मराठा (Maratha)
- शिवाजी (1627-80) की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी पुत्र शंभाजी (शंभूजी) को 1686 सी.ई. में मुगलों ने बंदी बनाया तदन्तर 1689 सी.ई. में उनका वध कर दिया गया। शंभाजी की पत्नी यशुबाई तथा पुत्र शाहू को कैद में डाल दिया गया।
- शंभाजी की मृत्यु के बाद शिवाजी के छोटे पुत्र और शंभाजी के सौतेले भाई राजाराम को 1689 सी.ई. में राजा घोषित किया गया। मुगलों के आक्रमण के भय से राजाराम को महाराष्ट्र छोड़कर कर्नाटक में जिंजी के किले में शरण लेनी पड़ी।
- 1691 सी.ई. में मुगलों ने जुल्फिकार खां के नेतृत्व में जिंजी पर घेरा डाल दिया। 8 वर्षों तक राजाराम जिंजी के किले में कैद रहे।
- 1698 सी.ई. में राजाराम जिंजी से पलायन कर (सतारा) को अपनी राजधानी बनाया। 1700 सी.ई. में इसकी मृत्यु हो गई।
- राजाराम ने एक नए पद प्रतिनिधि की नियुक्ति की। राजाराम को प्रहलाद नीराजी तथा रामचंद्र पंत जैसे योग्य राजनीतिज्ञ और संताजी घोरपड़े तथा धन्नाजी जाधव जैसे साहसी सेनापति प्राप्त हुए।
- राजाराम की मृत्यु के पश्चात उसकी विधवा पत्नी ताराबाई ने अपने 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठाया और उसकी संरक्षिका बन मुगलों से संघर्ष जारी रखा।

शाहू (1707-49 सी.ई.)
- यह शंभाजी के पुत्र थे और इन्हें 1689 सी.ई. में औरंगजेब ने माता यशुबाई के साथ कैद कर लिया था।
- औरंगजेब की पुत्री ‘जिन्नतुनिशां’ की कृपा से वह मुसलमान होने या वध किए जाने से बच गये थे।
- शाहू को जुल्फिकार खां की सलाह पर राजकुमार आजमशाह ने 1707 सी.ई. में मुगल कैद खाने से मुक्त कर दिया। उसका विचार था कि इससे मराठों में फूट पड़ जाएगी क्योंकि उस समय तक राजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर चुकी थी और शाहू के महाराष्ट्र पहुंचने से यह संभव था कि कुछ एक मराठा (Maratha) सरदार साहू के पक्ष में भी हो जाते और मराठों में गृहयुद्ध आरंभ हो जाता।
- वस्तुतः ताराबाई ने शाहू को मराठा (Maratha) राजा स्वीकार करने से इंकार कर दिया। ताराबाई ने धन्नाजी जाधव के नेतृत्व में एक सेना शाहू के विरूद्ध भेजी। शाहू ने कूटनीति से धन्नाजी जाधव को अपने पक्ष में कर लिया।
- नवंबर 1707 सी.ई. में भीमा नदी के तट पर खेड़ा के मैदान में ताराबाई एवं शाहू के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें ताराबाई की पराजय हुई और शाहू ने सतारा को अपनी राजधानी बनाकर यहाँ 1708 सी.ई. में अपना राज्याभिषेक करवाया।
- शाहू ने चंद्रसेन को अपना सेनापति नियुक्त किया परंतु चंद्रसेन ताराबाई का समर्थक था। अतः शाहू ने चंद्रसेन के षड्यंत्र से बचने के लिए 1711 ई0 में ‘सेनाकर्ते’ के पद का सृजन किया और इस पद पर बालाजी विश्वनाथ को नियुक्त किया।
- अतः अब चंद्रसेन पूर्णतः ताराबाई के पक्ष में चला गया औरमराठा (Maratha) राज्य दो भागों में बंट गया उत्तर में सतारा राज्य जो शाहू के अधीन था तो दक्षिण में कोल्हापुर राज्य जो शिवाजी द्वितीय के अधीन था।
- 1714 सी.ई. में ताराबाई की सौत राजसवाई ने षड्यंत्र कर उसे बंदी बना लिया और कोल्हापुर में शिवाजी द्वितीय के स्थान पर शंभा जी द्वितीय को गद्दी पर बैठाया।
पेशवा-बालाजी विश्वनाथ (1713-20 सी.ई.)
- बालाजी विश्वनाथ को मराठा (Maratha) साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक भी कहा जाता है। 1711 सी.ई. में शाहू ने इन्हें सेनाकर्ते का पद प्रदान किया और 1713 सी.ई. में पेशवा के पद पर नियुक्त किया।
- बालाजी की मुख्य सफलता 1719 सी.ई. में मुगलों से की गई संधि थी। वस्तुतः मुगल बादशाह फर्रूखशियार से विवाद होने की स्थिति में हुसैनअली खां ने मराठों से एक संधि की। इसके अनुसार-
- शिवाजी का स्वराज्य क्षेत्र शाहू को वापस मिल गया। शाहू को खानदेश, बरार, गोंडवाना, हैदराबाद और कर्नाटक के उन प्रदेशों की भी प्राप्ति हुई जो मराठों ने निकट समय में जीते थे।
- शाहू को दक्षिण के 6 सूबों से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार होगा।
- शाहू दक्षिण भारत के इन सूबों में शांति स्थापित रखेगा और कोल्हापुर के शंभा जी को तंग नहीं करेगा।
- शाहू मुगल बादशाह को 10 लाख रुपए/प्रतिवर्ष देगा और जरूरत पड़ने पर 15000 घुड़सवार सैनिक देगा।
- शाहू की माता एवं परिवार के अन्य लोगों को मुगलों की कैद से छोड़ना था।
- यह संधि अत्यंत महत्त्वपूर्ण थीं। इससे शाहू को दक्षिण भारत में चौथ और सरदेशमुखी एकत्र करने का अधिकार तो मिला ही साथ ही दक्षिण की संप्रभुता भी उसे प्राप्त हो गई।
- रिचर्ड टेप्पल ने इस संधि को ‘मराठों का मैग्नाकार्टा’ कहा।
- बालाजी एवं खाण्डेराव दबाधे के नेतृत्व में मराठा (Maratha) सैनिक पहली बार दिल्ली गए और उनकी मदद से सैय्यद बंधुओं ने बादशाह फर्रूखशियार को गद्दी से हटाकर मार डाला। तत्पश्चात् रफी-उद्द-रजात को शासक बनाया। उसी से इस संधि पर हस्ताक्षर करवा लिया।
- बालाजी विश्वनाथ ने 1714 सी.ई. में कान्होजी अंग्रिया से संधि किया। जिसके तहत् कान्होजी ने शाहू को अपना राजा स्वीकार लिया।
- वस्तुतः कान्होजी अंग्रिया मराठा (Maratha) नौसेनापति था और उससे सभी जातियों के नाविक मुसलमान, डच, पुर्तगाली, अंग्रेज डरते थे। वस्तुतः वह पूर्णतः स्वतंत्र स्थिति में था।
- बालाजी विश्वनाथ के समय चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार विभिन्न मराठा (Maratha) सरदारों में विभाजित कर दिया गया। फलतः मराठा संघ (Maratha Confideracy) की नींव पड़ी।
- 1720 में पेशवा बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् उसका पुत्र बाजीराव प्रथम पेशवा बना।
पेशवा – बाजीराव प्रथम (1720-40 सी.ई.)
- 20 वर्ष से भी कम आयु में बाजीराव प्रथम को पेशवा का पदभार सौंपा गया। फलतः प्रतिनिधि श्रीपतिराव एवं कुछ अन्य लोग इसे पेशवा बनाने के पक्ष में नहीं थे।
- बाजीराव प्रथम के सम्मुख बहुत सी चुनौतियाँ थी। कोल्हापुर के शंभाजी द्वितीय शाहू की सर्वोच्चता स्वीकार करने को तैयार नहीं था। कोंकण में मराठा (Maratha) सत्ता का विरोध सिद्दी और पुर्तगाली कर रहे थे।
- हैदराबाद के स्वतंत्र निजाम राज की स्थापना ने मराठों के लिए गंभीर समस्या उत्पन्न कर दी थी। अनेक मराठा (Maratha) सरदार पेशवा की सत्ता का विरोध कर रहे थे।
बाजीराव प्रथम के दो उद्देश्य थे-
- ऐसी स्थिति का निर्माण करना जिसमें विभिन्न मराठा (Maratha) सरदार एक दूसरे पर निर्भर करें और एक दूसरे का सहयोग करें। इस कारण वह जागीरों पर विभिन्न सरदारों के मिले-जुले अधिकार को रखना चाहता था। मराठा (Maratha) साम्राज्य की स्थापना करना।
- मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति स्पष्ट करते हुए उसने घोषणा की कि ‘हमें इस जर्जर वृक्ष के तने पर प्रहार करना चाहिए शाखाएं तो स्वयं ही गिर जाएंगी।’
प्रमुख अभियान
- निजाम से बाजीराव प्रथम का सम्पर्क 1720 सी.ई. में हुआ। 1721 सी.ई. में निजाम ने बाजीराव से भेंट की तथा बीदर की चौथ तथा छह सूबों की सरदेशमुखी देने का वादा किया।
- निजाम ने कोल्हापुर गुट को प्रोत्साहित कर मराठों के बीच फूट डलवाने का प्रयत्न किया। अतः बाजीराव प्रथम ने फरवरी 1728 सी.ई. में पालखेड़ के मैदान में निजाम को पराजित किया और उससे मुंगी शिवगंगा की संधि की जिसके अनुसार निजाम ने शाहू को महाराष्ट्र का एकमात्र शासक स्वीकार किया।
- चौथ और सरदेशमुखी देने का वायदा किया तथा मराठा (Maratha) सरदारों को अपनी सीमाओं में रहने देना स्वीकार किया।
- बाजीराव प्रथम ने 1728 सी.ई. में मालवा पर आक्रमण किया उस समय मालवा का गवर्नर गिरिधर बहादुर था जिसे अजमेर के युद्ध में बाजीराव प्रथम ने गिरधर बहादुर को पराजित कर मार डाला।
- सवाई जयसिंह ने बाजीराव प्रथम को मालवा पर आक्रमण हेतु आमंत्रित किया था।
- बुंदेलखंड के शासक छत्रसाल ने मुहम्मद खां बंगश के विरुद्ध बाजीराव प्रथम से सहायता मांगी।
- अतः 1729 सी.ई. में बाजीराव स्वयं वहाँ गया और छत्रसाल से संधि कर सहायता मांगी।
- संधि के अनुसार बाजीराव प्रथम को झाँसी, काल्पी सागर, हृदयनगर के क्षेत्र जागीर में मिले। इस तरह छत्रसाल ने बुंदेलखण्ड का आधा भाग बाजीराव को दे दिया।
- बाजीराव प्रथम ने अप्रैल 1731 सी.ई. में शंभा जी को पराजित कर वर्ना पैक्ट किया जिसके तहत् शंभाजी ने शाहू की सत्ता को स्वीकार किया। इस तरह मराठा (Maratha) राजवंश में एकता स्थापित हुई।
- अप्रैल 1731 सी.ई. में बाजीराव ने दभोई के युद्ध में सेनापति त्रयम्बक राव को पराजित किया और मराठा (Maratha) पेशवा के पद को पूर्ण प्रतिष्ठित किया।
- उसके स्थान पर पिलाजी गायकवाड़ का अधिकार गुजरात में स्थापित हुआ। अंत में 1735 सी.ई. में गुजरात को मराठा (Maratha) राज्य में मिला लिया गया।
- 1737 सी.ई. में मुगल बादशाह ने मराठों का सामना करने के लिए दक्षिण से निजाम को आमंत्रित किया।
- अतः ‘‘भोपाल की लड़ाई’’ में बाजीराव प्रथम ने निजाम को पुनः पराजित किया और फिर जनवरी 1738 सी.ई. में उसके साथ ‘‘दुरईसराय की संधि’’ की।
- इस संधि के तहत निजाम ने सम्पूर्ण मालवा प्रदेश और नर्मदा से चम्बल नदी के बीच की समस्त भूमि बाजीराव को दी। साथ ही 50 लाख रुपये भी दिए।
- बाजीराव प्रथम के उत्तर भारत अभियान के सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक कारण थे-
- दक्षिण भारत में मराठा (Maratha) सरदारों का जमावड़ा था फलतः आपसी तनाव की संभावना थी।
- दक्षिण में रहने का औचित्य समाप्तप्राय था क्योंकि उत्तर में राजनैतिक दशा मराठों के अनुकूल थी।
- उत्तर अभियान से धन प्राप्ति।
- बाजीराव प्रथम ने कहा कि ‘‘मराठा झंडा कृष्णा नदी से अटक तक फहराएगा। 1739 सी.ई. में बाजीराव प्रथम ने पुर्तगालियों से बेसिन एवं साल्सेट छीन लिया।
- मराठों ने यह विजय चिमना जी के नेतृत्व में प्राप्त की थी। 1733 सी.ई. में बाजीराव प्रथम ने कोंकण में जंजीरा के सिद्दियों के विरुद्ध अभियान किया, परंतु सिद्दियों की शक्ति तोड़ी नहीं जा सकी।
- 1740 सी.ई. में पेशवा बाजीराव प्रथम की मृत्यु हो गई। माना जाता है कि पेशवा मस्तानी के प्रेम में पड़कर निःशक्त हो गया था।
- बाजीराव प्रथम को शिवाजी के पश्चात् गुरिल्ला पद्धति का सबसे बड़ा प्रतिपादक माना जाता है।
पेशवा-बालाजी बाजीराव (1740-61 सी.ई.)
- बाजीराव प्रथम का पुत्र बालाजी बाजीराव ‘‘नानासाहब’’ 1740 सी.ई. में गद्दी पर बैठा। वह अपने पूरे पेशवा काल में अपने चचेरे भाई सदाशिवराव भाउ के परामर्श और मार्ग निर्देशन पर निर्भर रहा।
- 1741 सी.ई. में बालाजी बाजीराव ने मालवा का अभियान किया और जयसिंह की मध्यस्थता से मुगल बादशाह से संधि की जिसके तहत् पेशवा को नायब सूबेदार बनाया गया।
- इस प्रकार पहली बार मालवा पर पेशवा का कानूनी अधिकार हुआ। 1749 सी.ई. में रघुजी भोंसले ने कर्नाटक पर आक्रमण कर नवाब दोस्त अली को मार दिया और उसके दामाद चांदा साहब को कैद कर सतारा भेज दिया।
- 1741 सी.ई. में शाहू की मृत्यु हो गई और उसके पश्चात् राजाराम द्वितीय मराठा (Maratha) छत्रपति बना और पेशवा बालाजी बाजीराव ने 1750 सी.ई. में पूना में राजराम द्वितीय के साथ ‘‘संगोला की संधि की।’’
- जिसके अनुसार छत्रपति ने राज्य के सभी प्रमुख अधिकार पेशवा को सौंप दिए और राज्य का प्रधान पेशवा बन गया और मराठा (Maratha) छत्रपति सतारा में नाममात्र के शासक के रूप में रहने लगे।
- 1745 सी.ई. में निजाम-उल-मुल्क की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों से गृहयुद्ध छिड़ गया। अतः पेशवा को अपना प्रभाव स्थापित करने का मौका मिला।
- 1752 सी.ई. की झलकी की संधि द्वारा निजाम ने बरार का आधा भाग मराठों को दिया।
- 1757 सी.ई. में निजाम से पुनः सिन्दखेड़ा का युद्ध हुआ।
- फलतः निजाम ने 25 लाख रुपए वार्षिक कर देने योग्य क्षेत्र मराठों को दिया।
- 1760 सी.ई. में उद्गीर की लड़ाई में निजाम की करारी पराजय हुई। फलस्वरूप मराठों को अहमदनगर, दौलताबाद, बीजापुर बुरहानपुर के क्षेत्र में 6 लाख रुपया वार्षिक भू-राजस्व के बराबर का क्षेत्र मिला।
- रघुजी भोंसले ने भास्कर पंत को बंगाल के नवाब अलीवर्दी खां के पास चौथ मांगने के लिए भेजा किन्तु भास्कर पंत की हत्या कर दी गई।
- फलतः रघुजी ने बंगाल पर आक्रमण किया और 1751 सी.ई. में अलीवर्दी खां ने बाध्य होकर उड़ीसा मराठों को सुपुर्द किया तथा बंगाल एवं बिहार से चौथ के रूप में 12 लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार किया।
- 1743 सी.ई. में पेशवा ने जयपुर के उत्तराधिकार के मामले में हस्तक्षेप किया। फलतः राजपूतों के साथ मराठों के संबंध कठोर हुए। 1752 सी.ई. में पुनः मारवाड़ के उत्तराधिकार के प्रश्न पर मराठों व राजपूतों में झगड़ा हुआ।
- 1757 सी.ई. में रघुनाथ राव एक सेना के साथ दिल्ली पहुंचा और मुगल बादशाह से संधि की और उसके सहयोग से अहमदशाह अब्दाली के प्रतिनिधि जनीबुद्दौला को मीरबख्शी के पद से हटा दिया तथा 1758 सी.ई. में रघुनाथराव पंजाब की ओर से निकाल दिया गया।
- मराठे इसके बाद अटक तक पहुंच गए उन्होंने अदीना बेग खां को 75 लाख रुपए वार्षिक कर के बदले पंजाब का गवर्नर नियुक्त कर दिया।
- इस समय मराठों की शक्ति अपने सर्वोच्च शिखर पर थी इनके घोड़ों ने सिंधु नदी में पानी पिया।
- पानीपत का तृतीय युद्ध बालाजी बाजीराव के समय 1761 सी.ई. में हुआ। यह युद्ध मराठों और अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली के मध्य हुआ। इस युद्ध में मराठा (Maratha) पराजित हुए।
- पानीपत के युद्ध में पेशवा ने अपने नाबालिग बेटे विश्वास राव के नेतृत्व में शक्तिशाली फौज भेजी। उसका बेटा तो केवल नाम का ही सेनापति था। वास्तविक सेनापति उसका चचेरा भाई सदाशिव राव भाउ था।
- युद्ध में नजीबुद्दौला ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला, रूहेला सरदार हाफिज रहमत खां और सादुल्ला खां से अब्दाली को समर्थन दिलवाया।
- दूसरी तरफ मराठों को राजपूत, सिक्ख एवं जाटों का सहयोग नहीं मिला। जाट नेता सूरजमल युद्ध से अलग रहा।
- इब्राहिम खां गार्दी ने मराठा तोपखाने का नेतृत्व किया। इस युद्ध में मराठा (Maratha) पैदल सेना यूरोपीय ढंग से संगठित की गई थी।
- युद्ध में पेशवा पुत्र विश्वासराव, सदाशिव राव और अन्य अनगिनत मराठा (Maratha) सेनापति मारे गए। इस युद्ध में मराठों की पराजय का समाचार सुन बालाजी बाजीराव की मृत्यु हो गई।
- पेशवा को यह सूचना व्यापारियों द्वारा मिली कि युद्ध में दो मोती विलीन हो गए।
- सरदेसाई के अनुसार इस युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी काशीराज पंडित के अनुसार-पानीपत का तृतीय युद्ध मराठों के लिए प्रलयकारी सिद्ध हुआ। इसके लिए भाऊ दोषी था।
- मराठों की पराजय का कारण उनकी सैन्य संगठन में कमजोरी थी और आपसी एकता का अभाव था।
- मराठा (Maratha) सेना के साथ बहुत बड़ी संख्या में असैनिक समूह भी था जिसमें स्त्रियाँ, नौकर, दास आदि भी थे जिनकी सुरक्षा का कार्य भी मराठा सैनिकों पर था।
- शाहू ने अपनी मृत्यु (1749 सी.ई.) से पूर्व एक आज्ञापत्र द्वारा पेशवा का पद वंशानुगत कर दिया था। इस प्रकार बालाजी बाजीराव के समय से पेशवा का पद वंशानुगत बना दिया गया।
पेशवा – माधवराव प्रथम (1761-72 सी.ई.)
- बालाजी के बाद माधवराव प्रथम पेशवा बना। इसे सभी पेशवाओं में महान माना जाता है। इसके समय मराठों की खोयी हुई शक्ति पुनः अर्जित की गई।
- इसने हैदराबाद के निजाम और मैसूर के हैदरअली को चौथ देने के लिए बाध्य किया। 1765 सी.ई. में मराठा (Maratha) सेना ने हैदरअली को पराजित किया था।
- माधवराव प्रथम के समय महादजी सिंधिया ने 1772 सी.ई. में मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय को अंग्रेजों के संरक्षण से इलाहाबाद से मुक्त कर पुनः दिल्ली में स्थापित किया।
- बादशाह शाहआलम ने महादजी सिंधिया को वकील-ए-मुतलक की उपाधि दी। अतः क्रुद्ध होकर वारेन हेस्टिंग्स ने मुगल बादशाह को दिया जाने वाला 26 लाख रुपए का सालाना पेंशन रोक दिया।
- माधवराव का अपने चाचा रघुनाथराव से मतभेद हो गया। 1768 सी.ई. में पेशवा ने रघुनाथराव को परास्त कर उसे कैद में डाल दिया था।
- 1772 सी.ई. में पेशवा माधवराव प्रथम की क्षय रोग से मृत्यु हो गई। इसके साथ ही मराठा (Maratha) साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया।
- ग्रांड डफ ने लिखा कि- पेशवा की इतनी शीघ्र मृत्यु पानीपत के युद्ध क्षेत्र में मराठों की पराजय से कहीं अधिक घातक थी।
पेशवा-नारायणराव (1772-73 सी.ई.)
- माधवराव के पश्चात् उसका भाई नारायणराव पेशवा बना। इसने जेल में पड़े रघुनाथराव राघोवा को मुक्त करवा दिया। राघोबा राव स्वयं पेशवा बनना चाहता था।
- अतः अगस्त 1773 में रघुनाथ राव ने नारायण राव की हत्या कर दी और स्वयं पेशवा बनने का प्रयत्न किया। किन्तु नाना फड़नवीस, महादजी सिंधिया जैसे मराठा (Maratha) सरदारों ने रघुनाथराव को पेशवा बनने नहीं दिया।
पेशवा-माधवराव द्वितीय (1774-95 सी.ई.)
- नारायणराव की मृत्यु के पश्चात् उसका अल्पायु पुत्र माघवराव द्वितीय पेशवा बना।
- पेशवा माधवराव अल्पायु था, अतः मराठा सरदारों ने मराठा राज्य की देखभाल करने के लिए नाना फड़नवीस के नेतृत्व में ‘बारबाई परिषद्’ की नियुक्ति की। इसमें सखाराम बापू, महादजी सिंधिया जैसे प्रमुख व्यक्ति शामिल थे।
- माधवराव द्वितीय के काल में प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ। वस्तुतः जब माधवराव द्वितीय को पेशवा बनाया गया और रघुनाथ राव के व्यवहार की जांच के लिए न्यायाधीश से अनुरोध किया गया तो ऐसी स्थिति में रघुनाथराव ने भाग कर अंग्रेजों के पास शरण ली और 7 मार्च, 1775 सी.ई. को बम्बई में अंग्रेजों के साथ सूरत की संधि की।
सूरत की संधि (1775 सी.ई.)
- यह संधि रघुनाथ राव और बम्बई सरकार के बीच हुई। संधि की कुल 16 शर्तें थीं। मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे-
- अंग्रेज रघुनाथराव को पेशवा बनाने के लिए 2500 सैनिकों की सहायता देंगे जिसका व्यय रघुनाथराव को वहन करना था।
- बदले में साल्सेट, बेसिन का क्षेत्र तथा सूरत एवं भड़ौच की आय अंग्रेजों को प्राप्त होनी थी।
- मराठे, बंगाल एवं कर्नाटक पर आक्रमण बंद कर देंगे।
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-82 सी.ई.)
- सूरत की संधि के अनुसार कर्नल किटिंग के नेतृत्व में मई 1775 सी.ई. में एक अंग्रेजी सेना सूरत पहुँची और उसने आरास के युद्ध में मराठा सेना को पराजित किया।
- नाना फड़नवीस ने हरियत फड़के की अधीनता में राघोबा के दमन हेतु सेना भेजी लेकिन यह युद्ध अनिर्णायक रहा।
पुरन्दर की संधि (1 मार्च 1776 सी.ई.)
- कलकत्ता की काउंसिल ने बम्बई सरकार की इस कार्यवाही को खतरनाक माना और सूरत की संधि से इंकार कर दिया।
- कलकत्ता के अंग्रेजी सरकार की ओर से वारेन हेस्टिंग्स ने पूना दरबार में कर्नल उप्टन को भेजकर पुरन्दर की संधि कर ली।
- किन्तु यह संधि असफल रही क्योंकि बम्बई की अंग्रेजी सरकार रघुनाथराव को संरक्षण प्रदान करती रही और उसने कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स से अपील की तथा कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने बम्बई के अधिकारियों का पक्ष लिया और सूरत की संधि को मंजूरी दी।
- प्रोत्साहित होकर बम्बई की सरकार ने पुनः मराठों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। दूसरी तरफ मराठे भी पुरन्दर की संधि का पालन नहीं कर रहे थे। नाना फड़नवीस ने एक फ्रांसीसी अधिकारी ल्युबेन को अपने यहाँ शरण दी।
- अंग्रेजों को केवल साल्सेट साल्सेट द्वीप व थाणे का दुर्ग मिला।
- गुजरात में अंग्रेजों द्वारा जीता गया क्षेत्र इनके अधिकार में रहा।
- पूना दरबार रघुनाथ राव को 25000 रुपए मासिक पेंशन के रूप में देगा और वह गुजरात के कोपर गांव में चला जाएगा।
- पूना दरबार ने अंग्रेजों को युद्ध क्षति की पूर्ति के रूप में 12 लाख रुपए देना स्वीकार किया।
- अंग्रेजों ने वादा किया कि वे रघुनाथराव की मदद नहीं करेंगे।
- अंग्रेजी सेना ने कर्नल काकबर्न के नेतृत्व में जनवरी 1779 सी.ई. में तेलगांव का युद्ध मराठों से लड़ा जिसमें अंग्रेजों की पराजय हुई।
- फलस्वरूप बम्बई सरकार को पूना दरबार से 15 जनवरी 1775 सी.ई. को बड़गांव की अपमानजनक संधि करनी पड़ी। मराठा शक्ति का नेतृत्व इस समय महादजी सिंधिया के हाथों में था।
- बड़गांव की संधि के तहत अंग्रेजों ने बम्बई के निकट के समस्त क्षेत्र (साल्सेट, थाणे दुर्ग तथा गुजरात के इलाके) खाली करने की बात स्वीकार की।
- साथ ही बंगाल से पहुँचने वाली फौज हटाने की बात भी अंग्रेजों ने स्वीकार की। अंग्रेजों ने सिंधिया को भड़ौच के राजस्व का एक भाग देने की बात की।
- वारेन हेस्टिंग्स ने बड़गांव संधि को मानने से इंकार कर दिया। उसने मराठों के विरुद्ध जनरल गोडार्ड के नेतृत्व में एक सेना बंगाल से भेजी।
- जिसने मध्य भारत को पार करके फरवरी 1780 सी.ई. में अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया।
- सिपरी नामक स्थान पर अंग्रेज कर्नल कैमेक ने सिंधिया को पराजित किया।
- 1780 सी.ई. का वर्ष ब्रिटिश के लिए कठिन वर्ष था। इस समय अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में ब्रिटिश को पराजय मिली थी तो दूसरी तरफ भारत में मराठे, निजाम और हैदर की त्रिगुट संघर्ष अंग्रेजों के विरुद्ध हो गया था।
- इस प्रकार प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध में मराठे, निजाम और हैदर का त्रिगुट शक्ति अंग्रेजों के विरुद्ध थी।
- मराठा सरदार महादजी सिंधिया के प्रयास से मई 1782 सी.ई. में पूना दरबार और अंग्रेजों के बीच सालबाई की संधि हुई।
- इसके अनुसार साल्सेट, ऐलिफेंटा द्वीप, थाणे दुर्ग अंग्रेजों को मिले। अंग्रेजों ने माधवराव द्वितीय को पेशवा स्वीकार किया और रघुनाथराव का पक्ष छोड़ दिया।
- गायकवाड़ को पेशवा के अधीन स्वीकार किया गया। सिंधिया को यमुना के पश्चिम की सारी भूमि वापस मिल गई।
- सालबाई की संधि से 20 वर्षों तक आंग्ल-मराठों के बीच शांति बनी रही।
- महादजी सिंधिया ने अपनी सेना में इटली के सैनिक विशेषज्ञ ब्वाइन तथा अन्य यूरोपियों को नियुक्त किया था।
- फरवरी 1794 सी.ई. में 67 वर्ष की आयु में महादजी सिंधिया की पूना में बीमारी से मृत्यु हो गई। उसका उत्तराधिकारी भतीजा दौलतराव सिंधिया हुआ। इंदौर के अहिल्याबाई की मृत्यु 1795 सी.ई. में हुई।
- पेशवा माधवराव द्वितीय के समय ही मार्च 1795 सी.ई. में मराठों ने निजाम को खर्दा के युद्ध में पराजित किया। 1800 सी.ई. में नाना फड़नवीस की भी मृत्यु हो गई।
बाजीराव द्वितीय (1795-1818 सी.ई.)
- यह रघुनाथराव का पुत्र था। इसके काल में दौलतराव सिंधिया तथा यशवंतराव होल्कर प्रमुख मराठा सरदार थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय एवं दौलतराव सिंधिया ने होल्कर के विरूद्ध संयुक्त मोर्चा बनाया और अप्रैल 1801 सी.ई. में इस संयुक्त मोर्चे ने यशवंत होल्कर के भाई विठुर जी की हत्या कर दी।
- अतः होल्कर ने अक्टूबर 1802 सी.ई. में पूना पर आक्रमण कर पेशवा और सिंधिया की संयुक्त सेनाओं को पराजित किया और विनायकराव को गद्दी पर बैठाया।
- पेशवा बाजीराव द्वितीय ने भागकर बेसिन में शरण ली और 31 दिसम्बर 1802 को अंग्रेजों के साथ बेसिन की सहायक संधि की। इस समय ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली था।
बेसिन की संधि (31 दिसम्बर, 1802)
- पेशवा ने अंग्रेजी संरक्षण स्वीकार कर एक अंग्रेजी सेना पूना में रखना स्वीकार किया और इसके लिए 26 लाख राजस्व वाले क्षेत्र अंग्रेजों को प्रदान किए जिसके तहत गुजरात, ताप्ती, नर्मदा के मध्य के प्रदेश तथा तुंगभद्रा नदी के समीप के प्रदेश कम्पनी को दिए गए।
- सूरत पर अंग्रेजों का पूर्ण अधिकार स्वीकार किया।
- किसी भी यूरोपियन अथवा अंग्रेजों के शत्रु को पेशवा अपनी सीमा में रहने नहीं देगा।
- निजाम और गायकवाड़ के साथ विवाद में पेशवा अंग्रेजों की मध्यस्थता स्वीकार करेगा।
- डीनहटन ने लिखा कि यह निर्विवाद रूप से ऐसा कदम था जिसने उस भित्ति को बदल दिया जिस पर हम लोग पश्चिम भारत में खड़े थे इसने एक ही क्षण में अंग्रेजी दायित्व को तिगुना कर दिया।
- सिडनी ओवन ने लिखा- इस संधि ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कम्पनी को भारत का साम्राज्य दे दिया।
- आर्थर वेलेजली ने लिखा बेसिन की संधि एक बेकार आदमी के साथ संधि थी।
- मराठा सरदारों ने इस संधि को अपना अपमान समझा और अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा संभाला। इसी पृष्ठभूमि में द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध प्रारंभ हुआ।
द्वितीय आँग्ल-मराठा युद्ध (1803-05)
- इस युद्ध में सिंधिया व भोंसले दोनों ने मिलकर ब्रिटिश के विरुद्ध संघर्ष किया। गायकवाड़ ब्रिटिश के साथ था जबकि होल्कर युद्ध की पृथक तैयारी कर रहा था।
- गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने उत्तरी सेना की कमान जनरल लेक को और दक्षिण सेना का नेतृत्व आर्थर वेलेजली को सौंपा।
- अगस्त, 1803 सी.ई. को आर्थर वेलेजली ने अहमदनगर पर कब्जा कर लिया और औरंगाबाद से 45 मील दूर असाई के युद्ध में सिंधिया एवं भोसंले की सम्मिलित सेनाओं को पराजित किया।
- नवम्बर 1803 सी.ई. में भोंसले की सेना को बुरहानपुर के समीप ‘कोरेगांव की लड़ाई’ में पराजित किया और गावलीगढ़ के किले पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया।
- उत्तरी भारत में जनरल लेक ने इसी प्रकार सफलता प्राप्त की। लेक ने 1803 सी.ई. में दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर लिया और 83 वर्षीय वृद्ध और अंधे बादशाह शाहआलम द्वितीय को अंग्रेजों के संरक्षण में ले लिया।
- जनरल लेक ने नवंबर 1803 सी.ई. में लासवाड़ी के युद्ध में (अलवर के निकट) सिंधिया की सेना को बुरी तरह परास्त किया।
देवगांव की संधि (17 दिसंबर, 1803)
- अंग्रेजों ने भोंसले के साथ देवगांव की संधि की। इसके तहत् भोंसले ने कटक, बालासोर और वर्धा नदी पश्चिम का संपूर्ण प्रदेश अंग्रेजों को सौंप दिया।
- भोंसले ने नागपुर में ब्रिटिश रेजिडेंट रखना स्वीकार किया और वहाँ एलिफिंस्टन को रेजिडेंट बनाया गया।
होल्कर से युद्ध
- होल्कर ने इस समय तक युद्ध में कोई भाग नहीं लिया था। 1804 सी.ई. में होल्कर से युद्ध आरंभ हुआ। होल्कर ने अंग्रेजों के मित्र राज्य जयपुर पर आक्रमण किया जिसके कारण अंग्रेजों ने उससे युद्ध घोषित कर दिया।
- होल्कर ने आरंभ में कर्नल मानसन को कोटा के निकट पराजित किया। आगे भरतपुर के राजा के साथ मिलकर संघर्ष किया।
- इस समय नया गवर्नर जनरल जार्ज बार्लो बनाया गया जिसने होल्कर के साथ राजपुरघाट की संधि कर ली (1806 सी.ई.)। इस तरह द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध समाप्त हुआ।
सुर्जीअर्जनगांव की संधि (30 दिसम्बर, 1803 सी.ई.)
- अंग्रेजों ने सिंधिया के साथ सुर्जीअर्जनगांव की संधि की। इसके अनुसार उसने अंग्रेजों को गंगा-यमुना नदी के बीच का अपना सारा क्षेत्र, जयपुर, जोधपुर और गोहद के उत्तर की सम्पूर्ण भूमि अंग्रेजों को दे दी।
- पश्चिम में उसने अंग्रेजों को अहमदनगर, भड़ौच तथा अजन्ता-गोदावरी के बीच की समस्त भूमि अंग्रेजों को दे दी। सिंधिया ने मुगल बादशाह, पेशवा, निजाम तथा ब्रिटिश सरकार पर अपने सब दावे त्याग दिए।
- साथ ही बसीन की संधि को मान्यता दी तथा अपने यहाँ एक अंग्रेज रेजिडेण्ट रखना स्वीकार किया (यहाँ प्रथम अंग्रेज रेजिडेण्ट के रूप में वैल्कम की नियुक्ति की गई।)
- इसके अतिरिक्त 27 फरवरी, 1804 सी.ई. को अंग्रेजों ने सिंधिया से एक अन्य सहायक संधि की।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-18 सी.ई.)
- इस समय ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स था। हेस्टिंग्स ने पिंडारियों के विरुद्ध अभियान किया। इससे मराठों के प्रमुख को चुनौती मिली। अतः दोनों दल युद्ध की ओर खिंच आए।
- पूना के अंग्रेज रेजिडेंट एलिफिंस्टन ने पेशवा बाजीराव द्वितीय पर दबाव डाला कि वह मराठों की प्रधानता त्याग दे। इस संदर्भ में एलिफिस्टन ने पेशवा से पूना की संधि (जून 1817) की।
- वस्तुतः 1816 सी.ई. में पूना के पेशवा एवं गायकवाड़ के बीच विवाद शुरू हुआ।
- पूना के पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों के मित्र बड़ौदा के गायकवाड़ पर एक करोड़ का दावा प्रस्तुत किया। गायकवाड़ ने अपने प्रतिनिधि गंगाधर शास्त्री को अंग्रेजों के संरक्षण में पूना में इस मुद्दे पर बातचीत करने हेतु भेजा।
- बाजीराव के मंत्री त्र्यम्बक जी ने उसकी हत्या करवा दी। अतः अंग्रेज क्रुद्ध हो गए व एलिफिंस्टन ने पेशवा से मांग की कि वह त्र्यम्बक जी को पेश करे। साथ ही पेशवा से कुछ अन्य क्षेत्रों की भी मांग की गई।
- पेशवा पर दबाव बनाने के लिए पूना को घेर लिया गया और अंततः जून 1817 सी.ई. में पेशवा को पूना की असम्मानजनक संधि के लिए बाध्य किया गया। इसके तहत पेशवा को मराठा संघ के प्रमुख का पद छोड़ना पड़ा।
- दूसरी तरफ भोसले के नागपुर राज्य में भी अंग्रेजों को हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया। वहां मार्च 1816 सी.ई. में रघुजी भोंसले की मृत्यु के पश्चात परशुजी उत्तराधिकारी हुए।
- उसकी संरक्षिका उसकी माता बुकाबाई बनी क्योंकि परशुजी बुद्धि एवं शरीर दोनों से बेकार था। परशुजी का दूसरा संरक्षक, रघुजी का भतीजा अप्पा साहिब था।
- ब्रिटिश ने अप्पा साहिब को अपनी सत्ता पर पकड़ बनाने में सहायता दी, बदले में अप्पा साहिब ने ब्रिटिश को कुछ सहायता दी। इससे भोंसले दरबार ने भी अपनी स्वतंत्रता खो दी।
- सिंधिया से अंग्रेजों ने 1817 सी.ई. में ग्वालियर की संधि की और उससे भी अंग्रेजों की सहायता करने का वचन लिया गया और चम्बल नदी के बाएं तट के सभी राजपूत राज्यों से उसके अधिकार वापस ले लिए।
- तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध पेशवा बाजीराव के विद्रोह से आरंभ हुआ।
- पेशवा ने नवम्बर 1817 सी.ई. में किर्की के ब्रिटिश रेजिडेंसी पर आक्रमण कर उसे जला दिया परंतु युद्ध में उसकी पराजय हुई। उसी समय अप्पा साहिब ने नागपुर और होल्कर ने इंदौर में ब्रिटिश रेजिडेन्सी पर हमला किया।
आंग्ल-मराठा संबंध: एक नजर में
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-82 सी.ई.) | अंग्रेज-मराठा+निजाम + हैदर:
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द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध | अंग्रेज + गायकवाड़ – सिंधिया + भोंसले, होल्कर पृथक रहा:
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तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध | अंग्रेज-मराठा-किर्की का युद्ध (पेशवा पराजित),
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- अप्पा साहिब सीतलवार्डी के युद्ध में पराजित हुआ और होल्कर महीदपुर के युद्ध में पराजित हुआ। ब्रिटिश ने तीनों के साथ अलग-अलग संधियां की।
- जनवरी 1818 सी.ई. में होल्कर के साथ मंदसौर की संधि हुई। जिसके तहत उसने अमीर खां पठान की भूमि से समस्त अधिकार छोड़ दिए। नर्मदा के आस पास का क्षेत्र उससे छीन लिया गया।
- पेशवा को अंतिम रूप से आष्टी की लड़ाई में फरवरी 1818 सी.ई. में हराकर उसके साथ संधि की गई जिसके तहत पेशवा का पद समाप्त कर मराठा परिसंघ भंग कर दिया गया।
- पेशवा बाजीराव द्वितीय को 8 लाख रुपए की वार्षिक पेंशन पर कानपुर के निकट बिठूर भेज दिया गया। पेशवा के राज्य से सतारा का छोटा राज्य निकालकर शिवाजी के वंशज प्रताप सिंह को दे दिया गया।
पेशवाओं के अंतर्गत मराठा प्रशासन
- पेशवाओं के प्रशासन में केन्द्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था का आभाव दिखाई पड़ता है। पेशवाओं का एक ढीला-ढाला राज्य संघ था।
- पेशवाओं की प्रशासनिक संरचना में हिन्दू-मुस्लिम संस्थाओं का मिश्रण था।
- शाहू के समय मुगल सम्राट की सर्वोच्चता स्वीकार की गई। 1719 सी.ई. की संधि के अनुसार शाहू ने 10 हजार का मनसब फर्रुखशियर से स्वीकार किया और 10 लाख रुपये वार्षिक खिराज देना भी स्वीकार किया था।
छत्रपति
- पेशवा काल में छत्रपति मराठा (Maratha) साम्राज्य का नाममात्र का प्रमुख था। छत्रपति को सतारा के किले में एक कैदी की भांति जीवन बिताना पड़ता था परन्तु सार्वजनिक रूप से उसका सम्मान किया जाता था।
पेशवा
- यह शिवाजी के अष्टप्रधान के मंत्रियों में सर्वप्रमुख होता था। इस अष्टप्रधान का विघटन शम्भाजी के शासनकाल में हुआ। जब राजाराम ने 1698 में एक नया प्रतिनिधि का सृजन किया तब इसका स्थान दूसरा हो गया।
- शाहू के शासनकाल (1707-49) में पेशवा का पद वंशानुगत हो गया।
- 1750 में संगोला की संधि में राज्य की वास्तविक शक्ति पेशवा के हाथों में आ गई।
पेशवा का सचिवालय
- पेशवा सचिवालय को ‘हुजूर दफ्तर’ कहते थे, जो पूना में स्थित था। इसमें अनेक विभाग एवं कर्मचारी होते थे। सबसे महत्त्वपूर्ण विभाग एलबेरीज दफ्तर एवं चातले दफ्तर होता था।
- एलबेरीज दफ्तर सभी प्रकार के लेखों में संबंधित था। चातले दफ्तर सीधे फड़नवीस के अन्तर्गत था जिसमें आय-व्यय का ब्यौरा रखा जाता था।
प्रांतीय एवं जिला प्रशासन
- प्रांत को सूबा कहते थे। खानदेश गुजरात, कर्नाटक जैसे बड़े-बड़े प्रांत सर सूबेदारों के अधीन होते थे। सर सूबेदार के अधीन एक मामलतदार होता था, जिस पर मण्डल, जिले, सरकार सूबा आदि का कार्यभार होता था।
- मामलतदार तथा कामविसदार दोनों ही जिले में पेशवा के प्रतिनिधि होते थे। गांव में कर निर्धारण मामलतदार स्थानीय पटेलों के परामर्श से करता था।
- देशमुख तथा देशपाण्डे अन्य जिला अधिकारी थे, जो मामलतदार पर एक नियंत्रण के रूप में कार्य करते थे। उनकी पुष्टि के बगैर कोई लेखा स्वीकार नहीं किया जाता था।
- दरखदार भी एक अधिकारी था जो वंशानुगत होता था। यह भी मामलतदार पर नियंत्रण रखता था। गांवों का समूह महाल कहलाता था।
स्थानीय एवं ग्राम शासन
- गाँव का मुख्य अधिकारी पटेल अथवा पाटिल होता था, जो कर संबंधी, न्यायिक तथा अन्य प्रशासनिक कार्य करता था। इसका पद वंशानुगत था जो क्रय-विक्रय योग्य था। पटेलों को सरकार से वेतन नहीं मिलता था। वह संग्रहित कर का हिस्सा अपने पास रखता था।
- पटेल के नीचे कुलकर्णी होता था जो ग्राम भूमि का लेखा रखता था।
- कुलकर्णी के नीचे चौगुले होता था, जो पटेल की सहायता करता था और कुलकर्णी के लेखे की देखभाल करता था।
- इनके अतिरिक्त गाँव में 12 बलूटे अथवा शिल्पी होते थे जो ग्राम की भिन्न-भिन्न सेवाएं करते थे। ग्रामों में 12 बलूटे के अतिरिक्त 12 अलूटे भी रहते थे, जो सेवक के रूप में कार्य करते थे।
नगर प्रशासन
- नगर प्रशासन का प्रमुख कोतवाल होता था।
न्याय प्रशासन
- ग्राम में पटेल, जिले में मामलतदार, सूबे में सर सूबेदार एवं सर्वोच्च अदालत सतारा की छत्रपति की अदालत थी।
- दीवानी मुकदमों का फैसला पंचायतें करती थी।
- मराठा (Maratha) कानून प्राचीन स्मृति ग्रंथों, दायभाग तथा मनुस्मृति आदि पर आधारित था।
राजस्व प्रशासन
- सरदेशमुखीः यह पड़ोसी राज्यों से उनके भू-राजस्व का 10 प्रतिशत लिया जाता था। यह सीधे छत्रपति के पास जाता था।
- चौथः यह पड़ोसी राज्यों से उनकी आय का एक चौथाई भाग लिया जाता था। इसका विभाजन चार भागों में किया जाता था।
- बाबतीः चौथ का 25 प्रतिशत भाग छत्रपति को मिलता था।
- सहोतराः चौथ का 6 प्रतिशत भाग पन्त सचिव को मिलता था।
- नादगोंडाः चौथ का 3 प्रतिशत भाग छत्रपति के विवेक पर छोड़ दिया जाता था।
- मोकासः चौथ का 66 प्रतिशत भाग संबंधित मराठा सरदार को मिलता था जो उसको वसूल करता था और उसे वह घुड़सवार रखने में खर्च करता था।
- पालपट्टी करः पेशे से लुटेरे पिण्डारी पालपट्टी नामक कर वसूल करने के बदले मराठा सेना के प्रत्येक अभियान में उनके साथ जाते थे।
मराठा (Maratha) शब्दावली |
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वतन | अनुवांशिक भूमि |
नोटानिस | खजांची |
सिलहदार | घोड़े के सैनिक जिन्हें घोड़े व हथियार स्वयं लाने पड़ते थे। |
मजूमदार | लेखा परीक्षा व लेखा अधिकारी |
ममलतदार | कारखाने (रसद विभाग) की देख रेख करने वाला |
कारखनिस | पेशवाओं के अधीन छोटे प्रांत का सूबेदार |
कामविसदार | ऊंचाई पर स्थित पश्चिमी घाट की ऊंची भूमि |
घटभाथा | पत्र-व्यवहार करने वाला लिपिक |
चिटनिस | उपलेखा परीक्षक |
बारवर | जीवनी के लिये प्रयुक्त मराठी शब्द |
चौथ | मराठों द्वारा पड़ोसी राज्यों से वसूले गये कुल उत्पादन का 1/4 हिस्सा। |
सरदेश मुखी | यह राज्य की आय का 1/10 का हिस्सा होता था। |
भूमिया | एक भूमिपति वर्ग |
बारगौर | ऐसे सैनिक, जिन्हें राज्य द्वारा घोड़े व हथियार प्रदान किये जाते थे। |
देशमुख | ये उत्तर भारत के ग्राम प्रधान चौधरी व गुजरात के देसाई के समक्षक थे। |
देश | पूर्व से पश्चिमी घाट तक विस्तृत दक्कन का पठार। |
जमादार | कोषाध्यक्ष |
खानजाद | कुलीवर्ग का अधिकारी |
किलेदार | किले का अधिकारी |
सबनिस | दफ्रतरदार |
चकन | सीमाशुल्क |
रूकका | मराठछा तांबे की मुद्रा जिले 1/4 तोला होता था। (40 रूकका-1 टंका) |