एक बार फिर आतंकवाद की कमर टूट गई और बहुत सारे आतंकवादी साम्यवादी दल में शामिल हो गए।
- बाद में जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि पंजाब तथा उत्तरी भारत में भगत सिंह अचानक लोकप्रिय हो गये थे। कुछ समय के लिए तो इन क्राँतिकारियों की लोकप्रियता गाँधी जी से भी आगे बढ़ गई थी।
क्राँतिकारी दर्शन का प्रतिपादन
- भगत सिंह तथा उनके क्राँतिकारी साथियों ने पहली बार क्राँतिकारियों के समक्ष एक क्राँतिकारी दर्शन रखा जिसमें बताया गया कि क्राँति का क्या लक्ष्य होना चाहिए।
- अपने 1925 सी.ई. के घोषणापत्र में इस संगठन ने निम्नांकित लक्ष्य रखेः
- इस संस्था का उद्देश्य उन तमाम व्यवस्थाओं का उन्मूलन करना होगा जिनके तहत एक व्यक्ति दूसरे का शोषण करता है।
- रेल एवं परिवहन के अन्य साधनों तथा इस्पात एवं जहाज निर्माण जैसे बड़े-बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया जायेगा। इस संगठन का उद्देश्य मजदूरों एवं किसानों का संगठन बनाना होगा जो संगठित होकर क्राँति के लिए काम करेगा।
- हिन्दू-मुस्लिम एकता को बनाये रखा जायेगा।
- इन्होंने साम्यवाद में अपनी आस्था व्यक्त की और इस सिद्धान्त की हिमायत की कि प्रकृति की संपदा पर हर इंसान का बराबर हक है।
- भगत सिंह ने साम्यवाद का गहन अध्ययन किया था। उन्होंने लाहौर के द्वारकादास पुस्तकालय में रखी क्राँति से संबंधित लगभग सभी पुस्तक को पढ़ डाला था।
- लाहौर में सुखदेव व अन्य लोगों की मदद से उन्होंने कई अध्ययन केन्द्र स्थापित किये थे और जब एच. एस. आर. ए. का दफ्तर आगरा चला गया तो वहाँ भी भगत सिंह ने एक पुस्तकालय की स्थापना की।
- एक बार लाहौर कोर्ट में उन्होंने कहा था कि ‘क्राँति की तलवार में धार वैचारिक पत्थर पर रगड़ने से ही आती है।’
- क्राँतिकारियों ने जनता को अपनी विचारधारा से अवगत कराने के लिये अपना दस्तावेज ‘द फिलॉसफी ऑफ द बम’ नाम से जारी किया। इसे आजाद के अनुरोध पर भगवती चरण वोहरा ने तैयार किया था। इसकी प्रस्तावना भगत सिंह ने लिखी थी।
- अपने विचारों का प्रचार करने के लिए 1926 में भगत सिंह ने भारत नौजवान सभा की स्थापना की। वे इस संगठन के संस्थापक महामंत्री थे।
- इस संगठन के तत्वाधान में भगत सिंह तथा सुखदेव ने छात्रों के बीच खुले तौर पर काम करने के लिए लाहौर छात्र संघ का गठन किया।
- 3 मार्च, 1931 सी.ई. को भगत सिंह ने अपने अंतिम संदेश में घोषणा की थी कि ‘‘भारत में संघर्ष तब तक चलता रहेगा जब तक मुट्ठी भर शोषक अपने लाभ के लिए जनता के श्रम का शोषण करते रहेंगे।
- इसका कोई खास महत्त्व नहीं है कि शोषक अंग्रेज पूँजीपति है या अंग्रेज और भारतीयों का गठबंधन है या पूरी तरह से भारतीय है।’’ क्राँतिकारी आतंकवादी की खास बात थी उनका व धर्मनिरपेक्ष चरित्र।
- 1924 सी.ई. में जब लाला लाजपत राय ने साम्प्रदायिक राजनीति का रास्ता अख्तियार किया था भगत सिंह ने उनके खिलाफ वैचारिक आन्दोलन छेड़ दिया। इस हेतु उन्होंने राबर्ट ब्राउनिंग की एक कविता द लॉस्ट लीडर को एक परचे के रूप में छापा।
- इस समय बंगाल में युगांतर तथा अनुशीलन जैसी पार्टी पर उग्रवादी कांग्रेस का कब्जा था जिसकी वजह से इसके नेतृत्व में ठोस आंदोलन संगठित नहीं हो सका।
- साथ ही दोनों गुटों में वैचारिक मतभेद भी उभर रहा था। 1928 में सुभाषचन्द्र बोस के जेल से रिहा होने के पश्चात तो संघर्ष और तेज हो गया। युगांतर समूह ने संभाषचंद्र बोस का समर्थन किया तो अनुशीलन समूह ने जे. एम. सेनगुप्ता का।
- इन सब के मध्य कुछ युवा विद्रोही समूह उत्पन्न हुए परंतु सरकार ने इनके बीच फूट का सहारा लेकर 1929 के मछुवा बाजार बमकांड की याद में इनको कुचल डाला।
होम रूल आंदोलन (1916)
- 1916 सी.ई. तक देश की स्थिति में कई प्रकार के परिवर्तन आये। तिलक 6 साल लंबी सजा काटने के बाद 16 जून, 1914 सी.ई. को जेल से छूटे। उनके कैद का अधिकाँश समय वर्मा की मांडले जेल में बीता था।
- स्वदेशी आंदोलन के नेता अरविंद घोष सन्यास लेकर पांडिचेरी जा चुके थे। लाजपत राय अमेरिका में थे तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सूरत के विभाजन, स्वदेशी आंदोलनकारियों पर अंग्रेजी हुकूमत के दमनकारी प्रभावों और 1909 के संवैधानिक सुधारों के कारण नरमपंथी राष्ट्रवादियों की निराशा के सम्मिलित सदमें से अभी तक उबर नहीं पाई थी।
- 1914 सी.ई. तक कांग्रेस पर एनी बेसेंट का प्रभाव काफी बढ़ गया था। बेसेंट तथा तिलक के प्रयास से कांग्रेस का दरवाजा उग्रवादियों के लिए 1915 सी.ई. में खोल दिया गया। अब तक फिरोजशाह मेहता तथा गोपालकृष्ण गोखले की मृत्यु हो चुकी थी। इस समय देश में होमरूल की माँग काफी जोर पकड़ने लगी थी। 1915 सी.ई. के प्रारंभ में एनी बेसेंट ने न्यू इंडिया तथा कॉमनवील नामक पत्रों के माध्यम से होमरूल आन्दोलन छेड़ दिया।
- उनकी माँग थी कि जिस तरह से गोरे उपनिवेशों में वहाँ की जनता को अपनी सरकार बनाने का अधिकार दिया गया है वही अधिकार भारतीय जनता को भी प्राप्त होना चाहिए। तिलक भी उनके विचार से सहमति रखते थे। तिलक ने अप्रैल, 1916 में बेलगाँव में हुए प्राँतीय सम्मेलन में होम रूल लीग के गठन की घोषणा कर दी। जोसेफ बेपटिस्टा इसके अध्यक्ष थे।
- संभवतः वे महाराष्ट्र में अपना आधार बनाये रखना चाहते थे। एनी बेसेंट के समर्थकों ने भी इस दिशा में कदम उठाया तथा उनकी अनुमति से पहले होमरूल ग्रुप की स्थापना कर ली।
- 1916 से जमनादास द्वारकादास, शंकर लाल बैंकर तथा इन्दुलाल याज्ञनिक ने बम्बई से एक अखबार ‘यंग इंडिया’ का प्रकाशन शुरू किया। 1915 सी.ई. में लाला लाजपतराय ने अमेरिका में एक होम रूल लीग का गठन किया था।
- सितंबर, 1916 सी.ई. में एनी बेसेंट ने भी होमरूल लीग की स्थापना की तथा जार्ज अरूंडेल का संगठन को सचिव नियुक्त किया। तिलक तथा बेसेंट ने किसी प्रकार की गड़बड़ी से बचने के लिए अपने अपने कार्यक्षेत्रों का निर्धारण कर लिया।
- तिलक की लीग ने 6 मराठी तथा 2 अंग्रेजी पर्चे निकालकर अपने विचार कार्य को तेज किया। बाद में इन पर्चों को गुजराती तथा कन्नड़ भाषा में भी छापा गया।
- तिलक ने क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा तथा भाषाई राज्य की माँग को इस आंदोलन में शामिल कर दिया। उन्होंने मराठी, तेलुगु, कन्नड़ तथा अन्य भाषाओं के आधार पर प्राँतों के गठन की माँग की।
- उनकी होमरूल लीग की माँग पूरी तरह धर्मनिरपेक्षता पर आधारित थी। उन्होंने कहा कि भारत उस बेटे की तरह है जो अब जवान हो चुका है। समय का तकाजा है कि बाप या पालक इस बेटे को उसका वाजिव हक दे दें। भारतीय जनता को अपना हक लेना ही होगा। इसका उन्हें पूरा अधिकार है।
- तिलक की लीग पर किये गए मुकदमे की पैरवी मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में की गई। तिलक के साथ एन. सी. केलकर भी शामिल थे।
- एनी बेसेंट की लीग के साथ जार्ज अरूंडेल, सी. पी. रामास्वामी अय्यर, वी. पी. वाडिया, मोती लाल नेहरू, तेजबहादुर सप्रू, मदन मोहन मालवीय आदि थे।
- आगे जवाहरल लाल नेहरू (इलाहाबाद) तथा वी. चक्रवर्ती एवं जे. बनर्जी (कलकत्ता भी इनमें शामिल हो गए।
- एनी बेसेंट के अन्य समर्थकों में मद्रास में न्यायमूर्ति, खलीकुज्जमा (लखनऊ) जमनादास द्वारकादास, उमर शोभानी, शंकर दयाल बेकर, इन्दुलाल याज्ञनिक आदि थे।
- लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में तिलक को वापस कांग्रेस में अधिकारिक रूप से शामिल कर लिया गया। इस सम्मेलन को अध्यक्षता अंबिका चरण मजूमदार कर रहे थे।
- गोखले के सर्वेन्ट ऑफ इंडिया सोसाइटी के सदस्यों को होम रूल लीग का सदस्य बनने की अनुमति नहीं थी।
- मद्रास सरकार ने एनी बेसेंट, जार्ज अरूंडेल तथा वी. पी. वाडिया को जून, 1917 सी.ई. में गिरफ्तार कर लिया। इसके विरोध में सर एस. सुब्रमन्यम अय्यर ने सरकारी उपाधि नाइटहुड को अस्वीकार कर दिया।
- होम रूल लीग की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि उसने भावी गाँधीवादी कार्यक्रमों की आधारशिला रखी तथा भावी राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (National Movement) के लिये जुझारू योद्धा तैयार किये।
- होम रूल आन्दोलन के संदर्भ में एनी बेसेंट का कहना था कि मैं बैतालिक का कार्य कर रही हूं तथा सोये हुए देश को जगा रही हूं।
- आंदोलन के अंत करने का कारणः 1917 सी.ई. में भारतीय सुधार बिल की घोषणा के साथ आंदोलन का अर्थ जाता रहा। इस घोषणा के साथ ही एनी बेसेंट रातों-रात बदल गई और उन्होंने आंदोलन को स्थगित कर दिया।
- दूसरी तरफ तिलक वैलेंटाइन शिरोल से मुकदमा लड़ने लंदन चले गए क्योंकि वैलेंटाइन शिरोल ने तिलक को भारतीय अशाँति का जनक कह दिया था।
- 1917-18 सी.ई. में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो गए। इसके परिणामस्वरूप आंदोलन पर बुरा असर पड़ा।
- होम रूल आंदोलन की सफलताः गाँधीवादी आंदोलन से पूर्व यह पहला जन आंदोलन था। इसने राष्ट्रीयता का प्रसार किया। इसने सदा के लिए आंदोलन के रुख को उदारवादी चरण से जन आंदोलन की तरफ मोड़ दिया।