भारत में समाजवाद (Socialism in India)
- 1917 सी.ई. की रूसी क्राँति तथा वहाँ पर चले पँचवर्षीय योजना की सफलता ने भारत में समाजवाद की विचारधारा को पूरे विश्व में लोकप्रिय बना दिया। 1929-30 सी.ई. की आर्थिक मंदी ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोधों को उजागर किया।
- भारत में समाजवाद की अवधारणा ने पाँव जमाने शुरू कर दिये क्योंकि यहाँ के कतिपय नेताओं का मानना था कि राष्ट्रीय आंदोलन में सुस्पष्ट सामाजिक एवं आर्थिक मुक्ति का तथ्य समावेशित होना चाहिए। धीरे-धीरे वामपंथ के दो ताकतवर दल उभरे-
- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी।
- कांग्रेस समाजवादी पार्टी।

- 1930 के दशक में जवाहर लाल नेहरू तथा सुभाष चन्द्र बोस जैसे नेता कांग्रेस की राजनीति को प्रभावित करने लगे।
- जवाहर लाल नेहरू को 1926 सी.ई. में यूरोप जाने का अवसर मिला। आगे उन्हें औपनिवेशिक उत्पीड़न और सम्राज्य के खिलाफ फरवरी, 1927 सी.ई. को ब्रुसेल्स में हुई अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में इंडियन नेशनल कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्हें ब्रुसेल्स कांफ्रेस द्वारा स्थापित लीग अंगेस्ट इम्पीरियलिज्म एण्ड फॉर नेशनल इन्डिपेन्डेन्स की कार्यकारिणी समिति का सदस्य नियुक्त किया गया।
- नवंबर, 1927 सी.ई. में उन्होंने सरकारी निमंत्रण पर सोवियत यूनियन का दौरा किया तथा वे सरकार में किए जा रहे नये प्रयोगों तथा सामाजिक पुनर्निर्माण से अत्यधिक प्रभावित हुए। दिसंबर, 1927 तक जब वे भारत लौटे तो वे हर दृष्टि से समाजवादी बन चुके थे।
- जवाहर लाल नेहरू ने 1929 सी.ई. के लाहौर अधिवेशन की अध्यक्षता की और स्पष्ट रूप से घोषणा की कि मैं समाजवादी तथा गणतंत्रवादी हूं। उन्हीं के प्रभाव से अप्रैल और दिसंबर, 1936 सी.ई. में लखनऊ और आगे फैजपुर अधिवेशन भारत में समाजवाद की विचारधारा से प्रभावित प्रस्ताव मंजूर किये गए। लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए जवाहर लाल नेहरू ने घोषणा की कि समाजवाद ही सभी समस्याओं की कुँजी है।
- जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस के अंदर समाजवादी विचारधारा को फैलाने में सुभाष चंद्र बोस से बड़ी सहायता मिली। वे भी 1928 सी.ई. में कांग्रेस के महासचिवों में से एक थे।
- सुभाष चन्द्र बोस आरंभ में स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रेरित थे जो कि उत्पीडि़तों और प्रताडि़तों के प्रति अपनी सहानुभूति के लिए जाने जाते थे।
- अप्रैल, 1921 सी.ई. में उन्होंने आई. सी. एस. की एक आकर्षक नौकरी को छोड़ दिया था। उनके राजनीतिक जीवन के निर्माता देशबन्धु चितरंजन दास थे।
- अगस्त, 1928 सी.ई. में जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस के अंदर एक प्रभावक गुट के रूप में इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया लीग की स्थापना की।
भारत में समाजवाद के निम्नांकित लक्ष्य थे
- डोमिनियन स्टेटस की धारणा का विरोध करना
- अंग्रेजों से पूर्ण स्वतंत्रता की माँग करना
- भारत में समाजवाद के लिये कार्य करना
- इस लीग के साथ सुभाष भी जुड़ गए। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (दिसंबर, 1928) में कांग्रेस ने डोमिनियन स्टे्टस के प्रस्ताव को पूर्ण स्वराज्य में बदलने का प्रस्ताव किया परंतु सफलता 1929 सी.ई. के लाहौर अधिवेशन में मिली।
- जबकि कांग्रेस ने जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में पूर्ण स्वतंत्रता को लक्ष्य के रूप में अपनाया तथा 26 जनवरी, 1930 के दिन को पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस के रूप में घोषित किया।
कांग्रेस का त्रिपुरी संकट
- सुभाष चन्द्र बोस 1938 सी.ई. में हरिपुरा कांग्रेस (गुजरात) के सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। 1939 सी.ई. में उन्होंने इस पद पर पुनः खड़ा होने का निर्णय लिया।
- 21 जनवरी, 1939 को उन्होंने अपनी उम्मीदवारी घोषित करते हुए कहा कि वे नए विचारों तथा नई विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा उन समस्याओं और कार्यक्रमों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनका आर्विभाव साम्राज्यवादी संघर्ष के क्रमशः तेज होने से हुआ है।
- उनका कहना था कि कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव विभिन्न उम्मीदवारों द्वारा विभिन्न समस्याओं और कार्यक्रमों के आधार पर लड़े जाने चाहिए। 1939 का अधिवेशन त्रिपुरी (म. प्र.) में होना था परंतु कांग्रेस का दक्षिणपंथी धड़ा उनका समर्थन नहीं कर रहा था।
- अतः सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद तथा जी. वी. कृपलानी तथा अन्य कार्यकारिणी सदस्यों ने पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार बनाया। उन्हें गाँधी जी का भी समर्थन प्राप्त था।
- इस चुनाव में सुभाष बोस ने 1377 के मुकाबले 1580 मतों से जीत हासिल की। इस चुनाव में सीतारमैया से पहले अबुल कलाम आजाद को नामांकित किया गया था परंतु उन्होंने बाद में अपना नामांकन वापस ले लिया था।
- गाँधी जी ने सुभाष बोस की विजय के पश्चात कहा कि सीतारमैया की हार मेरी हार है। ऐसे में कांग्रेस कार्यसमिति के 15 में से 13 सदस्यों ने इस आधार पर इस्तीफा दे दिया कि सुभाष ने उनकी सार्वजनिक रूप से आलोचना की है। इनमें जवाहर लाल नेहरू तथा बंकिम मुखर्जी के साथ साम्यवादी भी शामिल थे।
- जयप्रकाश नारायण ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसके द्वारा सुभाष पर यह दबाव डाला गया कि वे गाँधी के परामर्श से कार्यकारिणी का गठन करें।
- अंततः सुभाष ने 1939 सी.ई. में त्यागपत्र दे दिया और 1939 सी.ई. में ही उन्होंने फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। इसके पश्चात राजेन्द्र प्रसाद को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया।
कांग्रेस समाजवादी दल
- सविनय अवज्ञा आन्दोलन के स्थगन के पश्चात 1932-34 के दौरान युवा कांग्रेस के एक गुट ने जेल से भारत में समाजवाद पार्टी बनाने का प्रस्ताव रखा। गाँधीवादी नेतृत्व एवं रणनीति में इनका मोह भंग हुआ था। परंतु ये समाजवादी नेता कांग्रेस के अंदर ही समाजवादी पार्टी बनाना चाहते थे।
- कांग्रेस के भीतर ये समाजवादी भी कम्युनिस्टों की तरह मार्क्सवादी विचारधारा में विश्वास रखते थे किन्तु समाजवादी कांग्रेसियों एवं कम्युनिटों में दो मूलभूत अंतर थे- प्रधान यह कि समाजवादी कांग्रेसी अपने को इंडियन नेशनल कांग्रेस के साथ जोड़ते थे जबकि कम्युनिस्ट अपने को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से जुड़ा पाते थे। दूसरे समाजवादी कांग्रेसी राष्ट्रवादी थे जबकि कम्युनिस्ट एक अंतर्राष्ट्रीय साम्यवादी समाज के लक्ष्य में भी विश्वास रखते थे।
- 1933 सी.ई. में नासिक जेल में जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्द्धन, एम. आर. मसानी, एन. जी. गोरे, अशोक मेहता, एस. एम. जोशी तथा एम. एल. दांतवाला जैसे कुछ नौजवान समाजवादियों ने कांग्रेस संगठन के अंदर ही समाजवादी पार्टी बनाने का विचार उठाया।
- 1934 सी.ई. में बनारस में संपूर्णानंद ने एक पैम्पलेट निकालकर इस विचार को आगे बढ़ाया। पहले अखिल भारतीय समाजवादी कांग्रेस कांफ्रेस का आयोजन बिहार समाजवादी पार्टी की ओर से मई, 1934 सी.ई. में पटना में जयप्रकाश नारायण के द्वारा किया गया।
- इस कांफ्रेस की अध्यक्षता आचार्य नरेन्द्र देव ने की। इसके पश्चात आयोजन सचिव के नाते जयप्रकाश नारायण ने देश के विभिन्न भागों में पार्टी की प्राँतीय शाखा को संगठित करने के लिये प्रचार किया।
- अखिल भारतीय समाजवादी पार्टी का प्रथम वार्षिक अधिवेशन अक्टूबर, 1934 सी.ई. में संपूर्णानंद की अध्यक्षता में बंबई में हुआ। इसमें 134 प्राँतों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में भारत में समाजवाद पार्टी का कार्यकारिणी का गठन किया गया जिसके जनरल सेक्रेटरी जयप्रकाश नारायण थे।
- जवाहर लाल नेहरू तथा सुभाष चंद्र बोस जैसे वामपंथी कांग्रेसियों ने इस पार्टी के गठन का स्वागत तो किया परंतु दोनों ही इस पार्टी में शामिल नहीं हुए।
- 1936 सी.ई. में जवाहर लाल नेहरू ने इस पार्टी के तीन सदस्यों नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण तथा अच्युत पटवर्द्धन को कांग्रेस कार्यसमिति में शामिल किया।
- कांग्रेस समाजवादी पार्टी ने स्वतंत्रता तथा भारत में समाजवाद की प्राप्ति के अपने दोहरे उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए तीन तरह से कार्य किया।
- कांग्रेसी होने के नाते कांग्रेस के भीतर उन्होंने साम्राज्यवाद विरोधी तथा राष्ट्रवादी कार्यक्रमों को तैयार किया।
- समाजवाद के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने कांग्रेस के बाहर मजदूरों, किसानों, विद्यार्थियों, बुद्धिजीवियों, नौजवानों तथा औरतों को संगठित किया।
- उन्होंने उपरोक्त दोनों गतिविधियों को आपस में जोड़ने की भी कोशिश की।
- एन. जी. रंगा, सहजानंद सरस्वती और इन्दुलाल याज्ञनिक समाजवादी नेता थे परन्तु किसी दल से जुड़े हुए नहीं थे।
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साम्यवादी दल (कम्युनिस्ट पार्टी)
- रूस में बोल्शेविक क्राँति की सफलता तथा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की स्थापना को देखते हुए भारत या विदेशों में काम कर रहे कुछ भारतीय क्राँतिकारियों एवं बुद्धिजीवियों ने भारत में भी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना का विचार किया।
- ऐसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे विख्यात युगांतर क्राँतिकारी नरेन्द्र भट्टाचार्य उर्फ मानवेन्द्र नाथ राय। वे 1919 सी.ई. में मैक्सिकों में बोल्शेविक मिखाइल बोरोदीन के संपर्क में आए। एम. एन. राय मैक्सिकाें के पश्चात् 1920 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के दूसरे अधिवेशन में भाग लेने के लिए मास्को चले गए।
- यहाँ लेनिन के साथ उनका प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण विवाद हुआ जो औपनिवेशिक देशों में कम्युनिस्टों की रणनीति को लेकर था।
- लेनिन का विचार था कि उपनिवेशों और अर्द्ध-उपनिवेशों में बुर्जुवा नेतृत्व वाले आंदोलनों को मोटे तौर पर समर्थन दिया जाए परंतु राय इस पक्ष में नहीं थे।
- अक्टूबर, 1920 सी.ई. में एम. एन. राय, अवनी मुखर्जी, मुहम्मद अली, तथा मुहम्मद शफीक सहित सात नेताओं ने मिलकर ताशकंद में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया तथा एक राजनीतिक सैनिक स्कूल की स्थापना की।
- इस राजनीतिक सैनिक स्कूल की स्थापना उन्होंने भारतीय फ्रंटियर जनजाति के लोगों को अंग्रेजी सरकार के खिलाफ सशस्त्र क्राँति के उद्देश्य से सैनिक प्रशिक्षण देने के लिये की थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 1921 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के साथ संबंधित किया गया।
- इसी बीच तुर्की के सुल्तान (खलीफा) के प्रति अंग्रेज सरकार के विद्वेष से तंग आकर हजारों मुसलमान हिजरत करके ताशकंद में राय के साथ शामिल हो गए। पुनः जब 1921 सी.ई. में यह स्कूल बंद हो गया तो वे लोग मास्को के पूरब में स्थित मजदूरों की कम्युनिस्ट यूनीवर्सिटी में पढ़ने चले गए। अब एम. एन. राय 1922 सी.ई. में अपना मुख्यालय बर्लिन ले गए जहाँ से बैन्गार्ड ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस नाम से एक पाक्षिक पत्रिका तथा अवनी मुखर्जी के सहयोग से इंडिया इन ट्रांजिशन प्रकाशित करने लगे जो भारतीय अर्थव्यवस्था तथा समाज के मार्क्सवादी विश्लेषण का प्रथम प्रयास था।
- बर्लिन के पुराने अप्रवासी क्राँतिकारी समूह जिनमें वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, भूपेन्द्र नाथ दत्त तथा बरकतुल्ला प्रमुख थे, ने बर्लिन में इंडिया इंडिपेंडेस पार्टी की स्थापना की।
- एम. एन. राय ने 1922 सी.ई. के अंत तक भारत में नालिनी गुप्त तथा शौकत उस्मानी जैसे नवीन कम्युनिस्टों से संपर्क स्थापित कर लिया था। इनके साथ बंबई से एस. ए. डाँगे, कलकत्ता से मुजफ्रफर अहमद, मद्रास से सिंगारवेलू तथा लाहौर से गुलाम हुसैन आदि नेता भी जुड़ गए थे।
- कलकत्ता की आत्म शक्ति तथा धूमकेतु तथा गुंटूर की नवयुग जैसी वामपंथी राष्ट्रवादी पत्रिकाएँ कम्युनिस्टों के कार्यक्रमों तथा उसके नेता के लेख छापने लगे थे।
- अगस्त, 1922 सी.ई. में एस. ए. डाँगे ने बंबई से सोशलिस्ट नामक साप्ताहिक निकालना प्रारंभ किया जो निश्चय ही भारत में प्रकाशित होने वाली पहली कम्युनिस्ट पत्रिका थी।
- 1921 सी.ई. में डाँगे ने गाँधी बर्सेज लेनिन नामक किताब लिखकर कम्युनिस्ट की तरफ अपना झुकाव प्रदर्शित किया।
- मई, 1923 में मद्रास के सिंगारवेलू चेट्टियार नामक प्रसिद्ध वकील ने लेबर किसान पार्टी की स्थापना की। दिसंबर, 1922 सी.ई. को हुए कांग्रेस के गया अधिवेशन में उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष को स्थापित करने के लिए गाँधी जी की आलोचना की।
- भारत में प्रारंभ हुई कम्युनिस्ट गतिविधियों ने सरकार को चौकन्ना कर दिया। सरकार ने मास्को से प्रशिक्षण प्राप्त कर भारत लौट रहे मुजाहिरों को पकड़ लिया। उन्हें पेशावर लाया गया और उन पर पेशावर षडयंत्र के पाँच अभियोगों की श्रंखला के तहत 1922 से 1927 के मध्य मुकदमें चलाये गए। इनमें दो मुजाहिरों मियाँ मुहम्मद अकबर शाह तथा गौहर रहमान खान को दो साल की कठोर कैद की सजा मिली।
- मई, 1924 सी.ई. में कानपुर में श्रीपाद अमृत डाँगे, मुजफ्रफर अहमद, नलिनी गुप्ता तथा शौकत उस्मानी को कानपुर बोल्सेविक कॉस्पिरेसी केस में 4 साल के लिए जेल भेज दिया गया परंतु कम्युनिस्ट आंदोलन का विकास नहीं रुका।
- 1925-26 में बंगाल में मुजफ्रफर अहमद ने काजी नजरूल इस्लाम की सहायता से लेबर स्वराज पार्टी बनाई। आगे इसका नाम बदल कर किसान मजदूर पार्टी रखा गया। इस पार्टी के साथ कुतुबुद्दीन अहमद तथा हेमंत कुमार सरकार भी जुड़े हुए थे।
- 1927 सी.ई. को इस पार्टी में गोपेन चक्रवर्ती तथा धरणी गोस्वामी भी शामिल हो गए। इस समूह के द्वारा दो बंगला पत्रिकाएँ लांगल तथा गणवाणी प्रकाशित की गईं।
- 1925 सी.ई. में श्रीपद अमृत डाँगे तथा पी. सी जोशी जैसे नेताओं ने मिलकर भारतीय साम्यवादी दल की स्थापना की।
- 1926 सी.ई. के उत्तरार्द्ध में बंबई में कांग्रेस लेबर पार्टी नामक संगठन बनाया गया। इसके संस्थापक थे एस. एस. मिराजकर, के. एन. जोगेलकर तथा एस. वी. घाटे। यह पार्टी क्राँति नाम से एक मराठी पत्रिका भी निकालती थी।1926 सी.ई. में पंजाब में सोहन सिंह जोश के नेतृत्व में कीरती किसान पार्टी की स्थापना की गई जबकि 1923 से ही लेबर किसान पार्टी ऑफ हिन्दुस्तान मद्रास में काम कर रही थी।
- यह भारत में बढ़ते कम्युनिस्ट गतिविधियों का ही परिणाम था कि 1927 सी.ई. से पहले ही शापुर जी शकलतवाला इंग्लैंड की पार्लियामेंट में कम्युनिस्ट सदस्य के रूप में प्रविष्ट हो चुके थे।
- 1927 सी.ई. में उनकी भारत यात्र ने कम्युनिज्म में आम रुचि जागृत की। उनकी मुलाकात गाँधी जी से भी हुई। गाँधी जी ने यद्यपि शकलतवाला की स्पष्ट ईमानदारी की प्रशंसा की तथापि कम्युनिस्टों द्वारा किसान वर्ग की अवहेलना की आलोचना भी की।
- 1927 सी.ई. में उपरोक्त अधिसंख्य दलों को मिलाकर श्रमिक और किसान पार्टी की स्थापना की गई।
- 1924 सी.ई. तक राष्ट्रीय तथा ट्रेड यूनियन आंदोलन में कम्युनिस्टों के बढ़ते प्रभाव के कारण सरकार गंभीर रूप से चिंतित थी। अंततः सरकार ने कम्युनिस्टों पर भयानक प्रहार करने का निश्चय किया तथा एक ही झपट्टे में मार्च, 1929 को एक साथ 32 कम्युनिस्टों काे गिरफ्तार कर लिया।
- इनमें फिलिप स्प्रेट, वेन बैडले तथा लेस्टर हंचिसन नामक तीन ब्रिटिश कम्युनिस्ट भी थे। इन सभी अभियुक्तों पर मेरठ में मेरठ राजद्रोह कांड के तहत मुकदमा चलाया गया। तत्काल ही इस घटना ने राष्ट्रीय महत्व धारण कर लिया।
- कैदियों को बचाने के लिए अनेक राष्ट्रवादी आए जिनमें जवाहर लाल नेहरू, जिन्ना, अंसारी तथा एम. सी. छागला जैसे नेता भी थे।
- गाँधी जी मेरठ जेल जाकर कैदियों से मिले और उनसे अपनी एकजुटता का इजहार किया और आगामी संघर्ष में उनका सहयोग माँगा। यह मुकदमा 1933 सी.ई. तक चलता रहा।
- यद्यपि साम्यवादी दल का उद्देश्य था कांग्रेस के साथ रहकर भारत में समाजवाद की विचारधारा के विकास के लिए कार्य करना परंतु अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम को भारतीय परिपेक्ष्य के साथ नहीं जोड़कर वे वामपंथी भटकाव के भी शिकार होते थे।
- उदाहरण के लिये 1928 सी.ई. में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की छठी कांग्रेस से निर्देशित होकर कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय कांग्रेस से नाता तोड़ लिया तथा कांग्रेस को पूंजीपति वर्ग की पार्टी घोषित कर दिया गया। 1931 सी.ई. के गाँधी-इरविन पैक्ट को देश के साथ विश्वासघात बताया। वर्कस एण्ड पिजेंट पार्टी को भी इसलिए भंग कर दिया कि दो वर्गों वाला दल बनाना उचित नहीं है।
- इसकी जगह इन्होंने एक गैर कानूनी, स्वतंत्र तथा केन्द्रीकृत कम्युनिस्ट पार्टी के गठन का प्रयास किया। सरकार ने कम्युनिस्टों का कांग्रेस से अलगाव का फायदा उठाते हुए 23 जुलाई, 1934 सी.ई. को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया पर प्रतिबंध लगा दिया।
- 1935 सी.ई. में पी. सी. जोशी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी के दृष्टिकोण में कुछ बदलाव आया।
- मास्कों में अगस्त, 1935 सी.ई. में फासीवाद के भय से कम्युनिस्ट इंटर नेशनल की 7वीं बैठक में अपने पुराने विचारों को एक दम से पलट दिया तथा उसने पूंजीवादी और दूसरे फासीवाद विरोधी देशों के साथ समाजवादी देशों का मोर्चा बनाने की बात कही।
- इस तरह दत्त-ब्रेडली थिसिस के आधार पर कम्युनिस्ट पुनः कांग्रेस के साथ काम करने लगे। पुनः जब 1941 सी.ई. में सोवियत रूस मित्र राष्ट्रों के खेमें में आ गया तो भारतीय कम्युनिस्टों ने अपना तेवर बदल दिया और 1942 सी.ई. के भारत छोड़ो आन्दोलन से बाहर हो गए। अपने अधिकारी फार्मूला में कम्युनिस्टों ने सबसे पहले बहुराष्ट्रवाद का सिद्धान्त स्वीकार कर लिया।
साहित्य में वामपंथ
- 1936 सी.ई. में ऑल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन तथा प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना की गई। प्रेमचंद ने 1936 सी.ई. में गोदान लिखा जिसमें किसानों के दुख की जीती-जागती तस्वीर मिलती है। इस उपन्यास में उनके रंग भूमि के जैसे उपन्यास के गाँधीवादी आदर्श तथा आशावाद का नितांत अभाव है। उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ ही पहले महाजनी सभ्यता नामक निबंध लिखा जिसमें मुनाफा कमाने की पूंजीवादी प्रवृत्ति की कड़ी आलोचना के साथ ही सोवियत संघ की प्रशंसा मिलती है।
- 1932 सी.ई. में गोर्की के उपन्यास मदर के अनुवाद के बाद आँध्र में पसीना बहाने वालों के जीवन पर आधारित यथार्थवादी उपन्यासों का चलन हो गया।
- बोलचाल की भाषा में कविता करने वाले पहले तेलुगु कवि ‘श्री श्री’ ने भगत सिंह के बलिदान से प्रेरित होकर अपनी प्रसिद्ध कविता मारे प्रपँच लिखी जिसके अंत में लाल झण्डे का आह्वान किया गया था।
- रवीन्द्र नाथ टैगोर ने 1934 सी.ई. में चार अध्याय नामक पुस्तक लिखी जिसमें आतंकवादी गतिविधियों की खास कर महिलाओं की इसमें भागीदारिता की आलोचना की गई थी। लेकिन 1930 सी.ई. में उनके लेटर्स फ्रॉम रशा में गर्म जोशी से भरी परंतु समालोचनात्मक प्रशंसा मिलती है।
- 1931 सी.ई. में स्थापित मासिक पत्रिका परिचय ने तत्कालीन गाँधीवादी, यहाँ तक किसान आन्दोलनों के प्रति उदासीनता के साथ अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं एवं फासीवाद के विरुद्ध विश्व व्यापी संघर्ष एवं मार्क्सवादी सिद्धान्त तथा व्यवहार में रुचि दिखाई गई।
सम्प्रदायवाद का उदय
- साम्प्रदायिकता एक ऐसी मान्यता है जिसके ‘अनुसार’ धर्म समाज का आधार तथा समाज के विभाजन की आधारभूत ईकाई तैयार करता है। इसके अनुसार धर्म ही सभी अन्य मानवीय हितों का प्रतिपादन करता है।
- इस प्रकार सम्प्रदायवादी मनुष्य की बहुमुखी सामाजिक पहचान जिसमें उसके देश, क्षेत्र, लिंग, व्यवसाय, परिवार आदि तमाम आधारों में से केवल धार्मिक पहचान को ही चुनता है और इसे आवश्यकता से कहीं अधिक महत्व देने का प्रयास करता है। स्वतंत्रता पूर्व भारतीय परिवेश में साम्प्रदायिकता की अभिव्यक्ति मुख्य रूप से हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदायों के कुछ वर्गों के बीच टकराव के रूप में हुई।
- इस वजह से उस समय की राजनीतिक समझ एवं उसकी अभिव्यक्ति में साम्प्रदायिकता को हिंदू-मुस्लिम समस्या अथवा हिंदू-मुस्लिम प्रश्न के रूप में देखा गया परंतु इस समस्या की व्याख्या न तो हिंदू-मुस्लिम समस्या मात्र के रूप में की जा सकती है और न ही धार्मिक समस्या के रूप में। साम्प्रदायिक विचारधारा तथा उसका प्रचार हमेशा समान स्तरीय नहीं रहा है।
- स्वतंत्रता संग्राम के तेज होने और समाज के राजनीतिकरण में तीव्रता आने के साथ ही सांप्रदायिकता ने भी अपनी गति तेज की तथा इसके प्रचार का स्तर और भी तेज हो गया।
- संक्षिप्त रूप में साम्प्रदायिक प्रचार एवं तर्क निम्नांकित तीन स्तरों पर थे-
- किसी धार्मिक सम्प्रदाय के सभी सदस्यों के हित समान होते हैं। उदाहरण के लिए यहाँ तक कि मुसलमान जमींदार एवं किसान के हित एक हैं क्योंकि दोनों एक ही सम्प्रदाय के सदस्य हैं। यही तर्क हिंदू अथवा सिख सम्प्रदाय पर भी लागू होता था।
- किसी धार्मिक सम्प्रदाय के सदस्यों के हित दूसरे सम्प्रदाय के सदस्यों से भिन्न होते हैं यानि सभी हिन्दूओं के हित मुस्लिमों के हितों तथा इसी प्रकार मुस्लिमों के हित हिन्दूओं से भिन्न थे।
- एक धार्मिक संप्रदाय के गैर-धार्मिक हित किसी दूसरे धार्मिक संप्रदाय के गैर-धार्मिक हित के विरोधी होते हैं।
- यहाँ यह उल्लेखनीय है कि साम्प्रदायिक तनाव तथा साम्प्रदायिक राजनीति दो भिन्न पहलू हैं, साम्प्रदायिक तनाव एक अस्थाई समस्या है जो अचानक घटित होती है और इसकी अभिव्यक्ति हिंसा में होती है तथा जन साधारण के निम्न वर्ग इसमें शामिल होते हैं जबकि साम्प्रदायिक राजनीति एक स्थाई समस्या है जिसमें मुख्य रूप से मध्यम वर्ग एवं नौकरशाही तत्त्व शामिल होते हैं। दोनों में एक तथ्य सामान्य जरूर होता है कि दोनों ही अपना आधार साम्प्रदायिक विचारधारा से प्राप्त करते हैं।
- साम्प्रदायिकता को एक हथियार एवं एक मूल्य के रूप में भी देखा जा सकता है। यह उन लोगों के लिए हथियार है जो इसका इस्तेमाल अपने राजनीतिक, आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए करते हैं वहीं साम्प्रदायिकता उन लोगों के लिए मूल्य है जो इसे स्वीकारते हैं तथा इसमें आस्था रखते हैं।
- साम्प्रदायिकता का उदय मात्र धर्म के राजनीति में प्रवेश से नहीं हुआ है और न ही यह धार्मिक मतभेद मात्र का परिणाम है। भारत में साम्प्रदायिक समस्या भूतकाल की निरंतरता नहीं बल्कि कुछ विशेष परिस्थितियों एवं विभिन्न शक्तियों के गठजोड़ का परिणाम थी। साम्प्रदायिकता आधुनिक भारत में ही उपजी है और उतना ही आधुनिक है जितना औपनिवेशिक शासन।
- साम्प्रदायिकता के उदय तथा विकास में जहाँ ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की भूमिका प्रबल रही है वहीं अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कतिपय गलतियाँ भी इसके लिए जिम्मेदार रही हैं।
मुस्लिम संप्रदायवाद
- 1857 सी.ई. में हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया था। यही वजह थी कि प्रारंभ में अंग्रेजों की दृष्टि मुस्लिमों के विरुद्ध थी और इनके विरुद्ध भेदभाव की नीति अपनायी गयी।
- किंतु जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की लोकप्रियता बढ़ने लगी तो अंग्रेजों ने मुस्लिम संप्रदाय के महत्व को समझा। उधर सर सैय्यद अहमद खाँ ने मुस्लिमों को सक्रिय राजनीति से पृथक रहने का सुझाव दिया।
- डब्ल्यू. डब्ल्यू हण्टर ने इण्डियन मुसलमान नामक पुस्तक लिखी। उसी समय अलीगढ़ कॉलेज के प्राचार्य डब्ल्यू. ए. जे. आर्कवोल्ड और एक ब्रिटिश अधिकारी डनलप ने मुस्लिमों का उपयोग राष्ट्रीय आन्दोलन के विरुद्ध करने का सुझाव दिया।
- उसी समय 1906 सी.ई. में आगा खाँ के नेतृत्व में मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमण्डल शिमला में वायसराय से मिला। उससे प्रार्थना की, कि हमारी ऐतिहासिक भूमिका को देखते हुए और साम्राज्य के लिए अर्पित की गई सेवा का मूल्य आंकते हुए हमें जनसंख्या से अधिक प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। बताया जाता है कि वायसराय ने उसे इस बात का आश्वासन दिया।
मुस्लिम लीग की स्थापना (1906)
- वायसराय से जो प्रतिनिधिमंडल मिला था उसने ही अक्टूबर 1906 में मुस्लिम लीग के गठन में भूमिका निभाई।
- 30 दिसंबर, 1906 को जब ढाका में मुहम्मडन एजुकेशनल कान्फ्रेंस की बैठक हो रही थी तभी उस अधिवेशन को ढाका के नवाब सलीमुल्लाह की अध्यक्षता में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के रूप में तब्दील कर दिया गया।
- इस सभा में नवाब सलीमुल्ला, मोहिसिन-उल-मुल्क, आगा खाँ तथा नवाब बाकर-उल-मुल्क उपस्थित थे।
- सभा की अध्यक्षता बाकर-उल-मुल्क द्वारा की गई। 1908 में आगा खाँ को मुस्लिम लीग का स्थाई अध्यक्ष बनाया गया। इसी वर्ष अलीगढ़ अधिवेशन में 40 सदस्यीय एक केन्द्रीय समिति की स्थापना की गई एवं उसकी प्राँतीय शाखाएँ भी स्थापित की गईं।
- 1908 में मुस्लिम लीग ने अमृतसर अधिवेशन में मुसलमानों के लिये पृथक निर्वाचन मण्डल की माँग की।
- 1909 सी.ई. के सुधार बिल में पृथक निर्वाचन को स्वीकार कर लिया गया। यहीं दो राष्ट्रवाद का बीज बो दिया गया। 1912-13 सी.ई. में मुस्लिम लीग की राजनीति में एक नई बात देखी गई।
- इस लीग में यंग पार्टी के कुछ सदस्य यथा मुहम्मद अली, शौकत अली, हकीम अजमल खाँ, हसन इमाम, जाफर अली खाँ और मौलाना अबुल कलाम आजाद का उदय हुआ।
- इन्होंने मुस्लिम लीग की नीतियों को कांग्रेस की नीतियों के निकट ला दिया। इन्हीं के प्रभाव में 1913 में लखनऊ अधिवेशन में लीग ने भी स्वराज के लक्ष्य को अपना लिया। अब लखनऊ पैक्ट की भूमिका तैयार हो गई।
- 1916 सी.ई. में तिलक के प्रभाव से लखनऊ में उदारवादी और उग्रवादी कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग की संयुक्त बैठक हुई। लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता अम्बिका चरण मजूमदार ने की। इस अधिवेशन में कांग्रेस ने पृथक निर्वाचन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जो कांग्रेस की एक भूल साबित हुई।
- 1916 सी.ई. में कांग्रेस ने पृथक निर्वाचन को स्वीकार कर लिया। यह कांग्रेस की पहली भूल थी। 1920 सी.ई. में कांग्रेस ने खिलाफत के मुद्दे पर आंदोलन छेड़ा।
- यह कांग्रेस की दूसरी भूल थी। मुहम्मद अली जिन्ना 1906 सी.ई. में लंदन से बैरेस्ट्री पास कर के आए थे। यहाँ आकर उन्होंने दादा भाई नौरोजी के निजी सचिव के रूप में कार्य करना शुरू किया।
- 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में उन्होंने बतौर सचिव कार्य किया। प्रारंभ में मुहम्मद अली जिन्ना राष्ट्रवादी थे और उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए कार्य किया। इतना तक कि सरोजनी नायडू ने उन्हें ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता का राजदूत’ कहा है।
- 1927 सी.ई. में उन्होंने दिल्ली प्रस्ताव रखा। इनमें निम्नलिखित चार बातें शामिल थीं-
- सिन्घ को एक अलग राज्य बना दिया जाए।
- उत्तरी पश्चिमी सीमा प्राँत को वही दर्जा दिया जाए जो अन्य प्राँतों को दिया गया है।
- केन्द्रीय परिषद में एक-तिहाई सीटें मुस्लिम लीग के लिए सुरक्षित की जाएँ।
- पंजाब और बंगाल में मुस्लिम जनसंख्या के अनुसार सीटें आरक्षित की जाएँ।
- नेहरू रिपोर्ट में पृथक निर्वाचन को अस्वीकृत कर दिया गया जो कांग्रेस की तीसरी भूल थी।
- मुहम्मद अली जिन्ना ने कलकत्ता के सर्वदलीय सम्मेलन में तीन शर्तें रखी और उनके बदले संयुक्त निर्वाचन स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए। उन तीन शर्तों में दो शर्तें दिल्ली प्रस्ताव की अंतिम दो शर्तें थीं।
- केन्द्रीय परिषद में तीसरी शर्त थी अवशिष्ट शक्तियाँ प्राँतों में निहित की जाए। किंतु नेहरू रिपोर्ट में इसे अस्वीकार कर दिया गया। अतः अब जिन्ना आगा खाँ और मुहम्मद शफी के गुट में चले गए और मार्च, 1929 सी.ई. में 14 सूत्री कार्यक्रम रखा।
- हिन्दू सम्प्रदायवाद का विकासः 1909 सी.ई. में यू. एन. मुखर्जी तथा लाल चंद ने पंजाब हिन्दू महासभा की स्थापना की। इसका प्रथम सम्मेलन बनारस में कासिम बाजार के राजा के अधीन हुआ। स्वराज पार्टी के टूटने के पश्चात मदन मोहन मालवीय, लाजपत राय, एन. सी. केलकर ने अनुक्रियावादी गुट का निर्माण किया।
- मदन मोहन मालवीय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष हो गए और लाजपत राय भी उससे जुड़ गए। 1925 सी.ई. में आर. एस. एस. की स्थापना हुई। इसकी स्थापना हेडगेवार ने नागपुर में की थी।
- सम्प्रदायवाद 1930 के पश्चातः 1932 सी.ई. के साम्प्रदायिक पँचाट के मुस्लिम सम्प्रदायवाद की लगभग सभी माँगें मान ली गई। अब उनके पास कोई मुद्दा नहीं रह गया था।
- अतः 1937 सी.ई. के चुनाव में मुस्लिम लीग की हार हुई। दूसरी तरफ हिन्दू महासभा की स्थिति भी अच्छी नहीं थी।
- इस हार के पश्चात् मुहम्मद अली जिन्ना ने सबक सीखा। उन्हें यह प्रतीत हुआ कि अभी भी मुस्लिम लीग महज अभिजात्यों की पार्टी थी।
- दूसरे मुस्लिम लीग के पास मुद्दों की भी कमी थी। उसी प्रकार इस पराजय से हिन्दू महासभा ने भी सबक सीखा था। 1930 सी.ई. में मुहम्मद इकबाल ने एक सुझाव दिया कि मुस्लिम बहुल राज्यों को मिलाकर एक संघ बनाया जाए।
- 1933-35 के बीच पाकिस्तान का विचार अपने कुछ निबंधों में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र चौधरी रहमत अली ने दिया। मार्च, 1940 सी.ई. में लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया।
- इस प्रस्ताव का मसविदा सिकंदर हयात खाँ ने तैयार किया। फजलूक हक ने कुछ संशोधन के साथ इसे प्रस्तुत किया और खलिक उज्जमा ने इसे स्वीकार करवाया।
- प्रथम चरण में लीग का राजनीतिक आधार अभिजात्य था किंतु द्वितीय चरण में भी लीग ने साम्राज्यवाद को एक जन आंदोलन में बदल दिया। ‘इस्लाम खतरे में है’ का नारा दिया गया। वहीं कांग्रेस की तरफ से मुस्लिम सम्प्रदाय की गति रोकने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया जा सका।
- हिन्दू महासभाः 1928 सी.ई. में लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई। 1937 सी.ई. में महासभा की चुनावी हार के कारण मदन मोहन मालवीय ने सन्यास ले लिया।
- 1938 सी.ई. में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष वी. डी. सावरकर हुए। उसी तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नये अध्यक्ष गोलवलकर बने। अब आया उग्र सम्प्रदायवाद का चरण अर्थात जिन्ना, सावरकर और गोलवरकर का चरण।
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