सामाजिक- धार्मिक सुधार आंदोलन ( Social Reform Movement in India)
- भारत में 19वीं शताब्दी में एक ऐसी नवीन चेतना का उदय हुआ जिसने देश के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया। इसी नवचेतना को नवजागरण ( सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन) अथवा भारतीय रिनेसां के नाम से पुकारते हैं।
- पुनर्जागरण का अर्थ विद्या, कला, विज्ञान, साहित्य और भाषाओं के विकास से लगाया जाता है। परंतु भारत का नवजागरण यूरोपीय जागरण से कई पक्षों में भिन्न था।
- यूरोप में नवजागरण का कार्य कला, साहित्य और ज्ञान को पुनः जाग्रत करना था, जब कि भारत के नवजागरण ने प्राचीन भारत को पुनः जाग्रत करने का कार्य नहीं किया, अपितु यहाँ नवजागरण ने भारतीय आत्मा को गहराई तक पहुंचकर प्रभावित किया।

सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन (Social Reform Movement in India) के उदय के कारण
- आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव व विदेशी शक्ति द्वारा पराजित होने की चेतना ने 19वीं सदी में एक नई जागृति को जन्म दिया।
- विचारशील लोगों में जिन्हें आधुनिक शिक्षा और पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान तथा दर्शन का ज्ञान प्राप्त था यह आम धारणा पनपी की औपनिवेशीकरण का मूल कारण भारतीय सामाजिक ढाँचा एवं संस्कृति में विद्यमान कमजोरियाँ हैं। इन बुराइयों को दूर करने के भी उपाय खोजे जाने लगे।
- जीवन के प्रति पाश्चात्य मानवतावाद और विवेकपूर्ण वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समाज में समता के सिद्धांत का उत्थान हुआ। ईसाईयों के आगमन से अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार हुआ।
- पुनर्जागरण लाने में उन कतिपय यूरोपीय विद्वानों का भी योगदान था जो भारत की प्राचीन सांस्कृतिक उपलब्धियों से प्रभावित थे।
- विलियम जोंस, मैक्समूलर जैसे विदेशी विद्वानों ने भारतीय संस्कृति एवं ग्रंथों का अध्ययन कर उन्हें श्रेष्ठ बताया। फलतः भारतीयों में आत्मगौरव एवं आत्मसम्मान की भावना उत्पन्न हुई तथा उन्होंने उसकी श्रेष्ठता को स्थापित करने का प्रयत्न किया।
- चार्ल्स विलकिन्स ने 1785 में गीता का अंग्रेजी अनुवाद किया। विलियम जोंस ने 1784 में शकुन्तला नाटक और ऋतु संहार का रूपान्तरण किया तथा एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की। कोलब्रुक ने 1805 में वेदों का प्रमाणिक विवरण प्रकाशित कराया।
- प्रेस की स्थापना हो जाने से अनेक पत्र-पत्रिकाओं, साहित्य का प्रकाशन हुआ। इनसे भारतीयों के प्रति अंग्रेजों की व्यवहारहीनता, शोषण क्रूरता का ज्ञान भारतीयों को कराया। फलतः उनमें आत्मसम्मान की सुरक्षा की भावना जाग्रत हुई।
सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन का स्वरूप
- सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन का मुख्य लक्ष्य समाज सुधार था चूँकि समाज में अनेक कुरीतियों का समर्थन धर्म के आधार पर किया जाता था अतः धर्म में सुधारों के बगैर समाज सुधार तर्कहीन था।
- सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन स्वरूप में मूलतः सुधारवादी था क्राँतिकारी नहीं। सुधारकों ने धार्मिक बुराईयों को दूर करने के क्रम में धार्मिक आडम्बरों पर चोट की ना कि उस धर्म को अस्वीकार किया। आंदोलन अपने समाज आधार के संदर्भ में मध्यवर्गी था।
राजा राममोहन राय एवं ब्रह्म समाज (1772-1833)
- बंगाल से शुरू हुए सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन का नेतृत्व राजा राममोहन राय ने किया। इसी कारण राजा राममोहन राय को भारत के नवजागरण का अग्रदूत, सुधार आंदोलनों को प्रवर्तक, आधुनिक भारत का पिता, एवं नवप्रभात का तारा कहा जाता है। राजा राममोहन राय का जन्म 1772 में पश्चिम बंगाल के वर्द्धमान जिले के राधानगर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
- पिता की मृत्यु के बाद वे 1803 में कंपनी की सेवा में आये। जॉन डिग्वी ने जमींदारी व्यवस्था (स्थायी बन्दोबस्त) लागू करने के लिये उन्हें अपना दीवान बनाया। डिग्वी के साथ राजा राममोहन राय ने 1814 तक कार्य किया।
- डिग्बी के साथ रहकर उन्होंने अंग्रेजी का ज्ञान बढ़ाया तथा लेखन शैली विकसित की। राजा राममोहन राय अनेक भाषाओं अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी, फ्रेंच, लैटिन, जर्मन आदि भाषाओं आदि के ज्ञाता थे। उन्होंने कुरान, बाइबिल उपनिषदों, आदि धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया था।
- हिन्दू धर्म को शुद्ध रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना इस लेखन का मुख्य उद्देश्य था। कंपनी की सेवा से त्याग-पत्र देकर राममोहन राय ने 1814-15 में आत्मीय सभा की स्थापना कलकत्ता में की तथा 1816 में वेदान्त सोसाइटी की स्थापना की।
- राजा राममोहन राय वेद एवं उपनिषद की सत्ता स्वीकार करते थे और उपनिषदों द्वारा प्रतिपादित विश्व आत्मा अर्थात् आत्मा की अमरता में विश्वास करते थे।
- राजा राममोहन राय का प्राचीन ग्रंथों एवं दर्शन में विश्वास था किन्तु अंतिम रूप से वे मानव विवेक और तर्क शक्ति पर ही निर्भर करते थे। उनके अनुसार किसी भी सिद्धांत पाश्चात्य या प्राच्य की सत्यता की अंतिम कसौटी मानव विवेक ही है। ईसाई धर्म के अंधविश्वासों की उन्होंने आलोचना की। फिर भी ईसाई धर्म की अच्छाईयों में उनकी आस्था हमेशा बनी रही।
- 1820 में राजा राममोहन राय ने प्रिसेप्ट ऑफ जीसस (ईशा के नीतिवचन-शाँति और खुशहाली) नामक पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने न्यू टेस्टामेंट के नैतिक संदेशों की प्रशंसा की और ईसाई त्रयी (पिता-पुत्र-परमात्मा) की चमत्कारी कहानियों का विरोध किया। 1921 में राजा राममोहन राय ने कलकत्ता यूनीटेरियन कमेटी स्थापित की।
- एक बार जब राजा राममोहन राय यूनिटेरियन चर्च से प्रार्थना कर लौट रहे थे। उस समय ताराचंद चक्रवर्ती एवं चंद्रशेखर देव उन्हें एवं पृथक पूजा स्थल की स्थापना की सलाह दी।
- अतः राममोहन राय ने 20 अगस्त 1828 को ब्रह्म सभा के नाम से एक नये समाज की स्थापना की जिसे बाद में ब्रह्म समाज कहा गया। इस सभा का उद्देश्य था। राममोहन की मान्यताओं के अनुरूप हिन्दू धर्म में सुधार लाना।
ब्रह्म समाज के सिद्धांत
- सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन (Social Reform Movement in India) के अंर्तगत हिन्दू धर्म को स्वच्छंद बनाना तथा एकेश्वरवाद को प्रतिष्ठित करना। ब्रह्म समाज आस्तिकवाद एवं आचरण संबंधी धारणा पर आधारित था। प्रत्येक शनिवार सायं सभी सदस्य एकत्रित होकर उपदेशात्मक चर्चा में भाग लेंगे। इसके कार्यक्रम में हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई तीनों धर्मों के गुणों का समावेश था।
राजा राममोहन का समाज सुधार के प्रति दृष्टिकोण
- राजा राममोहन राय ने जाति व्यवस्था, छुआछूत, बहुविवाह, बाल-विवाह, सती प्रथा का विरोध किया और विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा पर बल दिया। सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन के तहत उन्होंने सती प्रथा का विरोध किया फलतः बेंटिक ने 1829 सी.ई. में इस प्रथा को समाप्त कर दिया। राजा रामामोहन राय ने डच घड़ीसाज डेविड हेयर के सहयोग से 1817 सी.ई. में कलकता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की।
- 1825 सी.ई. में राजा राममोहन राय ने ‘वेदान्त कॉलेज’ की स्थापना की। इसमें भारत विद्या के अतिरिक्त सामाजिक एवं भौतिक विज्ञानों की भी पढ़ाई होती थी। राजा रामामोहन राय आधुनिक शिक्षा के समर्थक थे। सरकार ने जब फारसी एवं संस्कृत कॉलेज की स्थापना का विचार किया तो राममोहन राय ने इसका विरोध किया।
- डेविड हेयर एवं स्कौटिश धर्म प्रचारक अलेक्जेंडर डफ ने शिक्षा क्षेत्र में राजा राममोहन राय की काफी सहायता की। बांग्ला भाषा के विकास में राजा राममोहन राय का महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने स्वयं एक बंग्ला व्याकरण का संकलन किया। उनके लेखन से बंगाल में एक सुंदर गद्यशैली का जन्म हुआ।
- राजा राममोहन राय भारतीय पत्रकारिता के अग्रदूत थे। उन्होंने स्वयं बंगाली पत्रिका संवाद कौमुदी का प्रकाशन 1821 में किया। अंग्रेजी भाषा में ‘ब्रह्मनिकिल मैग्जीन’ तथा 1822 में फारसी में मिरातुल अखबार निकाला।
राजनीतिक विचार एवं कार्यप्रणाली
- राजा राममोहन राय स्वतंत्रता जनतंत्र एवं राष्ट्रीयता के आंदोलन के समर्थक थे। वे विभिन्न राष्ट्रों के बीच सहयोग के समर्थक थे। 1821 में नेपुल्स की क्राँति की विफलता से राममोहन राय काफी दुखी हुए थे पर 1823 में जब स्पेनिश अमेरिका में क्राँति सफल हुई तो उन्होंने इसकी खुशी एक सार्वजनिक भोज देकर मनायी।
- अन्तर्राष्ट्रीय विचारों के कारण राजा राममोहन राय को पूर्व तथा पश्चिम का संश्लेष्य कहा गया। राजा राममोहन राय ने सिविल सेवा के भारतीयकरण, न्यायिक सुधारों की माँग की। 1827 में उन्होंने जूरी एक्ट का विरोध किया, जिससे धार्मिक आधार पर हिन्दू मुसलमान में भेद किया गया था।
- 1830 में राममोहन राय समकालीन मुगल बादशाह अकबर द्वितीय पेंशन के मामले को लेकर उसके दूत के रूप में ब्रिटिश सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में इंग्लैण्ड गए।
- अकबर द्वितीय ने राममोहन राय को फ्राजाय् की उपाधि की। वे पहले भारतीय थे जो समुद्री मार्ग से इंग्लैण्ड पहुँचे थे। ब्रिटिश संसद द्वारा भारतीय मामलों पर परामर्श किए जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे। 1831 में धन निकासी के मुद्दे को उन्होंने उठाया था। 1833 में ब्रिस्टल (इंग्लैण्ड) में उनकी मृत्यु हो गयी।
- राजा राममोहन राय के 1830 में इंग्लैण्ड जाने पर उनकी अनुपस्थिति में ब्रह्म समाज का संचालन रामचंद्र विद्यावगीश करते रहे। बाद में ब्रह्म समाज का नियंत्रण द्वारकानाथ टैगोर के हाथों में आया और फिर 1843 में देवेन्द्रनाथ टैगोर ने नेतृत्व संभाला। राजा राममोहन राय की जीवनी लेखिका मिकलोलेट थी।
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देवेन्द्रनाथ टैगोर (ठाकुर) 1817-1905
- राजा राममोहन की मृत्यु के कुछ समय बाद ब्रह्म समाज का नेतृत्व द्वारकानाथ के पुत्र देवेन्द्रनाथ ठाकुर के हाथों में आया। इनका जन्म 1817 में हुआ था। ब्रह्म समाज में आने से पूर्व देवेन्द्रनाथ टैगोर ने 1839 में तत्वोबोधिनी सभा की स्थापना कलकता में की थी। 1843 में उन्होंने ब्रह्म समाज की औपचारिक सदस्यता ग्रहण की।
- ब्रह्म समाज में सम्मिलित होने के बाद देवेन्द्रनाथ टैगोर ने तत्वबोधिनी नामक बंगाली पत्रिका निकाली, जो ब्रह्म समाज की मुखपत्र थी। बाद में ये पहाड़ी क्षेत्र में चले गये।
केशवचन्द्र सेन (1838-1884)
- 1857 में केशवचंद्र सेन ब्रह्म समाज में शामिल हुए और देवेन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें समाज का आचार्य बनाया। केशवचंद्र सेन ने ब्रह्म समाज को बंगाल से बाहर बंबई, मद्रास, पंजाब, संयुक्त प्राँत में फैलाया और उसे लोकप्रिय बनाया।
- केशवचन्द्र सेन के उदारवादी विचारों से ब्रह्म समाज में फूट पड़ गयी। वस्तुतः देवेन्द्रनाथ टैगोर विधवा विवाह एवं वर्णांतर विवाह को उचित नहीं मानते थे जबकि केशवचन्द्र सेन कई बातों में हिन्दू धर्म को संकीर्ण मानते थे और संस्कृत के मूल पाठों के प्रयोग को उचित नहीं मानते थे। उनकी सभाओं में सभी धर्मों के धर्मग्रंथों का पाठ होने लगा।
- वे ब्रह्मसमाज को हिन्दू धर्म से अलग ले जाना चाहते थे अतः देवेन्द्रनाथ एवं केशवचन्द्र के बीच में मतभेद बढ़ता गया और अन्ततः देवेन्द्र नाथ ने 1865 में केशवचन्द्र सेन से आचार्य की पदवी छीन ली। अतः केशवचंद्र अलग हो गए।
- फूट के बाद देवेन्द्रनाथ टैगोर का गुट आदि ब्रह्म समाज कहलाया जबकि केशवचन्द्र सेन ने 1866 में भारतीय ब्रह्म समाज के नाम से अपनी गतिविधियाँ चलायीं। केशवचन्द्र सेन ने ‘इण्डियन मिरर’ तथा सुलभ समाचार पत्र का संपादन किया। केशवचन्द्र सेन ने संगत सभा की स्थापना की। उन्हीं के प्रयत्न से मद्रास में ‘वेद समाज’ तथा महाराष्ट्र में ‘प्रार्थना समाज’ का गठन हुआ।
- 1872 में केशवचन्द्र सेन के प्रयत्नों से ब्रह्म विवाह एक्ट (ब्रह्म मैरिज एक्ट) पारित हुआ जिसके अन्तर्गत बाल विवाह एवं बहुविवाह को अवैध घोषित किया गया।
- लड़के की उम्र 18 वर्ष लड़की की उम्र 14 वर्ष तय की गई। साथ ही ब्रह्म विवाहों को मान्यता दी गई। जिसमें अन्तर्जातीय और विधवा विवाह भी शामिल थे। शर्त केवल यह थी कि विवाह करने वाले अपने आपको गैर-हिन्दू घोषित करे। फलस्वरूप यह कानून कभी जनप्रिय न बन सका।
- केशवचन्द्र सेन ने पश्चिमी शिक्षा के प्रसार, स्त्री शिक्षा आदि के लिये ‘इंडियन रिफॉर्म एसोसिएशन’ का गठन किया।
- केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्म विवाह अधिनियम का उल्लंघन करते हुए 1878 में अपनी नाबालिक पुत्री का विवाह कूच बिहार के राजा से कर दिया।
- फलतः ब्रह्म समाज में दूसरा विभाजन हुआ। मई 1878 में साधारण ब्रह्म समाज का गठन हुआ। इसकी स्थापना शिवनाथ शास्त्री एवं आनन्द मोहन बोस ने की। आनन्द मोहन बोस इसके प्रथम अध्यक्ष थे।
यंग बंगाल आन्दोलन–हेनरी लुई विवियन डेरोजियो (1809-31)
- यंग बंगाल आन्दोलन का नेता हेनरी लुई विवियन डेरेजियो नामक एंग्लो इंडियन था। उनका जन्म 1809 सी.ई. में हुआ था। उसने 1826 से 1831 सी.ई. तक हिन्दू कॉलेज में अध्यापन किया। डेरेजियो में आश्चर्यजनक प्रतिभा थी। वह दार्शनिक, कवि, शिक्षक और पत्रकार थे। उसने महान फ्राँसीसी क्राँति से प्रेरणा पाई तथा अपने जमाने के अत्यंत क्राँतिकारी विचारों को अपनाया।
- डेरोजियो तथा उनके अनुयायी जिन्हें डेरोजियन अथवा यंग बंगाल कहा जाता था, प्रचंड देशभक्त थे। इस आन्दोलन से राम गोपाल घोष तथा कृष्ण बनर्जी दक्षिणानन्द मुखर्जी, महेशचन्द्र घोष जुड़े हुए थे। डेरेजियो को आधुनिक भारत का राष्ट्रवादी कवि माना जाता है। उसके अनुयायियों ने सभी प्राचीन जर्जर परंपराओं एवं रीति रिवाजों का विरोध किया।
- आत्मिक उन्नति एवं समाज सुधार के लिये उन्होंने एकेडमी एसोसिएशन (Acedemic Association) और सोसाइटी फॉर द एक्वीजीशन ऑफ जनरल नॉलेज जैसे संगठनों की स्थापना की। उन्होंने एंग्लो इंडियन हिन्दू एसोसिएशन, बंगहित सभा तथा डिवेटिग क्लब की भी स्थापना की।
- 1831 सी.ई. में उन्हें हिन्दू कॉलेज से निकाल दिया गया। जिसके पश्चात् वे ईस्ट इंडिया नामक दैनिक पत्र का संपादन करने लगे परन्तु दुर्भाग्य से 26 दिसम्बर 1831 सी.ई. को ही 23 वर्ष 8 महीने में उनकी हैजे से मृत्यु हो गई।
- डेरेजियो की मृत्यु के पश्चात् एकेडमिक एसोसिएशन बिखर गई। इस एसोसिएशन के ध्वंशावशेष पर 1838 सी.ई. में सोसाइटी फॉर द एक्वीजीशन ऑफ जनरल नॉलेज की स्थापना हुई। आगे यंग बंगाल आन्दोलन के प्रभाव से ही यंग बाम्बे, यंग मद्रास आदि आन्दोलन प्रारंभ हुए। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने हेनरी विवियन डेरोजियो को आधुनिक सभ्यता के अग्रदूत एवं अपनी जाति के पिता कहा है।
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर (1820-1891)
- सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन (Social Reform Movement in India) के अंतर्गत इन्हें 19वीं सदी का महान मानवतावादी माना गया है। इन्होंने बांग्ला की नई वर्णमाला विकसित की तथा संस्कृत विद्यालय गैर-ब्राह्मणों के लिए खोल दिए। इनके प्रयास से 35 बालिका विद्यालय स्थापित हुए। इन्होंने विधवा विवाह से संबंधित कार्यक्रम बनाए। इन्होंने बेथून कॉलेज की स्थापना की।
- ये बेथून स्कूल के निरीक्षक के पद पर भी रहे। 1856 सी.ई. में इनके प्रयास से विधवा पुनर्विवाह कानून पारित हुआ। 7 दिसम्बर 1856 को कलकत्ता में पहली बार इस कानून के तहत विधवा पुनर्विवाह हुआ।
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पश्चिमी भारत में धार्मिक सुधार
महाराष्ट्र
- महाराष्ट्र में धर्म सुधार आंदोलन 1840 में प्रारम्भ हुआ इसकी शुरूआत परमहंस मंडली की स्थापना से हुई।
- परमहंस मंडली 1849 में परमहंस मंडली की स्थापना आत्माराम पाँडुरंग ने बालकृष्ण जायकर तथा दादोवा पाँडुरंग की सहायता से बम्बई में की। यह एकेश्वरवाद तथा विश्वबंधुत्व की अवधारणा पर आधारित था।
- महाराष्ट्र में समाज सुधार आंदोलन की शुरूआत का श्रेय गोपाल हरिदेशमुख को जाता है जो लोकहितवादी प्रसिद्ध हुए इन्होंने 1848 में प्रभाकर नामक पत्र निकाला। इन्होंने कई लेख लिखे इन लेखों का नाम शतपत्रे पड़ा।
प्रार्थना समाज
- सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन (Social Reform Movement in India) के अंतर्गत आत्माराम पाँडुरंग ने 1867 से प्रार्थना समाज की स्थापना की। 2 वर्ष बाद राणाडे एवं भंडारकर भी इससे जुड़ गए। इस संस्था का संगठन नये ज्ञान की पृष्ठभूमि में हिन्दू धर्म तथा समाज में सुधार लाने के उद्देश्य से किया गया था।
- प्रार्थना समाज ने एक ब्रह्म की उपासना का संदेश दिया तथा धर्म को जातिगत रूढि़वादिता से मुक्त कराने का प्रयास किया।
- प्रार्थना समाज ने जाति व्यवस्था तथा पुरोहितों के आधिपत्य की आलोचना की। इसने अंतर्जातीय विवाह, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि का समर्थन किया। अछूतों तथा दलितों की दशा सुधारने के लिये इसने कई कल्याणकारी संस्थाओं का गठन किया। उदाहरण के लिये-दलित जाति मंडल, समाज सेवा संघ तथा दक्कन शिक्षा सभा आदि। प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान आर. जी. भण्डारकर भी इस समाज से जुड़े थे।
- के. टी. तेलंग नियमित रूप से प्रार्थना समाज की बैठक में आते थे परन्तु कभी उसके सदस्य नहीं बने। रानाडे के शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले ने सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी की स्थापना 1905 में की थी।
राणाडे (1842-1901)
- राणाडे का उल्लेख पश्चिम भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अग्रदूत के रूप में किया जाता है। राणाडे को भारत का सुकरात भी कहा जाता है। सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन में उनके दो सहयोगी- 1 डी. के. कर्वे, 2. विष्णु शास्त्री।
- राणाडे ने महाराष्ट्र में 1891 में विडो रिमैरिज एसोसिएशन की स्थापना की तथा उन्हीं के प्रयत्नों से दक्कन एजुकेशनल सोसाइटी की स्थापना हुई। प्रार्थना समाज की सफलता का सबसे बड़ा श्रेय राणाडे का है प्रार्थना समाज के अनुसार मूल परम्परागत हिन्दू धर्म से अलग हुए बिना भी सुधार संभव था यह विशेषता उसे ब्रह्म समाज से अलग करती है।
- माना जाता है महाराष्ट्र में सुधारकों की धर्म पर निर्भरता कम थी। विष्णु शास्त्री पंडित ने 1850 सी.ई. में विधवा विवाह संघ की स्थापना की। महाराष्ट्र के प्रमुख सुधारकों में ज्योतिबा फूले प्रमुख थे। उन्होंने 1873 सी.ई. में सत्यशोधक समाज की स्थापना की और एक पुस्तक ‘गुलामगिरी’ लिखी।
- 1884 सी.ई. में दीनबंधु सार्वजनिक सभा की स्थापना की। इससे पूर्व 1851 सी.ई. में पूना बालिका विद्यालय की स्थापना हुई। आगरकर ने 1884 सी.ई. में दक्कन एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की। गुजरात क्षेत्र में भी सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन प्रारंभ हुआ। यहाँ के प्रारंभिक सुधारकों में मेहता जी दुर्गादास मंचराम (1809-76) का नाम उल्लेखनीय है।
- उन्होंने 1844 सी.ई. में मानव धर्म सभा तथा यूनिवर्सल रिलीजियस सोसाइटी का गठन किया जिसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक समस्याओं पर परिचर्चा करना था। अधिकांश गुजराती सुधारक गुजरात वर्नाक्यूलर सोसाइटी, अहमदाबाद से संबद्ध थे।
आर्य समाज एवं दयानन्द सरस्वती (1824-1883)
- ‘आर्य समाज’ की स्थापना दयानन्द सरस्वती द्वारा 1875 सी.ई. में बंबई में हुई। आगे चलकर इसे 1877 में लाहौर में स्थानांतरित कर दिया गया और लाहौर इसका मुख्यालय बना। दयानन्द के बचपन का नाम मूलशंकर था। उनका जन्म काठियावाड़ में हुआ था। स्वामी पूर्णानंद ने 1848 में इन्हें दयानन्द सरस्वती नाम दिया।
- 1860 में दयानन्द मथुरा में विरजानंद के शिष्य बने थे। न तो स्वामी दयानन्द सरस्वती और न ही उनके गुरु विरजानन्द पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित थे। ये दोनों ही शुद्ध रूप से वैदिक परंपरा में विश्वास करते थे और उन्होंने वेदों की ओर चलो का नारा दिया। 19वीं सदी में उत्तर भारत के हिन्दू लूथर के नाम से इन्हें जाना जाता है।
- दयानन्द सरस्वती की दृष्टि परंपरावादी नहीं थी क्योंकि उन्होंने वेदों की व्याख्या आधुनिक संदर्भों में की है। वे बाल विवाह, पुरोहित व्यवस्था, विधवा व्यवस्था, सती प्रथा एवं पर्दा प्रथा के घोर विरोधी थे। वैदिक व्यवस्था को आधार मानते हुए उन्होंने इन बुराइयों की निन्दा की।
- केशवचन्द्र सेन की सलाह से उन्होंने अपने विचारों को संस्कृत के बदले हिदी भाषा में व्यक्त करने का निर्णय लिया। 1883 सी.ई. में अजमेर में उनकी मृत्यु हो गई।
- स्वामी दयानंद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया इन्होंने ने ही पहली बार यह बताया कि विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना चाहिए और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया।
- दयानन्द सरस्वती ने कहा कि विदेशी राज्य चाहे जितना अच्छा हो लेकिन वह सुखदायक नहीं हो सकता। दयानन्द सरस्वती ने शुद्धि आन्दोलन चलाया जो अखिल हिन्दुत्व की विचारधारा एवं संप्रदायवाद के उदय के लिए उत्तरदायी हुआ। 1893 सी.ई. में आर्य समाज का विभाजन हो गया।
- हंसराज और लाजपतराय के नेतृत्व में नरमपंथी कॉलेज गुट ने दयानन्द एंग्लो स्कूल की स्थापना पर ध्यान केंद्रित किया। पहले लाहौर में 1886 सी.ई. में इसकी स्थापना हुई। आगे यह दयानन्द एंग्लो कॉलेज में बदल गया। इसके द्वारा देवनागरी लिपि के स्वीकार करने एवं गौहत्या पर प्रतिबंध का मुद्दा उठाया गया।
- गुरुकुल गुट अधिक स्पष्ट रूप से पुनरुत्थानवादी एवं संघर्षशील था। इससे जुड़े हुए नेता थे लेखराम एवं मुँशीराम। मुँशीराम ही आगे श्रद्धानंद के नाम से जाने गये आगे 1926 में वे दिल्ली में हिन्दू मुस्लिम एकता के लिये शहीद हो गये।
- 1902 सी.ई. में लेखराम एवं मुँशीराम ने हरिद्वार में गुरुकुल की स्थापना की। इसका आधार ब्रह्मचर्य और वेदों का प्रशिक्षण था। ये भाड़े के उपदेशकों द्वारा धर्मपरिवर्तन करने एवं शुद्धिकरण पर बल देते थे।
- 1883 वर्ष में दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि कोई कितना भी कहे पर स्वदेशी राज्य सर्वोपरि होता है। विदेशी राज्य चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो लेकिन वह सुखदायक नहीं हो सकता है।
रामकृष्ण परमहंस
- रामकृष्ण परमहंस (1837-1886) संत चरित्र के व्यक्ति थे तथा दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी थे। उनका प्रारंभिक नाम गदाधर भट्टाचार्य था।
- शंकर वेदांत से संबद्ध तोतापुरी ने उन्हें दीक्षित कर रामकृष्ण का नाम दिया। धार्मिक सत्य की खोज तथा स्वयं में ईश्वर का अनुभव करने के उद्देश्य से वे मुस्लिम तथा ईसाई पादरी के साथ भी रहे। इनका मानना था कि सभी धर्मों का सार एक है और मानव की सेवा ही ईश्वर की सेवा है क्योंकि मानव ईश्वर का ही मूर्तिमान रूप है। ये मूर्तिपूजा में विश्वास करते थे।
रामकृष्ण मिशन तथा स्वामी विवेकानंद (1863-1902)
- इनके विचारों के प्रचार के लिए इनके परम प्रिय शिष्य विवेकानन्द ने 1898 सी.ई. में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। रामकृष्ण मिशन ईसाई मिशनरी जैसी संस्थाओं पर आधारित था जिसका मुख्य कार्य संकट तथा विपत्ति के समय चिकित्सा एवं अन्य प्रकार की सुविधाओं को प्रदान करना था। रामकृष्ण मिशन का मूल उद्देश्य दरिद्र नारायण की सेवा करना था।
रामकृष्ण मिशन के सिद्धान्त का आधार वेदांत दर्शन
- विवेकानन्द (1863-1902) का प्रारंभिक नाम नरेन्द्र दत्त था और वे कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक थे। वे आध्यात्मिक जिज्ञासा से रामकृष्ण के संपर्क में आये तथा प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गये। गुरु की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने संन्यास ले लिया।
- शिष्य खेतड़ी महाराज (जयपुर) की प्रेरणा से नरेन्द्रनाथ ने अपना विवेकानंद रखा और 1893 सी.ई. में वे धार्मिक संसद में भाग लेने शिकागो गये जहाँ उन्होंने अपना वह सुप्रसिद्ध भाषण दिया जिसमें पश्चिमी विश्व के सामने प्रभावशाली तरीके से भारतीय संस्कृति को प्रस्तुत किया गया था। यह बैठक 11 सितम्बर 1893 को शिकागो के कोलम्बस हॉल में हुयी थी।
- 1896 में विवेकानंद ने न्यूयार्क में वेदान्त सोसायटी की स्थापना की। 1900 में आयोजित विश्व के धर्मों के इतिहास पर परिचर्चा हेतु वे पेरिस गये। उन्होंने रामकृष्ण के सम्मान में 1897 सी.ई. में कलकत्ता के निकट वेलूर मठ की स्थापना की थी तथा 1899 में अल्मोड़ा में मायावती नामक स्थान पर मठ स्थापित किया।
- उन्होंने जाति प्रथा तथा कर्मकाण्ड की आलोचना की तथा जनता से स्वाधीनता, समानता तथा स्वतंत्र चितन की भावना अपनाने का आग्रह किया।
- देश की साधारण जनता की गरीबी, बदहाली तथा पीड़ा से दुःखी होकर उन्होंने कहा कि मै एक ही ईश्वर को मानता हूँ, जो भी आत्माओं की एक आत्मा है और सबसे ऊपर है।
- मेरा ईश्वर दुखी मानव है, मेरा ईश्वर पीडि़त मानव है, मेरा ईश्वर हर जाति का निर्धन मनुष्य है।
- सुभाष चन्द्र बोस ने विवेकानन्द को आधुनिक राष्ट्रीय आंदोलन का आध्यात्मिक पिता कहा है। एक आयरिस महिला मार्ग्रेट नोबेल जो सिस्टर निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुईं, ने विवेकानन्द के उपदेशों को प्रचारित किया। 4 जुलाई 1902 को कलकत्ता में स्वामी विवेकानंद की मृत्यु हो गई।
थियोसोफिकल सोसाइटी
- थियोसॉफी शब्द ग्रीक भाषा को थियॉस एवं सोफिया से बना है जिसका अर्थ है ईश्वर का ज्ञान यह सोसाइटी उन पश्चिमी विद्वानों द्वारा आरंभ की गई थी जो भारतीय संस्कृति और विचारों से बहुत प्रभावित थे।
- हिन्दू, बौद्ध एवं जरथ्रुष्ट धर्म की आत्मा को पुनर्जीवित करना। धर्म को समाज सेवा का मुख्य साधन बनाने और धार्मिक बंधुत्व का प्रचार करना भी इसका उद्देश्य था।
- 1875 सी.ई. में मैडम एच. पी. अड्डयार, एक जर्मन-रूसी रक्त की महिला ने इस सोसाइटी की नींव अमेरिका में रखी। बाद में कर्नल एम. एस. ऑर्काट भी इसमें शामिल हो गए।
- 1882 सी.ई. में उन्होंने अपनी सोसाइटी का मुख्य कार्यालय मद्रास नगर के समीप की एक बस्ती अड्डयार में स्थापित कर लिया।
- 1897 सी.ई. में ऑर्काट की मृत्यु के बाद एनी बेसेंट इसकी अध्यक्ष बनीं। 1891 सी.ई. में मैडम ब्लावेत्स्की की मृत्यु के बाद वह भारत आई थीं।
- एनीबेसेंट एक आयरिश महिला थीं। 1889 में वे इंग्लैण्ड में इसकी सदस्य बनीं 1893 के शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के पश्चात वह भारत आईं।
- एनीबेसेंट ने 1898 में बनारस में सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना की। आगे चलकर इसने 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का रूप ले लिया। यद्यपि यह सोसाइटी जनता को अधिक प्रभावित नहीं कर पायी लेकिन इसने भारतीयों में अपनी संस्कृति के प्रति आत्मविश्वास बढ़ाया।
अन्य सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन
- धर्म सभा (1830): इसकी स्थापना बंगाल में राधाकान्त देव ने की। इसका उद्देश्य सती प्रथा का समर्थन करना था। इन्होंने राजा राममोहन राय का विरोध किया। राधाकान्त देव ने गांडीय सभा की स्थापना भी की।
- राधास्वामी सत्संग (1861): राधास्वामी सत्संग की स्थापना तुलसी राम ने जिसे शिवदयाल साहब भी कहा जाता है, ने की। 1887 सी.ई. में देव-समाज लाहौर में शिव नारायण अग्निहोत्री द्वारा स्थापित की गई।
- सेवासमिति (1914): एच. एन. कुँजरू ने इलाहाबाद में सेवा समिति की स्थापना की।
- राजा मुंदरी सामाजिक सुधार संगठन (1878): विरेंशलिगम ने 1878 सी.ई. में राजमुन्द्री सामाजिक सुधार संगठन की स्थापना की।
- भारत धर्म महामंडलः पंडित दीन दयाल शर्मा ने भारत धर्म महामंडल की स्थापना की तथा स्वामी ज्ञानारंजन ने 1896 में मथुरा में निगमागम मंडली की स्थापना की। मुकुल दास अथवा महिमा गोस्वामी ने सप्त महिमा धर्म की स्थापना की तथा एच-पी- केलकर ने बॉम्बे में ब्रह्म समाज की स्थापना की।
- दी सर्वेन्ट ऑफ इंडिया सोसायटी (भारत सेवक संघ 1905): इसकी स्थापना गोपाल कृष्ण गोखले में बंबई में 1905 में की। यह सोसायटी ऐसे व्यक्तियों का संगठन थी जो अपनी मातृभूमि की किसी न किसी रूप में सेवा करने को समर्पित थे।
- भील सेवा मंडल (1922): इसकी स्थापना अमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर उर्फ ठक्कर बापा ने 1922 में बंबई में की। इन्होंने ही आदिवासियों को जनजाति नाम दिया।
- शारदा सदन (1889): इसकी स्थापना बंबई में पंडिता रामबाई ने की। 1890 में इसे पूना स्थानांतरित कर दिया गया।
- गोरक्षा: गोरक्षा से संबंधित 3 व्यक्तियों को योगदान महत्त्वपूर्ण है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने गौरक्षणी सभा बनाई। बालगंगाधर तिलकर ने गौहत्या विरोधी समितियां बनाई जबकि गाँधी जी ने गौरक्षा संघ का गठन किया।
पारसी सुधार आन्दोलन
- उद्देश्यः पारसी समाज की कुरीतियों को दूर करना।
- रहनुमाई माजदायासन सभाः 1851 सी.ई. में नौरोजी फरदून जी दादाभाई नोरोजी एवं एस. एस. बंगाली आदि के द्वारा रहनुमाई माजदायासन सभा की स्थापना हुई।
- इसी वर्ष दादा भाई नौरोजी ने रोस्त गोफ्रत्तर नामक पत्र का गुजराती में प्रकाशन किया। इसमें नौरोजी फरदून जी पहले अध्यक्ष थे तथा पहले बंगाली सचिव थे।
मुस्लिम सुधार आन्दोलन
वहाबी आन्दोलन:
- 18वीं सदी में इस आन्दोलन को प्रेरणा मिली। प्रमुख संत अब्दुल वहाब थे जिनके विचार से यह आन्दोलन प्रभावित था।
- 19वीं सदी में मिर्जा अजीज एवं रायबरेली के सैय्यद अहमद बरेलवी के संयुक्त प्रयास से यह एक आन्दोलन में तब्दील हो गया। इसका उद्देश्य दर-उल-हर्ब को दर-उल-इस्लाम में बदलना था।
- यह सच्चे इस्लाम को अर्थात् मुहम्मद साहब के द्वारा प्रतिपादित इस्लाम को पुनर्जीवित करना चाहता था। इसने पंजाब के सिखों के विरुद्ध जेहाद छेड़ा।
- 1831 सी.ई. में वहाबियों ने पेशावर पर अधिकार करने की कोशिश की जिसमें रायबरेलवी युद्ध करता हुआ मारा गया। इस्लामी नेता सैय्यद अहमद बरेलवी ने तारीख-ए-हिद मुहम्मदिया नामक एक पुनरुत्थानवादी आन्दोलन का प्रारंभ किया था।
अलीगढ़ आन्दोलनः
- सर सैयद अहमद खाँ इसके प्रवर्तक थे। इनका जन्म 17 अप्रैल 1817 को दिल्ली में हुआ था। 1839 में ये आगरा के कमीश्नर दफ्तर में क्लर्क हो गये। सर सैय्यद अहमद खाँ, नजर अहमद, मोहसिन उल मुल्क और चिराग अली इससे जुड़े हुए थे।
- सैय्यद अहमद ने फारसी भाषा में 1870 में तहजीब-उल अखलाक (सभ्यता एवं नैतिकता) नामक पत्रिका का संपादन किया। सैय्यद अहमद खाँ कुरान में विश्वास करते थे परन्तु वे कुरान की आधुनिक व्याख्या प्रस्तुत करते थे।
- सैय्यद अहमद खाँ ने 1875 सी.ई. में अलीगढ़ मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज की स्थापना की। लिटन ने इस कॉलेज का शिलान्यास किया तथा विलियम म्यूर ने इस कॉलेज के लिये भूमि प्रदान की।
- म्यूर उस समय उत्तर प्रदेश के गवर्नर थे। इस कॉलेज को प्रथम प्रिंसिपल थियोडर बैक थे। सैयद अहमद खाँ के साम्प्रदायिक विचारों के पीछे थियोडर बैक ने एक प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य किया। 1920 में यह कॉलेज अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय बन गया।
- सैय्यद अहमद खाँ ने पर्दा प्रथा का विरोध किया और नारी उद्धार पर बल दिया। 1864 में सैयद अहमद खाँ ने साइंटिफिक सोसायटी की स्थापना कलकत्ता में की। 1869 में वे इंग्लैण्ड गये जिससे उन्हें पश्चिमी सम्पर्क में आने का अवसर मिला।
- सैय्यद अहमद धार्मिक सहिष्णुता तथा सभी धर्मों की अन्तर्निहित एकता में विश्वास रखते थे। वे साम्प्रदायिक टकराव के विरोधी थे। 1883 सी.ई. में उन्होंने लिखा कि तत्कालीन रूप से हम दोनों धर्म के लोग भारत की हवा पर जिदा हैं।
- हम गंगा-यमुना का पवित्र जल पीते हैं। हम दोनों भारतीय भूमि की पैदावार खाकर जिदा हैं। परन्तु जीवन के उत्तरार्द्ध में वे हिन्दू प्रभुत्व की बात करने लगे तथा अपने समर्थकों को अंग्रेजों का साथ देने के लिए और मुस्लिमों को ब्रिटिश विरोधी आन्दोलन से पृथक रहने का परामर्श दिया।
- सैय्यद अहमद खाँ ने कांग्रेस की स्थापना का विरोध किया और 1888 में यूनाइटेड इन्डियन पैट्रियोटिक एसोसिएशन की स्थापना की।
अब्दुल लतीफः
- सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन के अंतर्गत इन्हें बंगाल के मुस्लिम पुनर्जागरण का पिता कहा जाता था इन्होंने 1863 में ईस्वी में कलकत्ता में मोहम्मद लिटरेटरी सोसायटी की स्थापना की।
देवबन्द आन्दोलन
- 1866 सी.ई. में मोहम्मद कासिम ननौत्वी और अब्दुल रशीद गंगोही इस आन्दोलन के संस्थापक थे। कासिम ननौत्वी एवं अब्दुल रसदी गंगोही ने सहारनपुर के पास देवबंद में दारूल उलूम की स्थापना की। यह एक पुनर्जागरणवादी स्कूल था। हदीस की शुद्ध शिक्षा का प्रसार करने तथा विदेशी शासन के विरूद्ध जिहाद की भावना जीवित रखना इसका उद्देश्य था।
- यह स्कूल परम्प्रागत इस्लाम में विश्वास रखता था। इसका रुख अंग्रेजी व्यवस्था के खिलाफ था। साथ ही यह आन्दोलन अलीगढ़ आन्दोलन का विरोधी था। इस स्कूल के मुल्लाओं ने सैय्यद अहमद खाँ तथा उनकी संस्था संयुक्त भारतीय राजभक्त सभा के विरुद्ध फतवा जारी किया। आगे चलकर इस आन्दोलन से मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेता का उदय हुआ।
अहमदिया आन्दोलन
- 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध (1889) में मिर्जा गुलाम अहमद ने अहमदिया संप्रदाय की स्थापना की। यह कादिनी एवं काजिनी संप्रदाय के नाम से भी जाना जाता है। इस आन्दोलन का जन्म पंजाब के काजिनी नामक स्थान में हुआ।
- इस आन्दोलन ने शुद्धि आन्दोलन तथा ईसाईयत के विस्तार पर रोक लगाई। इसके नेता ने स्वयं को हजरत मुहम्मद की बराबरी में इस्लाम का मसीहा माना।
- आगे उन्होंने अपने को कृष्ण का अवतार एवं ईसा मसीह का अवतार भी कहना आरंभ कर दिया। मिजा गुलाम अहमद ने बहरीन-ए-अहमदिया नामक ग्रंथ लिखा। सैयद नजीर नामक एक मुस्लिम नेता ने 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अहल-ए-आदिल नामक एक संस्था का नेतृत्व अपने हाथों में लिया।
- सिवली नुमानी ने 1823 में अलीगढ़ कॉलेज में सेवा ग्रहण की थी लेकिन 1890 के दशक में उसने त्यागपत्र दे दिया तथा उलेमाओं के साथ मिलकर उसने एक अलग संस्थान मजलिश-ए-नदवा-उल-लूम की स्थापना की। 1866 में मुहम्मद शफी तथा शाहदीन ने लाहौर में अंजुमन इमामत-ए-इस्लाम नामक संस्था की स्थापना की।
- मौलाना शिबली नूमानी ने 1894 सी.ई. में लखनऊ में नदवा-तल-उलेमा की स्थापना की। सैय्यद नजीर हुसैन ने 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में पंजाब में अहल-ए-हदीस की स्थापना की। अहमद रजा खाँ ने 19वीं सदी के अंत में पंजाब में बरेलवी स्कूल की स्थापना की। इसके सदस्य बरेलविस नाम से जाने जाते थे।
सिख आंदोलन
- 19वीं सदी में सिखों में संस्था सरीन सभा स्थापित हुई। पंजाब में सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन के रूप में कूका आन्दोलन चला। इस आन्दोलन को भगत जवाहर मल ने चलाया। आगे राम सिह इससे जुड़ गए।
- 1920 सी.ई. के गुरुद्वारा के प्रबंधन में निहित भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पंजाब के अकालियों ने सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ा। गुरुद्वारों पर भ्रष्ट महंतों का कब्जा था।
- 1922 सी.ई. में गुरुद्वारा प्रबंधन एक्ट पारित किया गया। 1925 सी.ई. में इसे संशोधित किया गया। तत्पश्चात् शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की स्थापना हुई।
सीमाएँः
- सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन आन्दोलन नगरीय जीवन तक ही सीमित थे। इनमें महिला एवं शूद्रों की नहीं के बराबर भागीदारी थी। अतीत पर कुछ ज्यादा ही बल दिया गया।
- सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन ने संस्कृति के दार्शनिक एवं धार्मिक पहलू पर ही बल दिया अन्य पहलू यथा, कला एवं स्थापत्य संगीत एवं तकनीकी शिक्षा की अवहेलना की गई।
समाज सुधार अधिनियम
- सती प्रथाः गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक के समय में 1829 के नियम 17 द्वारा सती प्रथा को अवैध घोषित किया गया। प्रारम्भ में यह केवल बंगाल में लागू हुआ किन्तु आगे बंबई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सी में लागू हुआ।
- शिशु वधः गवर्नर जनरल जॉन शोर के समय 1795 के बंगाल नियम 21 तथा वेलेजली के समय 1802 के धारा 6 के द्वारा शिशु हत्या को साधारण हत्या के रूप में मान लिया गया। शिशुवध प्रथा मूलतः राजपूतों में प्रचलित थी जो कन्याओं के जन्म लेते ही उन्हें मार डालते थे।
- नरबलि प्रथाः नरबलि प्रथा को समाप्त करने का श्रेय लार्ड हॉर्डिंग को जाता है।
- दास प्रथाः गवर्नर जनरल एलनबरो ने 1843 के 5वें नियम द्वारा दास प्रथा को समाप्त कर दिया।
- विधवा पुनर्विवाहः ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयास से 1856 में कैनिग के समय विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित हुआ। (26 जुलाई, 1856 के अधिनियम 15 द्वारा)
बाल विवाह
- सिविल मैरेज एक्ट या नेटिव मैरेज एक्ट (1872 सी.ई.): इस अधिनियम के द्वारा लड़कियों के विवाह की निम्नतम आयु 14 वर्ष और लड़के की आयु 18 वर्ष निर्धारित की गई। इस अधिनियम के द्वारा बहुपत्नी प्रथा को भी समाप्त कर दिया गया।
- सम्मिलित आयु अधिनियम (1892 सी.ई.): यह अधिनियम प्रसिद्ध भारतीय समाज सुधारक एवं बंबई के पारसी बहराम जी मालाबारी के प्रयत्नों से पारित हुआ। इसके लिये उन्होंने एक लघु पुस्तिका 15 अगस्त, 1884 को प्रकाशित की तथा उसे अंग्रेजों एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों को दिया।
- 1891 में इनका प्रस्ताव वायसराय के विधान परिषद में विचारार्थ रखा गया और 19 मार्च, 1891 को यह सम्मति आयु अधिनियम कौंसिल द्वारा पारित कर दिया गया। इस अधिनियम के द्वारा लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 12 वर्ष कर दी गई। मालाबारी के मित्र दयाराम गिदूमिल ने लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 12 वर्ष किये जाने का सुझाव दिया था।
- शारदा अधिनियम (1930 सी.ई.): 1930 में अजमेर निवासी एवं प्रसिद्ध शिक्षाविद् डॉ. हरविलास शारदा के प्रयत्नों से यह बाल विवाह निषेध कानून बन गया। उन्हीं के नाम पर ही इसे शारदा अधिनियम कहा गया। इस अधिनियम के द्वारा लड़कियों के विवाह की न्यूनतम सीमा 14 वर्ष तथा लड़कों की 18 वर्ष निर्धारित की गई।
जाति आन्दोलन
महाराष्ट्र
- 19वीं सदी के अंत में मद्रास एवं महाराष्ट्र में सेवाओं एवं सामान्य सांस्कृतिक जीवन पर ब्राह्मणों के स्पष्ट प्रभुत्व के विरुद्ध सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन होने लगे थे। ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन का पहला बिगुल महाराष्ट्र में 1870 के दशक में बजा और इसे बजाने वाले थे ज्योतिबा फूले।
- फूले ने एक पुस्तक लिखी गुलामगिरी (1872) और उन्होंने सत्यशोधक समाज नामक एक संगठन भी बनाया।
- सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन (Social Reform Movement in India) के तहत जातिवाद आंदोलन में अभिजात समूहों पर आधारित रूढि़वादी प्रवृत्ति एवं सच्चा जन आधारित उग्र परिवर्तनवाद दोनों ही दिखाई देते हैं। इनमें से पहली प्रवृत्ति थोड़ी बहुत संस्कृतिकरण के मार्ग पर चलती थी और कभी-कभी मराठों के लिए क्षत्रित्व का दावा करती थी।
- 1800 के दशक में इसे कोल्हापुर के राजा का संरक्षण प्राप्त होने लगा। 1911 के पश्चात् से भास्करन जाधव और गैर ब्राह्मण दल कट्टर कांग्रेस विरोधी हो गया। किन्तु एक अन्य प्रवृत्ति भी सक्रिय थी जो शहरों की अपेक्षा गाँवों में कार्य करती थी। उसने अंग्रेजी की अपेक्षा मराठी भाषा को अपना माध्यम बनाया।
- जाति सोपान में ऊँचे स्थान का दावा करने के बजाय यह प्रवृत्ति जाति प्रथा का ही विरोध करती थी। इसने 1919-21 सी.ई. में सतारा में किसान आन्दोलन को प्रेरित किया और बाद में महाराष्ट्र के निर्माण के ग्रामीण क्षेत्रें में गाँधीवादी कांग्रेस को पुनर्जीवित करने में सहायता दी। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से आग्रह किया कि जनता को किसान वर्ग से चुने गए शिक्षकों से प्राथमिक शिक्षा दिलाई जाये।
- फूले ने स्त्रियों को भी दलित बताया तथा उसके प्रतिकार के लिये उन्होंने प्राधिकारवादी परिवार संरचना की जकड़ को तोड़ने के लिये प्रयास प्रारंभ किया। उन्होंने सभी वर्गों की समानता के साथ-साथ स्त्री-पुरुष समानता की वकालत भी की। विवाह के दौरान वे वर से वचन लेते थे कि वह वधु को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार देगा।
- 1885 सी.ई. में प्रकाशित पैम्पलेट इशारा (warning) में किसान वर्ग की आर्थिक समस्याओं के बारे में फूले के विचार छपे थे। फूले ने छोटे किसान तथा खेतीहर मजदूरों की समस्या का समर्थन किया।
- राजनीति में किसान को एक वर्ग की तरह प्रवेश कराने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विरोध किया क्योंकि वह किसान वर्ग की समस्याओं को हल करने में सफल रहे थे।
- 19वीं सदी के अंत तक महाराष्ट्र के महार जाति के लोगों ने भी, जो आगे चलकर अंबेडकर के आन्दोलन का आधार बने, अपने आपको गोपाल बाबा वलंगकर नाम के एक भूतपूर्व सैनिक के नेतृत्व में संगठित करना आरंभ कर दिया।
- 1894 सी.ई. में वलंगकर ने एक याचिका बनायी जिसमें महारों को क्षत्रिय स्वीकार किए जाने और उन्हें सेना में अधिक नौकरी दिए जाने की माँग की गई।
- मुकुंद राव पाटिल के नेतृत्व में इस समाज ने महाराष्ट्र दक्कन एवं विदर्भ और नागपुर के क्षेत्र में अपना एक अनूठा स्थान बना लिया था। मुकुंद राव पाटिल ने 1910 से अपने पुश्तैनी गाँव ताराबाड़ी से सत्यशोधक समाज का मुख्य पत्र दीन-मित्र निकालना प्रारंभ किया।
- सत्यशोधक समाज ने ग्रामीण क्षेत्रें में अपना संदेश पहुँचाने के लिए पारंपरिक लोक नाट्य या तमाशे का भी अपने ढँग से प्रयोग किया। सतारा में ऐसी तमाशा टोलियाँ सर्वाधिक थीं।
- 1919 में स्थानीय सत्यशोधक नेताओं के नेतृत्व में किसान विद्रोह भी उठ खड़ा हुआ। 1920 के मध्य के दशक में केशवराम जेढ़े और दिनकर राव जावलकर पूना से एक नए प्रकार के गैर-ब्राह्मण आन्दोलन का नेतृत्व करने लगे थे जो ब्रिटिश विरोधी था।
- आगे यह काँग्रेस में आत्मसात हो गया था। मराठा जोतधारी कृषक वर्ग का आंदोलन तो कांग्रेस में आत्मसात हो गया था, किन्तु अछूत महारों ने 1920 के दशक से अपनी बिरादरी के पहले स्नातक डॉक्टर अम्बेडकर के नेतृत्व में एक स्वतंत्र आन्दोलन विकसित कर लिया था। उनकी माँगों में अलग प्रतिनिधित्व, तालाबों का उपयोग करने एवं मन्दिर में प्रवेश करने के अधिकार और ‘महार वतन’ की समाप्ति सम्मिलित थीं।
- 1927 में प्रथम महार राजनीतिक सम्मेलन होने तक अंबेडकर के कुछ अनुयायी मनुस्मृति को जलाकर प्रतीक रूप में हिन्दू धर्म से अपना संबंध विच्छेद दर्शाने लगे।
- 1924 में अम्बेडकर ने बम्बई में हितकारिणी सभा का निर्माण किया। 1927 सी.ई. में इन्होंने बहिष्कृत भारत नामक पत्रिका के प्रकाशन शुरू किया। इसी वर्ष समाज समता संघ स्थापित किया।
अंबेडकर का योगदान
- 20वीं सदी में महारों को संगठित किया। उन्हें निम्नतर कार्यों, जैसे मृत पशुओं को ढोना, नशापान करना, भीख माँगना आदि को करने से रोका। मन्दिर में जबरन घुसपैठ करने का कार्यक्रम चलाया (1930 सी.ई. में नासिक के कालाराम मंदिर में सत्याग्रहियों के एक दल के साथ जबरन घुसपैठ करने की कोशिश)।
- डॉ. अम्बेडकर ने अलग निर्वाचक मंडल की माँग सबसे पहले 1928 में साइमन कमीशन के सामने की। आगे प्रथम गोलमेज सम्मेलन में, इस आधार पर कि अछूत हिन्दू समाज में अलग हैं, पृथक निर्वाचक की माँग की। साथ ही उसी सम्मेलन में उसने अछूतों के लिए मौलिक अधिकारों की माँग रखी, जिससे प्रभावित होकर 1931 के कराची सत्र में उक्त आशय का प्रस्ताव पारित किया गया।
- अंबेडकर ने अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ की स्थापना की। डॉक्टर अंबेडकर ने एक-दूसरे हरिजन नेता ठक्कर बापा के साथ मिलकर देश का दौरा किया।
- अंतरिम सरकार के गठन के समय बंबई में सत्याग्रह और मुस्लिम लीग ने तकनीकी का प्रयोग किया।
- भारत का पहला विधि मंत्री एवं संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष।
- महात्मा गाँधी ने भी हरिजन उद्धार कार्यक्रम को अपने हाथों में लिया। उन्होंने 1932 सी.ई. में अखिल भारतीय हरिजन संघ की स्थापना की। सितम्बर 1932 सी.ई. में ही उन्होंने अस्पृश्यता विरोधी लीग की स्थापना की और हरिजन पत्र का संपादन किया।
अंबेडकर द्वारा गाँधी जी की आलोचना का आधारः
- गाँधी जी ने हरिजनों के लिए सिर्फ मानवीय कार्यों जैसे सार्वजनिक कुँओं का इस्तेमाल, मन्दिर प्रवेश आदि पर बल दिया परन्तु कोई आमूल परिवर्तनवादी आर्थिक माँग नहीं रखी। उन्होंने सार्वजनिक खान-पान एवं अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा नहीं दिया और अंत तक वर्णाश्रम धर्म में अपनी आस्था जतायी, जबकि अंबेडकर का मानना था कि जब तक जाति प्रथा का अंत नहीं हो जाता हरिजनों का उद्धार संभव नहीं है।
- गाँधी जी द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आन्दोलन की अंबेडकर ने इस आधार पर आलोचना की कि मात्र राजनीतिक सत्ता में परिवर्तन से सामाजिक क्राँति संभव नहीं है। अंबेडकर हरिजनों के लिए पृथक निर्वाचन चाहते थे क्योंकि उनका मानना था कि हरिजनों की अपनी मातृभूमि नहीं है और हिन्दू उन्हें कुत्ते-बिल्ली की तरह समझते हैं।
तमिलनाडु में जाति आन्दोलन
- नवीन आर्थिक परिवर्तनों ने तमिल समाज में भी जागृति उत्पन्न की। द्रविड़ चेतना का विकास तथा उसका राजनैतिक प्रदर्शन गैर-ब्राह्मण आन्दोलन के रूप में हुआ।
- दक्षिण तमिलनाडु में अछूत गछवाहों और खेत मजदूरों ने, जो मूलतः शनान कहलाते थे, व्यापार के माध्यम से धन कमाकर एक उच्च वर्ग का निर्माण कर लिया था और 1901 की जनगणना में क्षत्रिय श्रेणी के अन्तर्गत शामिल किए जाने की माँग करने लगे थे।
- ये लोग अपने को नाडार कहने लगे थे। इनके मंदिरों में प्रवेश करने की माँग को लेकर तिरूनलवेली में 1899 सी.ई. में दंगे हुए। उसी प्रकार उत्तरी तमिलनाडु के पल्ली जाति के लोग 1871 सी.ई. में क्षत्रित्व का दावा करने लगे।
- दक्षिण तमिलनाडु के नाडारों ने 1910 सी.ई. में नाडार महाजन सभा की स्थापना की। परन्तु राजनीतिक दृष्टि से मद्रास में सबसे महत्त्वपूर्ण आंदोलन था जस्टिस आन्दोलन। 1917 सी.ई. में श्री. पी. त्यागराज तथा डॉ. टी. एम. नैयर ने प्रथम इतर ब्राह्मण सभा गठित की जिसका नाम था ‘दक्षिण भारतीय उदारवादी संघ’।
- इसी को आगे प्रायः जस्टिस पार्टी अथवा न्याय दल के नाम से जाना जाने लगा। इसकी शुरुआत मद्रास में 1915-16 के आसपास मझोली जातियों की ओर से सी. एन. मुदलियार, टी. एम. नायर और त्याग राज चेट्टी ने की थी। इन मझोली जातियों में तमिल वल्लाल, मुद्लियार और चेट्टीयार प्रमुख थे। किन्तु तेलगु रेड्डी, कम्मा और वलीजा, नायडू और मलयाली नायर भी सम्मिलित थे।
- मद्रास में ही आगे जस्टिस पार्टी के अभिजनवाद के विरोध में एक लोकप्रिय एवं जुझारू विकल्प विकसित हुआ। ‘पेरियार’ ई.वी. रामास्वामी नायकर, ने जो असहयोग आन्दोलन में सक्रिय रहे थे, सुधार आन्दोलन के आधार पर 1925 में काँग्रेस से नाता तोड़ लिया।
- उन्होंने 1924 में कुडि आरसू पत्रिका प्रारंभ की, अगले वर्ष उन्होंने आत्म सम्मान आन्दोलन चलाया। इस आन्दोलन में ब्राह्मण पुरोहितों के बिना विवाह करवाने, मंदिरों में बलात् प्रवेश, मनुस्मृति को जलाने और कभी-कभी स्पष्ट नास्तिकता के कार्यक्रम भी शामिल थे।
- पेरियार के आन्दोलन की सबसे बड़ी सीमा रही कि इस आन्दोलन का विस्तार छोटे शहरों तथा ग्रामीण क्षेत्रें में होते हुए भी उसका सामाजिक आधार उच्च गैर-ब्राह्मण जातियों तक ही सीमित था।
- मद्रास की गैर-ब्राह्मण जस्टिस पार्टी खुलेआम राजभक्त थी और उसने अंग्रेजों की दृष्टि से उस प्राँत में द्वैध शासन पद्धति को सफल बनाया।
केरल
- ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध त्रवणकोर में मझोली जातियों की प्रतिक्रिया पहले प्रारंभ हुई। इसके परिणामस्वरूप लगभग एक ही साथ अनेक प्रवृत्तियाँ उभरीं।
- केरल के प्रथम आधुनिक उपन्यास चंद्रमेनन कृत इंदुलेखा (1889) में नंबूदरी ब्राह्मणों के सामाजिक प्रभुत्व एवं तारावाड़ प्रथा के कारण रूमानी प्रेम पर लगाई जाने वाली बंदिशों पर हमला किया गया।
- सी.वी. रामन पिल्लई के ऐतिहासिक उपन्यास मार्तंड वर्मा में नायक आनंद पद्मनाभन के माध्यम से नायरों के खोये हुए सैन्य गौरव का आह्नान करने का प्रयास किया गया है।
- 1891 सी.ई. में रामन पिल्लई ने मलयाली मेमोरियल का गठन किया। 1900 के पश्चात के. रामकृष्ण पिल्लई और मन्मथ पद्मनाभ पिल्लई ने 1914 में नायर सर्विस सोसायटी की स्थापना की जो आज भी जीवित है।
- रामकृष्ण पिल्लई ने 1906-10 तक स्वाभिमानी का संपादन किया। जस्टिस आंदोलन से भी रामकृष्ण जुड़े हुए थे। केरल के एझावा लोगों में भी जागृति आ रही थी। एझवा जागरण धार्मिक नेता श्री नारायण गुरु एवं उनके आरूविपुरम् मंदिर के इर्द-गिर्द केंद्रित था।
- 1902-03 सी.ई. में श्री नारायण गुरु, प्रथम एझवा स्नातक डॉक्टर पल्पू एवं महान मलयाली कवि एन. कुमार आशान ने श्री नारायण धर्म परिपालन योगम की स्थापना की।
- नारायण गुरु ने मानव जाति के लिए एक धर्म, एक जाति एवं एक ईश्वर का नारा दिया। उनके शिष्य सहदारन अय्यपन ने उसे कोई धर्म नहीं, कोई जाति नहीं, कोई ईश्वर नहीं सरीखे नारे में बदल दिया।
- केरल के त्रवणकोर के वायकूम गाँव के मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश पर प्रतिबंध था फलतः 1924 में वहाँ से वायकूम सत्याग्रह शुरू हुआ। 1931 में के. कलप्पन के नेतृत्व में केरल में मंदिर प्रवेश के मसले पर गुरू वायूर सत्याग्रह हुआ।
मैसूर
- मैसूर में ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरुद्ध वोक्कालिगा एवं लिगायत समुदाय ने प्रतिक्रिया जतायी। 1905-06 सी.ई. में एक लिगायत एजुकेशन फंड एसोसिएशन एवं एक वोक्कालिगा संघ की स्थापना हुई।
- 1917 सी.ई. में सी.आर. रेड्डी ने ब्राह्मण विरोधी मंच पर रियासत के सर्वप्रथम राजनीतिक संगठन ‘प्रजा मित्रमंडली’ की स्थापना की। आँध्र क्षेत्र में जातीय आंदोलनः आँध्र में गैर-ब्राह्मणों ने‘ब्राह्मणेत्तर उद्यम’ प्रारंभ किया जिसका मतलब आन्दोलन था। यह आन्दोलन मूल रूप से कम्मा, रेड्डी, बलीजा तथा बेलमा जैसे गैर ब्राह्मण समूहों के सांस्कृतिक तथा सामाजिक उत्थान के लिये किया गया था।
- कृष्णा जिले के कोत्तवरम गाँव में ब्राह्मणों ने कम्मा जाति द्वारा अपने नाम के बाद दास के स्थान पर चौधरी के प्रयोग करने का विरोध किया। प्रसिद्ध गैर-ब्राह्मण नेता त्रिपुरानेबी रामास्वामी ने ऐसी अन्य कई घटनाओं का जिक्र किया है जिसके परिणामस्वरूप यह आन्दोलन आगे बढ़ा।
- 1916 में गुन्टूर के कोल्लूर गाँव में शूद्र शब्द का अर्थ निश्चित करने के लिये अंग्रेजी पढ़े हुए उच्च जाति के हिन्दू गैर-ब्राह्मणों ने एक अधिवेशन बुलाया। वे इस हद तक आगे बढ़ गये कि राम-कृष्ण तथा दूसरे धर्म ग्रन्थों के नायकों के प्रतीक पर संदेह करने लगे।
- शूद्र वर्ग की परिभाषा करने की प्रक्रिया में उन्हें सामाजिक दृष्टि से ब्राह्मणों से ऊँचे वर्ग का माना तथा महाकाव्यों की फिर से व्याख्या की।
उत्तरी एवं पूर्वी भारत में सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन
- उत्तरी एवं पूर्वी भारत के ब्राह्मणों का प्रभुत्व इतना स्पष्ट नहीं था। इसका कारण यह था कि इन क्षेत्रों में अन्य सवर्ण समूह प्रतिरोधक का कार्य करते थे। जैसा कि संयुक्त प्राँत एवं बिहार में राजपूत एवं कायस्थ और बंगाल में कायस्थ व वैद्य।
- अपने अंतर्प्रांतीय व्यावसायिक संबंधों के कारण 1901 तक कायस्थों भूमिहर ने अपनी अखिल भारतीय समिति बना ली थी और एक अखबार भी निकालने लगे।
- मई 1925 में बिहार सरकार की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि पटना, मुँगेर, दरभंगा और मुजफ्फरपुर के ग्वाले या यादव अपनी जाति के सामाजिक दर्जे के उत्थान के लिए यज्ञोपवीत धारण कर रहे हैं।
- सहजानंद सरस्वती ने बिहटा (पटना के पास) में भूमिहार ब्राह्मण सभा की स्थापना की।
पूर्वी भारत में सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन
- बंगाल में 20वीं सदी के पहले दशक से निम्नजाति की समितियाँ महत्त्वपूर्ण बनने लगी थीं। कुछ एक स्थानीय जमींदारों एवं कलकत्ता के वकीलों के नेतृत्व में मिदनापुर के खाते-पीते कैवर्त अपने आप को महिष्य कहने लगे थे।
आंदोलन | वर्ष | संस्थापक |
सत्य शोधक समाज | 1872 | ज्योतिबा फूले |
बहिष्कृत हितकारिणी सभा | 1924 | भीमराव अम्बेडकर |
अखिल भारतीय दलित वर्ग का संघ | 1924 | भीमराव अम्बेडकर |
नाडार महाजन सभा | 1910 | |
जस्टिस आंदोलन | 1916-17 | सी.एल. मुदलिया, टी. एम. नायर एवं पी- त्यागराज चेट्टी |
आत्म सम्मान आंदोलन | 1924 | ई.वी. रामास्वामी नायकर पेरियार |
मलयाली मेमोरियल | 1891 | रामन पिल्लई |
श्री नारायण धर्म परिपाल योगम (S.N.D.P) | 1902 | श्री नारायण गुरू, डॉ. पल्पू, एन. कुमार आशन |
नायर सर्विस सोसाइटी | 1914 | मान्मथ पद्मनाथ पिल्लई |
प्रजामित्र मंडली (मैसूर) | 1917 | सी.आर.टेड्डी |
डिप्रेस्ड क्लास मिशन सोसाइटी (बंबई) | 1906 | डी. आर. शिन्दे |
अखिल भारतीय अस्पृश्यता निवारण संघ | 1932 | गाँधी जी |