स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle)
गाँधी का जीवन परिचय (1869-1948)
- गाँधी जी का पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था। उनका जन्म 2 अक्टूबर 1869 सी.ई. को गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। पिता पोरबंदर रियासत के दीवान थे।
- 1882 में गाँधी का विवाह पोरबंदर के व्यापारी की पुत्री कस्तूरबा के साथ हुआ था। 1891 सी.ई. में उन्होंने इंग्लैण्ड से वैरिस्टरी पास की तथा लौटकर पहले राजकोट में फिर बम्बई में वकालत करने लगे।
- गाँधी जी 24 वर्ष की उम्र में 1893 सी.ई. में पहली बार गुजराती व्यापारी दादा अब्दुल्ला एण्ड कम्पनी का मुकदमा लड़ने दक्षिण अफ्रीका (डरबन) गये।

- डरबन में एक सप्ताह रहने के पश्चात जब वे रेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में सवार होकर प्रिटोरिया रवाना हुए तो रास्ते में ‘मेरिटसबर्ग’ स्टेशन पर उन्हें इसलिये अपमानित किया गया कि वे काले हैं।
- प्रिटोरिया पहुँचने पर उन्होंने भारतीयों की एक बैठक आयोजित कर गोरों के ऐसे कुकृत्य के विरोध की अपील की। जिस दिन उनको वापस लौटना था उसी शाम को उन्होंने नटाल विधानमंडल में पारित होने वाले उस विधेयक को देखा जिसमें भारतीयों को मताधिकार से वंचित कराने की बात चल रही थी।
- गाँधी जी फिर वहीं रुक गये तथा संगठन बनाकर इसका विरोध किया। उन्होंने सभी समुदायों को एकत्रित करने तथा इस आंदोलन से उसे जोड़ने हेतु ‘नटाल भारतीय कांग्रेस’ का गठन किया और ‘इंडियन ओपिनियन’ नामक एक अखबार निकालना प्रारंभ किया। गाँधी जी ने 1904 सी.ई. में फीनिक्स फार्म की स्थापना की।
- 1906 सी.ई. के पश्चात उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारंभ किया जिसे उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया। सबसे पहले सत्याग्रह का प्रयोग उस कानून के खिलाफ किया गया जिसके तहत हर भारतीय को पँजीकरण प्रमाण पत्र लेना जरूरी था।
- दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों को रोजगार उपलब्ध करवाने के लिये गाँधी जी ने जर्मन शिल्पकार दोस्त कालेनबाग की सहायता से टॉलस्टाय फार्म नामक कार्यशाला का निर्माण करवाया। बाद में यही टॉलस्टॉय फार्म गाँधी आश्रम बना।
- इस आश्रम हेतु रतन टाटा ने भी 25 हजार रुपये भेजे थे। कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा हैदराबाद के निजाम ने भी आर्थिक सहायता की थी। गाँधी जी को 1908 सी.ई. में जेल भेज दिया गया। 1909 सी.ई. में वे अंग्रेज अधिकारियों से मुलाकात करने लंदन भी गये।
- लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 1909 सी.ई. में हिन्द स्वराज्य मूल रूप से गुजराती में लिखी जिसमें पश्चिम मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए जीवन के सभी क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की सलाह दी गई है। यह पुस्तक पहले पहल साप्ताहिक पत्र इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुई थी।
- आगे उन्होंने उस विवाह कानून के विरुद्ध भी खिलाफत की जिसके अनुसार गैर ईसाई पद्धति का विवाह अवैध होता। इस कानून के उल्लंघन के आरोप में कस्तूरबा गाँधी को ट्रांसवाल में गिरफ्तार कर लिया गया।
- भारत के वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने गाँधी पर हुए अत्याचार की आलोचना करते हुए कहा कि ‘‘ऐसा कोई भी देश जो अपने को सभ्य कहता हो इस तरह के अत्याचारों को बर्दाश्त नहीं करेगा।’’
- हार्डिंग ने इन अत्याचारों के आरोप के निष्पक्ष जाँच की माँग भी की। इन आन्दोलनों के दौरान गोखले दो बार दक्षिण अफ्रीका गये। अंततः सरकार को हार माननी पड़ी तथा उस कानून को वापस लेना पड़ा। गाँधी जी को दक्षिण अफ्रीका में अच्छी ख्याति मिली थी और उनकी एक अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बन गयी थी।
- 9 जनवरी 1915 सी.ई. में गाँधी जी का भारत में आगमन हुआ। (इस बीच गाँधी जी ने 1901 सी.ई. में कलकत्ता के कांग्रेस के अधिवेशन में मौजूद थे और वहाँ उन्होंने जे घोषाल के कोट में बटन लगाया।) जनवरी 1915 में गाँधी जी भारत में आये यहाँ गोपालकृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु बनाया।
- उस समय प्रथम विश्वयुद्ध चल रहा था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग की नीति अपनाई। उन्होंने भारतीयों से सेना में शामिल होने की अपील की। अतः उन्हें भर्ती करने वाला सार्जेंट कहा जाने लगा। इस वजह से उन्हें ‘केसर ए हिन्द’ को उपाधि दी गई। तिलक ने भी प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश को काफी सहयोग दिया।
- सबसे पहले गाँधी जी को भारतीय राजनीति में प्रसिद्धि 1917-18 सी.ई. के चम्पारण, खेड़ा और अहमदाबाद के आन्दोलन के समय मिली।
स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle)
चम्पारण सत्याग्रह (1917)
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के तहत पहला आन्दोलन गाँधी जी ने बिहार के चम्पारण में किया। लखनऊ में राजकुमार शुक्ल की गाँधी से मुलाकात हुई और राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर गाँधी जी चम्पारण गए।
- गाँधी जी ने वहाँ तीनकठिया पद्धति के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा। तीन कठिया पद्धति में उस क्षेत्र के प्रत्येक किसान से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह प्रत्येक 20 कट्ठा में 3 कट्ठा जमीन नील की खेती के लिए अलग कर दे। गाँधी जी का यह आन्दोलन सफल रहा और चम्पारण में तीन कठिया का अंत हो गया।
- चम्पारण में गाँधी जी के सहयोगी राजेन्द्र प्रसाद, मजहरुल हक, जे. बी. कृपलानी, नरहरि पारिख, महादेव देसाई, अनुग्रह नारायण सिंह, श्रीकृष्ण सिंह थे। सरकार ने पूरे मामले की जाँच के लिए एक आयोग बनाया। गाँधी जी भी इस आयोग के सदस्य थे।
- एन. जी. रंगा ने गाँधी के चम्पारण सत्याग्रह का विरोध किया तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर ने चम्पारण सत्याग्रह के दौरान ही गाँधी को महात्मा की उपाधि दी थी।
अहमदाबाद आंदोलन (15 मार्च, 1918)
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के तहत 1918 सी.ई. में अहमदाबाद के मिल मजदूरों के पक्ष में गाँधी जी ने आंदोलन छेड़ा। यहाँ पर मिल मालिकों तथा मजदूरों में प्लेग बोनस को लेकर विवाद छिड़ा था।
- प्लेग का प्रकोप खत्म होने के पश्चात मालिक इसे समाप्त करना चाहते थे जबकि मजदूर इसे जारी रखना चाहते थे। कामगार प्लेग बोनस के बदले मजदूरी में 50 प्रतिशत वृद्धि की माँग कर रहे थे बाद में गाँधी को सलाह पर इसे 35 प्रतिशत कर दिया गया।
- मिल मालिक 20 प्रतिशत से अधिक वृद्धि करने को तैयार नहीं थे। अतः गाँधी के नेतृत्व में मिल मजदूरों ने हड़ताल कर दी।
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के तहत गाँधी ने यहीं सर्वप्रथम भूख हड़ताल के हथियार का प्रयोग किया था। मिल मालिकों में से एक अंबालाल साराभाई गाँधी जी के दोस्त थे। इनकी बहन अनुसुइया बेन गाँधी की शिष्या बनी थीं। उनकी मदद से गाँधी जी ने अंततः मजदूरों के इस मामले को एक ट्रिब्यूनल को सौंप देने को राजी कर लिया जिसने बाद में 35 प्रतिशत बोनस मिल मजदूरों को देने का आदेश दिया। इस तरह यह आन्दोलन सफल रहा।
खेड़ा सत्याग्रह (22 मार्च, 1918)
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के तहत 1918 सी.ई. में उन्होंने गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों के पक्ष में आंदोलन छेड़ा। वस्तुतः खेड़ा जिले में फसल नष्ट हो गई थी किंतु भू-राजस्व में कमी नहीं की गई थी।
- र्स्वेंट ऑफ इंडिया सोसाइटी के सदस्यों विट्ठल भाई पटेल तथा गाँधी जी ने पूरी जाँच-पड़ताल के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला कि किसानों की माँग जायज है और राजस्व संहिता के तहत पूरा लगान माफ किया जाना चाहिए।
- खेड़ा में स्थानीय नेता थे- मोहन लाल पांडया। इस आंदोलन में गुजरात सभा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस वर्ष गाँधी जी इसके अध्यक्ष थे। इस आंदोलन में उन्हें इन्दुलाल याज्ञनिक का भी सहयोग मिला।
- यहाँ भी गाँधी जी का आंदोलन सफल रहा। खेड़ा सत्याग्रह भारत का पहला वास्तविक गाँधीवादी किसान सत्याग्रह था।
रॉलेट सत्याग्रह (फरवरी (1919)
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के तहत अखिल भारतीय नेता के रूप में गाँधी जी की सबसे पहली पहचान रॉलेट एक्ट सत्याग्रह के समय बनी।
- 10 सितंबर 1917 सी.ई. को ब्रिटिश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में भविष्य में आतंकवाद को रोकने तथा कानूनी सुधारों की रूपरेखा प्रस्तुत करने के लिये सेडीशन समिति गठित की गई थी। इसमें दो सदस्य भारतीय उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश थे जिनमें एक अंग्रेज तथा दूसरा भारतीय था। इसी तरह दो गैर सरकारी सदस्य भी थे।
- समिति ने सिर्फ पंजाब तथा बंगाल की क्राँतिकारी घटनाओं के संदर्भ में प्रस्तुत सरकारी दस्तावेजों के अध्ययन के पश्चात अप्रैल 1918 सी.ई. में अपनी रिपोर्ट सरकार को पेश कर दी जिसके निम्नांकित प्रावधान थे-
- नागरिक अधिकारों पर लगे युद्धकालीन प्रतिबंधों को स्थाई रूप दिया जाना था।
- मुकदमें की सुनवाई विशेष अदालत में गुप्त रूप से करने की व्यवस्था थी और अपील का अधिकार समाप्त कर दिया गया था।
- राजद्रोहात्मक कार्यों के संदेह मात्र पर ही किसी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाये दो वर्ष के लिये कैद किया जा सकता था या किसी स्थान पर नजरबंद किया जा सकता था।
- प्रतिबंधित पुस्तकों या दस्तावेजों के रखने मात्र पर गिरफ्रतारियाँ की जा सकती थीं तथा मुकदमे चलाये जा सकते थे। कुख्यात पुलिस को तलाशी, गिरफ़्तारी एवं जमानत माँगने के असीमित अधिकार दिये गए थे।
- इस प्रकार रॉलेट एक्ट एक काला कानून था जिनकी घोषणा थी कोई वकील नहीं, कोई दलील नहीं तथा कोई अपील नहीं। इसे ‘काला अधिनियम’ एवं ‘आतंकवादी अपराध नियम’ के नाम से भी जाना जाता है। धारा सभा में सभी भारतीय सदस्यों ने एक स्वर से इस कानून का भारी विरोध किया।
- 24 फरवरी को गाँधी जी की अध्यक्षता में साबरमती आश्रम में बंबई तथा अहमदाबाद के होम रूल कार्यकर्ताओं ने इस कानून का विरोध करने का निर्णय लिया तथा इसके लिये सत्याग्रह सभा की स्थापना की गई।
- सरकार ने तमाम विरोध के बावजूद 21 मार्च को इसको कानूनी रूप प्रदान कर दिया। गाँधी जी के नेतृत्व में 30 मार्च 1919 सी.ई. की तिथि एक अखिल भारतीय सत्याग्रह आन्दोलन के लिये निर्धारित की गई जिसमें कहा गया कि इस दिन 24 घंटे का उपवास एवं प्रार्थना कर अपने हृदय को शुद्ध करें तथा शाँतिपूर्ण सभाओं एवं प्रदर्शनों के द्वारा कानूनों का विरोध करे।
- दिल्ली से भी हिन्दू-मुसलमान एकता का भव्य प्रदर्शन हुआ तथा प्रमुख हिंदू नेता स्वामी श्रद्धानंद को भाषण करने के लिये जामा मस्जिद में आमंत्रित किया गया। यहाँ दोनों सम्प्रदाय के लोगों ने श्रद्धा से उनका चरण चूमा।
- गाँधी जी ने इस सत्याग्रह के लिये तीन राजनीतिक मंचों का उपयोग किया- होम रूल लीग, खिलाफत एवं सत्याग्रह सभा। परंतु होम रूल लीग के नेता ऐनी बेसेंट, जी. एस. खापर्डे तथा डॉ. मुंजे ने इसका विरोध किया।
- गाँधी जी ने रॉलेट सत्याग्रह के लिये एक नई संगठन सभा की स्थापना की। स्वयं गाँधी जी इस सभा के अध्यक्ष थे। शंकर लाल बैंकर, उमन शोभानी एवं डॉ. डी. डी. साम्यें इसके सचिव थे।
- दिल्ली, इलाहाबाद, अहमदाबाद, कराची, मद्रास एवं पटना तथा गुजरात एवं सिंध के कुछ भागों में सत्याग्रह सभा की स्थापना हुई। सिद्धान्तः ये सभी प्राँतीय सभा स्वतंत्र थी परन्तु व्यवहार में उन पर बंबई स्थित केन्द्रीय सभा की प्रधानता थी।
- सत्याग्रह सभा का मुख्य कार्य था-प्रचार साहित्य का प्रकाशन एवं वितरण, सत्याग्रहियों के हस्ताक्षर जुटाना एवं उन्हें अहिंसक कार्यों का प्रशिक्षण देना। इस सभा का कोई सदस्यता शुल्क नहीं था। सत्याग्रह आयोजित करने में राष्ट्रवादी प्रेस ने भी काफी मदद पहुँचाई।
- होम रूल एवं सर्व इस्लामपरस्त अखबारों ने गाँधी जी के प्रश्न में व्यापक प्रचार किया। इनमें पाक्षिक यंग इंडिया, गुजराती, नवजीवन, बाम्बे क्रॉनिकल, इन्डिपेन्डेन्ट (इलाहाबाद), उर्दू अखबार आदि प्रमुख थे।
- भौगोलिक दृष्टि से रॉलेट एक्ट का सबसे तूफानी केन्द्र पंजाब, दिल्ली, गुजरात, बंबई, सिंध के प्रमुख शहरों में रहा। संयुक्त प्राँत, बिहार, मध्य प्राँत, बरार, बंगाल एवं मद्रास के प्रमुख शहरों में आन्दोलन का जोर रहा। सामुदायिक दृष्टिकोण से हिंदु, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी आदि सभी समुदायों ने इस आन्दोलन में भाग लिया।
- आन्दोलन की तिथि बदलने की जानकारी सभी स्थानों पर नहीं हो पाई, इसलिये दिल्ली में 30 मार्च को ही हड़ताल हो गई। पुनः 6 अप्रैल को पूरे देश में हड़ताल रही।
- रॉलेट सत्याग्रह की मुख्य विशेषता यह देखी गई कि केन्द्र तथा प्राँतीय प्रशासन के संपर्क सूत्र भंग हो गए। फलतः प्राँतीय सरकारों को अपनी विवेक एवं पहल पर निर्भर रहना पड़ा।
- यही वजह है कि आन्दोलन के प्रति सरकारी प्रतिक्रिया में भी भिन्नता नजर आती है। जहाँ पंजाब में माइकल ओ. डायर ने भीषण रक्तपात एवं आतंक का रास्ता अखित्यार किया वहीं बंबई में लायड जार्ज ने संयम बरतकर रक्तपात को रोका जबकि आंदोलन हिंसक रूप ले चुका था।
- रॉलेट एक्ट का सबसे बड़ा भूचाल पंजाब के पाँच जिलों में आया। आर्य समाजी नेता मुकुंद लाल पुरी एवं गोकुल चंद नारंग, सनातन धर्म सभा के संरक्षक रामशरण दास, पुराने उग्रवादी रामभुज दत्त, सर्व इस्लामवादी पत्रकार जफर अली खाँ ने ब्रिटिश विरोध की कमान संभाली।
- अमृतसर में 30 मार्च तथा 6 अप्रैल की हड़ताल शाँतिपूर्ण रही। 9 अप्रैल को डॉ. सैफुद्दीन किचलू एवं डॉ. सत्यपाल के नेतृत्व में रामनवमी का जुलूस निकला जिसमें मुलसमानों ने भी भाग लिया।
- प्रशासन ने इन दोनों नेताओं को उसी शाम निर्वासित कर दिया तथा 11 अप्रैल को वहाँ सैनिक शासन लागू कर दिया। लोगों में भय उत्पन्न करने के लिये डायर ने वैशाखी मेले के लिये एकत्र लोगों पर गोली चलवा दी।
- 13 अप्रैल 1919 सी.ई. को यह घटना हुई। इसी को जलियाँवाला हत्याकांड कहा गया है। सरकारी स्रोतों के अनुसार 379 लोग मारे गए। जबकि गैर सरकारी स्रोतों के अनुसार यह संख्या 1000 से भी ज्यादा थी।
- जिस समय यह घटना घटित हुई उस समय पंजाब का लेफ्रिटनेंट गवर्नर माईकल ओ. डॉयर था जबकि सैनिक अधिकारी का जिसने गोली चलायी का नाम रेगिनाल्ड रेक्स डायर था। सबसे पहले हार्नीमैन के बॉम्बे क्रॉनिकल ने इस घटना के विषय में दुनिया को सूचना प्रदान की।
- सरकार ने इस घटना की खानापूर्ति के लिये हंटर आयोग का गठन किया तथा डायर को सेवा मुक्त कर दिया गया। कांग्रेस ने भी इसकी कड़ी भर्तस्ना की तथा स्वयं भी एक जाँच समिति बनाई जिसमें गाँधी जी भी शामिल थी। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस हत्याकांड के विरोध में नाइटहुड सम्मान सरकार को लौटा दिया।
- पंजाब की घटनाओं को देखते हुए गाँधी जी वहाँ प्रस्थान कर गये परंतु सरकार ने 9 अप्रैल को उन्हें पलवल स्टेशन से उतारकर जबरन बंबई भेज दिया।
- दिल्ली में होम रूल आंदोलन के दौरान डॉ. अंसारी के नेतृत्व में होम रूल की एक शाखा स्थापित हुई थी। उन्होंने तथा हकीम अजमल खाँ ने यहाँ रॉलेट एक्ट का विरोध किया।
- 18 अप्रैल को गाँधी जी ने सत्याग्रह को स्थगित कर दिया और स्वीकार किया कि यह सत्याग्रह छेड़ना ‘उनकी बहुत बड़ी भूल’ थी। गाँधी देशव्यापी हिंसा विशेषकर अहमदाबाद में हुई हिंसा से बहुत खिन्न थे। इस आंदोलन की सफलता यह रही कि रॉलेट एक्ट तो वापस नहीं लिया गया परंतु इसके तहत कोई कार्यवाही भी नहीं की गई।
- अंततः 3 वर्ष के बाद इसे वापस ले लिया गया। इसी के परिणामस्वरूप आगे असहयोग आन्दोलन के दौरान केंद्र सरकार ने प्राँतीय सरकार को स्वतंत्र पहलकदमी की इजाजत नहीं दी।
- अतः चौरी-चौरा जैसे बड़े कांड के बावजूद प्राँतीय सरकार कठोर कदम नहीं उठा सकी।सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने रॉलेट सत्याग्रह को असहयोग आंदोलन का जन्मदाता कहा है।
- मद्रास का विरोध शाँतिपूर्ण रहा यहाँ भी समुद्र तट पर बड़ी-बड़ी श्रमिक सभाएँ हुई जिन्हें संबोधित करने वालों में थे टी. वी. कल्याण, सुंदर मुदालियार तथा कांग्रेसी नेता सुब्रमन्यम शिवा।
- दिसंबर 1919 सी.ई. में मोंटफोर्ड सुधार को औपचारिक स्वीकृति दे दी गई। कांग्रेस ने अपने दिल्ली अधिवशेन में मोंटफोर्ड सुधारों के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाया परंतु अपने अमृतसर अधिवेशन में सरकार को ऐसे सुधार लाने के लिये धन्यवाद दिया किन्तु इससे पहले ही इन सुधारों का विरोध करते हुए पुराने नरमदलीय तत्व कांग्रेस से बाहर हो गए।
- सप्रू, जयकर तथा चिंतामणि के नेतृत्व में अलग से नेशनल लिबरल एसोसिएशन की स्थापना की। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने को घोषित किया क्राँति का शत्रु तथा सुधार का मित्र।
असहयोग आन्दोलन (1919-22)
- इसी समय एक दूसरा माहौल बन रहा था क्योंकि मुस्लिम भी ब्रिटिशों के खिलाफ संगठित हो रहे थे। मुहम्मद इकबाल ने यह घोषित किया कि ‘मन्दिर तथा मस्जिद, जहाँ पंडित मंत्र पढ़ते हैं तथा मुल्ला अजान देते है, हमें आकर्षित नहीं करते। मैं अपना ईश्वर अपने देश की मिट्टी में देखता हूं।’
- प्रथम विश्वयुद्ध के विजेता देशों ने तुर्की को दण्डित करना चाहा। मुस्लिम तुर्की के खलीफा के साथ सहानुभूति रखते थे। गाँधी जी ने इस मौके से लाभ उठाना चाहा। उन्होंने मुस्लिम लीग के युवा दल को खिलाफत के मुद्दे पर आंदोलन छेड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के तहत यह एक प्रमुख घटना थी।
- सर्वप्रथम 22-23 नवम्बर 1919 सी.ई. को दिल्ली में अखिल भारतीय खिलाफत कांफ्रेस (अध्यक्ष गाँधी जी) में मुस्लिम लीग के रैडिकल कार्यकर्ताओं ने खिलाफत का नारा दिया एवं असहयोग आंदोलन का आहवान किया।
- दिसम्बर 1919 सी.ई. में मुस्लिम लीग के अमृतसर अधिवेशन में बकरीद के अवसर पर गौहत्या पर पाबंदी लगायी। केन्द्रीय खिलाफ समिति की इलाहाबाद बैठक में जो 1 जून तथा 3 जून के बीच हुई, खिलाफत के प्रस्ताव को स्वीकार किया गया।
- इस तरह लीग ने ब्रिटिश के विरुद्ध खिलाफत आंदोलन छेड़ा। तभी गाँधी ने कांग्रेस को प्रभावित किया कि कांग्रेस भी पंजाब की गलती, खिलाफत, ज्यादती और स्वराज के मुद्दे पर एक आंदोलन छेड़े। किंतु सी. आर. दास विधान पालिका के बहिष्कार के मुद्दे पर सहमत नहीं थे।
- मदन मोहन मालवीय और जिन्ना स्वराज के मुद्दे पर कुछ स्पष्ट व्याख्या चाहते थे। किंतु तमाम विरोधों पर नियंत्रण पाते हुए सितम्बर 1920 सी.ई. में कलकत्ता के विशेष अधिवेशन (अध्यक्ष लाला लाजपत राय) में गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित करवा लिया।
- दिसम्बर 1920 सी.ई. के नागपुर नियमित सत्र में (अध्यक्ष राधवाचार्य) इस प्रस्ताव को दुबारा मंजूरी दे दी गई। इसी अधिवेशन में सी. आर. दास ने असहयोग आंदोलन के समर्थन में मुख्य प्रस्ताव रखा। कलकत्ता के विशेष अधिवेशन में गाँधी जी को मोतीलाल नेहरू से समर्थन प्राप्त हुआ।
- जी. एस. खापर्डे, मुहम्मद अली जिन्ना, विपिन चन्द्र पाल, शंकर नायर, एनीबेसेन्ट, जैसे नेताओं ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। इसी समय गाँधी जी ने सर्वप्रथम 22 सितम्बर 1920 सी.ई. को यंग इंडिया के लेख में एक वर्ष के भीतर स्वराज दिलाने का वादा किया। नागपुर अधिवेशन की एक उपलब्धि कांग्रेस का संरचनात्मक पुनर्संगठन था।
- कांग्रेस का लक्ष्य संवैधानिक तथा वैधानिक तरीकों से स्वशासन की प्राप्ति से बदलकर अब शाँतिपूर्ण एवं वैध तरीकों से स्वराज प्राप्त करना हो गया था। कांग्रेस का नया संविधान लाया गया जिसे गाँधी जी ने तैयार किया था।
- अब कांग्रेस में 15 सदस्यों की एक कार्यकारी समिति बनाई गई। इसका काम रोजमर्रा के कार्यों की देखभाल करना था। गाँधी जी यह जानते थे कि कांग्रेस किसी दीर्घकालीन आन्दोलन का नेतृत्व उसी स्थिति में कर सकती है जब इसकी एक सुगठित समिति हो, जो वर्ष भर काम करे।
- प्राँतीय समितियों का गठन अब भाषा के आधार पर किया जाना था ताकि स्थानीय भाषा का प्रयोग करके वहाँ के लोगों से संपर्क रखा जा सके।
- राम तथा मोहल्ला अथवा कार्ड समितियों का गठन करके कांग्रेस संगठन का ग्राम मुहल्ले तक पहुँचाना था। गरीब लोग भी कांग्रेस के सदस्य बन सकें इसलिए सदस्यता शुल्क घटाकर चार आने कर दिया गया। नागपुर अधिवेशन में 18582 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जो तब तक के कांग्रेसी इतिहास में सबसे बड़ी संख्या थी।
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के तहत असहयोग आंदोलन के कार्यक्रमः सरकारी परिषदों का बहिष्कार, न्यायालय का बहिष्कार, विदेशी वस्त्रें का बहिष्कार और अगर जरूरत समझी गई तो सरकारी सेवा का बहिष्कार तथा सिविल नाफरमानी आंदोलन। कुछ रचनात्मक कार्यक्रम भी निर्धारित किए गए तथा राष्ट्रीय शिक्षा को प्रोत्साहन और छुआछूत की नीति का परित्याग। स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के तहत इस आंदोलन को हम चार चरणों में विभाजित कर सकते हैं।
- प्रथम चरणः (जनवरी 1921 से मार्च 1921 सी.ई.) इसमें न्यायालय और सरकारी शिक्षण संस्थानों का बहिष्कार किया गया। मोतीलाल नेहरू, राज गोपालचारी, टी. प्रकाशम, आसफ अली, तेजबहादुर सप्रू और सैफुद्दीन किचलू तथा चितरंजनदास जैसे महत्त्वपूर्ण वकीलों ने अपने पेशे का परित्याग किया। सुभाष चंद्र बोस नेशनल कॉलेज कलकत्ता के प्रधानाचार्य बने।
- द्वितीय चरणः (अप्रैल 1921 से जुलाई 1921 सी.ई.): इस चरण में तीन बातों पर विशेष बल दिया गया चरखे का प्रसार, तिलक स्वराज फंड की स्थापना और राष्ट्रीय शिक्षा। इस चरण में सदस्यता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और देखते-देखते तिलक स्वराज फण्ड में 1 करोड़ रुपया जमा हो गया।
- तृतीय चरणः (जुलाई 1921 सी.ई. से नवम्बर 1921)- इस चरण में आंदोलन थोड़ा सा उग्र हो गया क्योंकि कांग्रेस निचले स्तर का दबाव महसूस कर रही थी। इस चरण में विदेशी वस्त्रें बहिष्कार पर बहुत बल दिया गया। अगस्त 1920 सी.ई. में भागलपुर (बिहार) में आयोजित प्राँतीय कांफ्रेस में 180 किसान प्रतिनिधियों की उपस्थिति थी।
- संयुक्त प्राँत में किसानों के द्वारा एक आंदोलन चलाया गया। मिदनापुर के किसानों द्वारा कोंटाई एवं तामलूक संभाग में वीरेन्द्र नाथ ससमाल के नेतृत्व में यूनियन बोर्ड आंदोलन चलाने के परिणामस्वरूप बंगाल में प्रथम किसान संगठन का निर्माण हुआ। बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र में जनजातीय लोगों ने तानाभगत आंदोलन चलाया। केरल के मालाबार तट पर मोपला किसानों ने जमींदारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
- राजस्थान क्षेत्र में विजय सिंह पथिक तथा मणिकलाल वर्मा ने बिजौलिया के पुराने केन्द्र के आसपास एक सशक्त कृषक आन्दोलन खड़ा कर दिया तथा 1922 सी.ई. में जागीरदारों को महसूलों एवं बेगार में कमी करने के लिये मजबूर कर दिया।
- उदयपुर के एक मशाला व्यापारी मोतीलाल तेजावत ने जिन्होंने स्वयं की आदिवासी वेशभूषा में ढाल लिया था, स्वयं के बारे में गाँधी जी का दूत होने का दावा किया तथा मेवाड़ के आदिवासियों को संगठित किया। मारवाड़ में जयनारायण व्यास ने मालगुजारी की नआदायगी का आन्दोलन छेड़ दिया।
- संयुक्त प्राँत के कांग्रेसी नेता गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने अखबार प्रताप के माध्यम से विजौलिया आन्दोलन का प्रचार किया। दरभंगा रियासत के ज्यादती के विशेष में विशुभरण प्रसाद ने चंपारण आंदोलन की तर्ज पर विरोध प्रारंभ किया।
- नवम्बर 1921 सी.ई. में बॉम्बे में प्रिंस ऑफ वेल्स का बहिष्कार किया गया। बम्बई में कुछ हिंसक झड़पे हुई फलतः गाँधी जी ने कहा कि स्वराज्य की गंध से मेरे नथुने फटने लगे हैं।
- आँन्ध्र के गुंटूर क्षेत्र में चिराला पिराला शहर में जब नगरपालिका कर बढ़ा दिया गया तो दुगालीरजा कृष्णैया के नेतृत्व में इस प्रदेश के वाशिंदों ने शहर का परित्याग कर दिया और 11 महीनों तक अलग निवास करते रहे। पेंडानेंद्री पाहु तालुका में कर न अदा करने का आन्दोलन चला।
- चतुर्थ चरणः (नवम्बर 1921 सी.ई. से फरवरी 1922 सी.ई.) चौथे चरण में आन्दोलन चरम पर पहुँच गया। हसरत मोहनी जैसे खिलाफत आन्दोलन के नेता अली बंधुओं को नवंबर में जेल भेजे जाने से बड़े क्रोधित हुए तथा वे पूर्ण स्वतंत्रता की बात करने लगे थे।
- अली बंधुओं को इसलिए जेल भेजा गया था कि उन्होंने जुलाई में कराची खिलाफत कांग्रेस में मुसलमानों में सेना छोड़ देने का आह्वान किया था।
- फरवरी 1922 सी.ई. में बारदोली तहसील में सिविल नाफरहमानी आंदोलन चलाया जाना था। तभी 5 फरवरी 1922 सी.ई. को चौरी-चौरा नरसंहार हो गया। स्वयंसेवकों के नेता भगवान अहीर थे।
- अतः गाँधी जी ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बारदोली बैठक में 12 फरवरी 1922 सी.ई. (बारदोली प्रस्ताव) को इस आंदोलन को वापस ले लिया। मार्च 1922 सी.ई. में गाँधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया और जज ब्रूमफील्ड के द्वारा उन्हें 6 वर्षों की सजा दी गई किंतु स्वास्थ्य के आधार पर उन्हें 1924 सी.ई. में रिहा कर दिया गया।
- संपूर्ण बहिष्कार आन्दोलन में सबसे सफल था विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का कार्यक्रम इसके परिणामस्वरूप 1920-21 सी.ई. ये जहाँ एक अरब दो करोड़ रुपये मूल्य के विदेशी कपड़ों का आयात हुआ वहीं 1921-22 सी.ई. में यह घटकर 57 करोड़ रह गया। इस आंदोलन के दौरान व्यापारी सामूहिक रूप से शपथ ले रहे थे कि एक निश्चित समय के लिये विदेशी कपड़ों का अनुबंध नहीं करेंगे।
- बड़े व्यापारियों का एक महत्त्वपूर्ण गुट असहयोग आन्दोलन के विरुद्ध था और इनके द्वारा 1920 सी.ई. में एक असहयोग आंदोलन विरोधी सभा की स्थापना की गई।
- इस सभा के संस्थापक थे पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास, जमनादास द्वारकादास, कांवस जी जहाँगीर, फिरोज सेठाना तथा सीतलवाड़। इस आंदोलन के दौरान श्रमिकों में भी असंतोष फैला तथा दिसंबर 1921 सी.ई. में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के झरिया अधिवेशन में बड़ी संख्या में श्रमिकों ने भाग लिया।
- इस आंदोलन में ताड़ी की दुकानों पर दिया जाने वाला धरना अत्यंत लोकप्रिय हुआ। हालाँकि यह मूल कार्यक्रम में नहीं था। बिहार तथा उड़ीसा में पँचायत व्यवस्था काफी लोकप्रिय हुई।
- असम में चाय बागान के मजदूर हड़ताल पर चले गए। असम-बंगाल रेलवे कर्मचारियों ने भी हड़ताल कर इनका साथ दिया। बंगाल के राष्ट्रवादी नेता जे. एम. सेनगुप्ता ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- मिदनापुर में एक ब्रिटिश जमींदारी कंपनी के खिलाफ काश्तकारों की हड़ताल का कलकत्ता मेडिकल कॉलेज के एक छात्र ने नेतृत्व किया।
- आँध्र में वन कानून के खिलाफ आन्दोलन छिड़ा। जेल जाने वाली महिलाओं में बासन्ती देवी (सी. आर. दास की पत्नी) प्रमुख थी।
स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के तहत विभिन्न क्षेत्रों में असहयोग आन्दोलन का प्रभाव
- महाराष्ट्रः यहाँ असहयोग आन्दोलन कमजोर रहा क्योंकि तिलक ने असहयोग के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया था।
- असमः यहाँ यह आन्दोलन तीव्र हुआ तथा इसे जन समर्थन प्राप्त हुआ। बागवानी श्रमिकों ने यहाँ विद्रोह किया। किसानों ने भी कर रोको आन्दोलन चलाया।
- राजस्थानः यहाँ भी आन्दोलन का प्रभाव देखा गया। मेवाड़ में बिजौलिया आन्दोलन तथा मेवाड़ एवं आस-पास के क्षेत्र में मोतीलाल तेजावत के अन्तर्गत भील आन्दोलन हुआ।
- आँध्र प्रदेशः आँध्र तटीय क्षेत्र में यह काफी उग्र हो गया। इस क्षेत्र में वन कानूनों का उल्लंघन हुआ। इस क्षेत्र में अल्लूरी सीताराम राजू का विद्रोह हुआ।
- कर्नाटकः तुलनात्मक रूप में यह क्षेत्र अप्रभावित रहा। दक्षिण के चार भाषायी क्षेत्रों में कर्नाटक ही इस आंदोलन से अछूता रहा।
- उड़ीसाः कनिकराज की रैय्य्तो ने यहाँ विद्रोह किया।
- पंजाबः पंजाब में अकाली आन्दोलन हुआ। यह आन्दोलन 1920 सी.ई. के दशक में गुरुद्वारों पर नियंत्रण रखने वाले भ्रष्ट महंतों के विरुद्ध प्रारंभ हुआ। ननकाना का गुरुद्वारा आन्दोलन भ्रष्ट महंत के विरुद्ध अकालियों ने प्रारंभ किया। अकालियों के द्वारा गुरु का बाग आन्दोलन भी चलाया गया। तत्पश्चात् नाभा का आन्दोलन हुआ।
- इस आन्दोलन का सर्वेक्षण करने के लिए कांग्रेस ने 1923 सी.ई. में एक पर्यवेक्षण दल भेजा। पर्यवेक्षण दल में निम्नलिखित नेता शामिल थे- जवाहरलाल नेहरू, ए.टी. गिडवानी तथा के. संयानम आदि।
- फिर असहयोग आंदोलन के मध्य कुछ रचनात्मक कार्य भी किए गए। उदाहरण के लिए सूत की कताई, ग्राम पँचायतों का विकास, छुआछूत का अन्त, राष्ट्रीय स्कूल तथा कॉलेजों की स्थापना आदि।
- काशी विद्यापीठ तथा गुजरात विद्यापीठ की स्थापना हुई। जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना पहले अलीगढ़ में हुई तथा फिर इसका स्थानान्तरण दिल्ली कर दिया गया। आँध्र प्रदेश की स्थिति का सजीव चित्रण उन्नवा लक्ष्मीनारायण के तेलुगू उपन्यास मालपल्ली (1922) में मिलता है।
- अंग्रेजों के दमन का उदाहरण पोडनूर के रेल डिब्बे में बंद 66 मोपलाओं के शवों से मिलता है जिनकी मौत दम घुटने से हुई थी यह सिराजुद्दौला के समय की ब्लैक हॉल काण्ड की काल्पनिक कहानी से कई अधिक सच्ची है।
- असम केसरी अंबिका गिरी राय चौधरी की कविताओं से असम की घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के लेख सत्य की पुकार (1921) में करोड़ों स्वत्वहीनों को जागृत करने हेतु गाँधीजी की प्रशंसा की गई किन्तु साथ ही चरखा आंदोलन की संकीर्णता, सुधार विरोध की कड़ी आलोचना भी की गई थी।
असहयोग आंदोलन के बाद
- सविनय अवज्ञा जाँच समिति की स्थापना हुई। इसके सदस्यों में अंसारी, राजगोपालाचारी, कस्तूरी रंगा तथा आयंगार गाँवों में गाँधीवादी रचनात्मक कार्य करने के पक्ष में थे। वहीं मोतीलाल नेहरू, विट्ठल भाई पटेल और हकीम अजमल खाँ का कहना था कि बदली हुई परिस्थितियों में कांग्रेस चुनाव में भाग ले।
- एक गुट स्वराजिस्टों का था जिसके नेता चितरंजनदास, मोतीलाल नेहरू और विट्ठल भाई पटेल थे।
- दूसरा गुट अपरिवर्तनवादियों का था जिसमें राजेन्द्र प्रसाद, वल्लभ भाई पटेल और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे।
- सी. आर. दास ने गया अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में कौंसिल प्रवेश की वकालत की। परंतु उनका प्रस्ताव 1740/890 मतों से खारिज हो गया। अतः चितरंजनदास ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर एक अखिल भारतीय खिलाफत स्वराज पार्टी का गठन किया।
- कांग्रेस के विशेष दिल्ली अधिवेशन (सितम्बर 1923 सी.ई.) में यह समझौता किया गया कि कांग्रेसी व्यक्तिगत रूप से चुनाव में खड़े हो सकते है। यह सितम्बर समझौता इस अधिवेशन के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद के उद्योग का परिणाम था।
- 1923 सी.ई. का वर्ष सी. आर. दास द्वारा अभिकल्पित प्रसिद्ध बंगाल पैक्ट के लिये भी याद किया जाता है जिसमें उन्होंने स्वराज मिलने के पश्चात बंगाल के मुसलमानों को प्रशासनिक सेवाओं में 55% भागीदारी, मस्जिदों के सामने बाजा बजाये जाने पर पाबंदी, तथा बकरीद के अवसर पर गोकुशी में हस्तक्षेप नहीं करने को वादा किया था।
- कांग्रेस ने दिसंबर 1923 सी.ई. के काकीनाडा अधिवेशन में इस पैक्ट को खारिज कर दिया परंतु मई 1924 सी.ई. को सिराजगंज बंगाल प्रोविंसियल कॉन्फ्रेंस में बंगाल के कांग्रेसियों ने बंगाल पैक्ट को अपना लिया।
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के तहत गाँधीजी तथा सी. आर. दास के मध्य एक समझौता हुआ जिसके अनुसार यह तय हुआ कि गाँधी जी और उनके अगुवाई खादी आन्दोलन चलाएंगे तथा स्वराज्य पार्टी वाले राजनीतिक अभियान का जिम्मा लेंगे। इस बात पर भी सहमति हुई कि स्वराज पार्टी अपना कार्य कांग्रेस से स्वतंत्र होकर स्वायत्त निकाय के रूप में करेगी और उसका अपना सचिवालय होगा।
- जून 1924 सी.ई. के अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अहमदाबाद अधिवेशन में गाँधी जी द्वारा यह निर्धारित किया गया कि कांग्रेस की सदस्यता के लिये कताई को न्यूनतम योग्यता बनाई जाये।
- गाँधी दास पैक्ट को दिसंबर 1924 सी.ई. के बेलगाँव अधिवेशन में अनुमोदित किया गया।
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स्वराज पार्टी
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के तहत असहयोग आन्दोलन के बाद चितरंजन दास ने इस्तीफा देकर कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी का गठन किया।
- सी. आर. दास उसके अध्यक्ष और मोतीलाल नेहरू उसके सचिव बने।1923 सी.ई. के चुनाव में स्वराज पार्टी ने भाग लिया। इसमें इस दल को सफलता मिली। संघीय केन्द्रीय परिषद में एक-तिहाई सीटें मिली और यह पार्टी विट्ठल भाई पटेल का अध्यक्ष के पद पर निर्वासित करवाने में सफल रही।
- मध्य प्राँत में इसे स्पष्ट बहुमत मिला। बंगाल में यह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और संयुक्त प्राँत एवं असम में यह दूसरी पार्टी बनी।
- स्वराज्य पार्टी के निम्नलिखित उद्देश्य थेः शीघ्रताशीघ्र डोमिनियम स्टेट्स प्राप्त करना। इसमें संविधान निर्माण की शक्ति भी शामिल थी। दूसरे प्राँतीय स्वायत्तता प्रदान करना। तीसरे, भारतीयों के लिए यह अधिकार प्राप्त करना जिसमें यह सरकार एवं सरकारी मशीनरी पर नियंत्रण स्थापित कर सके। विधान परिषद के अन्तर्गत सरकारी कार्यों में बाधा उपस्थित करना।
- स्वराज पार्टी को भी विभिन्न क्षेत्रों में सफलता मिली। स्वराजियों ने मुख्यतः तीन मुद्दों को उठाया। उदाहरण के लिये – स्वशासन की स्थापना के लिये संविधान में परिवर्तन, नागरिक स्वतंत्रता की बहाली तथा देशी उद्योगों का विकास।
- स्वराज पार्टी के सदस्यों ने सरकार पर एक ऐसा प्रस्ताव पारित करने के लिए दबाव डाला जिसमें सेंट्रल एसेंबली की एक गोलमेज परिषद करवाने के लिये कहा गया था। इस परिषद का लक्ष्य ऐसे सुधारों पर चर्चा करना था जिसके फलस्वरूप उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जा सकती थी। इन्होंने सरकार से माँग की कि टाटा की इस्पात कंपनी को संरक्षण दें।
- सी. आर. दास ने सरकार की दमनात्मक कार्यवाही की आलोचना की तथा बंगाल प्राँतीय सम्मेलन में कहा कि दमन स्वेच्छाचारी शासन को मजबूत बनाने का साधन है। उन्होंने कहा कि मैं आजादी हासिल करने के लिये हिंसा का रास्ता अख्तियार करने की भी निंदा करता हूं।
- 1923-24 सी.ई. के दौरान नगरपालिका और स्थानीय निकायों पर स्वराजियों का कब्जा हो गया। सी. आर. दास कलकत्ता के मेयर चुने गए तथा सुभाष चन्द्र बोस मुख्य कार्यकारी अधिशासी बने।
- इसी तरह विट्ठल भाई पटेल अहमदाबाद नगरपालिका के राजेन्द्र प्रसाद पटना नगरपालिका के तथा जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद नगर पालिका के अध्यक्ष चुने गए।
- नों चेंजर्स ने भी स्थानीय चुनावों में भाग लिया क्योंकि उनका मानना था कि रचनात्मक कार्यों को बढ़ावा देने के लिये स्थानीय निकायों की मदद ली जा सकती है। परंतु 16 जून 1925 सी.ई. को सी. आर. दास का निधन हो गया। इसके साथ जन आंदोलन स्थगित होने से तथा साम्प्रदायिकता के उत्थान से स्वराज आन्दोलन को धक्का लगा।
- बंगाल में स्वराज पार्टी के बहुसंख्यक सदस्यों ने जमींदारों के खिलाफ काश्तकारों की माँग का समर्थन किया जिससे अधिकाँश मुसलमान काश्तकार नाराज हो गए। जल्द ही इस पार्टी में ऐसे लोग घुस गए जो सत्ता में पद चाहते थे तथा सुधारों के समर्थक थे।
- एस. वी. ताँबे ने जो कि मध्य प्राँत की विधायिका में स्वराजी अध्यक्ष थे, कार्यकारी परिषद की सदस्यता स्वीकार कर ली। लाला लाजपत राय तथा मदनमोहन मालवीय ने सत्ता साझेदारी व साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर स्वराज पार्टी को छोड़ दिया।
- अंततः स्वराज पार्टी ने मार्च 1926 सी.ई. से विधान मंडल में हिस्सा लेने का निर्णय किया। इस प्रकार 1919 सी.ई. के अधिनियम के तहत तीन चुनाव हुए। 1921 सी.ई., 1923 सी.ई. तथा 1926 सी.ई. में। परंतु स्वराजियों ने मात्र 1923 सी.ई. तथा 1926 सी.ई. के चुनावों में ही भाग लिया।
- 1926 सी.ई. के चुनावों में स्वराज दल को अपेक्षित सफलता नहीं मिली परंतु वे 1928 सी.ई. में पब्लिक सेफ्रटी बिल पर सरकार को पराजित करने में कामयाब रहें। इससे पहले स्वराजियों ने स्वशासन की तैयारी के लिये जिस गोलमेज सम्मेलन की माँग की थी उसके एवज में सरकार सर अलेक्जेंडर मुडीमैन (गृह सदस्य) की अध्यक्षता में एक आयोग बिठाने पर मजबूर हुई।
- इस आयोग को 1919 सी.ई. के एक्ट की कमजोरियों एवं उसके निदान की जाँच-पड़ताल करने को कहा गया।
- इस आयोग में तेज बहादुर सप्रू, जिन्ना, आर. पी. पराजपे, शिव स्वामी अय्यर, मोतीलाल नेहरू जैसे लोग शामिल थे। इसी प्रकार विधान मंडल के अधिनियम द्वारा बंगाल अध्यादेश को भंग करने के लिए रखे गए सी. डी. आयंगार का माँग प्रस्ताव 45 के मुकाबले 58 मतों से पारित हुआ।
- लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में पारित प्रस्तावों तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन छिड़ने के कारण 1930 सी.ई. में स्वराजियों ने विधान मंडल का साथ छोड़ दिया।
- स्वराज पार्टी की सबसे बड़ी सफलता रही कि इन्होंने ऐसे समय में राजनीतिक गतिविधियों को जारी रखा जब आंदोलन सुस्ता रहा था।
- स्वराज आंदोलन के पतनोपरांत राष्ट्रवादी पार्टी में भी फूट पड़ गई। जिन्ना ने राष्ट्रीय गठजोड़ से अलग होकर स्वतंत्र पार्टी नाम से एक नये दल का गठन किया। इस प्रकार 1926 के चुनावों से पहले राष्ट्रवादी गठजोड़ तीन स्पष्ट दलों में बँट गया-
- स्वराज पार्टी अथवा कांग्रेस पार्टी।
- अनुक्रियाशील सहयोगी पार्टी जिसमें कि हिन्दू महासभा तथा स्वतंत्र कांग्रेसी भी शामिल थे। इन लोगों ने लाला लाजपत राय तथा मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में राष्ट्रवादी पार्टी का गठन किया।
- जिन्ना की स्वतंत्र पार्टी।
- नागपुरः नागपुर के कुछ क्षेत्रों में कांग्रेसी झण्डों के प्रयोग पर लगाए गए प्रतिबंधों के विरुद्ध स्थानीय प्रतिरोध करने के लिए 1923 के मध्य झंडा सत्याग्रह हुआ।
बारसाड़ आंदोलन (1923-24)
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के अंतर्गत वल्लभ भाई पटेल के बरसाड़ सत्याग्रह को हार्डीमन ने ग्रामीण गुजरात में पहला सफल गाँधीवाद सत्याग्रह कहा है। सितम्बर, 1923 सी.ई. में बरसाड़ के प्रत्येक वयस्क पर 2 रुपया 7 आने का कर लगाया गया और कहा गया है कि डकैतियों की लहर दबाने के लिए पुलिस की व्यवस्था की जा सके।
- दिसम्बर तक आंदोलन ने ऐसा रूप धारण कर लिया कि सभी 104 प्रभावित गाँवों ने नए कर की अदायगी न करने का निर्णय लिया। अंततः 7 फरवरी 1924 को सरकार ने इस कर को रद्द कर दिया।
बैंकम सत्याग्रह (1924-25)
- यह मंदिर प्रवेश का पहला आंदोलन था। स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के अंतर्गत यह आंदोलन निम्न जातीय इझवाओं एवं अछूत द्वारा गाँधीवादी तरीके से त्रवणकोर के एक मंदिर की निकट की सड़कों के उपयोग के बारे में अपने अधिकारों को मनवाने का प्रयास था। इसका नेतृत्व इझवा कांग्रेसी नेता टी. के. माधवन, के. केलप्पन तथा के. पी. केशवमेनन कर रहे थे।
- मार्च 1925 सी.ई. में गाँधी जी बैंकम गए। किंतु 20 महीनों के पश्चात आंदोलन कमजोर पड़ गया क्योंकि सरकार ने अछूतों के लिए अलग सड़कों का निर्माण कराया।
- पंजाबः पंजाब में गुरू का वाग सत्याग्रह (अगस्त 1922-23 सी.ई.) का आरंभ एक छोटी सी बात को लेकर हुआ था। अंग्रेजों के दबाव में नाभा के महाराजा रिपुदमन सिंह को, जो अकाली आंदोलन के प्रमुख संरक्षक थे, गद्दी छोड़नी पड़ी।
- पंजाब का नया कार्य कुशल गवर्नर मैलकॉम हैली 1925 सी.ई. में सिख गुरुद्वारा एण्ड श्राइंस एक्ट द्वारा अकाली विवाद को समाप्त करने में सफल रहा।
- 1924 सी.ई. में बंगाल में भी एक ऐसे ही मुद्दे लेकर एक भ्रष्ट महंत के विरुद्ध तारकेश्वर आंदोलन चलाया गया, जिसे स्वामी विश्वानन्द ने प्रारंभ किया और बाद में सी. आर. दास ने इस मुद्दे को उठाया।
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साईमन कमीशन (1928)
- 1919 सी.ई. के भारत शासन अधिनियम के अनुसार लागू की गई द्वैध शासन प्रणाली की सफलता या असफलता की जाँच हेतु एक कमीशन का गठन होना था।
- इसी के परिप्रेक्ष्य में नवम्बर 1927 सी.ई. में साईमन कमीशन के गठन की उद्घोषणा हुई। इसमें सात सदस्य थे जिनमें से दो वार्नस हरसॉल तथा क्लीमैंट एटली लेबर पार्टी के थे।
- साईमन कमीशन के मुद्दे पर सभी भारतीय पार्टियों ने आपत्ति जताई। आपत्ति के निम्नलिखित कारण थे-
- कमीशन का गठन समय से दो वर्ष पूर्व किया गया था।
- इस कमीशन के सभी सातों सदस्य श्वेत थे जबकि उस समय ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारतीय सदस्य के रूप में लार्ड सिन्हा तथा नौरोजी सकलतवाला कार्यरत थे।
- भारतीय नेताओं का कहना था कि भारत की कोई संस्था ही भारतीय संविधान की निर्माता हो सकती थी।
- भारतीय नेताओं का कहना था कि स्वराज संबंधी योग्यता के लिए परीक्षा की जरूरत नहीं होती है।
- साईमन कमीशन का निम्नांकित पार्टियों ने स्वागत किया-
- पंजाब की यूनियनिस्ट पार्टी
- मद्रास की जस्टिस पार्टी
- मुस्लिम लीग – (मुहम्मद शफी गुट)
- केन्द्रीय सिख संगठन
- अखिल भारतीय अछूत फेडरेशन
- उपरोक्त पार्टियों को छोड़कर लगभग सभी प्रतितिष्ठत राजनीतिक समूहों ने साईमन कमीशन के बहिष्कार करने का निर्णय लिया। इतना तक कि सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने भी इसका विरोध किया। इसके साथ ही भारतीय औद्योगिक एवं वाणिज्यिक कांग्रेस तथा हिंदू महासभा भी विरोध में शामिल थी।
- कांग्रेस ने दिसंबर, 1927 सी.ई. में मद्रास अधिवेशन (अध्यक्ष अंसारी) में इस आयोग के बहिष्कार का संकल्प लिया। इसी अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू ने पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा। ज्ञातव्य है कि इस अधिवेशन में गाँधी जी ने भाग नहीं लिया था।
- 3 फरवरी, 1928 सी.ई. को साईमन कमीशन बॉम्बे के तट पर उतरा। काले झण्डे से इसका स्वागत किया गया। संयुक्त प्राँत में जवाहरलाल नेहरू और गोविन्द वल्लभ पंत ने इसका विरोध किया।
- लखनऊ में खलिकुज्जमा ने इस विरोध का नेतृत्व संभाला। पंजाब में लाला लाजपतराय पर पुलिस ने लाठी चलायी, घायल होने से उनकी मृत्यु हो गई।
- इस आंदोलन के मध्य ही भारत में पहली बार छात्र संगठन का निर्माण हुआ। इस आंदोलन में मजदूरों ने भी हिस्सा लिया। बंबई के मिल मजदूर और महाराष्ट्र के किसानों के संयुक्त दबाव में जोतेदारी कानून में संशोधन किया गया। 1930 सी.ई. में साईमन आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित की गई।
- इसमें निम्नांकित प्रावधान किये गए थे-
- प्राँतीय क्षेत्र में विधि तथा व्यवस्था सहित सभी क्षेत्रों में उत्तरदायी सरकार गठित की जाये।
- केन्द्र में उत्तरदायी सरकार के गठन का समय अभी नहीं आया है।
- केन्द्रीय विधान मंडल को पुनर्गठित किया जाये जिसमें एक ईकाई की भावना को छोड़कर संघीय भावना हो और इसके सदस्य परोक्ष पद्धति से प्राँतीय विधान मंडल से चुने जायें।
नेहरू रिपोर्ट (1928)
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के अंतर्गत 1928 सी.ई. में भारत सचिव बरकेनहेड ने भारतीय दलों को चुनौती दी कि अगर आप में योग्यता है तो आप सर्वसम्मति से एक संविधान प्रस्तुत करें।
- परिणामतः 1928 सी.ई. में कांग्रेस की एक बैठक हुई और मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति का गठन हुआ जिसका कार्य भारतीय संविधान का निर्माण करना था। वही समय था जब कांग्रेस पृथक निर्वाचन को समाप्त करने के पक्ष में थी और लीग पर संयुक्त निर्वाचन स्वीकार करने के लिए दबाव डाल रही थी।
- लीग भी दो गुटों में बँट गयी थी। प्रथम गुट मुहम्मद अली जिन्ना के अधीन था और दूसरा गुट सफी खाँ के अधीन। सफी खाँ का गुट संयुक्त निर्वाचन के मुद्दे पर बिल्कुल ही बात करने को तैयार नहीं था। दूसरी तरफ मुहम्मद अली जिन्ना इस बात के लिए सहमत थे किंतु उनकी अपनी शर्तें थी जो निम्नलिखित थी-
- केंद्रीय परिषद में मुस्लिमों के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की जाएं।
- पाँच मुस्लिम बहुल प्राँतों में यथा-बंगाल, पंजाब, सिध बलुचिस्तान और उत्तर पश्चिम सीमा प्राँत में जनसंख्या के आधार पर सीटों का आरक्षण किया जाए।
- किंतु इसके विरोध में हिन्दू संप्रदायवादी खड़े हो गए और कांग्रेस पर अनुचित दबाव डालने लगे। परिणामतः कांग्रेस ने जिन्ना के प्रस्ताव को मंजूर नहीं किया।
- दिसम्बर 1928 सी.ई. में कलकत्ता में सर्वदलीय सम्मेलन में नेहरू रिपोर्ट रखी गयी। इसे मोतीलाल नेहरू ने तैयार किया था।
- इसमें निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण प्रावधान थे-
- उत्तरदायी सरकार
- भारत के लिए डोमिनियन स्टेटस
- द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका
- संयुक्त निर्वाचन मंडल
- मौलिक अधिकार का प्रस्ताव
- मुहम्मद अली जिन्ना की माँग को देखते हुए सिंध को बम्बई से अलग करके एक अलग प्राँत बनाया जाना था, किंतु तभी, जब भारत को डोमिनियन स्टेटस प्राप्त हो।
- भाषा के आधार पर प्राँतों का गठन।
- नेहरू रिपोर्ट में सिफारिश की गई कि जिन स्थानों पर मुसलमान लोग अल्पमत में थे वहाँ के लिये केन्द्रीय तथा प्राँतीय सरकारों में उनके स्थान आरक्षित होंगे लेकिन जिन स्थानों में उनका बहुमत होगा वहाँ उनके लिये स्थानों का आरक्षण नहीं होगा। इस रिपोर्ट में वयस्क मताधिकार की बात की गई।
- महिलाओं के लिये समान अधिकार तथा संगठन बनाने की स्वतंत्रता एवं धर्म का हर प्रकार के राज्य से पृथक्करण की भी चर्चा की गई थी। यहाँ डोमिनियन स्टे्टस की चर्चा करते हुए कहा गया था कि संविधान में नागरिकता की व्याख्या होनी चाहिए तथा मौलिक अधिकारों की घोषणा की जानी चाहिए।
- विधायिनी शक्ति ब्रिटिश क्राउन तथा द्विसदनीय संसद को प्राप्त होगी तथा कार्यपालिका शक्ति भी क्राउन में निहित होगी। उसका प्रयोग गवर्नर जनरल के माध्यम से होगा।
- नेहरू रिपोर्ट में कहा गया कि अगर एक वर्ष तक डोमिनियन स्टेट्स नहीं दिया गया तो इस सीमा के पश्चात पूर्ण स्वराज की बात करने के लिए कांग्रेस स्वतंत्र होगी। केन्द्र की तरह प्राँतों में भी उत्तरदायी सरकार की स्थापना होगी जो गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद से जुड़ी होगी।
- राजनीतिक संरचना मोटे तौर पर एकात्मक ही थी और अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र को दिए जाने का प्रावधान था। कलकत्ता के सर्वदलीय सम्मेलन में एकता का हताशपूर्ण प्रयास किया गया।
- मुहम्मद अली जिन्ना ने सिंध को बॉम्बे से तुरंत अलग करने, अवशिष्ट शक्तियाँ प्राँतों को देने, केन्द्रीय धारा सभा में एक-तिहाई सीट मुसलमानों को देने और वयस्क मताधिकार की व्यवस्था होने तक पंजाब और बंगाल की सीटें आरक्षित करने की प्रार्थना की।
- मुहम्मद अली जिन्ना ने भावावेश पूर्ण अपील की कि हम सब इस धरती के बेटे हैं हमें साथ-साथ रहना है मेरी बात मान लें। भारत तब तक आगे नहीं बढ़ सकता है जब तक हिन्दू और मुसलमान एक नहीं हो जाते।
- कांग्रेस ने जिन्ना के प्रस्ताव को मंजूर नहीं किया। परिणामतः जिन्ना भी अब सफी खाँ की आवाज में आवाज मिलाने लगे और मार्च 1929 सी.ई. में जिन्ना ने 14 सूत्री माँगें रखी।
- इस समय कांग्रेस की राजनीति में सुभाष और जवाहर का उदय हुआ। वे पूर्ण स्वराज से कम पर समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे। वे नेहरू रिपोर्ट से बहुत असंतुष्ट थे। 1928 सी.ई. में जनमत तैयार करने के लिए सुभाष और जवाहर ने संपूर्ण देश का दौरा किया।
- 1927 सी.ई. में जवाहर लाल नेहरू ने मद्रास में एक रिपब्लिकन कांग्रेस की अध्यक्षता की थी जिसमें पूर्ण स्वाधीनता की माँग की गई थी तथा साम्राज्यवादी विरोध में लीग के साथ घनिष्ठ संबंध जोड़ने का आह्नान किया गया था।
- दिसंबर, 1928 सी.ई. में कलकत्ता में जवाहर लाल नेहरू ने एक समाजवादी युवक कांग्रेस की अध्यक्षता की जिसमें कम्युनिस्ट समाज की आवश्यक प्रस्तावना के रूप में स्वतंत्रता का आ“वान किया गया था।
- जवाहर लाल नेहरू तथा सुभाष चन्द्र बोस ने पूर्ण स्वाधीनता के लक्ष्यों को स्वीकार करवाने के लिये कांग्रेस के भीतर ही एक दबाव समूह के रूप में ‘इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया लीग’ की स्थापना की।
- इस लीग की संयुक्त प्राँत शाखा ने अप्रैल 1929 सी.ई. में समाजवादी जनतांत्रिक राज्य की बात कही जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को विकास के पूरे अवसर प्राप्त होंगे।
लाहौर कांग्रेस अधिवेशन
- 1929 सी.ई. में लाहौर अधिवेशन में नेहरू ने अध्यक्षीय भाषण देते हुए कहा कि मुक्ति का मतलब मात्र विदेशी शासन को उखाड़ फेंकना नहीं है।
- मुझे यह साफ-साफ स्वीकार कर लेना चाहिए कि मैं एक समाजवादी हूँ तथा रिपब्लिकन हूँ। मुझे राजा तथा महाराजाओं में विश्वास नहीं है और न ही मैं उस उद्योग (निजी उद्योग) में विश्वास रखता हूँ जो आधुनिक राजे महाराजे (उद्योगपति) उत्पन्न करते हैं।
- 1929 सी.ई. में गाँधी जी की मध्यस्तता से जवाहर लाल को लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। लाहौर अधिवेशन में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए गएµ
- इसमें पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया।
- सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रस्ताव को भी स्वीकार कर लिया गया।
- 26 जनवरी 1930 सी.ई. को संपूर्ण देश में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया तथा 31 दिसंबर 1929 को आधी रात को रावी नदी के तट पर तिरंगा झंडा फहराया गया। अब उस समय का इन्तजार किया जाने लगा कि पूर्ण स्वराज के प्रश्न पर सविनय अवज्ञा आंदोलन कब छेड़ा जाए।
- गाँधी जी भी सक्रिय राजनीति में आने को तैयार हो गए। गाँधी जी ने जनवरी 1930 सी.ई. में तात्कालिक वॉयसराय लार्ड इरविन के समक्ष 11 सूत्री माँगें प्रस्तुत करने का निश्चय किया।
- गाँधी जी ने जनता को सीधी राजनीतिक कार्यवाही के लिए तैयार करना शुरू किया। उन्हीं के कहने पर जनता द्वारा विदेशी कपड़ों की होली जलाने तथा बहिष्कार का आक्रामक कार्यक्रम तैयार करने के लिए कांग्रेस कार्य समिति ने विदेशी कपड़ा बहिष्कार समिति का गठन किया।
- 31 अक्तूबर, 1929 सी.ई. को इर्विन ने महारानी की तरफ से घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार डोमिनियम स्टेटस देने की तरफ बढ़ रही है।
- वायसराय ने यह भी वादा किया कि साईमन रिपोर्ट जमा होने के पश्चात एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जायेगा। इसके दो दिन पश्चात प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं का एक सम्मेलन बुलाया गया तथा एक घोषणा पत्र जारी किया गया जिसे दिल्ली घोषणा पत्र के नाम से जाना जाता है। इसमें माँग रखी गई कि यह बात साफ हो जानी चाहिए कि गोलमेज सम्मेलन का उद्देश्य इस बात पर विचार-विमर्श करना नहीं होगा कि किस समय डोमिनियन स्टेट्स दिया जायेगा।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन (1930)
- गाँधी जी ने जनवरी 1930 सी.ई. में तात्कालिक वायसराय लार्ड इरविन के समक्ष 11 सूत्रीय माँगें रखी-
- सेना के खर्च में 50% कमी की जाये
- रुपये की विनिमय दर घटाकर 1 शिलिंग 4 पेंस की जाये
- भूमि लगान में 50% की कमी की जाये तथा इसे विधाई नियंत्रण का विषय बनाया जाये
- नमक कर और सरकार का नमक उत्पादन पर एकाधिकार समाप्त किया जाये।
- सर्वोच्च श्रेणी की सेवाओं का वेतन घटा कर आधा कर दिया जाये।
- जहाजरानी उद्योग को संरक्षण दिया जाए।
- कपड़ा उद्योग को संरक्षण दिया जाये।
- सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा किया जाये।
- पूर्ण शराब बंदी की जाये।
- आपराधिक गुप्तचर विभाग में सुधार हो।
- हथियार कानून में सुधार करके लाइसेंस की स्वीकृति को जन नियंत्रण के अंतर्गत लाया जाए।
- गाँधी जी के प्रस्ताव पर सरकार की प्रतिक्रिया नकारात्मक रही। इर्विन ने गाँधी जी को एक संक्षिप्त सा उत्तर दिया जिसमें उन्होंने खेद प्रकट किया था कि गाँधी ऐसा मार्ग अपना रहे हैं जिससे स्पष्टतः कानून का उल्लंघन होगा।
- गाँधी जी ने अपने प्रत्युत्तर में कहा- मैने घुटने टेक कर रोटी माँगी और बदले में मुझे पत्थर मिला। अंग्रेजी राष्ट्र सिर्फ बल प्रयोग का जवाब देता है।
- गाँधी जी ने अब सविनय अवज्ञा प्रारंभ करने का निर्णय लिया। इस आन्दोलन का कार्यक्रम इस प्रकार था
- हर जगह नमक कानून का उल्लंघन किया जायेगा।
- विद्यार्थी स्कूल छोड़ देंगे तथा सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से इस्तीफा दे देना चाहिए।
- विदेशी कपड़ों की होली जलायी जानी चाहिए।
- सरकार को कोई कर अदा नहीं करना चाहिए।
- औरतों को शराब की दुकानों के आगे धरना देना चाहिए।
दाण्डी यात्र (12 मार्च 1930-6 अप्रैल 1930)
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के अंतर्गत 12 मार्च 1930 सी.ई. को अपने 78 अनुयायियों के साथ गाँधी जी ने साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) से गुजरात तट की 241 मील लम्बी यात्र की और 6 अप्रैल 1930 सी.ई. को दाण्डी (नौसारी जिला, गुजरात) नामक स्थान पर एक मुट्ठी नमक हाथ में लेकर नमक कानून का उल्लंघन किया और इसी के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ हुआ। इस आंदोलन का फैलाव संपूर्ण भारत में हो गया।
- गाँधी की दाण्डी यात्र के संदर्भ में सुभाष चंद बोस ने इसकी तुलना नेपोलियन के पेरिस मार्च तथा मुसोलिनी के रोम मार्च से की है।
सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रसार क्षेत्र
- दक्षिण भारतः दक्षिण भारत में राजगोपालचारी ने त्रिचनापल्ली से वेदारण्यम् की यात्र कर नमक कानून का उल्लंघन किया। अप्रैल में इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया किंतु तब तक दक्षिण भारत में सत्याग्रहियों के बहुत बड़े जत्थे तैयार हो चुके थे।
- मालाबार में बैंकम सत्याग्रह के नायक के कलप्पन एवं टी. के. माधवन ने नमक कानून तोड़ने के लिए कालीकट से पयान्नूर तक की यात्र की।
- आँध्र प्रदेश से नमक आंदोलन के मुख्यालय के रूप में काम करने के उद्देश्य से शिविरम् स्थापित किये गए। 14 अप्रैल को नमक कानून के उल्लंघन के आरोप में जवाहर लाल नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे पहले ही 6 मार्च को पटेल गिरफ्तार हो चुके थे।
- असमः उसी समय असम में भी यह आंदोलन फैल गया और वहाँ भी नमक कानून का उल्लंघन किया गया। असम के कांग्रेसी नेता तरुण राम फूकन सविनय अवज्ञा आंदोलन के विरूद्ध थे। एन. सी. बारदोलई भी उदासीन थे।
- रैय्यतवाड़ी क्षेत्रों में कर रोको आंदोलन और जमींदारी क्षेत्रों में चौकीदारी रोको आंदोलन चलाया गया। जब बंगाल में मॉनसून आ गया तो नमक बनना कठिन हो गया। अतः वहाँ यूनियन बोर्ड आंदोलन प्रारंभ हो गया। पंजाब में यूनियनिस्ट गुट पक्का राजभक्त था जबकि अकाली तारसिंह कांग्रेस के समर्थक थे।
- उत्तरी बिहार और मध्य बिहार में चौकीदारी रोको आन्दोलन तीव्र हो गया। आँन्ध्र, कर्नाटक और मध्य भारत में वन कानूनों का उल्लंघन हुआ। इसके बाद विदेशी वस्त्रें का बहिष्कार और नशीली वस्तुओं की दुकानों पर धरना विद्रोह का महत्त्वपूर्ण हथकंडा हो गया। इस आंदोलन के मध्य की तीन महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैµचटगाँव, पेशावर एवं शोलापुर की घटनाएँ।
- चटगाँव कांडः चटगाँव के एक राष्ट्रीय स्कूल के शिक्षक सूर्यसेन ने जिसे प्यार से मास्टर दा कहा जाता था, इण्डियन रिपब्लिकन आर्मी के नाम से 18 अप्रैल, 1930 सी.ई. को चटगाँव शस्त्रगार पर कब्जा कर लिया। इसके तत्काल बाद ही भारत की एक अस्थाई स्वतंत्र सरकार का गठन किया गया जिसके राष्ट्रपति स्वयं सूर्यसेन थे। 22 अप्रैल को इन्होंने जलालाबाद की पहाड़ी पर शौर्य पूर्ण लड़ाई लड़ी जिसमें 12 क्राँतिकारी शहीद हुए।
- चटगाँव के इस क्राँतिकारी समूह से दो महिला कल्पना दत्त तथा प्रीतिलता वाडेडर भी जुड़ी हुई थीं। प्रीतिलता ने तो क्राँतिकारियों के एक समूह के साथ मिलकर चटगाँव में पहाड़तली के रेलवे संस्थान पर हमला कर दिया।
- इसमें प्रीतिलता गंभीर रूप से घायल हो गई तथा गिरफ़्तारी से बचने के लिये आत्महत्या कर ली। यद्यपि इन क्राँतिकारियों का गाँधीवादी रास्ते में विश्वास नहीं था तथापि शस्त्रगार पर कब्जा करते हुए इन्होंने नारा लगाया कि गाँधी का राज आ गया है। इस विद्रोह का दमन कर दिया गया।
- पेशावर कांडः पेशावर में खान अब्दुल गफ्रफार खान ने लाल कुर्ती आंदोलन को संगठित किया। इन्होंने अपने स्वयं सेवकों को खुदाई खिदमतगार (ईश्वर के सेवक) कहाँ यह आंदोलन विशुद्ध अहिंसक था। गफ्रफार खाँ ने पख्तून पत्र भी निकाला। यही पश्चिमोत्तर कबीलाइयों ने गाँधी जी को मलंग बाबा (नंगे फकीर) की संज्ञा दी।
- 23 अप्रैल, 1930 सी.ई. को जब बादशाह खान अर्थात अब्दुल गफ्रफार खाँ या सीमाँत गाँधी को गिरफ्तार कर लिया गया तो पेशावर में हिंसा भड़क उठी। भीड़ किस्सा कहानी बाजार में तीन घंटों तक बख्तर बंद गाडि़यों एवं तेज गोलाबारी के मध्य डटी रही।
- सरकारी सूचना के अनुसार इस घटना में 30 लोग मारे गए। यहीं पर गढ़वाल राइफल की एक टुकड़ी के हिंदू सिपाहियों ने चंदू सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में मुसलमान भीड़ पर गोली चलाने से इंकार कर दिया।
- बाद में कोर्ट मार्शल का सामना करते हुए इन सिपाहियों ने स्पष्ट कहा कि हम निहत्थे भाईयों पर गोली नहीं चलाऐंगे क्योंकि भारत की सेना बाहरी शत्रुओं से लड़ने के लिए है।
- शोलापुर कांडः इसी तरह महाराष्ट्र के औद्योगिक नगर शोलापुर में गाँधी जी के गिरफ्तार होने की खबर सुनकर कपड़ा मिलों के मजदूरों ने ब्रिटिश अधिकारी पर हमला बोल दिया जिसके कारण हिंसा भड़क उठी। लगता है कि यहाँ कुछ दिनों के लिये समानांतर सरकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी।
- कांग्रेस के स्वयं सेवक यातायात के संचालन कर रहे थे तथा इन कार्यकर्ताओं ने डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट से लेकर नीचे तक के अधिकारियों की नियुक्ति की थी। ज्ञातव्य है कि 4 मई को गाँधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया था।
- उसी तरह 7 मई, 1930 सी.ई. को शोलापुर के मिल मजदूरों ने ब्रिटिश अधिकारी पर हमला बोल दिया जिसके कारण हिंसा भड़क उठी। छोटा नागपुर का आदिवासी क्षेत्र भी अशांत हो गया। यहाँ बोगा माँझी और सोमरा माँझी हजारीबाग आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे।
- बम्बईः बॉम्बे में वेब मिलर नामक एक अमेरिकी पत्रकार ने न्यू फ्री मैन में धरसना तट पर सत्याग्रहियों पर की गई पुलिस ज्यादतियों का आँखों देखा विवरण दिया है। यहाँ के सत्याग्रहियों का नेतृत्व सरोजिनी नायडू तथा इमाम साहब और मणि लाल गाँधी कर रहे थे।
- अन्य केन्द्रः असम में शिक्षा पर कनिंघम सर्कुलर के विरुद्ध जोरदार प्रतिक्रिया हुई और आंदोलन में तीव्रता आ गई। विदेशी वस्त्रें का बहिष्कार सबसे अधिक बंगाल, बिहार और उड़ीसा में सफल रहा। सूरत के बच्चों ने सरकार को छकाने के लिए तिरंगे का ही ड्रेस सिलवा लिया। बच्चों ने वानर सेना का गठन किया तथा लड़कियों ने अलग से मंजरी सेना का गठन किया। जून के अंत तक कांग्रेस कार्यकारियों को गैर सांविधिक घोषित नहीं किया गया था तथा तत्कालीन अध्यक्ष मोती लाल नेहरू को गिरफ्तार भी नहीं किया गया था।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन की यह विशिष्टता थी कि इसमें व्यावसायिक वर्ग ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जमुना लाल बजाज कांग्रेस के सक्रिय सदस्य रहे एवं कांग्रेस के कोषाध्यक्ष भी रहे। और 1930 सी.ई. में जेल भी गए। भारतीय उद्योगपतियों और व्यापारियों की सबसे बड़ी शिकायत पौण्ड-रुपया विनिमय प्रणाली थी।
- आंदोलन में स्त्रियों की भागीदारी विलक्षण थी। स्त्रियों ने शाँति पूर्ण आंदोलन तथा आतंकवादी दोनों आंदोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लिया। परंतु रवीन्द्र नाथ टैगोर ने चार अध्याय नामक उपन्यास लिखकर स्त्रियों के क्रूर कार्यों की आलोचना की।
- आंदोलन अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था। गाँधी जी किसी प्रकार का समझौता करने के लिए राजी नहीं थे। बड़े स्तर पर मुसलमानों का सविनय अवज्ञा में भाग न लेना भी शहरों में आंदोलन के कमजोर रहने का कारण था।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन (1930-1931)
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के अंतर्गत प्रथम गोलमेज सम्मेलन 12 नवंबर, 1930 को हुआ। इसमें कुल 89 व्यक्तियों ने भाग लिया जिसमें ब्रिटिश राजनीतिक दल के 16 तथा ब्रिटिश भारतीय प्रतिनिधि 58 थे।
- 1930 सी.ई. साईमन कमीशन की रिपोर्ट पर विचार करने के लिए ब्रिटेन में सेंट जेम्स पैलेस में प्रथम गोलमेज सम्मेलन आयोजित हुआ। कांग्रेस एवं भारत के व्यापारी वर्ग ने इसका बहिष्कार किया।
- भारतीय पूँजीपतियों के एक-मात्र प्रतिनिधि होमी मोदी थे जबकि हिन्दू महासभा के नेताओं में- मुंजें और जयकर, नरम दलीय नेताओं में सप्रू, चिंतामणि, श्री निवास शास्त्री, मुस्लिम नेताओं में आगा खाँ, मुहम्मद अली, फजलूल हक और जिन्ना थे। उसी तरह वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में फजलूल हुसैन थे। हरिजन प्रतिनिधि अम्बेडकर तीनों सम्मेलन में शामिल हुए। इसके अतिरिक्त कुछ देशी रजवाड़ों के भी प्रतिनिधि थे। सिक्ख- सरदार सम्पूर्ण सिंह, एंग्लो इंडियन- के. टी. पाल भी शामिल थे।
कांग्रेस ने भाग नहीं लिया
- इस सम्मेलन में संघीय व्यवस्था पर विचार किया गया। तय हुआ कि ब्रिटिश भारत और देशी राज्यों को मिलाकर संघ का निर्माण होगा। कुछ मूलभूत संरक्षण के अतिरिक्त प्राँतों को स्वायत्तता दी जाएगी किंतु कांग्रेस की अनुपस्थिति में यह सम्मेलन निरर्थक सिद्ध हुआ। अतः अब ब्रिटिश कांग्रेस से समझौता की ओर उन्मुख हुए।
- 26 जनवरी को गाँधी बिना शर्त रिहा कर दिये गए। तेज बहादुर सप्रू और जयकर की मध्यस्थता से 5 मार्च, 1931 सी.ई. को गाँधी-इरविन समझौता हुआ। गाँधी इरविन पैक्ट को सरोजिनी नायडू ने दो महात्माओं का मिलन कहाँ
गाँधी–इरविन समझौता में निम्नलिखित मुद्दे थे
- सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित किया जाना था।
- प्रत्यक्ष राजनीति हिंसा में भाग नहीं लेने वाले कैदियों की रिहाई।
- जब्त की गई सम्पत्ति को वापस किया जाना था अगर वह तीसरी पार्टी को नहीं बेची गई हो।
- नौकरी से इस्तीफा देने वाले सरकारी अधिकारियों के साथ रियायत।
- कुछ नियंत्रण के साथ शराब की दुकानों के समक्ष धरना देने के भी अधिकार थे।
- समुद्र के आस-पास निवास करने वाले व्यक्ति को आवश्यकता भर नमक बनाने का भी अधिकार मिला।
- गाँधी जी पुलिस द्वारा की ज्यादतियों की जाँच के लिए कमीशन बैठाने की माँग की।
- वे भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु आदि के मृत्युदंड को वापस लेने के संबंध में इरविन को मनाने में कामयाब नहीं रहे और 23 मार्च, 1931 सी.ई. को भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरू को फाँसी दे दी गई।
कांग्रेस का कराची अधिवेशन (30 मार्च, 1931)
- 1931 का वर्ष कांग्रेस के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण वर्ष था। इसी वर्ष समाजवादी प्रभाव में कांग्रेस का अधिवेशन वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में हुआ।
- कराची में सबसे पहले भगत सिंह और उसके साथियों के लिए संवेदना प्रकट की गई। गाँधी को लोगों ने काले झण्डे दिखाये। कराची कांग्रेस में मौलिक अधिकार के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया था। इसमें 20 सूत्री समाजवादी कार्यक्रम को अपनाया गया। इस अधिवेशन में यह भी निर्णय लिया गया कि भविष्य में मूलभूत और बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया जाएगा।
- कराची अधिवेशन में गाँधी-इरविन पैक्ट का समर्थन करने वाले मुख्य प्रस्ताव को जवाहर लाल नेहरु ने रखा।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन (1931-1931)
- गाँधी-इरविन समझौते के बाद द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने गाँधी जी लंदन गए। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन का स्थल सेंट जेम्स पैलेस था वे राजपूताना नामक जहाज से लंदन पहुँचे। इस समय ब्रिटेन में अनुदारवादियों की सरकार थी। सेमुअल हक भारत मंत्री थे।
- कांग्रेस के एकमात्र अधिकारिक प्रतिनिधि गाँधी जी थे। उनके सचिव के रूप में महादेव देसाई तथा प्यारे लाला उनके साथ थे। वहाँ गाँधी जी को गहरी निराशा हुई जब उन्होंने देखा कि कांग्रेस को साम्प्रदायिक हितों के समानान्तर प्रतिनिधित्व दिया गया।
- दूसरे, गोलमेज सम्मेलन में अल्पसंख्यकों के मुद्दे को लेकर गतिरोध उत्पन्न हो गया। मुसलमानों के अतिरिक्त दलित वर्ग, भारतीय ईसाई, एंग्लो इंण्डियन और यूरोपियन सभी पृथक निर्वाचन की माँग करने लगे।
- 5 अक्टूबर, 1931 सी.ई. को गाँधी जी सभी माँगे मानने के लिए तैयार थे बशर्ते मुस्लिम लीग कांग्रेस के स्वराज की माँग का समर्थन करे।
- लीग ने समर्थन देने से इनकार कर दिया और वार्ता टूट गई। अब देशी राज्य भी संघ में हिस्सा लेने से इन्कार कर चुके थे। गाँधी जी निराश होकर 29 दिसम्बर, 1931 सी.ई. भारत लौट आए।
- गाँधी इरविन समझौते से जहाँ कांग्रेस कार्यकर्ता एवं जनता का मनोबल ऊँचा हुआ था वहीं ब्रिटिश संधिकारी उसे अपमान जनक मान रहे थे। क्योंकि इस समझौते में कांग्रेस को बराबरी का दर्जा दिया गया था।
- नया वायसराय वेलिंगटन मौके की ताक में था। दूसरा गोलमेज सम्मेलन विफल होने की सूचना मिलते ही उसने दमनचक्र जारी कर दिया। जवाहरलाल नेहरू और अब्दुल गफ्रफार खाँ गिरफ्तार कर लिए गए।
- 28 दिसंबर को गाँधी जी वापस मुंबई आए। अगले ही दिन कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक हुई जिसमें सविनय अवज्ञा आन्दोलन दुबारा शुरू करने का निर्णय लिया गया। गाँधी जी ने वायसराय से एक साक्षात्कार रखने को पेशकश की परंतु वायसराय ने इन्कार कर दिया।
द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन (1932-1934)
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के अंतर्गत कांग्रेस ने 1932 सी.ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन पुनः आरंभ कर दिया। 4 जनवरी, 1932 को गाँधी जी गिरफ्तार कर लिये गए। कांग्रेस गैर कानूनी संस्था घोषित कर दी गई और सरकार का दमनचक्र तीव्र हो गया।
- अप्रैल, 1932 सी.ई. में वेलिंगटन ने बंबई शहर तथा बंगाल को दो काले धब्बे के समान बतलाया। क्रूर दमन की वजह से इस बार का आंदोलन कम तीव्र रहा। अब तक व्यापारी वर्ग का भी समर्थन कम हो गया था।
- बंबई के मिल मालिकों ने जापानियों के साथ होने वाली स्पर्द्धा के डर से लंकाशायर के साथ मिलकर अक्टूबर, 1932 सी.ई. में लीस मोदी पैक्ट किया। इन सभी बातों के बावजूद जनता का आक्रोश थमा नहीं। 1931 सी.ई. में आतंकवाद ने पहले के सभी रिकार्ड तोड़ दिये। इस वर्ष कुल 92 वारदातें हुई जिनमें 9 हत्याएं शामिल थी।
- सुनीति चौधरी तथा शाँति चौधरी नामक दो स्कूली छात्रओं ने टिपरा के डिस्ट्रिक मजिस्टेªट सेंट स्टीवन्स को गोली मार दी।
- त्रिचनापल्ली के निकट पुडकोट्टा नामक एक छोटी रियासत में कुछ दिनों के लिये ऐसी स्थिति रही जिसे इंडियन एनुअल रजिस्ट्रर में भीड़ राज कहा गया है।
- नए करों का विरोध करती हुई भीड़ ने सेना तथा पुलिस को दबोच लिया। न्यायालय के दस्तावेज फाड़ दिये। कृष्णा जिले के डुग्गीराला रामकृष्णÕया यहाँ के स्थानीय नेता थे। इन्होंने तेलुगू कथाकाव्य ‘गाँधी-गीता’ लिखकर किसान तथा राष्ट्रीय आन्दोलन को लोकप्रिय बनाया।
- दूसरे गोलमेज सम्मेलन के पश्चात प्रारंभ हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन ने परम्परागत तरीकों के इतर भी कुछ नए तरीकों को अपनाया।
- इनमें कपड़े तथा शराब की दुकानों पर धरना देना, कांग्रेस के झंडे को लहराना, सार्वजनिक रूप से कांग्रेस का अधिवेशन करना तथा किसी सीमा तक कांग्रेस की गतिविधियों को अवैध रूप से चलाना शिामल था। इसके लिये अगस्त, 1932 सी.ई. में बंबई के निकट गुप्त रेडियो ट्रांसमीटर का भी उपयोग किया गया। यद्यपि सबसे अंतिम तरीके की गाँधी ने कड़ी आलोचना की।
- मई 1932 सी.ई. में मध्य प्राँत के वैतूल में मन्नू गोंड तथा चैतू कोइके जैसे आदिवासी नेताओं ने वन सत्याग्रह किया।
- दूसरे सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय कश्मीर तथा अलवर जैसे देसी राज्यों में महत्त्वपूर्ण आन्दोलन हुए। कश्मीर में अप्रैल, 1932 सी.ई. में यद्यपि राजा द्वारा मुस्लिम जनता को ग्रिवासेंज इंक्वायरी कमीशन के सिफारिशों के आधार पर कुछ रियायतें दी गई परंतु वे संतुष्ट नहीं हुए। इसके नेता शेख अब्दुल्ला थे जिन्होंने तत्कालीन निरंकुश तंत्र विरोधी नेता पी. एन. बजाज से भी संपर्क कर लिया था।
- 1933 सी.ई. में अलवर राज्य में सवाई जयसिंह द्वारा किये गए राजस्व वृद्धि के पश्चात आन्दोलन हुए। यहाँ पर मेव लोगों ने आन्दोलन प्रारंभ किया जो कि अर्द्ध आदिवासी कृषक समुदाय थे तथा काफी हद तक इस्लाम के अनुयायी थे। इन्होंने छापामार युद्ध प्रारंभ कर दिया।
- 12 फरवरी, 1933 सी.ई. को वायसराय विलिंगटन ने कहा कि यहाँ की स्थिति जितनी खराब हो सकती है, वह हो रही है। अंततः ब्रिटिश सरकार ने अलोकप्रिय महाराजा को यूरोप भेजकर अलवर का प्रशासन कुछ समय तक अपने हाथ में लेने का निश्चय किया।
साम्प्रदायिक पँचाट (16 अगस्त 1932)
- प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने साईमन कमीशन की रिपोर्ट तथा तदनुरूप गोलमेज सम्मेलन के निर्णय के आधार पर अगस्त 1932 में साम्प्रदायिक पँचाट की घोषणा की।
- साम्प्रदायिक पँचाट के अनुसार दलित वर्ग को भी पृथक निर्वाचन का अधिकार दे दिया गया था। 1932 सी.ई. में जब साम्प्रदायिक पँचाट की घोषणा हुई तो गाँधी जी को फिर एक मुद्दा मिल गया।
- गाँधी जी ने साम्प्रदायिक पँचाट के विरुद्ध जेल में 20 सितंबर, 1932 सी.ई. को अनशन शुरू कर दिया। कुछ दलित वर्ग के नेताओं ने, जिनमें एन. सी. रजा शामिल थे, गाँधी जी का साथ दिया। दबाव में आकर अम्बेडकर पूना पैक्ट के लिए तैयार हो गए।
- पूना समझौता (26 सितम्बर, 1932 सी.ई.): इस समझौते के अनुसार दलित वर्ग के लिये पृथक निर्वाचन मंडल समाप्त कर दिया गया।
- पूना पैक्ट के अनुसार राज्य के विधानमण्डल में दलित वर्ग को 71 सीटों के बजाय 147 सीटें मिलनी थीं और केन्द्रीय विधान परिषद में भी सीटों की संख्या 18 प्रतिशत बढ़ा दी गई।
- गाँधी जी ने 1932 सी.ई. में हरिजन उद्धार कार्यक्रम प्रारंभ किया। सितम्बर, 1932 में उन्होंने छूआछूत विरोधी लीग की स्थापना की।
- जनवरी, 1933 सी.ई. में उन्होंने हरिजन नामक पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया। नवंबर, 1933 तथा अगस्त, 1934 के मध्य उन्होंने 5 हजार मील की हरिजन यात्र की।
- मई, 1933 सी.ई. में गाँधी जी ने व्यावहारिक रूप में आंदोलन को स्थगित कर दिया और अप्रैल, 1934 सी.ई. में पटना में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में उसे औपचारिक रूप में वापस ले लिया।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन में महिलाओं की अभूतपूर्व भागीदारी रही। सविनय अवज्ञा आन्दोलन में छात्रों और बुद्धिजीवियों की इतनी भागीदारी नहीं रही जितना असहयोग आन्दोलन में रही थी किंतु किसानों की अभूतपूर्व भागीदारी ने उस क्षति की पूर्ति कर दी।
- सविनय अवज्ञा आन्दोलन को हिन्दू-मुस्लिम एकता का वह प्रसाद नहीं मिला जो असहयोग आन्दोलन को प्राप्त हुआ था।
- तृतीय गोलमेज सम्मेलन (17 अक्टूबर 1932-24 दिसम्बर 1932): भारत सचिव सैमुअल होर इस सम्मेलन के विरोधी थे। कांग्रेस शामिल नहीं हुई।
असहयोग तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन में अंतर
- असहयोग आंदोलन स्वराज के लिए था जबकि सविनय अवज्ञा आन्दोलन पूर्ण स्वराज के लिए लड़ा गया।
- असहयोग आंदोलन का उद्देश्य सरकार के साथ सहयोग न करके कार्यवाही में बाधा उपस्थित करना था जबकि सविनय अवज्ञा आन्दोलन का उद्देश्य कुछ विशिष्ट कानूनों का उल्लंघन करके सरकार की कार्यवाही को ठप्प करना था।
- सविनय अवज्ञा आन्दोलन में व्यापारी वर्ग की भूमिका प्रबल रही।
- कांग्रेस के अन्दर के कुछ हिन्दू सदस्यों में इस बात का क्षोभ था कि गाँधी जी ने मैकडोनाल्ड अवार्ड के उन सिद्धांतों पर कोई आंदोलन नहीं छेड़ा जिसके अनुसार पंजाब में मुसलमानों को 49 प्रतिशत तथा बंगाल में 6 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया गया था जिसकी वजह से यूरोपियों के साथ मिलकर उनका बहुमत हो जाता। इस क्षोभ के परिणामस्वरूप मदन मोहन मालवीय ने एक अलग कांग्रेस नेशनलिस्ट पार्टी का गठन कर लिया।
- अप्रैल तथा जुलाई, 1934 सी.ई. में बक्सर, जसीडीह तथा अजमेर में सनातनियों ने गाँधी जी की सभा को भंग कर दिया एवं 25 जून को पूना में उनकी कार पर हमला भी किया।
- अक्टूबर 1933 सी.ई. में सत्यमूर्ति ने स्वराज पार्टी को पुनर्जीवित करके उसके माध्यम से चुनावी राजनीति की ओर वापसी का विचार प्रस्तुत किया।
- उनका समर्थन भूलाभाई देसाई, अंसारी तथा वी. सी. राय आदि ने भी किया। 1934 सी.ई. में तमिलनाडु में कौंसिल प्रवेश का समर्थन करने वालों में 1920 सी.ई. के समय के अपरिवर्तनवादी राजगोपालचारी भी शामिल हो गए।
देशी रियासतों में स्वतंत्रता संघर्ष
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के अंतर्गत भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रसार तथा लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों तथा उत्तरदायी शासन प्रणाली के प्रति बढ़ती राजनीति चेतना ने देशी रियासत की जनता में भी जागृति बढ़ाई।
- 20वीं सदी के पहले और दूसरे दशक के मध्य जो आतंकवादी ब्रिटिश इंडिया से भागकर देशी रियासत में आ गए थे, उन्होंने जनता के बीच राजनीतिक चेतना जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1920 सी.ई. के असहयोग तथा खिलाफत आन्दोलन ने भी वहाँ की जनता को प्रभावित किया।
- कांग्रेस ने सर्वप्रथम 1920सी.ई. के नागपुर अधिवेशन में देशी रियासतों के प्रति अपनी नीति घोषित की। इस अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर रियासतों के राजाओं से तुरंत उत्तरदायी सरकार के गठन की माँग की गई थी। साथ ही साथ वहाँ की जनता को कांग्रेस का सदस्य बनने की योग्यता भी दी परंतु उसे वहाँ कांग्रेस के नाम पर किसी आन्दोलन चलाये जाने के अनुमति नहीं दी।
- 1927 सी.ई. में अखिल भारतीय राज्य जन कांफ्रेंस का आयोजन किया गया। इसमें विभिन्न रियासतों से 700 प्रतिनिधि उपस्थित हुए। इसके आयोजन में मुख्य भूमिका निभाई थी बलवंत राय मेहता ने, जो इसके सचिव थे।
- इसका मुख्यालय बॉम्बे में था। यह संस्था सामंतवाद विरोधी भी परंतु साम्राज्यवाद विरोधी नहीं। इसकी नीति अपेक्षाकृत नरम थी। देशी राजाओं ने ऐसे आंदोलन पर दमन चक्र चलाया। ब्रिटिशों की भी इस आंदोलन से सहानुभूति नहीं थी। परिणामतः आंदोलनकारी कांग्रेस की तरफ उन्मुख हुए।
- 1927 सी.ई. में कांग्रेस ने उपरोक्त बातों को ही दुहराया परंतु 1929 सी.ई. में लाहौर अधिवेशन में घोषणा की कि देशी रियासत शेष भारत से अलग नहीं रह सकते हैं तथा इन रियासतों की तकदीर का फैसला सिर्फ वहाँ की जनता ही कर सकती है।
- कांग्रेस के 1938 सी.ई. के हरिपुरा अधिवेशन के एक समझौता प्रस्ताव में पहली बार घोषित किया गया कि पूर्ण स्वराज के अंतर्गत रजवाड़े तथा ब्रिटिश भारत दोनों ही आते हैं। इससे पहले भारत सरकार अधिनियम 1935 सी.ई. के द्वारा सांविधिक रूप से देशी रियासत को शेष भारत से जोड़ने की योजना सरकार ने बनाई।
- 1939 सी.ई. के अपने त्रिपुरी अधिवेशन के बाद कांग्रेस ने नई नीतियों की घोषणा करते हुए अपने आंदोलन का स्टेट पीपुल आंदोलन से जोड़ दिया।
- मार्च 1939 सी.ई. के तिरुपित अधिवेशन में कांग्रेस ने इस नई नीति को मंजूरी दी। 1939 सी.ई. में ही राज्य पीपुल कॉन्फ्रेंस ने अपने लुधियाना अधिवेशन के लिए जवाहर लाल नेहरू को अध्यक्ष चुना।
- गाँधी जी ने देशी रजवाड़ों में फैलते जन आंदोलन के संदर्भ में 1939 सी.ई. में पहली बार एक रजवाड़े में नियंत्रित जन आंदोलन की अपनी विशिष्ट तकनीकों को प्रयुक्त करने का निर्णय लिया।
- उन्होंने अपने निकट सहयोगी तथा व्यापारी जमनालाल बजाज को जयपुर में एक सत्याग्रह करने की अनुमति दी एवं स्वयं वल्लभ भाई पटेल के साथ मिलकर राजकोट रियासत में चल रहे आन्देालन में व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप किया। यहाँ का आंदोलन स्थानीय प्रजा परिषद ने यू. एन. ढेबर के नेतृत्व में आरंभ कर रखा था।
- वहाँ का दीवान वीरावाला अत्यंत ही आलोकप्रिय था। फरवरी 1939 सी.ई. में कस्तूबरा गाँधी और मणिबेन पटेल ने गिरफ्रतारियाँ दीं।
- गाँधी जी ने भी स्वयं 3 मार्च से अनशन प्रारंभ कर दिया। परंतु वे मई 1939 सी.ई. में राजकोट आन्दोलन से इस तर्क पर अलग हो गए कि स्वयं उनका अनशन करना बल प्रयोग होने के कारण पर्याप्त अहिंसक नहीं था। कांग्रेस का देशी रजवाड़ों में प्रथम सार्वजनिक सत्याग्रह राजकोट का हस्तक्षेप ही था।
- मैसूर में टी. माध्यम की स्टेट कांग्रेस का विलय अक्टूबर में फेडरेशन पार्टी में हो गया। इस पार्टी के नेता थे के. सी. रेड्डी तथा एच. सी. दासप्पा।
- उड़ीसा में दिसंबर 1938 सी.ई. में सी. एस. पी. के नेता नवकृष्ण चौधरी ने ढेंकानाल में एक सत्याग्रह का नेतृत्व किया।
- 1942 सी.ई. के भारत छोड़ों आंदोलन के समय एक साथ ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासत की जनता ने प्रतिरोध किया। अंततः हैदराबाद जैसी कुछेक रियासतों को छोड़कर सभी रियासत के राजाओं ने विलय दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिये।
1935 का एक्ट और प्राँतीय सरकार
- गोलमेज के पश्चात सरकार द्वारा 1935 सी.ई. का एक्ट लाया गया। कुछ प्रारंभिक आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस ने इसे स्वीकार किया। 1936 सी.ई. के प्रारंभ में लखनऊ में तथा आखिरी महीने में फैजपुर में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान चुनाव में भाग लेने का निर्णय किया गया।
- सत्ता में हिस्सेदारी के सवाल पर चुनाव के बाद विचार करने का निर्णय लिया गया। फिर कौंसिल प्रवेश का निर्णय लिया गया। 1935 सी.ई. तक राष्ट्रीय आंदोलन की विचारधारा भी बदलने लगी थी और समाजवादियों का प्रभाव भी बढ़ने लगा था।
- इस एक्ट के प्रावधान के द्वारा 1937 सी.ई. में प्राँतीय चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस ने भाग लिया। कुल 11 प्राँतों में से 5 प्राँतों में स्पष्ट बहुमत मिला-मद्रास, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्राँत और संयुक्त प्राँत। इसके अतिरिक्त बॉम्बे में लगभग स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। 482 मुस्लिम सीटों में कांग्रेस ने 58 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिनमें उसे 26 सीटों पर विजय हासिल हुई।
- पश्चिमोत्तर सीमा प्राँत में लीग एक भी सीट नहीं पा सकी थीं और वह पंजाब के 84 आरक्षित चुनाव क्षेत्रों में से केवल 2 और सिंध के 33 में से केवल तीन स्थानों पर ही विजय प्राप्त कर सकी।
- अनुसूचित जातियों की अधिकाँश सीटें भी कांग्रेस ने जीत ली थी, सिवाय बंबई के जहाँ अम्बेडकर की इंडिपेडेंट लेबर पार्टी ने हरिजनों के लिये आरक्षित 15 में से 13 सीटें जीत ली थीं।
- चुनावों में कांग्रेस की सफलता ने उसकी स्थिति मजबूत कर दी थी और शीघ्र ही कांग्रेस पर मंत्रिमंडल गठित करने के लिये दबाव पड़ने लगा। मार्च 1937 सी.ई. में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में राजेन्द्र प्रसाद और पटेल ने सशर्त पद ग्रहण करने के संबंध में एक प्रस्ताव रखा।
- शर्त यह थी कि प्राँत में कांग्रेस असेंबली पार्टी के नेता संतुष्ट हो और सरकार सार्वजनिक रूप से वक्तव्य दे सकें कि गवर्नर अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग नहीं करेगा।
- जयप्रकाश के नेतृत्व में वामपंथ का यह संशोधन कि पद ग्रहण करने की बात पूर्णतः अस्वीकार की जाये 78 के मुकाबले 135 मतों से पराजित हो गया। वायसराय लिनलिथगो के निजी सचिव को लिखे गए एक पत्र में बिड़ला ने कांग्रेस के दक्षिण पंथ की इस विजय को महान विजय कहकर इसका स्वागत किया।
- यद्यपि लिनलिथगो ने सार्वजनिक रूप से यह आश्वासन देना स्वीकार नहीं किया कि गवर्नर अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे लेकिन ऐसा संकेत दिया कि इन प्रावधानों का दुरुपयोग नहीं होगा।
- जुलाई 1937 सी.ई. तक गाँधी जी ने सरकार बनाने का निश्चय कर लिया और महादेव देसाई ने 16 जुलाई को बिड़ला को सूचित किया कि जवाहर लाल नेहरू को गाँधी जी को मनाने का श्रेय दिया जाना चाहिए।
- कांग्रेस की वर्किंग कमेटी एक सप्ताह पूर्व ही पद ग्रहण करने की अनुमति इस आधार पर दे चुकी थी कि यद्यपि ब्रिटिश सरकार की ओर से संतोषजनक आश्वासन नहीं मिला है फिर भी जैसी स्थिति है- उसमें यह विश्वास किया जा सकता है कि गवर्नरों के लिये अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग करना सरल नहीं होगा।
- सत्ता ग्रहण के पहले दौर में संयुक्त प्राँत, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्राँत, बंबई और मद्रास में कांग्रेसी मंत्रिमण्डल ने अपना पदभार संभाला। कुछ महीनों पश्चात पश्चिमोत्तर सीमा प्राँत में भी कांग्रेसी सरकार ने पदभार ग्रहण किया। बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी के फजलूल हक ने पहले कांग्रेस को गठबंधन सरकार बनाने का प्रस्ताव दिया परंतु कांग्रेस के इंकार करने पर मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बना ली।
- कांग्रेस आला कमान ने प्राँतीय प्रधानमंत्रियों के दिशा निर्देश और इनमें आपस में तालमेल कायम रखने के लिए, साथ ही इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि कांग्रेस की प्राँतीयकरण करने की अंग्रेजों की मंशा पूरी न हो सके, एक केन्द्रीय नियंत्रण परिषद गठित की। इसको संसदीय उप समिति का नाम दिया गया। इसके सदस्य थेµ
- सरदार पटेल, मौलाना आजाद तथा राजेन्द्र प्रसाद। कांग्रेस ने अपने शासन के 28 माह में अपने घोषणापत्र में किए गए वायदे को निभाने का प्रयत्न किया।
- प्राँतीय सरकारों ने 1932 सी.ई. में जितने भी आपातकालीन अधिकार जनसुरक्षा अधिनियम के तहत प्राँत किये थे उनको रद्द कर दिया गया। हिन्दुस्तानी सेवा दल तथा यूथ लीग जैसे गैर-कानूनी घोषित किये गए संगठनों तथा पुस्तकों और पत्र पत्रिकाओं से प्रतिबंध जारी रहा क्योंकि यह केन्द्र सरकार द्वारा लगाया गया था।
- प्रेस तथा समाचारपत्रों से जमानत के तौर पर जो धन लिया गया था उसे वापस कर दिया गया तथा सरकार की ओर से उन पर जो मुकदमे लादे गए थे उन्हें वापस ले लिया गया।
- इन सभी कार्यों के मध्य कांग्रेसी शासन के कुछ काले धब्बे भी है। उदाहरण के लिए जुलाई 1938 सी.ई. में एक उत्तेजक भाषण देने के अपराध में समाजवादी नेता युसूफ मेहन अली को मद्रास सरकार ने गिरफ्तार कर लिया यद्यपि जल्दी ही उन्हें रिहा भी कर दिया गया।
- अक्टूबर 1937 सी.ई. में मद्रास सरकार ने ही समाजवादी कांग्रेसी नेता एस. एस. वाटलीवाला को राजद्रोहात्मक भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया।
- बंबई के तत्कालीन गृहमंत्री के. एम. मुंशी ने कम्युनिस्ट तथा वामपंथी कांग्रेसियों पर निगाह रखने के लिए खुफिया विभाग का उपयोग किया।
- कांग्रेसी सरकार जमींदारी प्रथा को खत्म करने का कोई प्रस्ताव नहीं लाई तथापि संयुक्त प्राँत में 1939 सी.ई. में काश्तकारी अधिनियम पारित किया गया। इसमें आगरा तथा अवध दोनों ही प्राँतों के काश्तकारों को जोतों के लिए पुस्तैनी अधिकार दिए गए जबकि जमींदारों से बेदखली के अधिकार छीन लिए गए।
- बिहार में नया काश्तकारी कानून मुख्यतः 1937-38 सी.ई. में ही पारित हो गया था परंतु यहाँ इसके लिए किसान सभा को विश्वास में नहीं लिया गया।
- इस कानून के अनुसार 1911 सी.ई. के पश्चात लगान में की गई सारी बढ़ोत्तरी समाप्त कर दी गई तथा लगान की मौजूदा बकाया राशि काफी कम कर दी गई और इस बकाया राशि पर लगाए गए ब्याज की दर 5 प्रतिशत से घटकर 6.25 प्रतिशत कर दी गई।
- उड़ीसा में 1938 सी.ई. में एक एक काश्तकारी विधेयक लाया गया इसमें जोत के स्वामित्व हस्तांतरण का अधिकार दिया गया था। बकाया लगान की ब्याज की दर 6 प्रतिशत कर दी गई तथा काश्तकारों से सभी गैर कानूनी वसूली पर रोक लगा दी गई।
- मद्रास के तत्कालीन राजस्व मंत्री टी. प्रकाशम की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई जिसने यह सिफारिश की कि स्थाई बन्दोबस्त वाले इलाकों में जमीन पर मालिकाना हक रैय्यत का होना चाहिए।
- बंबई में तकरीबन 40000 भू-दासों को दुबला हाली प्रथा से मुक्त कराया गया। श्रमिकों के कल्याण के लिए बंबई सरकार ने 1939 सी.ई. में औद्योगिक विवाद विधेयक पारित किया।
- 1938 में हुए एक श्रमिक हड़ताल के पश्चात राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में सरकार ने एक श्रम जाँच समिति नियुक्त की। इस समिति ने सिफारिश की कि मजदूरों का न्यूनतम वेतन 15 रुपये मासिक होना चाहिए। इसी प्रकार की एक जाँच समिति राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में ही बिहार में 1938 सी.ई. में स्थापित की गई। इस समिति ने भी ट्रेड यूनियन अधिकारों को सुदृढ़ करके श्रमिकों को हालत सुधारने तथा हड़ताल की घोषणा के पहले अनिवार्य समझौता वार्ता चलाने और मध्यस्थता की सिफारिश की थी।
- कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने 1938 में राष्ट्रीय योजना समिति नियुक्त की थी। इसके माध्यम से कांग्रेस सरकारों ने योजना के विकास में हाथ बँटाने के प्रयास किए। कांग्रेस ने रास बिहारी बोस, पृथ्वी सिंह, मौलवी अब्दुल्ला खान, अबाली मुखर्जी आदि राजनीतिक निर्वासितों के भारत आने पर लगे प्रतिबंधों को हटाने की भी कोशिश की परंतु सफल नहीं रही।
- प्राँतों में कांग्रेस सरकार के समूचे कार्यकाल में मुस्लिम लीग उसके विरुद्ध प्रचार अभियान चलाती रही जिसका उत्कर्ष
- ‘पीरपुर रिपोर्ट’ (1938), बिहार पर ‘शरीफ रिपोर्ट’ (मार्च 1939) तथा फजलुल हक की ‘मुस्लिम सफरिंग अंडर कांग्रेस रूल रिपोर्ट’ (दिसंबर 1939) में देखने को मिलता है।
- लीग ने आरोप लगाया कि कांग्रेसी सरकार सांप्रदायिक दंगों को रोकने में असफल रही है एवं बकरीद पर गोकुशी पर स्थानीय निषेध, सार्वजनिक अवसरों पर मूर्तिपूजामूलक पदों सहित वंदेमातरम का गायन तथा उर्दू को प्रोत्साहन देती रही है। परंतु लीग नेताओं ने कांग्रेस के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि इन आरोपों की जाँच मुख्य न्यायधीश मॉरिश ग्वायर से कराई जाये।
- वर्धा की बेसिक शिक्षा नीति को भी मुस्लिम लीग ने अत्यधिक हिंदूवादी कह कर अस्वीकार कर दिया। ज्ञातव्य हो कि हिंदू महासभा ने इसलिए इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया था कि यह अत्यधिक मुस्लिम परस्त है तथा इसमें उर्दू को भी शामिल किया गया है।
- अक्टूबर 1939 को जिस दिन कांग्रेसी सरकार ने त्यागपत्र दिया था उस दिन को मुस्लिम लीग ने मुक्ति दिवस के रूप में मनाया। मुस्लिम लीग के साथ अम्बेडकर और उनकी पार्टी ने भी मुक्ति दिवस मनाने में सहयोग दिया।
- 1938 में राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल एवं जे. वी. कृपलानी जैसे नेताओं ने ट्रेड यूनियन पर कांग्रेस की पकड़ बनाने के लिए हिन्दुस्तान मजदूर सभा की स्थापना की। दिसंबर 1938 में कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने हिंदू महासभा की सदस्यता को कांग्रेस में बने रहने के लिये अयोग्यता के दायरे में ला दिया।
- इसी तरह किसान सभाओं पर साम्यवादियों के अधिकाधिक बढ़ते प्रभावों को कम करने के लिए बिहार के चंपारण, सारण तथा मुंगेर के जिला कांग्रेस कमेटियों ने 1937 के अंतिम दिनों में सहजानंद की सभाओं में कांग्रेसियों के भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया।
द्वितीय विश्व युद्ध एवं कांग्रेस
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के अंतर्गत 1 सितंबर, 1939 सी.ई. को द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया, ब्रिटेन 3 सितंबर, 1939 सी.ई. को इसमें शामिल हो गया। 5 सितंबर, को ब्रिटेन ने भारत को युद्धरत राष्ट्र घोषित कर दिया। भारतीय नेताओं को इस बात पर गहरी आपत्ति थी।
- कांग्रेस के नेताओं का मानना था कि भारत एक ही स्थिति में इस युद्ध का समर्थन कर सकता है कि युद्ध के बाद एक संविधान सभा के गठन का प्रावधान हो और वर्तमान में केन्द्र में उत्तरदायी सरकार जैसी कोई चीज हो। इनका यह भी कहना था कि भारतीय जनमत को युद्ध के पक्ष में करने के लिए यह आवश्यक है।
- वॉयसराय ने इस पर कोई आश्वासन नहीं दिया। अंत में कांग्रेस की सरकारों ने इस्तीफा दे दिया। उस समय तक कांग्रेस दिगभ्रमित थी कि कौन सा कदम उठाया जाए क्योंकि गाँधी और नेहरू फासीवाद के विरुद्ध ब्रिटिश का समर्थन करना चाहते थे।
- दूसरी तरफ ब्रिटिश सरकार किसी तरह की रियायत देना नहीं चाहती थी। इसलिए समझौता लगभग असंभव दिखाई दे रहा था।
- 8 अगस्त 1940 सी.ई. को तात्कालिक वॉयसराय लार्ड लिनलिथगो ने अगस्त प्रस्ताव की उद्घोषणा की।
अगस्त प्रस्ताव
- इस प्रस्ताव के अनुसार युद्ध के पश्चात एक संवैधानिक निकाय स्थापित होना था। किंतु इनका अनुमोदन ब्रिटिश पार्लियामेंट के द्वारा होना था और युद्ध के मध्य भारत की सुरक्षा के मामलों पर परामर्श देने के लिए भारतीयों द्वारा निर्मित परिषद की बात की गई। उसी आधार पर 1941 सी.ई. में वॉयसराय की कौंसिल में भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी।
- पहली बार इसमें भारतीयों का बहुमत रखा गया क्योंकि 12 में आठ पदों पर भारतीयों को नियुक्त किया गया किंतु प्रतिरक्षा, एवं गृह विभाग गोरों के अधीन ही रहे और एक भारतीय प्रतिरक्षा, परिषद का गठन किया गया। यह परिषद सिर्फ सलाहकारी कार्य करती थी।
- कांग्रेस अगस्त प्रस्ताव से संतुष्ट नहीं थी। ऐसी स्थिति में रामगढ़ कांग्रेस (मार्च 1940) में कांग्रेस संगठन के इस योग्य होते ही सविनय आंदोलन छेड़ने की स्वीकृति दी गई जो आवश्यक रूप से गाँधी जी के पहलकदमों पर निर्भर होती।
व्यक्तिगत सत्याग्रह–1940
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के अंतर्गत अक्टूबर 1940 सी.ई. में गाँधी जी ने व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ किया। इस सत्याग्रह के लिए प्रथम व्यक्ति के रूप में आचार्य विनोवा भावे को चुना गया जबकि उनकी गिरफ़्तारी के पश्चात दूसरे एवं तीसरे सत्याग्रह के रूप में जवाहर लाल नेहरू एवं सरदार पटेल का चयन किया गया था। परंतु इन दोनों को पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया।
- इस आंदोलन में भाषण की स्वतंत्रता अथवा सार्वजनिक रूप से युद्ध विरोधी बातें कहने का मुद्दा बनाया गया था। इस आंदोलन का लक्ष्य था उस युद्ध के प्रति वैमनश्य प्रदर्शित करना जो भारतीयों की सहमति के बगैर लड़ा जा रहा था।
- आचार्य विनोवा भावे ने वर्धा के निकट पवनार में 17 अक्टूबर 1940 सी.ई. को इस आंदोलन की शुरुआत की। इस आंदोलन को क्रिसमस एवं रविवार को स्थगित रखा जाता था तथा सुबह 9 बजे से पहले कोई आंदोलन शुरू नहीं किया जाता था।
- इस सत्याग्रह को शुरू करने से पहले वहाँ के जिला मजिस्टेªट को स्थान एवं समय के संबंध में सूचना दे दी जाती थी। सत्याग्रही जब मंच पर आते थे तो लोग उन्हें इस तरह से घेर लेते थे कि गिरफ़्तारी तक युद्ध विरोधी भाषण समाप्त हो चुका होता था।
- जिन सत्याग्रहियों काे गिरफ्तार नहीं किया जाता था वे गाँवों की ओर चल देते और अपना संदेश फैलाते हुए दिल्ली की ओर बढ़ने की कोशिश करते थे। इस वजह से इस आंदोलन को दिल्ली चलो आंदोलन भी कहा गया है।
- उधर युद्ध में मित्र राष्ट्रों की स्थिति कमजोर होती जा रही थी। हिटलर ने पश्चिमी मोर्चे को तोड़ दिया था और तमाम प्रयासों के बावजूद फ्राँस और बेल्जियम को नहीं बचाया जा सका।
- दूसरी तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल पर इस बात का दबाव डाल रहा था कि भारतीयों से कोई समझौता करे साथ ही दक्षिण पूर्व एशिया पर जापानी खतरा मंडरा रहा था।
- ऐसी स्थिति में कांग्रेस से एक समझौता अनिवार्य हो गया। अतः मार्च 1942 सी.ई. में स्टेफोर्ड क्रिप्स की अध्यक्षता में एक कमीशन भेजा गया।
क्रिप्समिशन (मार्च, 1942)
- एक कमीशन ने निम्नलिखित प्रस्ताव प्रस्तुत कियाः
- युद्ध के बाद एक संविधान निकाय की स्थापना की जाएगी।
- इस संविधान निकाय के सदस्यों का निर्वाचन प्राँतीय परिषदों से अप्र्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति के अनुसार होगा और जो प्राँत इससे सहमत नहीं होगा उसे अपना पृथक संविधान बनाने का अधिकार दिया जाएगा।
- भारत के सभी दलों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। लीग ने भी इसे अस्वीकृत कर दिया क्योंकि पाकिस्तान से कम के लिए तैयार नहीं थी। दूसरी तरफ कांग्रेस ने भी इसे अस्वीकृत किया क्योंकि वह इससे भावी पाकिस्तान की गंध आ रही थी। गाँधी ने इसे पोस्ट डेटेड चेक कहाँ बाद के किसी विद्वान ने इसमें दिवालिया बैंक जोड़ दिया।
- एस. गोपाल ने क्रिप्स घोषणापत्र को मूलतः अनुरक्षणवादी, प्रतिक्रिया और सीमित प्रस्ताव की संज्ञा दी है। लार्ड एमरी ने जो उस समय भारत सचिव थे, भी इस प्रस्ताव को रूढि़वादी, प्रतिक्रियावादी तथा संकुचित कहाँ
- क्रिप्स प्रस्ताव ने अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान बनने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके प्रस्ताव की एक धारा को लोकल ऑप्सन (स्थानीय विकल्प) के रूप में जाना जाता है।
- इसके अनुसार प्राँतों को यह अधिकार दिया गया कि भविष्य में वे अपनी स्थिति निर्धारित करने के लिए ब्रिटेन से सीधा समझौता कर सकते हैं तथा भविष्य में बनने वाले नये संविधान को अस्वीकार भी कर सकते हैं।
भारत छोड़ो आन्दोलन
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के अंतर्गत द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के पश्चात तक सरकार एवं कांग्रेस के मध्य कोई समझौता नहीं हो सका। अंततः कांग्रेस ने एक ठोस आंदोलन करने का निर्णय लिया। गाँधी जी को भी लगने लगा कि अब देर करना उचित नहीं है।
- उन्होंने कांग्रेस को यह चुनौती भी दे डाली कि अगर उसने संघर्ष का उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया तो मैं देश की बालू से ही कांग्रेस से भी बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दूंगा।
- नतीजतन कांग्रेस व कार्यसमिति ने वर्धा की अपनी बैठक (14 जुलाई 1942 सी.ई.) में संघर्ष के निर्णय को अपनी स्वीकृति दे दी जिसमें गाँधी जी को आन्दोलन छेड़ने के लिए अधिकृत किया गया।
- इस समय कांग्रेस के अंदर एक गुट ऐसा भी था जो शासन को सहयोग करने का पक्षधर था। उदाहरण के लिये राजगोपालाचारी और मद्रास के कुछ कांग्रेसियों ने एक प्रस्ताव पारित करवाने का प्रयास किया जिसमें कहा गया था कि अगर मद्रास सरकार उन्हें आमंत्रित करती है तो कांग्रेस को वहाँ मंत्रिमंडल गठित करना चाहिए।
- राजगोपालाचारी 1942 सी.ई. के आरंभ से ही मुस्लिम लीग के साथ थोड़ा समझौता किये जाने की आवश्यकता पर बल दे रहे थे।
- इसके लिए स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात जनमत संग्रह के आधार पर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के अलहदगी के अधिकार को मान्यता दिये जाने की बात कही गई थी।
- एक अन्य गठजोड़ के तहत कम्युनिस्टों ने भी कुछ ऐसा ही रास्ता अपनाया जब उन्होंने बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में मुस्लिम लीग के साथ इस आधार पर संयुक्त मोर्चा बनाए जाने की हिमायत की थी कि जनंसख्या के किसी भी कमोवेश संभागीय हिस्से को अलहदगी का अधिकार हो।
- जवाहर लाल नेहरू भी फासीवादी शक्तियों के विरुद्ध हो रहे युद्ध के संबंध में कुछ संशय में थे परंतु अंत तक उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पेश किया जिसके विरोध में मात्र कम्युनिस्ट खड़े थे क्योंकि राजगपोलाचारी एवं भूला भाई देसाई पहले ही त्यागपत्र दे चुके थे।
- 8 अगस्त 1942 सी.ई. को इस प्रस्ताव के अनुमोदन के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक बंबई के ग्वालियर टैंक के मैदान में हुई। इस बैठक को जनता का अपार समर्थन मिला।
- इसी सभा में गाँधी जी ने अपना प्रख्यात भाषण दिया जिसमें उन्होंने कहा कि अब कांग्रेस सरकार के उस किसी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेगी जो पूर्ण स्वराज से कम होगी। उन्होंने भावुक स्वर में कहा कि अब जेल भरने मात्र से काम नहीं चलेगा। अब एक मात्र मंत्र बचा है-करो या मरो। इसे आप अपने हृदय में अंकित कर सकते हैं तथा सांस-सांस द्वारा व्यक्त कर सकते हैं कि या तो हम भारत को आजाद कराएंगे अथवा इस प्रयास में अपनी जान को न्यौछावर कर देंगे।
- गाँधी जी के भाषण में विभिन्न वर्गों के लिए साफ-साफ निर्देश दिये गए थेµउन्होंने कहा कि सरकारी कर्मचारी नौकरी न छोड़ें लेकिन कांग्रेस के प्रति अपनी निष्ठा की घोषणा कर दें।
- सैनिक अपने देशवासियों पर गोली चलाने से इंकार कर दें। राजा-महाराजा भारतीय जनता की प्रभुसत्ता स्वीकार करें और उनकी रियासतों में रहने वाली जनता स्वयं को भारतीय राष्ट्र का अंग घोषित कर दें तथा राजाओं का नेतृत्व तभी मंजूर करें जब वे अपना भविष्य जनता के साथ जोड़ लें।
- छात्र पढ़ाई तभी छोड़ें जब आजादी हासिल हो जाने तक अपने इस निर्णय पर दृढ़ रह सकें। किसानों से कहा गया था कि जिनमें साहस हो और जो अपना सब कुछ दाँव पर लगाने को तैयार हों वे मालगुजारी न दें।
- काश्तकारों के लिए संदेश था कि ‘‘कांग्रेस मानती है कि जमीन उनकी हैं जो उसे जोतता है।’’ जहाँ जमींदारी प्रथा है वहाँ जमींदारों को काश्ताकारों का साथ देने के एवज में आपसी रजामंदी से उनका हिस्सा दिया जाना चाहिए और जहाँ साथ नहीं है वहाँ हिस्सा देने की जरूरत नहीं है। इस आंदोलन में कहा गया कि अगर नेता मौजूद न हो तो प्रत्येक स्वयंसेवक अहिंसक ढँग से अपने विवेक के अनुसार कार्य करेगा।
कांग्रेस द्वारा भारत छोड़ों आंदोलन प्रारंभ करने के कारणः
- क्रिप्स मिशन की असफलता ने सिद्ध कर दिया कि अंग्रेज स्वतंत्रता के पक्षधर नहीं हैं।
- युद्ध के कारण बढ़ती कीमत, जरूरी वस्तुओं का अभाव, सिंचाई नहरों और परिवहन के साधनों पर सरकार का जापानी भय से किया गया कब्जा, मलाया एवं वर्मा में भारतीयों की सुरक्षा नहीं करने आदि से उपजा असंतोष प्रमुख था।
- आंदोलन का प्रारंभ एवं प्रसारः कांग्रेस की उपरोक्त घोषणा से सरकार चौकÂी हो गई। सरकार ने उसी रात कांग्रेस के चोटी के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। गाँधी जी को आगा खाँ पैलेस में रखा गया तथा शेष नेताओं को अहमदनगर किले में बंद कर दिया गया। नेताओं की गिरफ़्तारी ने जन आक्रोश की एक अभूतपूर्व एवं देशव्यापी लहर उत्पन्न कर दी। जमें हुए नेताओं की गिरफ़्तारी से नेतृत्व अधिक युवा एवं संघर्षशील लोगों के हाथों में आ गया।
- भारत छोड़ो आंदोलन को स्थूल रूप से तीन चरणों में बाँटा जा सकता है। इनमें से पहला चरण जो भारी एवं हिंसक था, का फैलाव मुख्यतः शहरों में केन्द्रित रहा। 9 से 14 अगस्त तक तूफान का केन्द्र बंबई रहा।
- कलकत्ता में 10 से 17 अगस्त तक हड़तालें रहीं, दिल्ली में अनेक हिंसक झड़पें हुई और अनेक लोग मारे गए। पटना में संचिवालय के सामने झंडा लगाने का प्रयास कर रहे अनेक नौजवानों को गोली मार दी गई। इसके पश्चात पटना शहर में दो दिनों तक कोई कानून व्यवस्था ही नहीं रही।
- दिल्ली में हिंसा मुख्य रूप से हड़ताली मिल मजदूरों के कारण हुई। टाटा का इस्पात कारखाना 20 अगस्त से 13 दिनों के लिए बंद हो गया। हड़ताली मजदूरों का नारा था कि राष्ट्रीय सरकार की स्थापना होने पर ही वे काम पर लौंटेंगे।
- अहमदाबाद की कपड़ा मिले साढ़े तीन महीनों तक बंद रही। इस वजह से अहमदाबाद को भारत के स्टालिनग्राद की संज्ञा दी गई। अगस्त के मध्य में आंदोलन ने अपने दूसरे चरण में प्रवेश किया और इस चरण में आंदेालन का केन्द्र ग्रामीण क्षेत्र हो गया। जुझारू विद्यार्थी बनारस, पटना तथा कटक जैसे केन्द्रों से गाँव की तरफ फैल गए। बिहार के भोजपुर क्षेत्र से यह आंदोलन उत्तर प्रदेश में फैल गया। बनारस में हिंसक गतिविधियाँ तेज हो गई।
- बनारस तथा गाजीपुर में चितु पाण्डे के अधीन समानांतर सरकार स्थापित हुई। चितु पाण्डे अपने को गाँधीवादी कहते थे। उनकी सरकार ने कलक्टर के सारे अधिकार छीन लिए और सभी गिरफ्तार कांग्रेसी नेताओं को रिहा कर दिया। परंतु एक सप्ताह बाद ही यहाँ पर अंग्रेजी सरकार का अधिकार हो गया।
- बंगाल के मिदनापुर जिले के तामलुक नामक स्थान पर 17 दिसंबर 1942 सी.ई. को राष्ट्रीय सरकार (जातीय सरकार) की स्थापना हुई। इसका अस्तित्व सितंबर 1944 सी.ई. तक रहा जातीय सरकार की स्थापना सतीश सांमत के अन्तर्गत की गई।
- इसमें तामलुक क्षेत्र की 73 वर्षीय किसान विधवा मातंगी-हजारा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस जातीय सरकार ने बड़े पैमाने पर तेजी से राहत कार्य चलाए। इस सरकार ने स्कूलों को अनुदान दिया और एक सशस्त्र विद्युत वाहिनी का भी गठन किया।
- आपस में समझौता करने के लिए अदालतें बनाई गई और धनी लोगों का अतिरिक्त धन गरीबों में बाँट दिया गया। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यह सरकार कुछ दिनों तक जीवित रही।
- मिदनापुर से लगे उड़ीसा के बालासोर जिले में कांग्रेस ने नमक के भंडारों को लूटने संचार साधनों को अस्त-व्यस्त करने के कार्यक्रम संगठित किये और खाद्यान्न के भंडारों पर नियंत्रण रखने के लिए गाँवों में स्वराज पँचायत का गठन किया गया।
- सतारा (महाराष्ट्र) की समानांतर सरकार सर्वाधिक दीर्घजीवी साबित हुई। आन्दोलन के पहले चरण में सरकार के स्थानीय मुख्यालयों में हजारों लोगों का जुलूस निकाला गया। इसके पश्चात भीतरघात, डाकघरों पर हमला, बैंकों की लूट आदि का सिलसिला चला। वाई. वी. चौहान यहाँ के सबसे महत्त्वपूर्ण नेता थे। उनका अच्युत पटवर्द्धन तथा अन्य भूमिगत नेताओं से संपर्क था।
- 1943 सी.ई. की शुरुआत से यहाँ आंदोलन ने पुनः जोर पकड़ा तथा छः महीने में पुनः संगठन तैयार कर समानांतर सरकार की स्थापना की गई। इस चरण के महत्वपूर्ण नेता नाना पाटिल थे। इस दौर में सरकार से सहयोग करने वाले लोगों और मुखबिरों तथा छोटे अफसरों पर हमला किया गया तथा बैंक डकैतियाँ की गई। न्याय मंडल अथवा जन अदालतें शुरू की गई।
- शराबबंदी लागू की गई तथा गाँधी विवाहों का आयोजन हुआ जिसमें कोई तड़क-भड़क नहीं होती थी तथा अछूतों को भी आमंत्रित किया जाता था। गाँवों में पुस्तकालय खोले गए और रियासत के राजा ने जिसके राज्य का संविधान गाँधी जी ने तैयार किया था इन सबमें काफी मदद की। सतारा की समांतर सरकार 1945 सी.ई. तक कार्यरत रही।
- भारत छोड़ो आंदोलन सितंबर के आसपास अपने सबसे लंबे किन्तु सबसे कम उग्र चरण में पहुँचा। इस चरण की मुख्य विशेषता थी शिक्षित युवा वर्ग का आतंकवादी गतिविधियों में भाग लेना।
- विशेष रूप से संचार साधन एवं पुलिस और सेना के केन्द्र इनकी कार्यवाहियों के केन्द्र में होते थे जो कभी-कभी छापामार रूप धारण कर लेता था जैसा कि उत्तरी बिहार और नेपाल की सीमा पर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुआ।
- किसानों के अंशकालिक जत्थे दिन में खेती करते थे तथा रात को तोड़-फोड़ की कार्यवाही में भाग लेते थे। इसको कर्नाटक पद्धति के नाम से जाना गया है।
- स्वतंत्रता संघर्ष का तृतीय चरण (Third phase of freedom struggle) के अंतर्गत देश के विभिन्न हिस्सों में भूमिगत आंदोलन का एक संगठनात्मक ढाँचा भी तैयार हो गया था। इसकी बागडोर लोहिया, सुचेता कृपलानी, छोटू भाई पुराणिक, बीजू पटनायक, आर. पी. गोयनका तथा जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं के हाथों में थी।
- बंबई शहर के विभिन्न केन्द्रों से कांग्रेस रेडियो का गुप्त रूप से संचालन किया जाता था। इसके प्रसारणों को मद्रास तक सुना जा सकता था। राम मनोहर लोहिया नियमित रूप से कांग्रेस रेडियो पर बोलते थे। 1 नवंबर 1942 सी.ई. में पुलिस ने इसे खोज निकाला।
- सरकार द्वारा इस आंदोलन के दमन की सारी हदें पार हो गई। 1943 सी.ई. के अंत तक 91,836 लोगों को गिरफ्तार किया गया था जिनमें सबसे अधिक संख्या बंबई प्रेसीडेंसी, संयुक्त प्राँत तथा बिहार में थी। 15 अगस्त को ही लिनलिथगो ने पटना के आसपास संचार साधनों को अस्त-व्यस्त कर रही भीड़ पर आसमान से मशीनगनों द्वारा गोलियाँ बरसाने का आदेश दिया।
- बिहार में भागलपुर और मुंगेर, बंगाल में तामलुक तथा नादिया एवं उड़ीसा में तलचर में भी आन्दोलन को दबाने के लिए वायुयान का प्रयोग किया गया।
- इस आन्दोलन में युवा वर्ग की व्यापक भागीदारी रही। महिलाओं ने काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई खास तौर से छात्रओं ने।
- अरूणा आसफ अली और सुचेता कृपलानी ने भूमिगत कार्यवाहियों के संगठन का काफी काम किया और उषा मेहता उस छोटे से समूह की अहम सदस्या थी जो कांग्रेस रेडियो चलाता था।
- आंदोलन की खास विशेषता यह रही कि कहीं भी निजी संपत्ति पर आक्रमण नहीं किया गया। यह सच है कि भारत छोड़ों आंदोलन में मुस्लिमों की भागीदारी कम रही लेकिन मुस्लिम लीग के समर्थकों ने भी मुखबरी नहीं की बल्कि जरूरत पड़ने पर भूमिगत कार्यकर्ताओं को शरण ही दी।
- कम्युनिस्ट पार्टी ने इस आन्दोलन का बहिष्कार किया था तथापि स्थानीय स्तरों पर सैकड़ों कम्युनिस्टों ने इसमें हिस्सेदारी की।
- भारत छोड़ों आंदोलन में हुई हिंसा को कांग्रेस ने अपनी जिम्मेदारी नहीं माना। खुद गाँधी जी ने इस आंदोलन में हुई हिंसा की निंदा करने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि यह सत्ता की बड़ी हिंसा का जवाब था।
- फ्रांसिस हचिंस का मानना है कि आमतौर पर प्रारंभ में हिंसा पर गाँधी जी की आपत्ति की एक खास वजह यह भी हुआ करती थी कि इससे जन भागीदारी घटती थी लेकिन 1942 में गाँधी जी ने पाया कि इस बार स्थिति ऐसी नहीं है।
- सरकारी हिंसा के खिलाफ गाँधी जी ने 10 फरवरी 1943 सी.ई. से 21 दिनों का उपवास प्रारम्भ कर दिया। उनके इस निर्णय तथा सरकारी अडि़यल रवैये की वजह से देश में एक बार पुनः असंतोष की लहर दौड़ पड़ी।
- जन सभाएँ कर गाँधी जी की रिहाई की माँग की गई और छात्रों, व्यापारियों, उद्योगपतियों, वकीलों, सामान्य नागरिकों और श्रमिक संगठनों ने इसके विरोध में हजारों चिट्ठियाँ सरकार को भेजी।
- विदेश में न केवल मैनचेस्टर गार्डियन, न्यू स्टेटस मेन नेशन, न्यूज क्रॉनिकल तथा शिकागो सन ने बल्कि ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी, लंदन तथा मानचेस्टर के नागरिकों, वूमैन्स इंटर नेशनल लीग, आस्टेलियन कौंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन तथा सोलोन स्टेट कौंसिल ने भी गाँधी जी को रिहा करने की सलाह दी।
- सरकार की प्रतिष्ठा का आघात सबसे ज्यादा तब लगा जब वायसराय की कार्य परिषद के तीन सदस्य एम. एस. एनी, एन. आर. सरकार तथा एच. पी. मोदी ने इसी सवाल पर त्यागपत्र दे दिया।
- चर्चिल ने घोषणा की कि जब दुनियां में हम हर कहीं जीत रहे हैं तो ऐसे वक्त में हम एक कमबख्त बूढ़े के पास कैसे झुक सकते हैं जो हमेशा हमारा दुश्मन रहा है।
- सरकार ने सेना की टुकडि़यों को किसी भी आपात स्थिति से निबटने के लिए तैयार कर दिया। सार्वजनिक शवयात्र तथा गाँधी जी की भस्म को ले जाने के लिए विमान की व्यवस्था हेतु जैसे उदार प्रावधान किये गए तथा सरकारी कार्यालयों में आधे दिन की छुट्टी की व्यवस्था भी की गई। अंत में गाँधी जी ने जनता की अपील पर स्वयं ही अनशन तोड़ दिया तथा घोषणा की कि अभी जनता को मेरी जरूरत है।