झारखण्ड में 1857 का विद्रोह (Revolt of 1857 in Jharkhand)
- जिस प्रकार पूरा देश ब्रिटिश की नीतियों के खिलाफ था। उसी तरह झारखंड के लोग भी ब्रिटिशों के औपनिवेशिक नीति के खिलाफ थे और विद्रोह हेतु ब्रिटिश के विरुद्ध जो भारत में परिस्थितियाँ थी वहीं परिस्थितियाँ झारखंड में भी थी।
- झारखण्ड में 1857 का विद्रोह (Revolt of 1857 in Jharkhand) 10 मई, 1857 से उत्तर भारत मेरठ से प्रस्फुटित हुआ और जगह-जगह आंदोलन भड़कते चले गए।
- झारखण्ड में 1857 का विद्रोह (Revolt of 1857 in Jharkhand) जून 1857 से अगस्त 1859 तक आंदोलन सक्रिय रहा और झारखंड के विभिन्न क्षेत्रें में आंदोलन के तिथियाँ न घटनाओं की अवधी इस प्रकार है।

झारखण्ड में 1857 का विद्रोह (Revolt of 1857 in Jharkhand):-
राँची: 2 अगस्त, 1857 – 23 सितंबर, 1858
हजारीबाग: 30 जुलाई, 1857 – 3 अक्टूबर, 1857
मानभूम: 5 अगस्त, 1857 – 6 अगस्त, 1859
सिंहभूम: 3 सितम्बर, 1857 – 16 फरवरी, 1859
संथाल परगना: 12 जून, 1857
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विद्रोह की प्रगति
- झारखण्ड में 1857 का विद्रोह (Revolt of 1857 in Jharkhand) के समय आदिवासी की भर्ती भी सेना में की गई थी। लेकिन आदिवासी कुशल व बहादुर होने के बावजूद शराब पीकर कर्तव्यों की उपेक्षा करते थे।
- अतः उनकी भर्ती पर रोक लगा दी गई। उन दिनों 8वीं इन्फैक्ट्री की टुकडि़याँ, हजारीबाग, डोरंड, पुरुलिया और चाईबासा में स्थित था और इन बटालियन की मुख्य शक्ति दानापुर रेजीमेंट की वफादारी पर निर्भर कर रही थी।
- झारखंड के नियोजित सैनिक सेना में अपने-अपने घर लौटा रहे थे। और विद्रोह के 2-3 महीने पहले से ही लौट रहे थे और इनकी संख्या निरंतर बढ़ती रही थी।
- ये ब्रिटिशों के विरुद्ध सक्रिय हो रहे थे। छावनी में भी सैनिकों विद्रोह की मनोवृत्ति ने जन्म ले लिया था और 25 जुलाई, 1857 को सैनिक ने विद्रोह कर दिया।
- यद्यपि इसके पूर्व रामगढ़ बटालियन के तोपखाने की वफादारी संदिग्ध हो चुकी थी। इस समय दानापुर छावनी के जनरल लायड़ ही सेनापति थे।
- लायड ने सैनिकों को आदेश दिया कि इस इन्फैन्ट्री बटालियन को छोटा नागपुर से बाहर चला जाना चाहिए और अन्य भागों के विद्रोह को दबाना चाहिए। लेकिन हंगामा शुरू हो गया।
- सैनिकों ने लायड के आदेश मानने से इनकार कर दिया। 30 जुलाई तक के ब्राह्मणों ने उन्हें संरक्षण दिया। घोड़ों की व्यवस्था करके बरोदरा भेज दिया गया और वहाँ से वह कोलकाता भाग गया।
- 30 जुलाई के बाद यहाँ के विद्रोहियों ने हजारीबाग में सरकारी दफ्रतरों को आग लगा दी। कैदियों को जेल से छुड़ा लिया। विद्रोही रामगढ़ होते हुए राँची के पिठोरिया की एक तरफ जाने लगे।
- दूसरी ओर अंग्रेज कप्तान ओक्स को हजारीबाग भेज दिया गया। डाल्टनगंज के अंग्रेज अधिकारी राँची छावनी को सूचित व सचेत करने लगे।
- इसी समय ओरमांझी के जमींदार उमराँव सिंह उसका छोटा भाई घासी सिंह और दीवान शेख भिखारी चुटुपालू घाटी को नाकेबंद कर दिया। ताकि भगोड़े अंग्रेजों को पकड़ा जा सके।
- कई अंग्रेज अधिकारियों ने हजारीबाग पहुँचकर रामगढ़ राजा से बात की ताकि विद्रोह को दबाया जा सके। पुनः विद्रोह को दबाने के लिए अवकाश प्राप्त अधिकारियों को भी बुलाया गया।
- हजारीबाग को संभालने के लिए सीनियर असिस्टेंट कैप्टन डेविस को रखा गया। हजारीबाग में गोला, झारपे, मांडु गोमिया में उनके मकान लूट लिए गए (जो अंग्रेज का साथ दिए थे)।
- हजारीबाग से विद्रोही 21 सितम्बर, 1857 को बालुसाय 24 सितम्बर को चतरा पहुँचे। लेकिन मेजर सिम्पसन के साथ चतरा में मुठभेड़ हो या और कई विद्रोही मारे गए।
- शेख भिखारी व उमराँव सिंह को चुटुपालु घाटी में फाँसी दी गई। 8 जनवरी, 1858 को टुगंरी फाँसी चतरा से गणपत राय व विश्वनाथ शाही भागकर लोहरदगा चले गए।
- चतरा में मेजर इंगलिश ने बर्बरता का परिचय देते हुए कई विद्रोहियों को पकड़कर एक तालाब के किनारे आम के पेड़ पर फाँसी दे दी। आज भी इस तालाब को फाँसी हारी पोखरा के नाम से जाना जाता है। 3 अक्टूबर, 1857 को 77 मृतकों को एक साथ वहाँ दफनाया गया।
कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यः
- चतरा से विद्रोह के कुछ विद्रोहियों में जयमंगल सिंह और नासीर अभी भी थे। जिन्हें गिरफ्रतार करने के बाद 1857 के अधिनियम-II, 12 के तहत उन पर मुकदमा चलाया गया।
- 1857 के विद्रोही उमराँव सिंह एवं उसके दीवान शेख भिखारी और भाई प्यासी सिह को पकड़ लिया और जन आक्रोश के भय से उन्हें ओरमांझी में फाँसी ना देकर राँची लाया गया और टैगोर हिल के निकट 8 जून, 1858 को फाँसी दे दी गई। यह फाँसी का स्थल आज भी टुंगरी फाँसी के नाम से जाना जाता है।
- मार्च 1858 में अंग्रेज अधिकारी डाल्टन स्वयं लोहरदगा और कप्तान और कप्तान ओक्स को विद्रोहियों को पकड़ने का दायित्व सौंपा और विश्वनाथ दूबे और महेश नारायण शाही के गद्दारों से ठाकुर विश्वनाथ साही तथा पांण्डेय गणपत राय पकड़ा गया। उसके बाद इन दोनों को क्रमशः 16 एवं 21 अप्रैल, 1858 को फाँसी दे दी गई।
पलामू में 1857 का विद्रोह
- 1857 पलामू भी विद्रोह का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा और यहाँ विद्रोह को उकसाने में अंग्रेजों की स्वयं की भूमिका रही। दरअसल अंतिम चेरो राजा चूड़ामन राय को 29 जुलाई, 1815 को अंग्रेजों ने राजा के पद से बरखास्त कर दिया और इससे खरवार, चेरो, भोगता काफी दुःखी हुए।
- 1857 की क्रांति से ठीक पूर्व भोगताओं के प्रमुख के निर्वासन उनकी मृत्यु हो गई। उसके बाद उनके दो बेटों ने नीलांबर एवं पीताम्बर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की ठान ली।
- पीताम्बर भोक्त पहले डोरंडा के आर्मी विंग में था, लेकिन उसे अपदस्थ कर दिया गया। इससे दोनों भाई मिलकर अंगेजों के खिलाफ बिगुल फूँक दिया और 21 अक्टूबर, 1857 को चूड़ामन राय की विधवा से उनकी चार तोपें छीन ली ताकी अंग्रेजों से लड़ सके।
- आगे बढ़ते हुए भोक्ता बंधु ने शाहपुर पर आक्रमण किया और सभी कागजातो को जला दिया और पीताम्बर भोक्ता ने चैनपुर पर आक्रमण कर दिया।
- 26 सितम्बर, 1857 को चेरो भी (चकला के भवानी बख्श राय) इस विद्रोह में शामिल हो गया। इस तरह विद्रोह ने व्यापक रूप धारण कर लिया और देखते ही देखते पूरे पलामू में फैल गया।
- व्यापक विद्रोह को देखते ही डाल्टन ने विद्रोही को पकड़ने का आदेश दे दिया और दूसरी और 27 अक्टूबर को राजहारा के निकट खरवारो एवं ब्राह्मणों ने विद्रोह कर दिया और वे चेरो जमीदार भवानी बक्स के मित्र थे। उनमें से 500 ब्राह्मणों को गिरफ्तार कर लिया गया और अनेकों को एक ही वृक्ष में फाँसी दे दी गई।
- 8 दिसंबर तक ब्रिटिशों को उचित संसाधन प्राप्त होने लगे और ब्रिटिश की सेना भारी मात्र में जुड़ने लगी।
- 8 फरवरी, 1858 को ब्रिटिश सेना एकत्र होकर 13 फरवरी को नीलाम्बर एवं पीताम्बर गढ़ चैमो जो कोयल नदी के किनारे स्थित है, वहाँ पहुँच कर कब्जा कर लिया और नीलाम्बर रोहतास भाग कर छुपो डाल्टन विद्रोह को समाप्त कर वापस लोहरदगा चला गया और इधर भोक्ता बंधु विद्रोह जारी रखे हुए थे।
- डाल्टन चेरो व भोक्ता के बीच फूट डालने का काम करने लगा। इससे चेरो भोक्ता का गठबंधन टूट गया। उसके बाद चेरो और भोक्ताओं पर अलग-अलग आक्रमण किया और मार्च 1859 तक दबा दिया गया।
मानभूम में 1857 का विद्रोह
- हजारीबाग तथा राँची से क्रांति की खबर मानभूम के पुरुलिया में पहुँची। अतः वहाँ के असिस्टेंट कमिश्नर चिंतित हो उठा और डाल्टन से अधिक सैनिक पुरुलिया में 64 बटालियन और 12 घुड़सवार ने विद्रोह कर दिया।
- कमीश्नर बंदा से रानीगंज भागे। विद्रोहियों को जेल से छुड़ा लिया। और खजाने को लूट लिया और राँची में वहाँ के कमीश्नर पंचेत के राजा नागमनी से सहायता माँगी, लेकिन वह सरकार विरोधी था। बाद में कई ब्रिटिश सैनिकों को मानभूम में हुए विद्रोह को दबाने के लिए भेजा गया।
- इस समय रामगढ़ गोला चितरपुर के आस-पास के गाँव में संथाली लोग भारी मात्र में लुट पाट कर रहे थे। फिर पंचेत के राजा को नवंबर 1857 में गिरफ्तार कर लिया गया। नाग फनी को कलकत्ता के अलीपुर जेल में रखा गया, जहाँ से उसे 1868 में छोड़ा गया।
संथाल परगना में 1857 का विद्रोह
- 1857 का सिपाही विद्रोह सर्वप्रथम देवघर के रोहिणी ग्राम से प्रारंभ होता है। 12 जून, 1857 को 5वीं सदी के तीन घुड़सवार ने मेजर डोनाल्ड लेसली और डॉ. ग्रान्ड पर हमला कर लेसली की हत्या कर दी।
- हत्या करने पर इन तीनों घुड़सवार को गिरफ्तार कर इमाम खाँ द्वारा पहचान कर इन तीनों को फाँसी दे दी गई और इस क्षेत्र में तनाव का वातावरण बनने लगा और विद्रोह उठ खड़ा हुआ।
सिहभूम में 1857 का विद्रोह
- ब्रिटिशों के सैनिकों की एक टुकड़ी चाईबासा में भी थी। यहाँ टुकड़ी सौ सैनिकों की थी। राँची और हजारीबाग से विद्रोह की खबर चाईबासा पहुँची और ब्रिटिश अधिकारी आंतकित हो उठे। वहाँ के राजा चक्रधर सिंह के सहयोग से कलकत्ता पहुँचा दिया।
- वहाँ प्रशासन राजा को सौंप दिया। 5 अगस्त, 1857 को कलकत्ता भाग 3 सितम्बर, 1857 को भगवान सिंह एवं रामनाथ सिंह के नेतृत्व में सिंहभूम में विद्रोह उठा खड़ा हुआ। इस विद्रोह ने खजाने से 20,000 रुपए लूटे।
- आगे वे राँची की तरफ बढ़ने लगे और लेकिन पोरहाट के राजा चक्रधर सिंह तथा खरसवाँ के राजा ठाकुर हरि सिंह की सेना तथा तोपें रास्ता रोके खड़ी थी। लेकिन पोरहाट के राजा अर्जुन सिंह अपने दीवान जग्गू को दो हाथियों के साथ विद्रोहियों की सहायता के लिए भेजा और संजय नदी को पार कराया।
- दूसरी ओर लेफ्रिटनेंट गवर्नर हेलिडे तथा कैप्टन ओक्स ने चाईबासा पर कब्जा। कर लिया गया। इसी समय कोल्हान क्षेत्र में आपसी फूट के कारण अर्जुन को पूरा लाभ नहीं मिल सका और विद्रोह को दबा दिया गया। 17 जनवरी, 1868 को कर्नल पगरेस्टर ने अर्जुन सिंह के गढ़ को ध्वस्त कर फाँसी दे दी।